हमारी तटस्थता की शिकार फिल्मों में 'थैंक्स मां' भी है
हमारी तटस्थता की शिकार फिल्मों में 'थैंक्स मां' भी है
♦ शशि भूषण
कभी फिल्म देखना आवारगी हुआ करती थी। लोग पैसे बचाकर फिल्में देखते थे और बदनाम रहते थे। फिल्मी गाने गानेवाले नौजवानों को लड़कियां पसंद करती थीं, लेकिन उनके साथ उठना-बैठना मंजूर नहीं करती थीं। आज जब किसी को सिर्फ शौक के लिए फिल्में देखने को भागते, लंबी लाइन में घंटे भर खिसकते देखता हूं, तो मन लगाव से भर जाता है। कोई बौद्धिकता नहीं, कोई दावा नहीं। फिल्में देखनी है कि देखे बिना नहीं रह सकते। अकेले देखने से सख्त गुरेज। जो ज्ञान के लिए फिल्में देखें, वे चूतिया।
हिंदी में शानदार फिल्मों की कमी नहीं। ऐसी दर्जनों फिल्में हैं, जिनमें आंदोलित करने की क्षमता है। वे हमारे भीतर की जड़ताएं तोड़ने में सक्षम हैं। जो चुपचाप अपना काम करती रहती हैं। तमाम भुलावों और भव्य विज्ञापनों को छोड़ कर हम ऐसी फिल्मों की शरण में जाते हैं। वे हमें बिना शर्त अपनी गोद ले लेती हैं। हम उनकी करुणा में भीग भीग जाते हैं। उनके क्रोध में जबड़े भींच लेते हैं। वे हमें हंसना-रोना-लड़ना-प्यार करना और अपना हक लेना सिखाती हैं। लेकिन देखने में यह आता है कि हमारा समाज ऐसी परिवर्तनकामी, सच्ची फिल्मों का साथ नहीं देता। जिनके ऊपर ऐसी फिल्मों को प्रकाश में लाने की सामर्थ्य और जिम्मेदारी है, वे कृपण हो जाते हैं। ऐसी फिल्मों के अभिनेता स्टार नहीं कहलाते। इनके निर्देशक वाजिब पहचान नहीं पाते। जैसा कि जीवन में होता है, लोग ईमानदारों को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं, ये फिल्में भी हमारी तटस्थता की शिकार हो जाती हैं। जबकि होना यह चाहिए कि बिना किसी गुणा भाग के सहज फिल्मों को प्रश्रय मिले। उनके पक्ष में अच्छा माहौल बने। वे लोगों तक बार-बार पहुंचें।
ये बातें मैं एक खास फिल्म को ध्यान में रखकर कह रहा हूं। फिल्म का नाम है, थैंक्स मां। आपमें से अधिकांश ने, जो फिल्मों पर पढ़ने के आदी होंगे, यह फिल्म जरूर देखी होगी। इरफान कमाल की यह पहली फिल्म मार्च 2010 के पहले सप्ताह में रिलीज हुई थी। यू/ए सर्टिफिकेट के साथ। हालांकि यह फिल्म शिशुओं पर है और मुख्य कलाकार भी बच्चे ही हैं इसमें। रघुवीर यादव, जो फिल्म की कहानी के केंद्र एक अस्पताल में गार्ड की यादगार भूमिका में हैं, को छोड़ दिया जाए, तो एक भी जाना-माना नाम बड़ी भूमिका में नहीं है इस फिल्म में।
फिल्म शुरू होती है रेलवे प्लेटफार्म के एक दृश्य से। एक बच्ची जिस पर से मां-बाप की नजर अभी-अभी हटी है, पटरी की ओर बढ़ रही है। सीटी बजाती ट्रेन प्लेटफार्म में लगने ही वाली है। यात्रियों की भीड़ आ-जा रही है, पर किसी को बच्ची की परवाह नहीं है। वह तेजी से घुटनों के बल ट्रेन की तरफ जा रही है। यह दृश्य पूरा होते-होते कलेजा मुंह को आता है कि बच्ची पटरियों पर अब गिरेगी और ट्रेन आ जाएगी। नसीब की बात मां की नजर उस पर पड़ जाती है। वह बदहवास दौड़कर बच्ची को मौत के मुंह से खींच लेती है। स्क्रीन पर दो शब्द उभरते हैं, थैंक्स मां… और फिल्म शुरू होती है।
फिल्म का नायक है दस-बारह साल का बच्चा मुनिसपल्टी। उसके साथी हैं सोडा मास्टर, कटिंग, डेढ़ शाणा और सुरसुरी। ये सब चोर हैं, मवाली हैं, प्लेटफार्म पर जेबें काटते हैं, सामान छीनकर भागते हैं। परस्पर दोस्तनुमा दुश्मन और दुश्मननुमा दोस्त हैं। मुनिसपल्टी के नामकरण की कहानी यह है कि उसकी मां उसे म्यूनिसपैल्टी के अस्पताल में छोड़ गयी थी इसलिए वह मुनिसपल्टी है। वह अक्सर उस अस्पताल में गार्ड के लिए शराब की रिश्वत लेकर इस उम्मीद में जाता है कि उसकी मां उसे खोजते अस्पताल जब आएगी, तो गार्ड उसे मां से मिला देगा। अपनी मां से मिलना मुनिसपल्टी का सबसे बड़ा सपना है। इसी सपने के साथ रोजी-रोटी के अधम प्रयास में एक दिन उसे पुलिस पकड़ ले जाती है। वह बाल सुधारगृह पहुंचा दिया जाता है। वहां उसका सामना एक अधिकारी से होता है, जो उसे नहा धो लेने को साबुन देता है। उसके इरादे मुनिसपल्टी भांप लेता है। वह खुद को छुड़ाता हुआ वहां से भागता है। रात में मुनिसपल्टी छत से कूदकर भागने की जुगत में है तो क्या देखता है कि एक कुत्ता है जो कपड़े में लिपटे शिशु को सूंघ रहा है और भौंक रहा है। एक टैक्सी में कोई औरत अभी अभी बैठकर जा रही है। मुनिसपल्टी कुत्ते को भगाकर शिशु को सीने से चिपटा लेता है। टैक्सी नजरों से ओझल हो जाती है।
सही मायने में फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होती है। मुनिसपल्टी शिशु का नाम रखता है कृष्ण। वह उसकी मां को खोज रहा है। वह उसे चर्च के अनाथालय में नहीं देना चाहता। हिजड़ों के यहां से भी भाग आता है। वह तय करता है कि शिशु की पहचान छिन जाए, इससे अच्छा होगा जब तक मां नहीं मिल जाती मैं ही देखभाल करूं।
उसकी खोज के दौरान वेश्या आती है जिसने इस शिशु को खरीदकर छोड़ दिया था। क्योंकि यह लड़का था। बुढ़ापे में उसका दलाल हो सकता था।
एक दिन मुनिसपल्टी अस्पताल प्रबंधन की चालाकी भेदकर और पादरी की मदद से कृष्ण की मां को खोज लेता है। लेकिन जब वह कृष्ण की मां से मिलता है, तो उसकी मां पर से श्रद्धा ही मिट जाती है। कृष्ण की मां का गर्भ उसके पिता का था। इस कारण वह कृष्ण को स्वीकार नहीं सकती। हारा हुआ मुनिसपल्टी जो बकौल पादरी चोर है और जीवन में पहली बार किसी की चीज लौटाना चाहता है बच्चे को बाहों में लिये सड़क में आता है, तो एक कार अचानक दबाये गये ब्रेक के कारण उसके पास रुकती है। वह कार में बैठी हुई औरत को देखता है। अगले पल उसकी नजर एक बड़े होर्डिंग पर लगे पोस्टर पर जाती है। दोनों एक ही हैं। वह चल देता है कि तभी छोटा बच्चा देखकर औरत मुनिसपल्टी को रुपये देने के लिए हाथ बढ़ाती है। वह इंकार के साथ आगे बढ़ जाता है। मुनिसपल्टी हारकर अनाथालय में जाता है और बच्चे के मां-बाप के रूप में अपना नाम लिखने को कहता है।
वह फिल्म के आखिर में अस्पताल पहुंचता है। आज भी उसके हाथ में गार्ड के लिए शराब है। गार्ड कहता है तेरी मां कभी नहीं आएगी। मुनिसपल्टी उठते हुए कहता है लेकिन मैं आता रहूंगा। वह धीरे धीरे चला जाता है। गार्ड शराब की बोतल पटक देता है। फिल्म के बिल्कुल आखिरी दृश्य में वही औरत कार से अस्पताल के परिसर में उतरती है, जो मुनिसपल्टी को रास्ते में मिली थी, जिससे पैसे लेने से उसने इंकार कर दिया था, जो उसकी मां है।
यह संक्षेप में फिल्म की कहानी का ढांचा है। फिल्म के दृश्य और संवाद जो कहानी बयान करते हैं, उसे देखकर ही जाना जा सकता है। इस फिल्म के संवाद उस जीवन में ले जाते हैं हमें, जिससे हम स्लमडॉग मिलेनियर या सलाम बांबे जैसी फिल्मों के माध्यम से परिचित होने का दावा कर सकते हैं।
थैंक्स मां शिशुओं को फेंकने से लेकर उनकी खरीद फरोख्त और हत्याओं तक की अनगिन दारुण गाथाओं को हमारे सामने उजागर कर देती है। यह फिल्म दिखाती है कि भारतीय समाज में शिशुओं के साथ हो रहे अन्याय की कितनी वजहें छुपी हैं और रोज पनपती रहती हैं। यदि इस कथा शृंखला को देखें, जिसमें एक स्त्री अस्पताल में अपने पिता से मिला जीवित शिशु छोड़कर आती है। उसे अस्पताल का पेशेवर चोर वेश्या को बेच देता है। वेश्या उसे इसलिए नहीं पालना चाहती क्योंकि वह लड़का है। एक बारह साल का बच्चा जो खुद अनाथ और चोर है लेकिन उस बच्चे को मां तक पहुंचाना और एक मुकम्मल पहचान के साथ बड़ा होता देखना चाहता है, तो लिंग परीक्षण के पश्चात मारे जाने वाले कन्या भ्रूणों की त्रासदी घोर सामाजिक ताने-बाने की केवल एक पहलू दिखाई देगी। भारतीय समाज अपनी जिस संरचनागत हत्यारी प्रविधि में है, उसे चंद सरकारी और एनजीओ संचालित जागरुकताएं नहीं बदल पाएंगी।
थैंक्स मां हमारे समय की एक ऐसी फिल्म है, जो बड़े सिनेमाघरों में मंहगे पॉपकॉर्न और अंग्रेजी बोलते वेटरों के अनुरोध के साथ व्यापक पैमाने पर नहीं देखी जा सकी। यद्यपि इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रशंसाएं बटोरी, सम्मान बटोरे। लेकिन यह भी फिल्म ही है और जब भी किसी सहृदय के द्वारा देखी जाएगी, उसे झकझोर कर रख देगी।
मुझे यकीन है, आपने ऊपर मेरा यह लिखा पढ़ चुकने के बाद सारी स्थितियों का आकलन कर ही लिया होगा। लेकिन सवाल यह नहीं है कि इस फिल्म पर मैंने कितने फिल्म संबंधी तकनीकि पहलुओं से विचार किया है। कलात्मक पैमानों पर इसे कसने में कितना सफल रहा हूं। या यह फिल्म बाकी फिल्मों की तुलना में कितनी उत्कृष्ट है। साथियो, मुद्दा यह है कि यह फिल्म बड़े पैमाने पर क्यों नहीं देखी जा सकी। इसे यदि बच्चों को दिखाना हो, तो किस तर्क से दिखाया जाए, उन्हें किस तरह से तैयार किया जाए पहले कि वे सार को पकड़ सकें? क्योंकि इस फिल्म में गालियां हैं। बड़े तीखे हर किस्म के नग्न यथार्थ हैं लेकिन इन सबके बावजूद मैं समझता हूं, यह बूट पालिश या सन आफ इंडिया जैसी फिल्मों से बच्चों के लिए अधिक जरूरी है। ऐसी फिल्में जो जनमानस की समझ बढ़ाती हों, उपेक्षा के साथ साथ अपेक्षित मानसिक दशा के अभाव की शिकार क्यों हो रही हैं?
(शशिभूषण। कवि-कथाकार। आकाशवाणी रीवा में क़रीब चार साल तक आकस्मिक उदघोषक रहे। बाद में यूजीसी की रिसर्च फेलोशिप भी मिली। फ़िलहाल नागालैंड के दिमापुर जिले में हिंदी की अध्यापकी। gshashibhooshan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
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