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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, December 19, 2011

अदम गोंडवी का निधन: एक श्रद्धांजलि

अदम गोंडवी का निधन: एक श्रद्धांजलि

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये / अदम गोंडवी

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.

आदिवासी शायर अदम गोंडवी का निधन
Sunday, 18 December 2011 at 09:31 PM 
By | Source Agency

 

लखनऊ . आदिवासी शायर अदम गोंडवी का रविवार सुबह लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया। वह 64 साल के थे।अस्पताल सूत्रों के अनुसार अदम गोंडवी उदर रोग से पीडि़त थे और गत 12 दिसम्बर को उन्हें यहां भर्ती कराया गया था। 22 अक्टूबर 1947 को जन्मे  गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनके दो  कविता संग्रह धरती की सतह पर और समय से मुठभेड़ बेहद चर्चित  हुए।

अदम गोंडवी

रामनाथ सिंह
Adamgondavi.jpg

जन्म: 22 अक्तूबर 1947 
निधन: 18 दिसंबर 2011

उपनामअदम गोंडवी
जन्म स्थानआटा ग्राम, परसपुर, गोंडा, उत्तर प्रदेश
कुछ प्रमुख
कृतियाँ
धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़
विविध
जीवनीअदम गोंडवी / परिचय
अभी इस पन्ने के लिये छोटा पता नहीं बना है। यदि आप इस पन्ने के लिये ऐसा पता चाहते हैं तो kavitakosh AT gmail DOT com पर सम्पर्क करें।

कविता संग्रह

प्रतिनिधि रचनाएँ

  • आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे / अदम गोंडवी
  • आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी / अदम गोंडवी
  • काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में / अदम गोंडवी
  • किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी / अदम गोंडवी
  • ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में / अदम गोंडवी
  • ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे / अदम गोंडवी
  • घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है / अदम गोंडवी
  • चाँद है ज़ेरे क़दम, सूरज खिलौना हो गया / अदम गोंडवी
  • जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है / अदम गोंडवी
  • जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये / अदम गोंडवी
  • जुल्फ अँगड़ाई तबस्सुम चाँद आइना गुलाब / अदम गोंडवी
  • जो उलझ कर रह गई है / अदम गौंडवी
  • जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में / अदम गोंडवी
  • जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे / अदम गोंडवी
  • तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है / अदम गोंडवी
  • न महलों की बुलन्दी से , न लफ़्ज़ों के नगीने से / अदम गोंडवी
  • बज़ाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है / अदम गोंडवी
  • बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है / अदम गोंडवी
  • बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को / अदम गोंडवी
  • भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है / अदम गोंडवी
  • भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो / अदम गोंडवी
  • मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की / अदम गोंडवी
  • मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको / अदम गोंडवी
  • विगट बाढ़ की करुण कहानी / अदम गोंडवी
  • वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं / अदम गोंडवी
  • वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है / अदम गोंडवी
  • हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है / अदम गोंडवी
  • हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये / अदम गोंडवी
  • http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%A6%E0%A4%AE_%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B5%E0%A5%80
  • आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे / अदम गोंडवी

    आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
    अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

    तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
    आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे

    एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
    चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे

    धरती के कागज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी
    कुमार विश्वास, कवि और गीतकार
    First Published:18-12-11 07:40 PM
     ई-मेल Image Loadingप्रिंट  टिप्पणियॉ:(0) अ+ अ-
    अदम गोंडवी एक ऐसी सैर पर निकल गए, जहां बस पुकार पहुंचती है, आकार नहीं। उनकी गजलें हमारे वक्त के अनगाए विक्षोभ की उन तरंगों की तरह थीं, जो चेतना के जमे हुए बेशर्म पानी में असहमति की हिलोर उठाती हैं। असहमति की छटपटाहट और उसकी तल्खियां जब उनके शेरों में पूरी तरह न समा सकीं तो उन्होंने शायद थक-हार कर अमृत-रूप हो जाने से पहले के उस हलाहल में भी शरण पायी, जो देवताओं तक को बरगला देता है।

    शनिवार की सुबह उनके पुत्र से उनका हाल-चाल और आवश्यक सुविधाओं के बारे में जानकारी लेते समय मैंने उसे बड़े भाई की तरह हिदायत दी थी, कि मुझे पता चला है, कि भाई साहब किसी से 'दो बूँद जि़न्दगी की' मांग रहे थे। उसे बहुत चौकन्ना रहने की सलाह देते हुए मैंने कहा था कि वो तुम्हारी ही जि़म्मेदारी नहीं हैं, असहमति में उठे हर हाथ के प्रणाम हैं। उनके स्वास्थ्य में सुधार की खबरें हर पल आती थीं, उम्मीद बांध रही थी कि सब ठीक हो जाएगा। लेकिन दिन निकला तो उनके उठ चलने के शोर के साथ सन्नाटा था... पता नहीं कब हम सब मिल कर अदम साहब के इस शेर को ख़ारिज कर पाएंगे-

    'आप आएं तो कभी गावों की चौपालों में
    मैं रहूँ या न रहूँ, भूख मेजबाँ होगी।' 
    अदम जी के बारे में यह निर्मम समाचार मुझे तब मिला जब मैं अपने गीत-कुल के एक और आदरणीय को अलविदा कह रहा था। धर्मवीर भारती के बाद मेरे सर्वाधिक प्रिय गीतकार थे भारत भूषण यानी भारत दादा। भौगोलिक सीमाएं, कला-चेतना को कभी कभी बाँधने की बजाए विस्तृत भी करती है, ये मुझे तब पता चला जब मेरे मन में भारत दादा के 'अपने जिले' का होने को लेकर एक प्रकार का आत्म-विश्वास जागा। मेरे शुरुआती गीतों में भारती जी के साथ-साथ उनके गीत-बिम्ब तैरते-उतरते साफ़ दिखते हैं। कवि-सम्मेलनों का शुरुआती दौर था।

    क्षेत्रीय कवि-सम्मेलनों की आधी रात की बोझिल पलकों पर जब भारत दादा के गीत अपने मोर-पंखी रंग बिखेरते, तो उनके लाख कहने पर भी, कि 'तू मन अनमना न कर अपना', मन अनमना हो ही जाता था। दर्जनों बार उत्तर-प्रदेश रोडवेज़ की बसों में चार अनगाये गीत उनको सूना दूं, या एक-दो उनके सुन लूं, इसी उम्मीद में अपना और उनका सूटकेस उठाये उनके साथ यात्राएं करता रहा। 1989 के मेरे पहले संयोजन में हुए कवि-सम्मलेन के वे प्रमुख कवि थे। जीवन की कई असंगतियों पर भारत दादा ने गीत मढ़े। जग भर की अपेक्षाओं पर खरे उतरने की दैवीय जद्दो-ज़हद में डूबे राम को अद्भुत जल-समाधि दी। रविवार सुबह-सुबह पता चला कि काल से उनकी ताल असंगत हो गयी। वे पहले ही कह गए थे- 
    'तू मन अनमना न कर अपना
    इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
    धरती के कागज़ पर मेरी
    तस्वीर अधूरी रहनी थी...'
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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    हिंदी कविता संसार की दुनिया में शायद दुष्यंत कुमार के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले  कवी अदम गोंडवी जी की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना. भले सरकारे कितने दावे कर ले... भले लोग समानता की कितनी ही बाते कर ले... जब जब गोंडवी जी की ये रचना पढ़ता हूँ... लगता है आज भी यही हकीकत है हमारे गाँवो की... आज भी यही मानसिकता है हमारे समाज की... पेश है  राम नाथ सिंह ' अदम गोंडवी ' की ये रचना .....

    आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
    मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

    जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
    मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

    है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
    आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

    चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
    मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

    कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
    लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

    कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
    जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

    थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
    सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

    डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
    घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

    आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
    क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

    होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
    मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

    चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
    छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

    दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
    वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

    और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
    होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

    जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
    जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

    बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
    पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

    कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
    कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

    कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
    और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

    बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
    बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

    पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
    वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

    दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
    देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

    क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
    कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

    कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
    सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

    देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
    पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

    जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
    हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

    भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
    फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

    आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
    जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

    वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
    वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

    जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
    हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

    कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
    गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

    बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
    हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

    क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
    हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

    रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
    भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

    सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
    एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

    घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
    "जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

    निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
    एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

    गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
    सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

    "कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
    एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

    होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
    ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

    "मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
    आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

    और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
    बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

    दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
    वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

    घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
    कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

    "कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
    हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

    यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
    आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

    फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
    ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

    इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
    होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

    बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
    होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

    ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
    ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

    पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
    "कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

    उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
    सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

    धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
    प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

    मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
    तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

    गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
    या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

    हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
    बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

    बगावत के शायर अदम गोंडवी आखिर चले ही गये!

    18 DECEMBER 2011 2 COMMENTS
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    आज सुबह पांच बज कर दस मिनट पर जनकवि अदम गोंडवी ने लखनऊ के पीजीआई हॉस्‍पीटल में आखिरी सांसें ले ही लीं। तब, जबकि उनकी सेहत में सुधार की खबरें लगातार आ रही थीं, इस मनहूस खबर ने सबको चौंका दिया है। इस बीच उनकी मदद के लिए आगे आये लोगों का शुक्रिया। कविता कोश पर उनके बारे में चंद वाक्‍य छपे हुए हैं, जो उनके जीवन और उनकी शायरी के बारे में एक संक्षिप्‍त परिचय देते हैं। पढ़िए जरा… मॉडरेटर


    ♦ अदम गोंडवी की कुछ कविताएं यहां पढ़ें:जनता के पास एक ही चारा है बगावत

    ♦ उनके इलाज से जुड़ी दो अलग अलग अपील यहां हैं, जिसका अब शायद कोई मतलब नहीं:अदम जनता के कवि हैं, उन्‍हें बचाने के लिए आगे आएं और अदम गोंडवी को बचाना बगावत की कविता को बचाना है!

    ♦ अदम की बाकी कविताएं यहां पढ़ें:कविताकोश

    22अक्तूबर 1947 को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में "अदम गोंडवी" के नाम से सुविख्यात हुए।

    अदम गोंडवी कबीर की परंपरा के कवि थे। अंतर यही कि अदम ने कागज-कलम छुआ, पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था।

    देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं
    कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गये

    कल तलक जो हाशिये पर भी न आते थे नजर
    आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गये

    दुष्यंत ने अपनी गजलों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की है, जहां से एक-एक चीज बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके।

    जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
    गांव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

    बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
    राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में

    खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गये
    हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

    मुशायरों में घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान, जिसकी ओर आपका शायद ध्यान ही न गया हो, यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएं पढ़े कि आपका ध्यान और कहीं जाए ही न, तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी हैं। उनकी निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है।

    किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
    कल के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी

    खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर
    फिर मेरे गीत में मासूमियत कहां होगी

    आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में
    मैं रहूं या न रहूं भूख मेजबां होगी

    अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते थे। उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है।

    वस्तुतः ये गजलें अपने जमाने के लोगों से 'ठोस धरती की सतह पर लौट' आने का आग्रह कर रही हैं।

    गजल को ले चलो अब गांव के दिलकश नजारों में
    मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

    अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
    मुलम्मे के सिवा क्या है फलक के चांद तारों में

    अदम की शायरी में आज जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है कि पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है। आप इस किताब का कोई सफा पलटिए और कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दीजिए, आपको मेरी बात पर यकीन आ जाएगा।

    काजू भुने पलेट में व्हिस्की गिलास में
    उतरा है रामराज्‍य विधायक निवास में

    पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
    इतना असर है खादी के उजले लिबास में

    जनता के पास एक ही चारा है बगावत
    यह बात कह रहा हूं मैं होशो हवास में

    अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है, उसके सुख-दुःख बसते हैं, शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं। उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है। सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है।

    बेचता यूं ही नहीं है आदमी ईमान को
    भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

    सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
    गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को

    शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
    पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को

    http://mohallalive.com/2011/12/18/adam-gondvi-is-no-more/
    [LARGE][LINK=/print/1067-2011-12-13-13-43-43.html]बीमार अदम गोंडवी और फासिस्ट हिंदी लेखक : एक ट्रेजडी कथा[/LINK] [/LARGE]

    [*] [LINK=/print/1067-2011-12-13-13-43-43.html?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
    [*] [LINK=/component/mailto/?tmpl=component&template=gk_twn2&link=c525cd4ca202036b42ee022f47db8b0d5786805d][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
    Details Category: [LINK=/print.html]प्रिंट, टीवी, वेब, ब्लाग, सिनेमा, साहित्य...[/LINK] Published on Tuesday, 13 December 2011 22:43 Written by दयानंद पांडेय
    :[B] तो आमीन अदम गोंडवी, आमीन![/B] : क्या आदमी इतना कृतघ्न हो गया है? खास कर हिंदी लेखक नाम का आदमी। इसमें हिंदी पत्रकारों को भी जोड़ सकते हैं। पर फ़िलहाल यहां हम हिंदी लेखक नाम के आदमी की चर्चा कर रहे हैं क्योंकि पूरे परिदृश्य में अभी हिंदी पत्रकार इतना आत्मकेंद्रित नहीं हुआ है, जितना हिंदी लेखक। हिंदी लेखक सिर्फ़ आत्म केंद्रित ही नहीं कायर भी हो गया है। कायर ही नहीं असामाजिक किस्म का प्राणी भी हो चला है। जो किसी के कटे पर क्या अपने कटे पर भी पेशाब करने को तैयार नहीं है। दुनिया भर की समस्याओं पर लफ़्फ़ाज़ी झोंकने वाला यह हिंदी लेखक अपनी किसी भी समस्या पर शुतुर्मुर्ग बन कर रेत में सिर घुसाने का आदी हो चला है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण अदम गोंडवी का है।

    अदम गोंडवी की शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। झुलसा कर रख देता है समूची व्यवस्था को। और आज जब वह खुद लीवर सिरोसिस से तबाह हैं तो उनकी शायरी पर दंभ करने वाला यह हिंदी लेखक समाज शुतुरमुर्ग बन गया है। अदम गोंडवी कुछ समय से बीमार चल रहे हैं। उनके गृह नगर गोंडा में उनका इलाज चल रहा था। पैसे की तंगी वहां भी थी। पर वहां के ज़िलाधिकारी राम बहादुर ने प्रशासन के खर्च पर उनका इलाज करवाने का ज़िम्मा ले लिया था। न सिर्फ़ इलाज बल्कि उनके गांव के विकास के लिए भी राम बहादुर ने पचास लाख रुपए का बजट दिया है। लेकिन जब गोंडा में इलाज नामुमकिन हो गया तो अदम गोंडवी बच्चों से कह कर लखनऊ आ गए। बच्चों से कहा कि लखनऊ में बहुत दोस्त हैं। और दोस्त पूरी मदद करेंगे। बहुत अरमान से वह आ गए लखनऊ के पीजीआई। अपनी रवायत के मुताबिक पीजीआई ने पूरी संवेदनहीनता दिखाते हुए वह सब कुछ किया जो वह अमूमन मरीजों के साथ करता ही रहता है। अदम को खून के दस्त हो रहे थे और पीजीआई के स्वनामधन्य डाक्टर उन्हें छूने को तैयार नहीं थे। उनके पास बेड नहीं था। अदम गोंडवी ने अपने लेखक मित्रों के फ़ोन नंबर बच्चों को दिए। बच्चों ने लेखकों को फ़ोन किए। लेखकों ने खोखली संवेदना जता कर इतिश्री कर ली। मदद की बात आई तो इन लेखकों ने फिर फ़ोन उठाना भी बंद कर दिया। ऐसी खबर आज के अखबारों में छपी है। क्या लखनऊ के लेखक इतने लाचार हैं? बताना ज़रूरी है कि लखनऊ से गोंडा दो ढाई घंटे का रास्ता है। गोंडा भी उन्हें देखने कोई एक लेखक उन्हें लखनऊ से नहीं गया। हालांकि लखनऊ में करोड़ों की हैसियत वाले भी एक नहीं अनेक लेखक हैं। लखपति तो ज़्यादातर हैं ही। यह लेखक अमरीका और उसकी बाज़ारपरस्ती पर चाहे जितनी हाय तौबा करें पर बच्चे उनके मल्टी नेशनल कंपनियों में बड़ी बड़ी नौकरियां करते हैं। दस बीस हज़ार उनके हाथ का मैल ही है। लेकिन वह अदम गोंडवी को हज़ार पांच सौ भी न देना पड़ जाए इलाज के लिए, इसलिए अदम गोंडवी के बच्चों का फ़ोन भी नहीं उठाते। देखने जाने में तो उनकी रूह भी कांप जाएगी। अब आइए ज़रा साहित्य की ठेकेदार सरकारी संस्थाओं का हाल देखें।

    उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष का बयान छपा है कि अगर औपचारिक आवेदन आए तो वह विचार कर के पचीस [IMG]http://www.bhadas4media.com/images/stories/agondavi.jpg[/IMG]
    अदम गोंडवी
    हज़ार रुपए की भीख दे सकते हैं। इसी तरह उर्दू अकादमी ने भी औपचारिक आवेदन आने पर दस हज़ार रुपए देने की बात कही है। अब भाषा संस्थान के गोपाल चतुर्वेदी ने बस सहानुभूति गीत गा कर ही इतिश्री कर ली है। अब इन ठेकेदारों को यह नहीं मालूम कि अदम इलाज कराएं कि औपचारिक आवेदन लेकर इन संस्थानों से भीख मांगें। और इन दस बीस हज़ार रुपयों से भी उनका क्या इलाज होगा भला, यह इलाज करवाने वाले लोग भी जानते हैं। रही बात मायावती सरकार की तो खैर उनको इस सबसे कुछ लेना देना ही नहीं। साहित्य संस्कृति से इस सरकार का वैसे भी कभी कोई सरोकार नहीं रहा। वह तो भला हो मुलायम सिंह यादव का जो उन्होंने यह पता चलते ही कि अदम बीमार हैं और इलाज नहीं हो पा रहा है, खबर सुन कर अपने निजी सचिव जगजीवन को पचास हज़ार रुपए के साथ पीजीआई भेजा। पैसा पाते ही पीजीआई की मशीनरी भी हरकत में आ गई। और डाक्टरों ने इलाज शुरू कर दिया। मुलायम के बेटे अखिलेश का बयान भी छपा है कि अदम के पूरे इलाज का खर्च पार्टी उठाएगी। यह संतोष की बात है कि अदम के इलाज में अब पैसे की कमी तो कम से कम नहीं ही आएगी। और अब यह जान कर कि अदम को पैसे की ज़रूरत नहीं है, उनके तथाकथित लेखक मित्र भी अब शायद पहुंचें उन्हें देखने। हो सकता है कुछ मदद पेश कर उंगली कटा कर शहीद बनने की भी कवायद करें। पर अब इस से क्या हसिल होगा अदम गोंड्वी को? अपने हिंदी लेखकों ने तो अपना चरित्र दिखा ही दिया ना!

    अभी कुछ ही समय पहले इसी लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल बीमार हो कर हमारे बीच से चले गए। वह प्रशासनिक अधिकारी थे। उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। सो इन लेखकों ने उनकी ओर से कभी आंख नहीं फेरी। सब उनके पास ऐसे जाते थे गोया तीर्थाटन करने जा रहे हों। चलते चलते उन्हें पांच लाख रुपए का ज्ञानपीठ भी मिला और साहित्य अकादमी, दिल्ली ने भी इलाज के लिए एक लाख रुपए दिया। लेकिन कुछ समय पहले ही अमरकांत ने अपने इलाज के लिए घूम घूम कर पैसे की गुहार लगाई। किसी ने भी उन्हें धेला भर भी नहीं दिया। तो क्या जो कहा जाता है कि पैसा पैसे को खींचता है वह सही है? आज तेरह तारीख है और कोई तेरह बरस पहले मेरा भी एक भयंकर एक्सीडेंट हुआ था। कह सकता हूं कि यह मेरा पुनर्जन्म है। यही मुलायम सिंह यादव तब संभल से चुनाव लड़ रहे थे। उनके कवरेज के लिए हम जा रहे थे। उस अंबेसडर में हम तीन पत्रकार थे। जय प्रकाश शाही, मैं और गोपेश पांडेय। सीतापुर के पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर सामने से आ रहे एक ट्रक से लड़ गई। आमने सामने की यह टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी कि जय प्रकाश शाही और ड्राइवर का मौके पर ही निधन हो गया। दिन का एक्सीडेंट था और मैं भाग्यशाली था कि मेरे आईपीएस मित्र दिनेश वशिष्ठ उन दिनों सीतापुर में एसपी थे। मेरा एक्सीडेंट सुनते ही वह न सिर्फ़ मौके पर आए बल्कि हमें अपनी गाड़ी में लाद कर सीतापुर के अस्पताल में फ़र्स्ट एड दिलवा कर सीधे खुद मुझे पीजीआई भी ले आए। मैं उन दिनों गृह मंत्रालय भी देखता था। सो तब के प्रमुख सचिव गृह राजीव रत्न शाह ने भी पूरी मदद की। स्टेट हेलीकाप्टर तक की व्यवस्था की मुझे वहां से ले आने की। मेरा जबड़ा, सारी पसलियां, हाथ सब टूट गया था। छह महीने बिस्तर पर भले रहा था और वह तकलीफ़ सोच कर आज भी रूह कांप जाती है। लेकिन समय पर इलाज मिलने से बच गया था।

    यह 18 फ़रवरी, 1998 की बात है। उस वक्त मेरे इलाज में भी काफी पैसा खर्च हुआ। पर पैसे की कमी आड़े नहीं आई। मैं तो होश में नहीं था पर उस दिन भी पीजीआई में मुझे देखने यही मुलायम सिंह यादव सबसे पहले पहुंचे थे। और खाली हाथ नहीं पहुंचे थे। मेरी बिलखती पत्नी के हाथ पचीस हज़ार रुपए रखते हुए कहा था कि इलाज में पैसे या किसी भी चीज़ की कमी नहीं आएगी। आए तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी और एक लाख रुपए और मुफ़्त इलाज का ऐलान लेकर आए। अटल बिहारी वाजपेयी से लगायत सभी नेता तमाम अफ़सर और पत्रकार भी। नात-रिश्तेदार, मित्र -अहबाब और पट्टीदार भी। सभी ने पैसे की मदद की बात कही। पर किसी मित्र या रिश्तेदार से परिवारीजनों ने पैसा नहीं लिया। ज़रूरत भी नहीं पडी। सहारा के चेयरमैन सुब्रत राय सहारा जैसा कि कहते ही रहते हैं कि सहारा विश्व का विशालतम परिवार है, इस पारिवारिक भावना को उन्होंने अक्षरश: निभाया भी। हमारे घर वाले अस्पताल में मेहमान की तरह हो गए थे। सहाराश्री और ओपी श्रीवास्तव खुद अस्पताल में खड़े रहे और सारी व्यवस्था खर्च से लेकर इलाज तक की संभाल ली थी। बाद में अस्पताल से घर आने पर अपनी एक बुआ से बात चली तो मैंने बडे फख्र से इन सब लोगों के अलावा कुछ पट्टीदारों, रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए कहा कि देखिए सबने तन मन धन से साथ दिया। सब पैसा लेकर खड़े रहे। मेरी बुआ मेरी बात चुपचाप सुनती रही थीं। बाद में टोकने पर भोजपुरी में बोलीं, 'बाबू तोहरे लगे पैसा रहल त सब पैसा ले के आ गईल। नाईं रहत त केहू नाई पैसा ले के खडा होत! सब लोग अखबार में पढि लेहल कि हेतना पैसा मिलल, त सब पैसा ले के आ गइल!' मैं उन का मुंह चुपचाप देखता रह गया था तब। पर अब श्रीलाल शुक्ल और अदम गोंडवी का यह फ़र्क देख कर बुआ की वह बात याद आ गई।

    तो क्या अब यह हिंदी के लेखक अदम गोंडवी से मिलने जाएंगे अस्पताल? पचास हज़ार ही सही उन्हें इलाज के लिए मिल तो गया ही है। आगे का अश्वासन भी। और मुझे लगता है कि आगे भी उनके इलाज में मुलायम पैसे की दिक्कत तो नहीं ही आने देंगे। क्योंकि मुझे याद है कि इंडियन एक्सप्रेस के एसके त्रिपाठी ने मुलायम के खिलाफ़ जितना लिखा, कोई सोच भी नहीं सकता। मुलायम की हिस्ट्रीशीट भी अगर आज तक किसी ने छापी तो इन्हीं एसके त्रिपाठी ने। पर इसी पीजीआई में जब एसके त्रिपाठी कैंसर से जूझ रहे थे तब मुलायम न सिर्फ़ उन्हें देखने गए थे बल्कि मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से उन्हें दस लाख रुपए भी इलाज के लिए दिए थे। मुझे अपना इलाज भी याद है कि जब मैं अस्पताल से घर लौटा था तब जाकर पता चला कि आंख का रेटिना भी डैमेज है। किसी ने मुलायम को बताया। तब वह दिल्ली में थे। मुझे फ़ोन किया और कहा कि, 'पांडेय जी घबराइएगा नहीं, दुनिया में जहां भी इलाज हो सके कराइए। मैं हूं आपके साथ। सब खर्च मेरे ऊपर।' हालांकि कहीं बाहर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। इलाज हो गया। लखनऊ में ही। वह फिर बाद में न सिर्फ़ मिलने आए बल्कि काफी दिनों तक किसी न किसी को भेजते रहे थे। मेरा हालचाल लेने। पर हां, बताना तकलीफ़देह ही है, पर बता रहा हूं कि मेरे परिचित लेखकों में से \[मित्र नहीं कह सकता आज भी] कभी कोई मेरा हाल लेने नहीं आया। मैं तो खैर जीवित हूं पर कानपुर की एक लेखिका डा सुमति अय्यर की 5 नवंबर, 1993 में निर्मम हत्या हो गई। आज तक उन हत्यारों का कुछ अता-पता नहीं चला। सुमति अय्यर के एक भाई हैं आर. सुंदर। पत्रकार हैं। उन्होंने इसके लिए बहुत लंबी लडाई लडी कि हत्यारे पकडे जाएं। पर अकेले लडी। कोई भी लेखक और पत्रकार उनके साथ उस लडाई में नहीं खडा हुआ। एक बार उन्होंने आजिज आ कर राज्यपाल को ज्ञापन देने के लिए कुछ लेखकों और पत्रकारों से आग्रह किया। वह राजभवन पर घंटों लोगों का इंतज़ार करते खडे रहे। पर कोई एक नहीं आया। सुंदर बिना ज्ञापन दिया लौट आए राजभवन से और बहन के हत्यारों के खिलाफ़ लडाई बंद कर दी। लेकिन वह टीस अभी भी उनके सीने में नागफनी सी चुभती रहती है कि क्यों नहीं आया कोई उस दिन राजभवन ज्ञापन देने के लिए!

    तो अदम गोंडवी आप ऐसे हिंदी लेखक समाज में रहते हैं जो संवेदनहीनता और स्वार्थ के जाल में उलझा पैसों, पुरस्कारों और जुगाड़ के वशीभूत आत्मकेंद्रित जीवन जीता है और जब माइक या कोई और मौका हाथ में आता है तो ''पाठक नहीं है'' का रोना रोता है। समाज से कट चुका यह हिंदी लेखक अगर आप की अनदेखी करता है तो उस पर तरस मत खाइए। न खीझ दिखाइए। अमरीकापरस्ती को गरियाते-गरियाते अब यह लेखक अमरीकी गूगल और फ़ेसबुक की बिसात पर क्रांति के गीत गाता है। और ऐसे समाज की कल्पना करता है जो उसे झुक झुक कर सलाम करे। फासीवाद का विरोध करते करते आप का यह लेखक समाज खुद बड़ा फ़ासिस्ट बन गया है अदम गोंड्वी!

    आप गज़ल लिखते हैं तो एक गज़ल के एक शेर में ही बात को सुनिए...

    [B]'पत्थर के शहर, पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इंसा पाए हैं,[/B]

    [B]तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं!' [/B]

    [IMG]http://www.bhadas4media.com/images/stories/africa/dnp.jpg[/IMG]तो आमीन अदम गोंड्वी, आमीन !

    [B]लेखक दयानंद पांडेय वरिष्‍ठ पत्रकार तथा उपन्‍यासकार हैं. दयानंद से संपर्क 09415130127, 09335233424 और   के जरिए किया जा सकता है. भड़ास पर दयानंद पांडेय के लिखे लेख, आलेख, विश्लेषण, उपन्यास, कहानी, संस्मरण आदि को पढ़ने के लिए क्लिक करें- [LINK=http://www.bhadas4media.com/component/search/?searchword=%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6%20%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&ordering=newest&searchphrase=exact&limit=20]दनपा1[/LINK] और [LINK=http://old.bhadas4media.com/component/search/?searchword=%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6+%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&ordering=newest&searchphrase=exact&limit=100]दनपा2[/LINK] [/B]

    [HR]

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    अदम गोंडवी
     

    ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में 
     

    ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में 
    मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

    न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
    खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्‍बी क़तारों में

    अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ 
    मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में 

    र‍हे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तज़रबे से 
    बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

    कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद 
    जो है संगीन के साये की चर्चा इश्‍तहारों में.

     

    भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो  

    भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो 
    या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

    जो ग़ज़ल माशूक के जल्‍वों से वाक़िफ़ हो गयी 
    उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

    मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में 
    पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

    गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
    तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

    ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग 
    इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.


    मुक्तिकामी चेतना अभ्‍यर्थना इतिहास की

    मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की 
    यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

    आप कहते है जिसे इस देश का स्‍वर्णिम अतीत 
    वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

    यक्ष प्रश्‍नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी 
    ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्‍या हमारी प्यास की?

    इस व्‍यवस्‍था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्‍या दिया 
    सेक्‍स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्‍फ़ास की  

    याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार 
    होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.

     

    विकट बाढ़ की करुण कहानी

    विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है। 
    बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।

    क्रूर नियति ने इसकी किस्‍मत से कैसा खिलवाड़ किया है। 
    मन के पृष्‍ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।

    छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई 
    लेकिन स्‍वप्निल स्‍मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।।

    नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले 
    शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्‍वास लिखा है।।

    लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती 
    इसने मेरे तन्‍हाई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।

    अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है 
    धरती के इस खंडकाव्‍य पर विरहदग्‍ध उच्छ्‌वास लिखा है।।

     

    वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

    वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं 
    वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

    लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में 
    उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

    कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास 
    त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

    बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है 
    ठूँठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

    गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे 
    पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें

     

    वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

    वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है 
    उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

    इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का 
    उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

    कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले 
    हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

    रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी 
    जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

     

    हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए  

    हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए 
    अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

    हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है 
    दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

    ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले 
    ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

    हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ 
    मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

    छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़ 
    दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए 

     

    जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है

    जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
    एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है

    चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आये
    लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है

    इन्द्र-धनुष के पुल से गुज़र कर इस बस्ती तक आए हैं
    जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिन्दास भी है

    कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
    स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है.

     

    जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये  

    जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
    आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

    जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
    उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

    जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
    किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

    मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
    दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.

     

    ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे

    गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
    क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे

    जायस से वो हिंदी की दरिया जो बह के आई
    मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?

    जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
    क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?

    तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
    क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ?

     

    तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है


    तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है 
    मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

    उधर जम्‍हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो 
    इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है

    लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में 
    ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

    तुम्‍हारी मेज चाँदी की तुम्‍हारे ज़ाम सोने के 
    यहाँ जुम्‍मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

     

    घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है  

    घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
    बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।

    भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
    सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।

    बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
    मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।

    सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
    मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।

     

    चाँद है ज़ेरे क़दमसूरज खिलौना हो गया  

    चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
    हाँमगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

    शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
    कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया

    ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
    ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया

    यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
    रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया

    अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं
    इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया.

     

     

     

     

     

     

     

     

     

    जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में

    जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में 
    गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में


    बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई 
    रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में  


    खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए 
    हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में  


    जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में 
    ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में

     

     

    आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी  

    आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
    हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

    भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
    मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

    डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
    ख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी

    रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
    ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी

    दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार
    शहर की गलियों का वो गंदा असर है ज़िन्दगी.

     

    काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में

    काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
    उतरा है रामराज विधायक निवास में
     
    पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
    इतना असर है खादी के उजले लिबास में

    आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
    जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

    पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
    संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में

    जनता के पास एक ही चारा है बगावत
    यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

     

    न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से   

    न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
    तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

    कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिये पर है
    उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

    अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
    जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

    बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
    जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

    अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
    सँजो कर रक्खें 'धूमिलकी विरासत को क़रीने से.

     

    मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको  

    आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
    मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

    जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
    मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

    है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
    आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

    चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
    मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा

    कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
    लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

    कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
    जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

    थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
    सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

    डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
    घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

    आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
    क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

    होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
    मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

    चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुटकर रह गई
    छटपटाई पहलेफिर ढीली पड़ीफिर ढह गई

    दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
    वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

    और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
    होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

    जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
    जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

    बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
    पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

    कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
    कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

    कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
    और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

    बोला कृष्ना से- बहनसो जा मेरे अनुरोध से
    बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

    पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
    वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में

    दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
    देखिए सुखराज सिं बोले हैं खैनी ठोंक कर

    क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
    कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

    कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
    सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

    देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहा
    पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहा

    जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
     पुट्ठे पे हाथ रखने देती हैमगरूर है

    भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ 
    फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

    आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
    जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

    वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
    वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

    जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
    हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

    कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
    गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी

    बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
    हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया 

    क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
    हाँमगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

    रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था
    भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

    सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
    एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

    घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
    "जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

    निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
    एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

    गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
    सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

    "कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
    एक लाठी फिर पड़ी बसहोश फिर जाता रहा

    होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
    ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

    "मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
    आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

    और फिर प्रतिशोध की आधी वहाँ चलने लगी
    बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

    दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
    वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

    घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
    कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

    "कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
    हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

    यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
    आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

    फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
    ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"

    इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
    होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

    बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
    होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

    ये समझते हैं कि ठाकुर से उ
    झना खेल है
    ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

    पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
    "कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

    उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
    सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

    धर्म संस्कृति और
     नैतिकता के ठेकेदार को
    प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को


    मैं
     निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
    तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

    गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही

    या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

    हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए

    बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

सुभान, 19-Dec-2011 12:44:36 PM
 हिंदी के जनवादी कवि, गजलकार, रामनाथ सिंह, अदम गोंडवी, *People's poet Adam Gondvi passes away ‎हिंदी के जनवादी कवि | गजलकार | रामनाथ सिंह | अदम गोंडवी | *People's poet Adam Gondvi passes away ‎ |
अदम गोंडवी का निधन: एक श्रद्धांजलि
अदम गोंडवी का निधन: एक श्रद्धांजलि

गोंडा। हिंदी के जनवादी कवि और गजलकार रामनाथ सिंह 'अदम गोंडवी का लीवर की गंभीर बीमारी के कारण निधन हो गया। उन्हें लीवर सिरोसिस की बीमारी थी। यह बीमारी उन्हें जहरखुरानी के कारण हुई थी। वे 63 वर्ष के थे। 22 अक्टूबर 1947 को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के अटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह एवं देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में अदम गोंडवी के नाम से सुविख्यात हुए। उनके एक पुत्र और दो पुत्रियां हैं।

उनका महीने भर से इलाज चल रहा था। रविवार की सुबह लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका अंतिम संस्कार कल उनके पैतृक गांव परसपुर विकासखंड के आटा गांव में किया जाएगा। अदम गोंडवी मटमैली धोती में लिपटा इकहरा बदन, उनकी हड्डियों में ज्यादा ज़ोर शायद न होगा, पर जब उनकी गज़लें बोलती हैं तो हुकूमतें सिहर जाती हैं।

अदम गोंडवी के बारे में अक्सर कहा जाता है कि हिंदी गज़लों की दुनिया में दुष्यंत कुमार के बाद ही शीर्षस्थ रचनाकार हैं, अदम ने अपना जीवन सामंतवादी ताकतों, भ्रष्टाचारियों, कालाबाजारियों और पाखंडियों के खिलाफ लिखते हुए बिताया धरती की सतह पर व 'समय से मुठभेड़ जैसे गजल संग्रह से उन्होंने खूब नाम कमाया. भारत से लेकर सुदूर रूस तक वे पढ़े जाते हैं, वर्ष ।998 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यंत कुमार पुरस्कार से नवाजा।

उन्होंने समाज की तल्ख सच्चाई हमेशा समाज के सामने रखी। युवा पीढ़ी की उपेक्षा व उन्हें गलत दिशा में व्यवस्था द्वारा धकेलने पर उन्होंनें लिखा...'इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया। सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की। रोज-रोज देश में होने वाले घोटालों ने इस देश को खोखला कर दिया। इन घोटालों में ज्यादातर राजनेता ही शामिल रहे। इन नेताओं पर सीधा प्रहार करते हुए अदम ने लिखा... 'जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्मरान कर देंगे, कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे। ये बंदेमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर, मगर बाजार में चीजों का दुगुना दाम कर देंगे।

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे, अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे। एक रचना में उन्होंने लिखा है...'फटे कपड़ों में तन ढांके, गुजरता हो जिधर कोई, समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है उनके बीमार पडऩे के बाद नर्सिग होम में मुलाकात करने गए जिलाधिकारी राम बहादुर को जब उन्होंने अपने गांव की कहानी बताई तो न केवल उन्होंने विकास कार्यों के लिए अदम जी के पूरे गांव को गोद लेने की घोषणा की ।

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कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे: जनकवि अदम गोंडवी

पंकज पाठक, 19-Dec-2011 01:35:39 PM
Keywords: गरीब के दर्द, *Adam Gondvi a Peoples Poet against Establishment गरीब के दर्द | *Adam Gondvi a Peoples Poet against Establishment |
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे: जनकवि अदम गोंडवी
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे: जनकवि अदम गोंडवी

गरीब के दर्द को अपनी गजलों में व्यक्त करने वाले अदम गोंडवी(रामनाथ सिंह) बहुत जल्दी चले गए। आर्थिक तंगी, बीमारी और समाज से संघर्ष करते हुए, चिट्ठी न कोई संदेश- अदम चले गए। जिंदगी भर उन्होंने समाज के किसी संघर्ष और गरीबों के शोषण पर लिखा। दुष्यंत कुमार ने हिंदी गजल की परंपरा प्रारंभ की और अदम गोंडवी ने उसे परवान चढ़ाया। शरद जोशी और जीवनलाल वर्मा 'विद्रोही ने व्यवस्था पर जो प्रहार अपने व्यंग्य लेखों में किया, वही दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी ने हिंदी गजलों में किया। नागार्जुन भी इसी मिजाज के कवि थे। अदम, नागार्जुन और प्रेमचंद तीनों ही गांव और गरीब की दुनिया के रचनाकार हैं।

हिंदी और उर्दू में वे समान रूप से लोकप्रिय थे। कम पढ़े-लिखे, साधारण धोती-कुर्ता पहनने और गले में गमछा डालने वाले अदम ने जो लिखा, उससे लगता है कि उन्होंने भारत की असली सूरत को न- केवल करीब से देखा, उससे कहीं अधिक महसूस भी किया है। बाढ़ राहत की लूटखसोट पर वे लिखते हैं- 'महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के। मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के।

जनकवि अदम कबीर की परंपरा के हैं। अपने गांव को वे ऐसे व्यक्त करते हैं-'फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता हो जिधर कोई, समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है। आज की भ्रष्ट व्यवस्था पर वे कहते हैं-'काजू भुने हुए ह्विस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में। उनकी रचनाएं हिंदी कविता के शास्त्रीय अनुशासन, बिंब विधान और प्रतीकों से सर्वथा अलग हमें उस दुनिया में ले जाती हैं, जिसे हम हर क्षण देखते, भोगते और बर्दाश्त करते हैं। जैसे उनकी ये पंक्तियां, जो आज भी प्रासंगिक हैं-'जो डलहौजी न कर पाया वे ये हुक्मरान कर देंगे, कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे।

सदियों से गांवों में सवर्णों द्वारा कमजोर तबके का जिस तरह से शोषण किया जा रहा है, उस पर अदम की एक बहुत प्रसिद्ध और मार्मिक लंबी गजल है-'आइए महसूस करिए जिंदगी के नाम को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आप को। आज के साहित्य समाज पर ही उन्होंने यह व्यंग्य किया था-'गजल को ले चलो अब गांव के दिलकश नजारों में, मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में।

अन्ना से लेकर आम आदमी तक रोज जो चीख-चीख कर कह रहा है, उसी को अदम भी स्वर देते रहे हैं-'वो जिनके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है, उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है। उनके इस मिसरे में भी उसी क्रांति का आव्हान है, जो गांधी, जयप्रकाश और अन्ना ने किया- 'जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा हूं मैं होशो- हवास में। उनके दो कविता संग्रह छपे- 'धरती की सतह पर। और 'समय से मुठभेड़। समय से मुठभेड़ करने वाला अब नहीं रहा, पर धरती की सतह जो चल रहा है, वह जारी रहेगा। आज वे अपने समय के अकेले कवि थे और वह कमी पूरी नहीं हो पाएगी।
'धरती की सतह' के जनकवि अदम गोंडवी

एकांत शर्मा
आग उगलती पंक्तियों के रचियता जाने माने शायर और ख्यातिनाम जनकवि रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी के निधन की खबर हडकंप मचाने वाले सर्द कोहरे से ढकी दिल्ली में अचानक आई जिससे साहित्य जगत में शोक की लहर है. हिन्दी गजल के क्षेत्र में अदम गोंडवी एक बहुत पहचाना और स्वीकारा हुआ नाम रहा है. 'अदम गोंडवी' का रविवार तड़के लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में निधन हो गया, वे 64 वर्ष के थे. पारिवारिक सूत्रों के मुताबिक़ अदमजी क्रानिक लीवर डिजीज का इलाज करा रहे थे.


रविवार सुबह लखनऊ स्थित संजय गांधी परास्नातक आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) में निधन हो गया. साधारण व्यक्तित्व और सरल अंदाज में साफगोई से अपना लेखन धर्म निबाहने वाले अदमजी के बारे में ख़बरें थी कि आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण वे अपना इलाज ठीक से नहीं करा पा रहे थे. उन्हें हाल ही में लखनऊ के संजय गांधी परास्नातक आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया था.


22 अक्तूबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा परसपुर गांव में जन्में अदम साहब जनचेतना के प्रखर कवि थे. दुष्यंत कुमार के बाद सच को बगैर चाश्ने में लपेटे सीना तान कर चिंघाड़ने वाले अदम गोंडवी की कविताओं और गजलों में आम आदमी झांकता था और सदा उसके साथ घटित अघटित चीजें ही कवित्त होती थी, यह अदम साहब की खासियत थी. जैसे प्रजातंत्र के लिए कहा जाता है जनता के लिए जनता के द्वारा और जनता के निमित्त उसी तरह अदम साहब आम आदमी के लिए आम आदमी के द्वारा और आम आदमी के निमित्त रचनाएं गढ़ते थे.


रचना जगत में उनका ऊंचा कद था. आगे भी रहेगा. अदम गोंडवी के सिर्फ दो संग्रह प्रकाशित हुए लेकिन महज दो प्रकाशित कृत्यों के माध्यम से उन्होंने देश भर में एक साख बना ली. धरती की सतह पर उनकी पहली कविता पुस्तक थी. उन्‍होंने हिंदी गजल को आम आदमी के दुःख दर्द से जोड़ा। मुशायरों में जब वे घुटनों तक मटमैली धोती पहने और सिकुड़ा मटमैला कुरता धारण करके गले में सफ़ेद गमछा डाल कर निपट देहाती अंदाज में पहुंचते थे तो लोग सोचते थे कि वे भला क्या सुनाएंगे मगर पर जब वह रचनाओं का पथ शुरू करते तो सब सन्न रह जाते थे । 'धरती की सतह पर ' के अलावा 'समय से मुठभेड़'  उनकी प्रमुख पुस्‍तकें रही हैं।

काजू प्लेट में ,विस्की भरी गिलास में, 
उतरा  है रामराज विधायक निवास में ...

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

 इन चर्चित पंक्तियों को लिखने वाले ठेंठ गंवई अंदाज़ में धोती खुंटियाये अदम गोंडवी कभी किसी राज दरबार में पद्म-श्री मांगने नही गए. कभी उन्होंने दरबारों  की आरतियां नही गाईं. वह आदमी को हताश कर देने वाली व्यवस्था से इतना आजिज आ गए गए थे कि उनकी गज़लों में भूख और लाचारी के साथ साथ विद्रोह भी सुलगता था. लगी है होड सी देखो अमीरों और गरीबों में/ ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है/ तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के/ यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।
एक और बानगी देखिए-


घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/ 
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है। 
................

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
उन्होंने लिखा था- गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे/
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें/
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ 
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे/

उनको लीवर सीरोसिस की समस्या के बारे में बताया जाता है कि एक बार वह ट्रेन से दिल्ली से आ रहे थे तब रास्ते में उन के साथ जहर खुरानी हो गई।  उनको होश तो आया मगर सामान के साथ उदर का सुख भी लुट गया और लीवर की समस्या स्थायी हो गई.

सुझाव एवं प्रतिक्रियाएं- datelineresponse@gmail.com
[LARGE][LINK=/print/1175-2011-12-18-14-56-29.html]शराब नहीं, जहरखुरानी के दुष्प्रभाव से बिगड़ा जनकवि का लीवर![/LINK] [/LARGE]

[*] [LINK=/print/1175-2011-12-18-14-56-29.html?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
[*] [LINK=/component/mailto/?tmpl=component&template=gk_twn2&link=0207aa5c47160f4fb3f48ff8d41030b4530051be][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
Details Category: [LINK=/print.html]प्रिंट, टीवी, वेब, ब्लाग, सिनेमा, साहित्य...[/LINK] Published on Sunday, 18 December 2011 23:56 Written by दयानंद पांडेय
: [B]अदम गोंडवी की जमीन उनके गांव के दबंगों ने दबा रखी है  : अदम गोंडवी ने किसान सोसाइटी से डेढ़ लाख का कर्ज लिया जो अब सूद लग कर तीन लाख रुपये हो गया, रिकवरी को लेकर उनके साथ बदतमीजी भी की गई थी[/B] : अदम गोंडवी आज सुबह क्या गए लगता है हिंदी कविता की सुबह का अवसान हो गया। हिंदी कविता में नकली उजाला, नकली अंधेरा, बिंब, प्रतीक, फूल, पत्ती, चिडिया, गौरैया, प्रकृति, पहाड आदि देखने- बटोरने और बेचने वाले तो तमाम मिल जाएंगे पर वह मटमैली दुनिया की बातें बेलागी और बेबाकी के साथ करने वाले अदम को अब कहां पाएंगे?

कबीर सा वह बांकपन, धूमिल सा वह मुहावरा, और दुष्यंत सा वह टटकापन सब कुछ एक साथ वह सहेजते थे और लिखते थे - गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे/पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें। अब कौन लिखेगा- जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे। या फिर काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में। या फिर, जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में/ परधान बन के आ गए अगली कतार में।

गुज़रे सोमवार जब वह आए तभी उनकी हालत देख कर अंदाज़ा हो गया था कि बचना उन का नमुमकिन है। तो भी इतनी जल्दी गुज़र जाएंगे हमारे बीच से वह यह अंदाज़ा नहीं था। वह तो कहते थे यूं समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी गज़ल में। और जो वह एशियाई हुस्न की तसवीर लिए अपनी गज़लों में घूमते थे और कहते थे कि, आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में/ मैं रहूं न रहूं भूख मेज़बां होगी। और जिस सादगी से, जिस बुलंदी और जिस टटकेपन के ताव में कहते थे, जिस निश्छलता और जिस अबोधपन को जीते थे कविता और जीवन दोनों में अब वह दुर्लभ है। तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आंकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है। या फिर ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चांद-आइना-गुलाब/भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब। उनके शेरों की ताकत देखिए और फिर उनकी सादगी भी। देखता हूं कि लोग दू ठो कविता, दू ठो कहानी या अलोचना लिख कर जिस अहंकार के सागर में कूद जाते हैं और फ़तवेबाज़ी में महारत हासिल कर लेते हैं इस बेशर्मी से कि पूछिए मत देख कर उबकाई आती है।

पर अदम इस सब से कोसों दूर ठेंठ गंवई अंदाज़ में धोती खुंटियाये ऐसे खडे हो जाते थे कि उन पर प्यार आ जाता था। मन आदर और श्रद्धा से भर जाता था। और वो जो शमशेर कहते थे कि बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही को साकार करते जब उन की गज़लें बोलती थी और प्याज की परत दर परत भेद खोलती थीं, व्यवस्था और समाज की तो लोग विभोर हो जाते थे। हम जैसे लोग न्यौछावर हो जाते थे।

अदम मोटा पहनते ज़रूर थे पर बात बहुत महीन करते थे। उनके शेर जैसे व्यवस्था और समाज के खोखलेपन और दोहरेपन पर तेज़ाब डालते थे। वह उनमें से नहीं थे कि कांख भी छुपी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे। वह तो जब मुट्ठी तानते थे तो उनकी कांख भी दीखती ही थी। वह वैसे ही नहीं कहते थे कि- वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी गज़ल। तो गज़ल को जामो मीना से निकाल कर शमशीर की शक्ल देना और कहीं उस पर पूरी धार चढा कर पूरी ताकत से वार भी करना किसी को जो सीखना हो तो अदम से सीखे।

हां वह व्यवस्था से अब इतना उकता गए थे कि उनकी गज़लों में भूख और लाचारी के साथ साथ नक्सलवाद की पैरवी भी खुले आम थी। उन का एक शेर है- ये नई पीढी पे मबनी है वही जजमेंट दे/ फ़लसफ़ा गांधी का मौजू है के नक्सलवाद है। वह यहीं नहीं रुके और लिख गए कि -लगी है होड सी देखो अमीरों और गरीबों में/ ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है/ तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के/ यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।

अदम के पास अगर कुछ था तो बेबाक गज़लों की जागीर ही थी। और वही जागीर वह हम सब के लिए छोड गए हैं। और बता गए हैं कि - घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/ बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है। वह तो बता गए हैं - भीख का ले कर कटोरा चांद पर जाने की ज़िद / ये अदा ये बांकपन ये लंतरानी देखिए/ मुल्क जाए भाड में इससे इन्हें मतलब नहीं/ कुर्सी से चिपटे हुए हैं जांफ़िसानी देखिए। वह बताते भी थे कि अदम के साथ गमों की बरात होती है। तो लोग ज़रा नहीं पूरा बिदक जाते थे। घुटनों तक धोती उठाए वह निपट किसान लगते भी थे।

पर जब कवि सम्मेलनों में वह ठेंठ गंवई अंदाज़ में खड़े होते थे तो वो जो कहते हैं कि कवि सम्मेलन हो या मुशायरा लूट ले जाते थे। पर यह एक स्थिति थी। ज़मीनी हकीकत एक और थी कि कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उन्हें वाहवाही भले सब से ज़्यादा मिलती थी, मानदेय कहिए, पारिश्रमिक कहिए उन्हें सब से कम मिलता था। लतीफ़ेबाज़ और गलेबाज़ हज़ारों में लेते थे पर अदम को कुछ सौ या मार्गव्यय ही नसीब होता था। वह कभी किसी से इसकी शिकायत भी नहीं करते थे। रोडवेज की बस या रेलगाडी के जनरल डब्बे में सवारी बन कर चलना उन की आदत थी।

वह आम आदमी की बात सिर्फ़ कहते भर नहीं, आम आदमी बन कर रहते जीते भी थे। उन के पांव की बिवाइयां इस बात की बराबर चुगली भी खाती थीं। वह वैसे ही नहीं लिख गए कि, भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो/ या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो/ जो गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई/ उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो। और वह बेवा की माथे की शिकन से और आगे भी गज़ल को ले भी आए इस बात का हिंदी जगत को फख्र होना चाहिए। उनकी शुरुआत ही हुई थी चमारों की गली से। कि- ''आइए, महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को/ मैं चमारो की गली तक ले चलूंगा आप को''। इसी कविता ने अदम को पहचान दी। फिर ''काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में'' शेर ने उन्हें दुनिया भर में परिचित करवा दिया। उनकी तूती बोलने लगी। फिर तो वह हिंदी गज़ल की मुकम्मल पहचान बन गए।

उर्दू वालों ने भी उन्हें सिर माथे बिठाया और उनकी तुलना मज़ाज़ से होने लगी। ''समय से मुठभेड़'' नाम से जब उनका संग्रह आया तो सोचिए कि कैफ़ भोपाली ने लंबी भूमिका हिंदी में लिखी और उन्हें फ़िराक, जोश और मज़ाज़ के बराबर बिठाया। हिंदी और उर्दू दोनों में उनके कद्रदान बहुतेरे हो गए। तो भी अदम असल में खेमे और खाने में भी कभी नहीं रहे। लोग लोकप्रिय होते हैं वह जनप्रिय थे, जनवाद की गज़ल गुनगुनाने और जनवाद ही को जीने ओढने और बिछाने वाले। यह अनायास नहीं था कि उनके पास इलाज के लिए न पैसे थे न लोगबाग। अपने जन्म दिन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में मुलायम भी उनकी सादी और बेबाक गज़लों पर रीझ जाते थे।

मुलायम उन्हें भूले नहीं। अबकी जब वह बीमार पडे तो न सिर्फ़ सब से पहले उन्होंने इलाज खर्च के लिए हाथ बढाया बल्कि आज सुबह जब पांच बजे उनके निधन की खबर आई तो आठ बजे ही मुलायम सिंह पीजीआई पहुंच भी गए। बसपा की रैली की झंझट के बावजूद। न सिर्फ़ पहुंचे उन का पार्थिव शरीर गोंडा में उन के पैतृक गांव भिजवाने के लिए सारा प्रबंध भी करवाया। लखनऊ से गोंडा तक रास्ते भर लोगों ने उनका पार्थिव शरीर रोक रोक कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। लखनऊ में भी बहुतेरे लेखक और संस्कृतिकर्मियों समाजसेवियों ने उन्हें पालिटेक्निक चौराहे पर श्रद्धांजलि दी। उनके एक भतीजे को पानीपत से आना है। सो अंत्येष्टि कल होगी।

अदम अब नहीं हैं पर कर्जे में डूब कर गए हैं। तीन लाख से अधिक का कर्ज़ है। किसान सोसाइटी से डेढ लाख लिए थे अब सूद लग कर तीन लाख हो गए हैं। रिकवरी को लेकर उनके साथ बदतमीजी हो चुकी है। ज़मीन उनके गांव के दबंगों ने दबा रखी है। है कोई उनके जाने के बाद भी उन के परिवारीजनों को इस सब से मुक्ति दिलाने वाला? एक बात और। अदम गोंडवी का निधन लीवर सिरोसिस से हुआ है। यह सभी जानते हैं। पर यह लीवर सीरोसिस उन्हें कैसे हुई कम लोग जानते हैं।

वह ट्रेन से दिल्ली से आ रहे थे कि रास्ते में उनके साथ जहर खुरानी हो गई। वह होश में तो आए पर लीवर डैमेज करके। जाने क्या चीज़ जहरखुरानों ने उन्हें खिला दी। पर अब जब वह बीमार हो कर आए तो उन की मयकशी ही चरचा में रही। यह भी खेदजनक था। उनके ही एक मिसरे में कहूं तो- आंख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे। तो कोई कुछ भी नहीं कर सकता। उनके एक शेर में ही बात खत्म करुं कि, एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए/ चार छै चमचे रहें माइक रहे माला रहे। अब यह बात हर हलके में शुमार है अदम गोंडवी, यह भी आप जान कर ही गए होंगे। पर क्या कीजिएगा भारत भूषण का एक गीत है कि ये असंगति ज़िंदगी के साथ बार बार रोई/ चाह में और कोई/ बांह में और कोई!

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[B]---इसे भी पढ़ सकते हैं---[/B]

[LINK=http://www.bhadas4media.com/print/1067-2011-12-13-13-43-43.html][B]बीमार अदम गोंडवी और फासिस्ट हिंदी लेखक : एक ट्रेजडी कथा[/B][/LINK]

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तो अदम के पास गज़लें थीं, शोहरत थी पर दौलत नहीं थी। उनका जीवन कुछ इस तरह बीता कि इक हाथ में कलम है और एक हाथ [IMG]http://www.bhadas4media.com/images/stories/africa/dnp.jpg[/IMG]में कुदाल/ वाबस्ता हैं ज़मीन से सपने अदीब के। आमीन अदम गोंडवी, एक बार फिर आमीन! हां गीतों के राजकुमार भारत भूषण का भी कल रात मेरठ के एक अस्पताल में निधन हो गया। इन दोनों रचनाकारों को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि!

[B]लेखक दयानंद पांडेय वरिष्‍ठ पत्रकार तथा उपन्‍यासकार हैं. दयानंद से संपर्क 09415130127, 09335233424 और   के जरिए किया जा सकता है.[/B]
[LARGE][LINK=/article-comment/1195-2011-12-19-12-36-48.html]जहरखुरानी का शिकार होने का बहाना बनाते थे अदम गोंडवी[/LINK] [/LARGE]

[*] [LINK=/article-comment/1195-2011-12-19-12-36-48.html?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
[*] [LINK=/component/mailto/?tmpl=component&template=gk_twn2&link=6cca0663065f2e860fa2a6a224d175ca3bd109d6][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
Details Category: [LINK=/article-comment.html]इवेंट, पावर-पुलिस, न्यूज-व्यूज, चर्चा-चिट्ठी...[/LINK] Published on Monday, 19 December 2011 21:36 Written by पंडित सुरेश नीरव
: [B]तब वो भड़क कर बोले- मैं वही लिखता हूं जो मेरा मन कहता है, मैं दरबारी कवि नहीं हूं[/B] : मटमैली-सी धोती और खादी के कुर्ते में एक औसत भारतीय की तरह ठेठ देहाती शख्सियत के कवि को मैंने बिजनौर कविसम्मेलन के मंच पर बैठे देखा तो अपने पास ही बैठे कवि डॉक्टर कुंअर बेचैन से इशारों-ही इशारों में जाना चाहा कि ये कौन सज्जन हैं तो उन्होंने कान में धीरे से फुसफुसाया- अदम गौंडवी। एक हतप्रभकारी अहसास की जुबिश से दिमाग में झन्नाटा हुआ। सत्ता के पाखंड को अपनी कविताओं से बेनकाब करनेवाला तेजाबी कवि इतना सहज और सरल। ऐसा लगा जैसे कोई आग है जिसने पानी के घर में ठिकाना बना लिया है। जिसकी गुनगुनी आंच में सिककर शब्द निकलते है और कविता में ढल जाते हैं।

कबीर की तरह बेहद सादगी से बात कहने के अंदाज़ ने ही उन्हें जनता की आवाज़ का कवि बनाया था। अदमगौंडवी कहीं जाते तो बाद में थे उनकी कविताएं उस जगह बहुत पहले ही वहां पहुंच जाती थीं।

काजू भुने हुए व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

अदम गौंडवी ने खूब लिखा। और खूब सुनाया। वैसे अगर वो बहुत ज्यादा नहीं भी लिखते तो कोई खास फर्क़ नहीं पड़नेवाला था. उनकी एक ही ग़ज़ल ने बल्कि यूं कहिए कि ग़ज़ल के सिऱ्फ एक ही शेर ने उन्हें शोहरत की उस बुलंदी पर पहुंचा दिया था जहां अपनी जिंदगी में वे कविता का मुहावरा बन गए थे। मेरी पहली मुलाकात सिर्फ मुलाकात नहीं एक इतिहास बनने जा रही थी। माइक पर आते ही अदम साहब ने पुरे मूड में एक-एक करके तीन-चार कविताएं पढ़ीं और श्रोताओं की खूब तालियां बटोरीं। और फिर अचानक जो कविता उन्होंने पढ़ी उसका शीर्षक सुनते ही श्रोताओं में सन्नाटा छा गया।

बोले अब मेरी कविता सुनिए। शीर्षक है-चमारिन। आजके दैर में इतने बड़े जनसमुदाय के बीच ऐसी कविता पढ़ने का दुस्साहस एक मैला-कुचैला-सा क्षीणकाय कवि कर देगा इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। इत्तफाक से कविसम्मेलन का संचालन मैं ही कर रहा था। मैंने उन्हें  कुछ और रचनाएं सुनाने का आग्रह किया तो बोले और भी कविताएं सुनाउंगा लेकिन पहले इस कविता को सुनिए। एक दलित कन्या की व्यथा को उजागर करती इतनी मार्मिक कविता मैंने आज तक नहीं सुनी थी। तमाम प्श्न उछालती सामाजिक सरोकारों से लैस दलित वाग्मय की एक जरूरी कविता। श्रोताओं ने खूब सराहा इस कविता को।

कार्यक्रम के समाप्त होने के बाद मंच पर कुछ लोगों ने आकर कविता का शीर्षक बदलने का सुझाव दिया तो एक दम उखड़ गए- बोले मैं वही लिखता हूं जो मेरा मन कहता है। मैं दरबारी कवि नहीं हूं। मुझे उनकी ये अदा बहुत ही भाई। और फिर दिल के दरवाजे खुले तो उनकी मुहब्बतों में खुलते ही चले गए। बाद में चर्चाएं मुकुट बिहारी सरोज को लेकतर चल पड़ी। तमाम रासायनिक संस्मरणों के सीरियल खुल गए। अदम साहब भी पीने-पिलाने के मामले में पूरे अखिल भारतीय खिलाड़ी थे। एक-दो बार कार्यक्रम में स्वीकृति देकर भी इस चक्कर में वे नहीं पहुच पाते थे। और कभी-कभी जिस स्टेशन पर ट्रेन से उतरना होता था, सोते में वह स्टेशन ही निकल जाता था।

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[B]-दयानंद पांडेय का लिखा पढ़ें- [/B]

[LINK=http://bhadas4media.com/print/1175-2011-12-18-14-56-29.html]शराब नहीं, जहरखुरानी के दुष्प्रभाव से बिगड़ा जनकवि का लीवर![/LINK]

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और कभी-कभी तो प्रोग्राम खत्म होने के बाद ही वे मंच पर पहुंच पाते थे। और उनका पेट बहाना होता था कि जहर खुरानी गिरोह की चपेट में आ गया था। बेहोश कर दिया। सारा सामान गायब कर दिया। किसी तरह आ पाया हूं। जो उनके करीबी थे वो इस बात को खूब जानते थे। हमारी उनसे आखिरी मुलाकात हिंदुस्तान टाइम्स के कार्यालय में हुई। उनका साक्षात्कार लेने जो पत्रकार बंधु लगाये गये थे उनके प्रश्नों के जवाब देने के बजाय वो मुझसे पूछते थे कि इसका क्या जवाब दे दिया जाए। मैंने कहा इंटरव्यू आपका चल रहा है और जवाब आप मुझसे क्यों दिलवा रहे हैं। तो बोले इंटरव्यू कोई भी दे। जवाब कोई भी दे। पेमेंट तो मुझे ही मिलेगा। और फिर जोर-ज़ोर से बच्चे की तरह हंसने लगे।

कल मुझे फेसबुक पर कवि मित्र की पोस्ट आई कि अदम गौंडवी अस्पताल में भर्ती हैं। हमें उनके लिए कुछ मदद करनी चाहिए। मैंने लिखा कि बताएं कहां और किस पते पर मदद भेजी जाए.। एक-दो घंटे बाद ही कटनी से प्रकाश प्रलय का एसएमएस आया कि अदम गौंडवी नहीं रहे। उन्हें किसकी मदद चाहिए थी। जिसने पूरी जिंदगी खुद्दारी से गुजारी हो वो भला क्यों किसी की मदद लेता। वो अपने ही अंदाज़ में जिये और अपने ही अंदाज में चले गए। किसी की मदद नहीं ली उन्होंने। वो तो देने की ही मुद्रा में रहे। इतना कुछ दे गए हैं वो अपनी रचनाओं से [IMG]http://bhadas4media.com/images/stories/ptsureshnirav.jpg[/IMG]कि आनेवाली पीढ़ी जब भी शायरी की बात करेगी उनकी चर्चा जरूर करेंगे।. उनकी आवाज़ आम आदमी की आवाज थी। हर आम आदमी की आवाज़ के पर्दे से अदम गौंडवी साहब झांकते रहेंगे।

[B]पंडित सुरेश नीरव जाने-माने हास्य कवि और व्यंग्यकार हैं. उनसे संपर्क 09810243966 के जरिए किया जा सकता है. पंडित सुरेश नीरव की रचनाओं, उनसे संबंधित खबरों को इन दो लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है...[/B]


[/*][LARGE][LINK=/print/1163-2011-12-18-08-16-00.html]अदम गोंडवी को पहली बार गंवई मेले के कवि सम्मेलन में देखा था[/LINK] [/LARGE]

[*] [LINK=/print/1163-2011-12-18-08-16-00.html?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
[*] [LINK=/component/mailto/?tmpl=component&template=gk_twn2&link=8aa43fb876eaf2fe86e7fd3a42e20ec606fd8062][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
Details Category: [LINK=/print.html]प्रिंट, टीवी, वेब, ब्लाग, सिनेमा, साहित्य...[/LINK] Published on Sunday, 18 December 2011 17:16 Written by चण्डीदत्त शुक्ल
: [B]अदम की फिक्र करो, ताकि सरोकार ज़िंदा रहें[/B] : रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी। मटमैली धोती में लिपटा इकहरा बदन। उनकी हड्डियों में ज्यादा ज़ोर शायद न होगा, पर जब उनकी ग़ज़लें बोलती हैं तो हुकूमतें सिहर जाती हैं। अदम गोंडवी के बारे में अक्सर कहा जाता है कि हिंदी ग़ज़लों की दुनिया में दुष्यंत कुमार के बाद वे ही शीर्षस्थ रचनाकार हैं, लेकिन मेरी, यानी इन पंक्तियों के लेखक की अदम जी से पहचान साहित्य से कहीं ज्यादा, घर के बुजुर्ग के साथ खानदान के सबसे छोटे लड़के जैसी है।

अदम जी को सबसे पहली बार गोंडा के ही एक गंवई मेले के मौके पर हुए कवि सम्मेलन में देखा था। ठेठ गंवई ज़बान में सत्ता के ख़िलाफ़ आग उगलते हुए अदम अपने व्यक्तित्व में ज्यादा प्रभावित नहीं करते, लेकिन उनकी बातें, कहन, अंदाज़ और बेशक... कंटेंट, यानी शायरी का बयान जैसे तेजाब बनकर आलसी और यथायस्थितिवादी दिमाग में उतर गए थे। वो दिन था और अब का लम्हा, अदम को भुलाना संभव नहीं हो पाया है।

महबूब की तारीफ़ में लिखी जाने वाली परंपरागत ग़ज़ल से अलग, जिसे भी ग़ज़ल के क्रांतिकारी रुख से मोहब्बत है, वो अदम की अहमियत से कभी आंखें न चुराएगा... फिर भी अफ़सोस, आज उन्हीं अदम का स्वास्थ्य बुरी तरह ख़राब है और उनका पुरसाहाल कोई नहीं है। कम से कम सरकारी अमला तो बिल्कुल नहीं।

गोंडा के एक प्राइवेट अस्पताल में अदम गोंडवी लिवर की बीमारी के शिकार होकर अरसे तक उपचाररत रहे। बाद में हालत और बिगड़ी, फिर उन्हें लखनऊ के संजय गांधी परास्नातक आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) में दाखिल कराया गया। किसी का बीमार होना और इलाज कराना सामान्य-सी घटना है, लेकिन जिस तरह अदम को सरकारी तंत्र और बुर्जुआपने की हद तक एकाग्र और एकांगी हो गए बुद्धिजीवी वर्ग की उपेक्षा झेलनी पड़ी, वो सामान्य बात नहीं है।

हिंदी पट्टी ने अपनी पीढ़ी के सबसे अहम शायर के स्वास्थ्य की, उनके रहन-सहन की, विद्रोह की चिंता नहीं की। यह क्या मूल्यहीनता और मूल्यों के प्रति सामान्य, औसत सरोकारों के क्षरण की स्थिति नहीं है? पिछले दिनों मैंने कहीं पढ़ा कि मेरे हमज़िला कवि अदम गोंडवी की मदद के लिए एक सियासी पार्टी तो आगे आ गई, कुछ पाठकों-श्रोताओं ने हमदर्दी जता दी, गोंडा के डीएम ने भी खर्च उठाने का वादा किया, लेकिन लेखकों-साहित्यकारों और साहित्य की सेवा का दम भरने वाली अकादमियों की तरफ से महज जुबानी जमा-खर्च किया गया। एक अकादमी के अगुआ ने कहा कि अदम की ओर से लिखित आवेदन आए तो उन्हें कुछ हज़ार रुपए की राशि मुहैया कराई जा सकती है। सवाल फिर वही है, साहित्य का भला करने की बातें सिर्फ बातें हैं क्या? क्या एक शायर दम तोड़ दे, तब उसकी याद में मजलिसें बुलाने भर को अकादमियों ने अपना कर्तव्य मान लिया है?

संवेदनहीनता की हद तो तब हो गई, जब पता चला कि अदम जी को ब्लीडिंग हो रही थी और पीजीआई के डॉक्टर उनके साथ अस्पृश्य जैसा व्यवहार कर रहे थे। क्या आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको जैसी खरी-खरी लिखने-कहने वाले साहित्यकार के साथ ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए था?

पिछले दिनों फेसबुक पर जब अदम जी की ख़राब हालत का बयान मैंने किया तो दिल्ली के ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव से लेकर कवि कुमार विश्वास तक ने चिंता जताई। साहित्य प्रेमी रौशन मिश्रा ने नकद सहायता देने की बात कही। पत्रकार महावीर जायसवाल और नीरज मिश्रा ने भी आगे आने का दम दिखाया, लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि सरकारी अमले को अदम के स्वास्थ्य की चिंता बिल्कुल नहीं रही।
निराला हों या नागार्जुन, मंटो हों या फिर श्रीलाल शुक्ल... हिंदी पट्टी ने अपने साहित्य प्रेमियों की परवाह कभी नहीं की। अब क्या अदम की बारी है? हिंदी ग़ज़ल को अदम ने चेहरा दिया है और उसके चरित्र की पहचान की है। सामंतवादियों से उन्होंने सीधा लोहा लिया और हरदम निरंकुशता के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते रहे। हमारे दौर के कबीर अदम गोंडवी ही थे, जो लिख सकते थे -- काजू भुनी प्लेट में, ह्विस्की गिलास में, उतरा है रामराज्य विधायक निवास में।

आजकल बहुत-से लिखने-पढ़ने वालों की निगाह राइटिंग टेबल से कहीं ज्यादा सम्मान समारोहों और जुगाड़पट्टी पर लगी रहती है। ऐसे कठिन समय में, जब उद्देश्य रचनाधर्मिता से अधिक सेटिंग-गेटिंग की तरफ तरलीकृत हो गए हैं, अदम गोंडवी ने न अपनी मिट्टी छोड़ी, न ही अपना अंदाज़।

वे कवि सम्मेलनों के पॉपुलर कल्चर में फिट नहीं होते, क्योंकि उन्हें चुटकुलेबाजी करना नहीं आता। वे बेलौस तरीके से, सीधे-सीधे अपनी बात कहते हैं। उनके पास वाकजाल नहीं हैं, क्योंकि अभिधा की मार वे पहचानते हैं। अदम कहते हैं, तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है तो सरकारें अवाक् रह जाती हैं। उनका सवाल होता है, वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं, वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें तो दलित चिंतन की दुहाई देने वालों का खोखलापन सामने आ जाता है। वे अबोले रह जाते हैं। धूमिल की तरह ही अदम का भी रुख स्पष्ट है... सौ मैं सत्तर आदमी जिस देश में नासाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है?

अदम की अच्छाई कहें या बुराई--वे सीधे हैं, सपाट हैं और यही बात इस जड़ व्यवस्था को स्वीकार नहीं। उन्हें प्लास्टिक फेस बनाने का, बनावटी पीआर करने का हुनर नहीं आता, ये अंदाज़ उन्हें तथाकथित प्रसिद्धि नहीं दिला सकता, लेकिन कुछ तो बात है कि उनकी धरती की सतह पर सरीखी किताब की मांग लगातार बनी है और टेलीविजन चैनलों के दर्जनों रिपोर्टर्स की पीटूसी उनकी कविताओं से ही लैस रहती है।

खैर, लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में, उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें का उदघोष करने वाले अदम गोंडवी की फ़िक्र करनी महज इसलिए भी ज़रूरी नहीं है कि वे हिंदी ग़ज़ल के बड़े शायर हैं। उनकी हाल-ख़बर इसलिए भी लेनी ज़रूरी है, ताकि हमारे मूल्य, सरोकार और संवेदनशीलता ज़िंदा रहे। हमें वो वक्त लाना होगा, जब चर्चित कवि अनिल जनविजय पीड़ा के साथ यह कहने को मजबूर न हों -- अदम की कोई फिक्र क्यों करेगा। उनसे कौन-सी ठकुरसुहाती होगी। वे कौन-से सम्मान जुटा पाएंगे। वे तो जनता के कवि हैं। [IMG]http://bhadas4media.com/images/stories/chandidutt.jpg[/IMG]बस जनता की बात करेंगे।

[B]लेखक चण्डीदत्त शुक्ल दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका अहा ज़िन्दगी के फीचर संपादक हैं.[/B]

रविवार, १८ दिसम्बर २०११

चल दिए सू-ए-अदम - अदम गोंडवी


रविवार की सुबह मेरे लिए अमूमन दोपहर को होती है. सोकर उठा तो घर में मेहमानों की संख्या अधिक होने के कारण दोनों गुसलखाने बंद थे. लैपटॉप खोलकर बैठ गया और फेसबुक पर सबसे पहली खबर जो मिली वह थी -अदम गोंडवी नहीं रहे. यहीं से कुछ समय पूर्व किसी ने उनकी बीमारी, साधनों का अभाव और प्रशासन द्वारा उपेक्षा का समाचार मिला था. आज वो घड़ी भी आ गयी जिसे टाला नहीं जा सकता था. एक पुरानी कहावत है कि मनुष्य मृत्यु से नहीं – मृत्यु के प्रकार से डरता है. अदम गोंडवी साहब के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन वो एक स्वाभिमानी इंसान थे, जब बुलावा आया तभी गए "खुदा के घर भी न जायेंगे बिन बुलाये हुए" वाले अंदाज़ में.

इनसे मेरा पहला परिचय १९८६-८७ में हुआ था. पत्रिकाओं में दो रचनाओं के बीच छोटे से कॉलम में कोइ कविता या गज़ल छापने का रिवाज़ तब भी था. ऐसे ही एक कॉलम में अदम गोंडवी साहब की गज़ल मैंने पहली बार पढ़ी
काजू भुनी पिलेट में, ह्विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में!
और बाद के शेर ऐसे कि जैसे हाथ में लें तो फफोले निकल आयें और ज़ुबान पर रखें तो मुंह जल जाए. तब तक दुष्यंत कुमार की गज़लें नसों में खून की गर्दिश तेज कर देती थी. लेकिन इस एक गज़ल ने जैसे आग लगा दी. तब इंटरनेट वगैरह की सुविधा न थी. न शायर के बारे में जान सका – उसके रचना संसार के बारे में. लेकिन दिमाग के किसी कोने में यह शायर घर कर गया.

घुटने तक मटमैली धोती, बिना प्रेस किया मुचड़ा कुर्ता-बंडी और गले में मफलर... यह हुलिया कतई एक शायर का नहीं हो सकता. और अगर यह कहें कि यह हुलिया एक मुशायरे के रोज एक शायर का है तो आपको ताज्जुब होगा. ऐसे शख्स थे जनाब राम नाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी. मुशायरों में इनकी शायरी पर जितनी वाह-वाह होती रहे, उनके चहरे से कभी ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने कोइ बड़ी बात कह दी हो. आज जब किसी शायर को, शेर के वज़न से ज़्यादा, खुद की एक्टिंग से शेर में असर पैदा करते देखता/सुनता हूँ, तो लगता है कि अदम साहब की सादगी ही उनका बयान थी. जो शख्स भूख पर शायरी करता हो, उसने भूखे रहकर वो दर्द महसूस किया है, जो उसके बयान में है.

सही मायने में कहा जाए तो उनकी पूरी शायरी उनका अपना अनुभव था. साहिर साहब ने कभी खुद के लिए कहा था कि
दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं.
और अदम साहब की शायरी में भी वही दिखता था. साहिर साहब को तो रूमानियात के भी अनुभव होंगे, इसलिए रूमानी शायरी भी कर लेते थे, लेकिन अदम गोंडवी साहब के लिए तो शायद वह भी अनुभव न रहा होगा. उनका तो कहना था कि
ज़ुल्फ़, अंगडाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब,
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब.
देश की आज़ादी के दो महीने बाद (२२ अक्टूबर १९४७) पैदा हुए राम नाथ सिंह को दिखा होगा कि मुल्क आज़ाद नहीं हुआ है. या जिसे हम आज़ादी कह रहे हैं वह एक ख्वाब है जो सारी जनता को दिखाया जा रहा है, जो एक अफीमी नींद में बेहोश सो रही है. एक जागा हुआ शख्स था वो जिसे दिखती थी भूख, बेरोजगारी, इंसानों-इंसानों में फर्क, हिंदू-मुसलमान के झगड़े, वोट की राजनीति, मजदूरों का दमन, औरतों पर अत्याचार, समाज में बढ़ता शोषण. ऐसे में राम नाथ सिंह सोये न रह पाए, नशा टूटा और वो अदम बनकर लोगों को बेहोशी के आलम से निकालने को गुहार लगाने लगे.

बेचता यूं ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले आती है ऐसे मोड पर इंसान को.
/
महल से झोपड़ी तक एकदम घुटती उदासी है,
किसी का पेट खाली है, किसी की रूह प्यासी है.
/
वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है,
उसी के दम पे रौनक, आपके बंगलों में आई है.
/
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज
उस युवा पीढ़ी के चहरे की हताशा देखिये.
/
मज़हबी दंगों के शोलों में शराफत जल गयी,
फन के दोराहे पे नंगी द्रौपदी की लाश है.

जहां दुष्यंत की गज़लें एक मद्धिम आंच की तरह धीमे-धीमे सुलगती है, वहीं अदम गोंडवी साहब की गज़लें एक लपट की तरह हैं.

गांधी जी ने कहा था कि तुम कोइ भी निर्णय लेने से पहले देश के एक सबसे कमज़ोर व्यक्ति के विषय में सोचो कि इस निर्णय से उसका कितना फायदा हो पाएगा.

पता नहीं देश के रहनुमाओं ने उसपर गौर  किया या नहीं, पर काश अदम गोंडवी साहब की ग़ज़लों का मजमुआ योजना आयोग के पास होता. आज जब वो अज़ीम शायर हमारे बीच नहीं है, उसकी जलाई हुई मशाल मौजूद है.
ताला लगाके आप हमारी ज़ुबान को,
कैदी न रख सकेंगे ज़ेहन की उड़ान को.
मौत ने भले ही उनकी ज़ुबान पर ताले डाल दिए हों, उनका सवाल कभी खामोश नहीं होगा.
 
आज उनकी मौत पर यह भी नहीं कह सकता कि परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दे, क्योंकि उनकी आत्मा को शान्ति मिलनी होती तो इसी दुनिया में मिल गयी होती!

28 टिप्पणियाँ:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सलाम।

S.N SHUKLA ने कहा…

verma ji,
bahut sundar aur saarthak post, aabhaar sweekaaren.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काजू भुनी पिलेट में, ह्विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में!

बहुत पहले पढ़ा था यह, पर पता नहीं था कि गोंडवी साहब ने लिखा है, आज पत
ा चला है तो गोंडवी साहब नहीं हैं। विनम्र श्रद्धांजलि।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आपके पोस्ट से ही जान पाया। रामनाथ सिंह जैसे जनकवि बिरले ही होते हैं। सच्ची श्रद्धांजलि तो उनके लिखे को और पढ़कर, उनके बताये रास्ते पर चलकर ही दी जा सकती है।

भूख है पर भूख में आक्रोश वो दिखता नहीं
सोचता हूँ आज कोई ऐसा क्यूँ लिखता नहीं!

..आपने संक्षेप में उनकी लेखनी से रू-ब-रू तो करा ही दिया। कविता कोष में भी उनको तत्काल पढ़ा जा सकता है।

सतीश सक्सेना ने कहा…

कुछ लोग जहां कहीं भी रहें अपने अमिट निशान छोड़ते हैं ...वे भी ऐसे ही थे !
विनम्र श्रद्धांजलि और इस पोस्ट के लिए आपका आभार सलिल भाई !

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

गोंडवी साहब की एक गज़ल जो मुझे बहुत अच्छी लगती है...

चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया

'अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं'
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया.

अनूप शुक्ल ने कहा…

कई दिनों से अदम गोंडवी जी के बारे में और उनके शेर फ़िर से पढ़ रहे थे। आज सुबह खबर आई थी कि उनकी तबियत में सुधार हो रहा है। दोपहर को पता चला कि उनका निधन हो गया। 

स्व.अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि।

abhi ने कहा…

:( chacha...wo mere bhi bhut priy shayar the...

शिवम् मिश्रा ने कहा…

कल ही मैंने अपने एक IAS मित्र से बात की थी कि अदम साहब को कुछ सरकारी अनुदान मिल सके तो उनका इलाज बहेतर तरीके से संभव हो सकेगा ... पर इस से पहले कि वो या कोई और कुछ कर पाता ... सब कुछ ख़त्म हो गया !


विनम्र श्रधांजलि ...

rashmi ravija ने कहा…

अदम गोंडवी जी को विनम्र श्रद्धांजलि.

संगीता पुरी ने कहा…

अदम गोंडवी जी को विनम्र श्रद्धांजलि.....

संजय @ मो सम कौन ? ने कहा…

सन 2011 बहुत कीमत लेकर जा रहा है, कितने ही लीजेंड नाता तुड़ाकर चले गये।
अभी कल परसों पढ़ा था कि गोंडवी साहब के गाँव तक की सड़क बन रही है, लेकिन उन्हें उस सड़क पर थोड़े ही जाना था। आम आदमी के दर्द को अपने लफ़्ज़ों के जरिये बयान करने वाले उस हरदिल अजीज शायर को विनम्र श्रद्धांजलि।

आचार्य परशुराम राय ने कहा…

अदम गोंडवी साहब को हार्दिक श्रद्धांजलि।

बेनामी ने कहा…

उनके चहरे से कभी ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने कोइ बड़ी बात कह दी हो. आज जब किसी शायर को, शेर के वज़न से ज़्यादा, खुद की एक्टिंग से शेर में असर पैदा करते देखता/सुनता हूँ, तो लगता है कि अदम साहब की सादगी ही उनका बयान थी.

अदम नाम में ही इसका रहस्य छुपा लगता है, सलिल भाई !
विनम्र श्रद्धांजलि.....

मनोज भारती ने कहा…

जनाब राम नाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि!!!

क्या हम और हमारी सरकार ऐसी आत्माओं को शांति दिलाने वाले काम करेंगे???

SKT ने कहा…

वाक़ई शायर मा आग है! इस आग को सलाम!!

मनोज कुमार ने कहा…

@ देश की आज़ादी के दो महीने बाद (२२ अक्टूबर १९४७) पैदा हुए राम नाथ सिंह को दिखा होगा कि मुल्क आज़ाद नहीं हुआ है.
एक शे'र अदम गोंदवी साहब क याद आ गया।

आज़ादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।
***

बहुत अच्छे शायर और बहुत अच्छे इंसान को खो देना बहुत दुखदायी है।

कैसे-कैसे लोग रुख़सत कारवां से हो गये
कुछ फ़रिश्ते चल रहे थे जैसे इंसानों के साथ।

सुलभ ने कहा…

श्रद्धांजलि !!!

lokendra singh ने कहा…

गोंडवी साहब को श्रद्धांजलि

रंजना ने कहा…

हत्यारी सा लग रहा है भैया..

आज सुबह ही अखबार से उनका एकाउंट नंबर नोट किया और सोचा था, कल पैसे डलवाउंगी ... 

क्या कहूँ कुछ समझ नहीं आ रहा...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अदम गोंडवी जी का असली नाम आज आपकी पोस्ट से पता चला .. सार्थक प्रस्तुति ...

उनके लिए विनम्र श्रद्धांजलि

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…

दुखद खबर है, श्रद्धांजलि। उनके शब्दों से प्रभावित रहा हूँ। आज आपके द्वारा उनके जीवन के कुछ अन्य पक्ष जानने को मिले, आभार!

अशोक कुमार शुक्ला ने कहा…

अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि!!!

mahendra verma ने कहा…

अदम गोंडवी साहब को विनम्र श्रद्धांजलि।
आपकी इस प्रस्तुति से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का नया रूप महसूस किया।

shikha varshney ने कहा…

उनके शब्द हमेशा चिंगारी की तरह रहेंगे.
गोंडवी जी को विनर्म श्रद्धांजलि.

Ravi Shankar ने कहा…

कहर बन के टूटा है ये साल,दाऊ ! ऐसी चोट दी है इसने कि अदाकारी शायरी और मौसिकी को संभलने में मुद्दत बीत जायेगी ! अदम जी के शेरों में आदम की ज़िंदगी के सबसे तीखे रंग दिखते हैं !

वो खाका जो उन्होने 'मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको' में खींचा था… जेहन में चिपका हुआ सा रहा करता है…।

अदम को नमन !

Smita ने कहा…

अदम जी से हम लोगों के बहुत घनिष्ट सम्बन्ध रहे हैं.....वे मेरे पतिदेव के अभिन्न मित्रों में रहे हैं.....बहुत बार सुना है कवि सम्मेलनों से ले कर अपने घर में हुई बहुत आत्मीय गोष्ठियों तक में......बहुत पीड़ा हुई जान कर की इस तरह उन्हें जाना पड़ा.....बहुत बहुत श्रध्धान्जलियाँ उन्हें अर्पित हैं.....

kshama ने कहा…

Vinamr shaddhanjali.
Aalekh bahut prabhavi hai.

स्मरण

 

अदम गोंडवी की ग़ज़लें


सुप्रसिद्ध कवि अदम गोंडवी ऊर्फ रामनाथ सिंह का 18 दिसंबर को निधन हो गया. वे पिछले कई महीने से बीमार चल रहे थे. यहां हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये उनकी कुछ ग़ज़ले प्रस्तुत कर रहे हैं.

काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में

अदम गोंडवी

उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
000
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.
000
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है 
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है 

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का 
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है 

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले 
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है 

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी 
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
000
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
000
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
000
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है 
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है 

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो 
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है 

लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में 
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है 

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के 
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
000
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं 
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें

लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में 
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें 

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास 
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें 

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है 
ठूंठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे 
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

18.12.2011, 12.57 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

http://raviwar.com/footfive/f36_adam-gondvi-poem-and-gazal.shtml

अदम गोंडवी / परिचय

बाईस अक्तूबर १९४७ को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में "अदम गोंडवी" के नाम से सुविख्यात हुए।
अदम जी कबीर परंपरा के कवि हैं, अंतर यही कि अदम ने कागज़ कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था।

देखना सुनना व् सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए

कल तलक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गए

दुष्यंत जी ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है जहाँ से एक एक चीज़ बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके.

जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

मुशायरों में ,घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफ़ेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी और आपका शायद ध्यान ही न गया हो यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएँ पढे के आपका ध्यान और कहीं जाए ही न तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी हैं. उनकी निपट गंवई अंदाज़ में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है.

किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
कल के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी

खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर
फिर मेरे गीत में मासूमियत कहाँ होगी

आप आयें तो कभी गाँव की चौपालों में
मैं रहूँ या न रहूँ भूख मेज़बां होगी

अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय वे ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते हैं। उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है.

वस्तुतः ये गज़लें अपने ज़माने के लोगों से 'ठोस धरती की सतह पर लौट ' आने का आग्रह कर रही हैं.

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में

अदम जी की शायरी में आज जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है के पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है.आप इस किताब का कोई सफह पलटिए और कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दीजिए, आपको मेरी बात पर यकीन आ जायेगा.

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में

अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं. उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है. सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है.

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को

शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को


http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%A6%E0%A4%AE_%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B5%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF

नहीं रहे व्‍यवस्‍था को झकझोरने वाले कवि अदम गोंडवी
आजतक ब्‍यूरो | लखनऊ, 18 दिसम्बर 2011   |  अपडेटेड : 10:03 IST
जाने-माने कवि अदम गोंडवी नहीं रहे. लंबी बीमारी के बाद पीजीआई लखनऊ में रविवार सुबह 5 बजे उनका निधन हो गया. 65 साल के गोंडवी को लीवर में परेशानी के बाद अस्‍पताल में भर्ती कराया गया था. वे अपनी कविताओं के माध्‍यम से व्‍यवस्‍था को झकझोर कर रख देते थे.
  • योगगुरु रामदेव बने कवि, कवितापाठ किया
  • कविता संग्रह: जीवन के कच्चे-पक्के रंग
  • कविता संग्रह: छुवा-छुवौवल की थकान | LIVE TV
  • कविता संग्रह: संवाद के पुल | LIVE अपडेट
  • http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/687511/Adam-gondvi-dead.html
  • अदम जनता के कवि हैं, उन्‍हें बचाने के लिए आगे आएं

    16 DECEMBER 2011 8 COMMENTS
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    ♦ कौशल किशोर

    नकवि रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी की हालत अब भी चिंताजनक बनी हुई है। अपनी गजलों व शायरी से आम जन में नयी स्फूर्ति व चेतना भर देने वाले अदम लखनऊ के संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (पीजीआई) के गेस्ट्रोलॉजी विभाग (पांचवा तल, जी ब्लॉक, बेड नं 3) में भर्ती हैं। उनकी चेतना जब भी वापस आती है, वे अपने भतीजे दिलीप कुमार सिंह को सख्त हिदायत देते हैं कि मेरे इलाज के लिए अपनी तरफ से किसी से सहयोग मत मांगो। जैसे कहना चाहते हैं कि सारी जिंदगी संघर्ष किया है, अपनी बीमारी से भी लड़ेगे। उसे भी परास्त करेंगे। वे जब भी आंख खोलते हैं, चारों तरफ अपने साथियों को पाते हैं। उनके चेहरे पर नयी चमक सी आ जाती है। एक साथी उन्हें सुनाते हैं, 'काजू भुनी पलेट में, ह्व‍िस्की ग्लास में / उतरा है रामराज्‍य विधायक निवास में' और अदम अपना सारा दर्द पी जाते हैं और उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान फैल जाती है।

    अदम गोंडवी का लीवर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। किडनी भी ठीक से काम नहीं कर रही है। पेट फूला हुआ है। मुंह से पानी का घूंट भी ले पाना उनके लिए संभव नहीं है। खून में हीमोग्लोबीन का स्तर भी नीचे आ गया है। सोमवार की रात तीन बोतल खून चढ़ाया गया। संभव है आगे और खून चढ़ाना पड़े। मंगलवार को अदम गोंडवी का इंडोस्कोपी हुआ तथा कई जांचें की गयी। इनकी रिपोर्ट आने के बाद आगे के इलाज की दिशा तय होगी। पीजीआई के डाक्टरों का कहना है कि अदम गोंडवी के इलाज में करीब तीन लाख रुपये के आसपास खर्च आएगा।

    लखनऊ के एक स्‍थानीय अखबार में उनकी बीमारी की खबर तथा सहयोग की अपील का अच्छा असर देखने में आया है। आज सुबह से ही लेखकों, संस्कृतिकर्मियों का पीजीआई आना शुरू हो गया। कई संगठन और व्यक्ति भी सहयोग के लिए सामने आये। जो किसी कारणवश नहीं पहुंच पाये, वे भी लगातार हालचाल पूछते रहे। पहुंचने वालों में वीरेंद्र यादव, प्रो रमेश दीक्षित, राकेश, भगवान स्वरूप कटियार, आरके सिन्हा, श्याम अंकुरम, आदियोग, संजीव सिन्हा, पीसी तिवारी, रामकिशोर आदि प्रमुख थे।

    अदम गोंडवी के इलाज के लिए सहयोग जुटाने के मकसद से कई संगठन सक्रिय हो गये हैं। जसम, प्रलेस, जलेस, कलम, आवाज, ज्ञान विज्ञान समिति आदि संगठनों की ओर से राज्यपाल व मुख्यमंत्री को ज्ञापन भेजा गया तथा उनसे मांग की गयी कि अदम गोंडवी के इलाज का सारा खर्च प्रदेश सरकार उठाये। ऐसा ही ज्ञापन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और भाषा संस्थान को भी भेजा गया है। लेखक संगठनों का कहना है कि अदम गोंडवी ने सारी जिंदगी जनता की कविताएं लिखीं, जन संघर्षों को वाणी दी। ये हमारे समाज और प्रदेश की धरोहर है। इनका जीवन बचाना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। वह आगे आये। रचना व साहित्य के लिए बनी सरकारी संस्थाओं का भी यही दायित्व है।

    सोमवार 12 दिसंबर को अदम गोंडवी को गोंडा से लखनऊ के पीजीआई में लाया गया था। उनकी हालत काफी गंभीर थी। वे नीम बेहोशी की हालत में थे। कई घंटे वे बिना भर्ती व इलाज के पड़े रहे। इससे उनकी हालत और भी खराब होती गयी। बाद में पीजीआई के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती हुए। सबसे बड़ी दिक्कत पैसे की थी। परिवार के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे। सबसे पहले मुलायम सिंह यादव का सहयोग सामने आया। उन्होंने पचास हजार का सहयोग दिया। एडीएम, मनकापुर ने दस हजार का सहयोग दिया। गोंडा में जिस प्राइवेट नर्सिंग होम में उनका इलाज चला, वहां के डाक्टर राजेश कुमार पांडेय ने दस हजार का सहयोग दिया।

    12 तारीख से चले इलाज से इतना फर्क आया है कि उस दिन जहां वे नीम बेहोशी में थे, आज लोगों को पहचान रहे हैं। थोड़ी-बहुत बातचीत भी कर रहे हैं। लेकिन अदम गोंडवी का यह इलाज लंबा चलेगा। इसमें अच्छे-खासे धन की जरूरत होगी। इसके लिए सभी को जुटना होगा। उस समाज को तो जरूर ही आगे आना होगा जिसके लिए अदम गोंडवी ने सारी जिंदगी संघर्ष किया। कहते हैं बूंद-बूद से घड़ा भरता है। लोगों का छोटा सहयोग भी इस मौके पर बड़ा मायने रखता है। वे सहयोग के लिए आगे आ सकते हैं। इस सहयोग से हम अपने कवि का जीवन बचा सकते हैं। सहयोग के लिए दिलीप कुमार सिंह से 09958253708 पर संपर्क करें या सीधे अदम गोंडवी के एकाउंट में भी धन जमा किया जा सकता है। उनका एकाउंट स्‍टेट बैंक ऑफ इंडिया की परसपुर शाखा में है। एकाउंट नंबर है… 31095622283

    (कौशल किशोर। सुरेमनपुर, बलिया, यूपी में जन्‍म। जनसंस्‍कृति मंच, यूपी के संयोजक। 1970 से आज तक हिन्दी की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। रेगुलर ब्‍लॉगर, यूआरएल हैkishorkaushal.blogspot.com। उनसे kaushalsil.2008@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

जनवादी कवि अदम गोंडवी का जन को आखिर सलाम

जनवादी कवि अदम गोंडवी का जन को आखिर सलाम
जनवादी कवि-शायर राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी'. 

जनवादी कवि-शायर राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी' का रविवार तड़के लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में निधन हो गया.

राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी' ने हिन्दी गजल के क्षेत्र में हिन्दुस्तान के कोने-कोने में अपनी पहचान बना ली थी. वे 63 वर्ष के थे.

पारिवारिक सूत्रों ने आज यहां बताया कि अदम जी क्रानिक लीवर डिजीज से पीड़ित थे और उनका इलाज करीब एक माह से चल रहा था. काफी दिन तक गोंडा के एक निजी नर्सिग होम में इलाज कराने के बाद करीब एक सप्ताह पूर्व उन्हें लखनऊ स्थित पीजीआई ले जाया गया था. जहां उनका इलाज चल रहा था. आज तड़के पांच बजे उन्होंने अंतिम सांस ली.

गोंडवी का अंतिम संस्कार सोमवार को उनके पैतृक गांव परसपुर विकास खण्ड के आटा में किया जाएगा. उनके परिवार में एक पुत्र और दो पुत्रियां हैं.अदम गोंडवी ने हमेशा समाज के दबे कुचले एवं कमजोर वर्ग के लोगों की आवाज उठाई.

'धरती की सतह पर' व 'समय से मुठभेड़' जैसे गजल संग्रह से उन्होंने खूब नाम कमाया.वर्ष 1998 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यंत कुमार पुरस्कार से नवाजा.उन्होंने समाज की तल्ख सच्चाई हमेशा समाज के सामने रखी.

युवा पीढ़ी की उपेक्षा व उन्हें गलत दिशा में व्यवस्था द्वारा धकेलने पर उन्होंनें लिखा...

'इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया। सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की।'

रोज-रोज देश में होने वाले घोटालों ने इस देश को खोखला कर दिया। इन घोटालों में ज्यादातर राजनेता ही शामिल रहे। इन नेताओं पर सीधा प्रहार करते हुए अदम ने लिखा...

'जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्मरान कर देंगे, कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।

ये बंदेमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर, मगर बाजार में चीजों का दुगुना दाम कर देंगे।

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे, अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।'

अदम जी ने पूंजीवाद पर भी करारी चोट करते हुए लिखा है...

'लगी है होड़ सी देखो अमीरी और गरीबी में, ये पूंजीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है।

तुम्हारी मेज चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के, यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी तराबी है।'

बाढ़ की राहत सामग्री की 'लूट' पर अदम अपनी कलम नहीं रोक पाये। उन्होंने लिखा...

'महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के। हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के।

मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं। पिछली बाढ़ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के।'

अदम जी बेहद कम पढ़े-लिखे तथा हमेशा जमीन से जुड़ी बात करते थे.

एक रचना में उन्होंने लिखा है...'फटे कपड़ों में तन ढांके, गुजरता हो जिधर कोई, समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है'

उनके बीमार पड़ने के बाद नर्सिग होम में मुलाकात करने गए जिलाधिकारी राम बहादुर को जब उन्होंने अपने गांव की कहानी बताई तो न केवल उन्होंने विकास कार्यों के लिए अदम जी के पूरे गांव को गोद लेने की घोषणा की.

बीते 14 दिसम्बर को उस पगडंडी को सीसी रोड बनाने के लिए भूमि पूजन करके काम भी शुरू करवा दिया.

गांव के विकास के लिए शासन द्वारा संचालित विभिन्न सरकारी परियोजनाओं के लिए 65 लाख रुपए की कार्ययोजना को भी उसी दिन मंजूरी देकर काम शुरू करा दिया गया. किंतु अफसोस कि अदम जी अपने गांव की बदलती सूरत को देखने के लिए नहीं रहे.

जिलाधिकारी राम बहादुर समेत जिले के अनेक साहित्यकार, बुद्धिजीवियों, अधिवक्ताओं ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया है. 

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