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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, October 29, 2011

जापानी परमाणु विनाश के सबक

http://www.samayantar.com/2011/04/20/japani-parmanu-vinash-ke-sabak/

जापानी परमाणु विनाश के सबक

April 20th, 2011

अणु मुक्ति

जापान में चल रही परमाणु तबाही अभी थमी नहीं है। हालांकि मार्च के अंतिम हफ्ते की शुरुआत से ही जापान की सरकार और अंतरराष्ट्रीय मीडिया यह माहौल बना रहा है कि फुकुशिमा में सबकुछ नियंत्रण में आ चुका है। हमारे देश के परमाणु प्रतिष्ठान ने फुकुशिमा दुर्घटना की भयावहता को स्वीकार करने में सबसे ज्यादा देर लगाई और अब सबकुछ ठीक है की रट लगाने में भी भारतीय परमाणु नीति-निर्माताओं का कुनबा सबसे आगे है। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष सुकुमार बनर्जी ने हाल के एक टीवी सक्षात्कार में कहा कि परमाणु-दुर्घटनाओं से ज्यादा मौतें हर साल दिल्ली की सड़कों पर होने वाले हादसों में होती हैं। परमाणु ऊर्जा विभाग की वेबसाइट में परमाणु ऊर्जा को इसलिए सुरक्षित और श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि अन्य ऊर्जा स्रोतों के मुकाबले परमाणु से बिजली उत्पादन के दौरान प्रति मेगावाट बिजली सबसे कम मृत्यु होती है। इस कथन में निहित धारणाएं ये हैं कि हमारे सामने आर्थिक वृद्धि के पागलपन से इतर ना ऊर्जा की बचत और टिकाऊ विकास का कोई वैकल्पिक तरीका है और ना ही ताप या पनबिजली उद्योग में मुनाफे के लालच में जीवन के प्रति बरती जाने वाली कोताही रोकी जा सकती है। जैसे कि परमाणु बिजली का विरोध करने वाले बड़े बांधों और खतरनाक खनन का समर्थन करते हों और आम लोगों के पास विकल्प बस यही है कि वे यह चुनें कि उन्हें कैसे मरना है – परमाणु विकिरण से, ताप-विद्युत निर्माण के दौरान कोयले की खान इत्यादि में या फिर दिल्ली की सड़कों पर अमीरों की गाडिय़ों के नीचे। मानव-जीवन और पर्यावरण के प्रति ऐसा निर्मम तकनीक-केंद्रित रुख रखने वाले हमारे देश की ऊर्जा-नीति तय कर रहे हैं, यह सोच कर ही मन सिहर जाता है। लेकिन तब, ये सबकुछ ऐसे समय में हो रहा है जब एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री गोदामों में सड़ रहे अनाज को सर्वोच्च न्यायालय के कहने के बाद भी गरीबों में बांटने से इसलिए मना कर देता है क्योंकि उसे लगता है कि इससे देश की 'अर्थव्यवस्था' को नुकसान होगा।

लेकिन ये सब सिर्फ तकनीक या अर्थशास्त्र के नियमों के प्रति किसी मासूम अंध-व्यामोह की वजह से नहीं हो रहा। 14 मार्च को जब अफरा-तफरी में रिएक्टरों में समुद्र का पानी डाला जा रहा था, एनपीसीआईएल के चेयरमैन एस.के. जैन हमें समझा रहे थे कि फुकुशिमा में कोई परमाणु दुर्घटना नहीं हुई है। यह सबकुछ बस संयंत्र के संचालकों द्वारा सुनियोजित व्यवस्थापरक तैयारी है। इस बीच जापान ने फुकुशिमा के नजदीकी इबाराकी और मियागी प्रांतों से देश के बाकी हिस्सों में जानेवाले खाद्य-पदार्थ पर रोक लगा दी है और फुकुशिमा से 240 किमी दूर स्थित टोक्यो में विकिरण के कारण नल का पानी बच्चों को पिलाने से मना कर दिया है।
जापान में परमाणु-दुर्घटना से हुई तबाही की लीपापोती में भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान का अपना हित है – यह नहीं चाहते कि परमाणु-करार के बाद विदेशी कंपनियों से खरीदे जा रहे रिएक्टरों को लेकर लोग और सवाल खड़े करें। जर्मनी, स्वीडन, पोलैंड, फिलीपींस, इटली और कई अन्य देशों ने फुकुशिमा की खबर के बाद अपने परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगा दी है और उन पर व्यापक पुनर्विचार और सुरक्षा-जांच के आदेश दिये हैं। खुद फ्रांस, जहां की कंपनी 'अरेवा' जैतापुर (महाराष्ट्र) में बिना जांच किए रिएक्टर लगा रही है, के राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी ने कहा है कि वह फ्रांसीसी रिएक्टर-डिजाइनों की योरोप के स्तर पर पुनर्समीक्षा करवाएंगे। ऐसे में, पूरी दुनिया और खुद जापान की तुलना में फुकुशिमा की दुर्घटना को कम करके आंकना और भारतीय रिएक्टरों के सुरक्षित होने का दावा करने के पीछे हमारे परमाणु नीति-निर्माताओं की खतरनाक मंशा साफ झलकती है।

सच्चाई यह है कि भारत के परमाणु बिजली-केंद्रों में छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं शुरू से होती रही हैं। उत्तरप्रदेश के नरोरा स्थित परमाणु-संयत्र में शीतन के लिए जरूरी बिजली पूरे 24 घंटे गुल होने और नियंत्रण-कक्ष की मशीनें फुंक जाने की घटना 1993 में हो चुकी है। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भारत के रिएक्टरों की सुरक्षा-समीक्षा के लिए कहा है, लेकिन यह पूरी जांच कागजी कारवाई से ज्यादा कुछ साबित नहीं होगी क्योंकि हमारे देश में परमाणु-उद्योग के नियमन के लिए जिम्मेदार संस्था (परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड-एटामिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड) खुद परमाणु ऊर्जा आयोग (डिपार्टमेंट आफ एटामिक एनर्जी) के मातहत काम करती है। इस विरोधाभास पर देश के कई प्रमुख विशेषज्ञ और जनपक्षधर समूह लगातार आवाज उठाते रहे हैं।

उधर जापान में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। इन पंक्तियों के लिखे जाते समय फुकुशिमा में समान्य से एक लाख गुना (2.8 बिलियन बेक्युरेल प्रति घन सेंटीमीटर) रेडियेशन पाया जा रहा है। 25 मार्च को फुकुशिमा दाइ-इचि नंबर-3 रिएक्टर में तीन मजदूरों की हालत गंभीर हो गई जब रिएक्टर से रिस रहे भारी विकिरण-युक्त पानी से उनके पैर जल गये। दूषित पानी रिएक्टर नंबर 1 और 2 से भी निकल रहा है और इससे यह अनुमान भी लगाया गया कि इन रिएक्टर के मूल बरतन (मेन वेसल) में दरार आई है जिसके अंदर सामान्य स्थिति में रेडियोधर्मी ईंधन जलाया जाता है जिसके ताप से पानी गर्म किया जाता है और फिर बिजली बनती है। बाद में जापानी सरकार और फुकुशिमा रिएक्टरों की संचालक कंपनी टेपको को यह मानना पड़ा कि रिएक्टर के कोर (केंद्रक) से रिसाव हुआ है, वैसे ये अब भी इस रिसाव को 'तात्कालिक' और मानव-स्वास्थ्य के लिए तुरंत अहानिकर बता रहे हैं।

11 मार्च की भयावह सुनामी ने इन रिएक्टरों की शीतन-व्यवस्था (कूलेंट) को छिन्न-भिन्न कर दिया था और साथ ही आपातस्थिति में शीतन के लिए प्रयोग होने वाले डीजल-चालित जेनेरेटरों को भी नाकाम कर दिया था। लगातार शीतन के अभाव में रिएक्टर के अंदर हजारों डिग्री तापमान पर तप रहा परमाणु ईंधन बेकाबू हो गया है। उसे ठंडा करने के लिए पिछले हफ्ते से सैकड़ों टन समुद्र का पानी उड़ेला जा रहा है। पहले तो बाहर से फेंके जा रहे इस पानी ने भाप बनकर फुकुशिमा दाई-इचि के छह में से चार रिएक्टरों के बाहरी कंक्रीट आवरण को उड़ा दिया, वहीं अब खबर आ रही है कि समुद्र के पानी के साथ आया सैकड़ों टन नमक इन रिएक्टरों में जमा हो गया है और यह रिएक्टर के केंद्रक को ढंकने वाले स्टील में दरार पैदा कर सकता है। साथ ही, यह नमक परमाणु ईंधन के ऊपर मोटी परत बनकर इकट्ठा हो रहा है जिससे उसे ठंडा करना और भी मुश्किल होता जाएगा। वैसे पानी की आपूर्ति अभी भी पर्याप्त नहीं हो पायी है और लगातार भयानक विकिरण और गर्मी छोड़ती परमाणु ईंधन की छड़ों के दो मीटर तक पानी से बाहर होने की आशंका है। इन रिएक्टरों में पड़ा पहले के बचे हुए ईंधन (स्पेंट फ्यूएल) के भी बाहरी वातावरण के संपर्क में आने की पुष्टि हुई है। यह शेष ईंधन भी अत्यधिक विकिरण-कारी और गरम होता है।

सीटीबीटी ऑर्गनाइजेशन के आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना से हुए विकिरण-रिसाव की मात्रा 22 मार्च तक ही 1986 में रूस में हुई चेर्नोबिल दुर्घटना के आधे से अधिक पहुंच चुकी है तथा आइसलैंड तक विकिरण के निशान देखे जा रहे हैं। ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट में फुकुशिमा को चेर्नोबिल से बड़ी दुर्घटना बताया है। चेर्नोबिल अब तक दुनिया की सबसे बड़ी परमाणु-दुर्घटना है जिससे रूस और योरोप के एक बड़े हिस्से में दशकों तक रेडिएशन-जनित कैंसर और अन्य बीमारियां होती रही हैं और हाल के आंकड़ों के मुताबिक कुल नौ लाख लोग चेर्नोबिल के शिकार हुए हैं। दुनिया की बाकी सरकारों की तरह ही जापान की सरकार भी परमाणु-हादसों से जुड़ी सूचनाएं छुपाती रही है और फुकुशिमा दुर्घटना में भी सरकारी लीपापोती के आरोप लग रहे हैं। खुद जापान के परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व-अध्यक्ष ने कहा है कि सरकार लोगों को अंधेरे में रख रही है। अमेरिका, फ्रांस इत्यादि देशों और अंतरराष्ट्रीय परमाणु-विशेषज्ञों ने जापान सरकार की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं। अमेरिका ने तो अपने उपग्रहों से मिली जानकारी के आधार पर जापान में अपने नागरिकों को रिएक्टर से 80 किमी दूर चले जाने को कहा है जबकि जापान सरकार ने दो हफ्तों में इस दायरे को तीन किमी से धीरे-धीरे बढ़ाकर 30 किमी किया था। रिएक्टरों के आसपास स्थित विकिरण मापन यंत्रों की सूचना भी जापानी एजेंसियां ठीक-ठीक नहीं जारी कर रही हैं। जब विकिरण का स्तर बढ़ता है तो जारी सूचना का अंतराल बढ़ाकर एक से डेढ़ घंटे कर दिया जाता है जबकि विकिरण के निचले स्तरों पर हर दस मिनट पर विकिरण की माप जारी की जा रही है। साथ ही, जापानी एजेंसियां टोकयो इलेक्ट्रिक प्रोडक्शन कंपनी (टेपको) और न्यूक्लियर एंड इंडट्रियल सेफ्टी अॅथारिटी (नीसा) वातावरण में सिर्फ सीजियम-137 और आयोडीन-131 की मात्रा की जानकारी दे रही हैं और आयोडीन-विकिरण की काट के लिए लोगों को आयोडीन की गोलियां बांटीं जा रहीं हैं, जबकि इस दुर्घटना से ट्रीशियम, स्ट्रांशियम जैसे कई अन्य रेडियोधर्मी जहर भी फैल रहे हैं। इस दुर्घटना से निपटने में अपनी जान जोखिम में डाल रहे 'फुकुशिमा फिफ्टी' नाम से प्रचारित किये जा रहे जांबाज दरअसल अधिकतर वहां ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं, जिनकी जान को वैसे भी पूरी दुनिया में सस्ती समझा जाता है।

अमेरिका से परमाणु-करार के बाद भारत ने बड़े पैमाने पर परमाणु बिजली-उत्पादन की योजना बनाई है। अगले बीस सालों में परमाणु-बिजली उत्पादन को दस गुने से भी ज्यादा करने की इस सनक में देश के कई हिस्सों में लोगों को जबरन बेदखल किया जा रहा है। साथ ही, पर्यावरणीय प्रभावों के मुकम्मल अध्ययन के बिना और भूकंप तथा आपदा-संभावित इलाकों में इन रिएक्टरों को लगाया जा रहा है। महाराष्ट्र के जैतापुर, जो कोंकण के बहुत सुंदर-समृद्ध लेकिन भूकंप संभावित और नाजुक समुद्र-तटीय क्षेत्र में स्थित है, में फ्रांस से आयातित कुल छह ईपीआर रिएक्टर लगाए जा रहे हैं। फ्रांसीसी कंपनी अरेवा के इस रिएक्टर डिजाइन पर फिंनलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका और खुद फ्रांस की सुरक्षा एजेंसियों ने कुल तीन हजार आपत्तियां दर्ज की हैं। अरेवा का ईपीआर रिएक्टर अब तक कहीं भी शुरू नहीं हुआ है। फिनलैंड में इसकी निर्माण-अवधि दो साल बढ़ानी पड़ी है जिससे इसकी लागत 70′ ज्यादा हो गई है। पिछले साल संयुक्त अरब अमीरात ने अपने यहां इस रिएक्टर डिजाइन की बजाय दक्षिणी कोरिया के एक रिएक्टर को चुना। लेकिन भारत सरकार तीव्र स्थानीय विरोध के बावजूद जैतापुर में इन रिएक्टरों को लगाने पर आमादा है।

पिछले चार सालों से रत्नागिरि जिले के किसानों, मछुआरों और आम लोगों ने इस रिएक्टर-परियोजना का विरोध किया है और सरकार द्वारा मुआवजे की रकम बढ़ाए जाने पर भी चेक स्वीकार नहीं किया है। उस इलाके में आंदोलन को समर्थन देने जाने वाले लोगों – जिनमें मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और देश के पूर्व-जलसेनाधिपति भी शामिल हैं – को बाहरी और भड़काऊ बताकर जिले में घुसने से मना किया जा चुका है और जिले के नागरिक आंदोलनकरियों को जिलाबदर कर दिया गया है। दर्जनों लोगों को झूठे मुकदमों में जेल में डाल दिया गया है। परमाणु-सौदे को दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्रों का मिलन बताया गया था, जबकि जैतापुर संयंत्र के इलाके में पडऩे वाली तीनों ग्राम-पंचायतों ने इस परियोजना के खिलाफ आमराय से प्रस्ताव पारित किए हैं और फिर भी उन पर विस्थापन थोप दिया गया है। जाहिर है सरकार सिर्फ फ्रांसीसी कंपनी अरेवा को ही देशभक्त मानती है, बाकी सब उसके लिए बाहरी और गैर-जरूरी हैं। जैतापुर की तरह ही पश्चिम बंगाल के हरिपुर, आंध्र के कोवाडा, गुजरात के मीठीविर्डी, मध्यप्रदेश के चुटका और हरियाणा के फतेहाबाद जैसे संवेदनशील भू-भागों में भी ऐसी ही परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिनका तीखा विरोध हो रहा है।

भारत में पहले से चल रहे अणु-बिजली घर भी फुकुशिमा जैसी त्रासदी की संभावना से मुक्त नहीं हैं। मुंबई के बहुत नजदीक स्थित तारापुर रिएक्टर अमेरिकी कंपनी जनरल इलैक्ट्रिक्स के उसी मार्क-वन डिजाइन के रिएक्टर हैं, जो फुकुशिमा में हैं। इन रिएक्टरों में द्वितीयक नियंत्रण ढांचे (सेकेंडरी कंटेनमेंट स्ट्रक्चर) की व्यवस्था नहीं है और शेष ईंधन (स्पेंट फ्यूएल) रिएक्टर के ऊपरी हिस्से में जमा होता है। तारापुर में पिछले चार दशकों से इकट्ठा यह अत्यधिक रेडियोधर्मी कचरा अमेरिका न तो वापस ले जा रहा है और ना ही भारत को इसे पुनर्संश्लेषित (रीप्रोसेसिंग) करने दे रहा है।

परमाणु बिजली भारत की ऊर्जा-सुरक्षा का हल नहीं है। रिएक्टर निर्माण के अनियंत्रित खर्च और देश के ऊर्जा-विषयक वैज्ञानिक शोध के बजट का बड़ा हिस्सा हड़प लेने के बाद भी देश की कुल बिजली में परमाणु बिजली का हिस्सा तीन प्रतिशत से भी कम है। बीसीयों नए अणु-बिजली घरों से वर्ष 2030 तक इसे सात-आठ प्रतिशत करने की योजना है। जबकि केंद्रीकृत बिजली-उत्पादन और फिर इसे शहरों तक पहुंचाने में तीस प्रतिशत के करीब बिजली बर्बाद होती है। यूरेनियम खनन, रिएक्टर-निर्माण की लागत इत्यादि बड़े खर्चों को छुपाने के बाद भी परमाणु बिजली अन्य स्रोतों की बजाय बहुत महंगी होगी। परमाणु बिजली के समर्थन में इसके कार्बन-मुक्त होने और जलवायु-परिवर्तन के संकट का हल होने का दावा किया जाता है। लेकिन फु कुशिमा की घटना का एक अनिवार्य सबक यह भी है कि भविष्य के अकल्पनीय पर्यावरणीय बदलावों के समक्ष आज के बनाए रिएक्टर-डिजाइन कारगर होंगे, इसका शुतुर्मुर्गी दंभ परमाणु-अधिष्ठान को छोड़ देना चाहिये।

ऊर्जा-सुरक्षा का सवाल सिर्फ परमाणु और कोयले की बिजली या नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों के बीच चुनाव का सवाल नहीं है। यह ऊर्जा उत्पादन और उपभोग से जुड़ी पूरी राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का सवाल है। पिछले पंद्रह सालों में बिजली-उत्पादन दुगुना करने के बाद भी बिजली के बिना रहने वाले गांवों की संख्या में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। मॉल, विज्ञापन और हाईवे केंद्रित आज के 'विकास' में ऊर्जा का अतिशय अपव्यय होता है। साझा उत्पादन, सुचारु सरकारी परिवहन इत्यादि सकारात्मक कदम और एक ही चीज के कई ब्रांडों से बाजार पाटने के पूंजीवादी अपव्यय से पिंड छुड़ाने जैसे कई आमूलचूल परिवर्तनों के बिना ऊर्जा का कोई भी स्रोत तेजी से लुप्त होते प्राकृतिक संसाधनों के बीच हमें ऊर्जा-सुरक्षा नहीं दे सकता।

फुकुशिमा त्रासदी के साथ ही परमाणु विनाश का सवाल पूरी भयावहता के साथ हमारे सामने उपस्थित हो गया है। परमाणु-खतरे से मुक्त और विकास की जन-केंद्रित परिभाषा वाला एक समाज गढऩे की जिम्मेवारी इस देश के जनवादी लोगों पर है। परमाणु-डील के मुद्दे पर सरकार गिराने वाली माकपा की सरकार जब खुद ही पश्चिम बंगाल के हरिपुर में अणु-बिजली घर बनवाने में लगी हो तो यह चुनौती और भी बड़ी हो जाती है।

'अणुमुक्ति' अस्सी के दशक से परमाणु-भय मुक्त समाज के लिए देश में कार्यरत पहला जन-आंदोलन है। परमाणु मुद्दे में रुचि रखने वाले और देश के विभिन्न हिस्सों में निर्माणाधीन परमाणु बिजली-घरों के खिलाफ आंदोलन-रत साथी विस्तृत चर्चा, जानकारी और मार्गदर्शन के लिए वैज्ञानिक डॉ. सुरेंद्र गाडेकर और डॉ. संघमित्रा गाडेकर से नीचे दिए पतों पर संपर्क कर सकते है ं: अणुमुक्ति, संपूर्ण क्रांति विद्यालय, वेडछी, (जिला सूरत), गुजरात।

फोन: 02625-220074।
इमेल: anumukti@gmx.net,
वेब: www.anumukti.in

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