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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, August 29, 2015

इस पखवारे अमृतलाल नागर


मित्रवर

अमृतलाल नागर हिंदी के अतिविशिष्ट लेखकों में से एक हैं। उनके उपन्यास होंउनकी कहानियाँ हों या कि 'गदर के फूल''ये कोठेवालियाँ' जैसी विशिष्ट कृतियाँ हों जिनकी परंपरा तब तक के हिंदी संसार में नहीं ही थीउनकी यह सभी कृतियाँ उन्हें एक ऐसा महानतम रचनाकार सिद्ध करती हैं जिसकी जड़ें अपनी जमीनअपनी परंपरा में गहराई तक धँसी थीं। इसीलिए उन्होंने अपने समय का मुकम्मल यथार्थ रचने के साथ साथ ऐसी भी बहुत सारी कृतियाँ हमें दीं जिनमें भविष्य के ठेठ भारतीय स्वप्न विन्यस्त मिलते हैं। 17 अगस्त 1916 में आगरा में जन्मे नागर जी का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर हिंदी समय (http://www.hindisamay.com) के इस अंक में हमने नागरजी के विशाल रचना-संसार की एक प्रतिनिधि झलक रखने की कोशिश की है। हालाँकि नागर जी का रचना संसार इतना विशाल और बहुमुखी है कि ऐसे किसी भी चयन की सीमा स्वतः ही उजागर होती रहेगी।

सबसे पहले पढ़ें नागर जी के दो आत्मकथ्य आईने के सामने और मैं लेखक कैसे बना। इसके बाद प्रस्तुत हैं उनकी पाँच कहानियाँ -प्रायश्चित, दो आस्थाएँ, हाजी कुल्फीवाला, सिकंदर हार गया और धर्म संकट। इसके बाद उनकी डायरी के पृष्ठ हैं। संस्मरण के अंतर्गत पढ़ेंप्रसाद : जैसा मैंने पाया, शरत के साथ बिताया कुछ समय और तीस बरस का साथी : रामविलास शर्मा। यात्रावृत्त के अंतर्गत पढ़ें एकदा नैमिषारण्ये और गढ़ाकोला में पहली निराला जयंती। निबंध के अंतर्गत पढ़ें कलाकार की सामाजिक पृष्ठभूमि। व्यंग्य के अंतर्गत पढ़ें यदि मैं समालोचक होता। इसके बाद पढ़ें उनकी बेहद जरूरी किताब गदर के फूल से एक अंश - लखनऊ। इसी तरह उनकी बहुचर्चित किताब ये कोठेवालियाँ से पढ़ें

सुआ पढ़ावत गणिका तरि गई और सीता-सावित्री के देश का दूसरा पहलू। नागर जी रंगमंच पर भी बेहद सक्रिय रहे। यहाँ प्रस्तुत हैं उनके दो लेख नौटंकी और हिंदी का शौकिया रंगमंच। हमारी हिंदी के अंतर्गत पढ़ें हिंदी और मध्यम वर्ग का विकास और नवाबों की नगरी लखनऊ में हिंदी का बिरवा कैसे रोपा गया?। पत्र के अंतर्गत पढ़ें नागर जी द्वाराश्री उपेंद्रनाथ अश्क, श्री सुमित्रानंदन पंत और डॉ. रामविलास शर्मा को लिखे गए पत्र। और आखिर में पढ़ें नागरजी से सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' की लंबी बात-चीत सृजन-यात्रा के प्रेरक प्रसंग और पड़ाव। और अंत में प्रस्तुत हैं परिशिष्ट के रूप में शरद नागर के दो लेख नागरजी का रचना-संसार और अमृतलाल नागर : जीवन-वृत्त

 

मित्रों हम हिंदी समय में लगातार कुछ ऐसा व्यापक बदलाव लाने की कोशिश में हैं जिससे कि यह आपकी अपेक्षाओं पर और भी खरा उतर सके। हम चाहते हैं कि इसमें आपकी भी सक्रिय भागीदारी हो। आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।

 

सादर, सप्रेम

अरुणेश नीरन

संपादकहिंदी समय


आत्मकथ्यइस पखवारेसीख

लेखक बनने की कहानी
अमृतलाल नागर

हमारे घर में सरस्‍वती और गृहलक्ष्‍मी नामक दो मासिक पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती थीं। बाद में कलकत्‍ते से प्रकाशित होनेवाला पाक्षिक या साप्‍ताहिक हिंदू-पंच भी आने लगा था। उत्‍तर भारतेंदु काल के सुप्रसिद्ध हास्‍य-व्‍यंग्‍य लेखक तथा आनंद संपादक पं. शिवनाथजी शर्मा मेरे घर के पास ही रहते थे। उनके ज्‍येष्‍ठ पुत्र से मेरे पिता की घनिष्‍ठ मैत्री थी। उनके यहाँ से भी मेरे पिता जी पढ़ने के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाएँ लाया करते थे। वे भी मैं पढ़ा करता था। हिंदी रंगमंच के उन्‍नायक राष्‍ट्रीय कवि पं. माधव शुक्‍ल लखनऊ आने पर मेरे ही घर पर ठहरते थे। मुझे उनका बड़ा स्‍नेह प्राप्‍त हुआ। आचार्य श्‍यामसुंदरदास उन दिनों स्‍थानीय कालीचरण हाई स्‍कूल के हेडमास्‍टर थे। उनका एक चित्र मेरे मन में आज तक स्‍पष्‍ट है - सुबह-सुबह नीम की दातुन चबाते हुए मेरे घर पर आना। इलाहाबाद बैंक की कोठी (जिसमें हम रहते थे) के सामने ही कंपनी बाग था। उसमें टहलकर दातून करते हुए वे हमारे यहाँ आते, वहीं हाथ-मुँह धोते फिर चाँदी के वर्क में लिपटे हुए आँवले आते, दुग्‍धपान होता, तब तक आचार्य प्रवर का चपरासी 'अधीन' उनकी कोठी से हुक्का, लेकर हमारे यहाँ आ पहुँचता। आध-पौन घंटे तक हुक्का, गुड़गुड़ाकर वे चले जाते थे। उर्दू के सुप्रसिद्ध कवि पं. बृजनारायण चकबस्‍त के दर्शन भी मैंने अपने यहाँ ही तीन-चार बार पाए। पं. माधव शुक्‍ल की दबंग आवाज और उनका हाथ बढ़ा-बढ़ाकर कविता सुनाने का ढंग आज भी मेरे मन में उनकी एक दिव्‍य झाँकी प्रस्‍तुत कर देता है। जलियाँवाला बाग कांड के बाद शुक्‍लजी वहाँ की खून से रँगी हुई मिट्टी एक पुड़िया में ले आए थे। उसे दिखाकर उन्‍होंने जाने क्‍या-क्‍या बातें मुझसे कही थीं। वे बातें तो अब तनिक भी याद नहीं पर उनका प्रभाव अब तक मेरे मन में स्‍पष्‍ट रूप से अंकित है। उन्‍होंने जलियाँवाला बाग कांड की एक तिरंगी तस्‍वीर भी मुझे दी थी। बहुत दिनों तक वो चित्र मेरे पास रहा। एक बार कुछ अंग्रेज अफसर हमारे यहाँ दावत में आनेवाले थे, तभी मेरे बाबा ने वह चित्र घर से हटवा दिया। मुझे बड़ा दुख हुआ था। मेरे पिता जी आदि पूज्‍य माधव जी के निर्देशन में अभिनय कला सीखते थे, वह चित्र भी मेरे मन में स्‍पष्‍ट है। हो सकता है कि बचपन में इन महापुरुषों के दर्शनों के पुण्‍य प्रताप से ही आगे चलकर मैं लेखक बन गया होऊँ। वैसे कलम के क्षेत्र में आने का एक स्‍पष्‍ट कारण भी दे सकता हूँ।

सन 28 में इतिहास प्रसिद्ध साइमन कमीशन दौरा करता हुआ लखनऊ नगर में भी आया था। उसके विरोध में यहाँ एक बहुत बड़ा जुलूस निकला था। पं. जवाहर लाल नेहरू और पं. गोविंद बल्‍लभ पंत आदि उस जुलूस के अगुवा थे। लड़काई उमर के जोश में मैं भी उस जुलूस में शामिल हुआ था। जुलूस मील डेढ़ मील लंबा था। उसकी अगली पंक्ति पर जब पुलिस की लाठियाँ बरसीं तो भीड़ का रेला पीछे की ओर सरकने लगा। उधर पीछे से भीड़ का रेला आगे की ओर बढ़ रहा था। मुझे अच्‍छी तरह से याद है कि दो चक्‍की के पाटों में पिसकर मेरा दम घुटने लगा था। मेरे पैर जमीन से उखड़ गए थे। दाएँ-बाएँ, आगे पीछे, चारों ओर की उन्‍मत्‍त भीड़ टक्‍करों पर टक्‍करें देती थी। उस दिन घर लौटने पर मानसिक उत्‍तेजनावश पहली तुकबंदी फूटी। अब उसकी एक ही पंक्ति याद है : "कब लौं कहो लाठी खाया करें, कब लौं कहौं जेल सहा करिये।"

वह कविता तीसरे दिन दैनिक आनंद में छप भी गई। छापे के अक्षरों में अपना नाम देखा तो नशा आ गया। बस मैं लेखक बन गया। मेरा खयाल है दो-तीन प्रारंभिक तुकबंदियों के बाद ही मेरा रुझान गद्य की ओर हो गया। कहानियाँ लिखने लगा। पं. रूपनारायण जी पांडेय 'कविरत्‍न' मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही रहते थे। उनके यहाँ अपनी कहानियाँ लेकर पहुँचने लगा। वे मेरी कहानियों पर कलम चलाने के बजाय सुझाव दिया करते थे। उनके प्रारंभिक उपदेशों की एक बात अब तक गाँठ में बँधी है। छोटी कहानियों के संबंध में उन्‍होंने बतलाया था कि कहानी में एक ही भाव का समावेश करना चाहिए। उसमें अधिक रंग भरने की गुंजाइश नहीं होती।

सन 1929 में निराला जी से परिचय हुआ और तब से लेकर 1939 तक वह परिचय दिनोंदिन घनिष्‍ठतम होता ही चला गया। निराला जी के व्‍यक्तित्‍व ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। आरंभ में यदा-कदा दुलारेलालजी भार्गव के सुधा कार्यालय में भी जाया-आया करता था। मिश्र बंधु बड़े आदमी थे। तीनों भाई एक साथ लखनऊ में रहते थे। तीन-चार बार उनकी कोठी पर भी दर्शनार्थ गया था। अंदरवाले बैठक में एक तखत पर तीन मसनदें और लकड़ी के तीन कैशबाक्‍स रक्‍खे थे। मसनदों के सहारे बैठे उन तीन साहित्यिक महापुरुषों की छवि आज तक मेरे मानस पटल पर ज्‍यों की त्‍यों अंकित है। रावराजा पंडित श्‍यामबिहारी मिश्र का एक उपदेश भी उन दिनों मेरे मन में घर कर गया था। उन्‍होंने कहा था, साहित्‍य को टके कमाने का साधन कभी नहीं बनाना चाहिए। चूँकि मैं खाते-पीते खुशहाल घर का लड़का था, इसलिए इस सिद्धांत ने मेरे मन पर बड़ी छाप छोड़ी। इस तरह सन 29-30 तक मेरे मन में यह बात एकदम स्‍पष्‍ट हो चुकी थी कि मैं लेखक ही बनूँगा।

सन 30 से लेकर 33 तक का काल लेखक के रूप में मेरे लिए बड़े ही संघर्ष का था। कहानियाँ लिखता, गुरुजनों से पास भी करा लेता परंतु जहाँ कहीं उन्‍हें छपने भेजता, वे गुम हो जाती थीं। रचना भेजने के बाद मैं दौड़-दौड़कर पत्र-पत्रिकाओं के स्‍टाल पर बड़ी आतुरता के साथ यह देखने को जाता था कि मेरी रचना छपी है या नहीं। हर बार निराशा ही हाथ लगती। मुझे बड़ा दुख होता था, उसकी प्रतिक्रिया में कुछ महीनों तक मेरे जी में ऐसी सनक समाई कि लिखता, सुधारता, सुनाता और फिर फाड़ डालता था। सन 1933 में पहली कहानी छपी। सन 1934 में माधुरी पत्रिका ने मुझे प्रोत्‍साहन दिया। फिर तो बराबर चीजें छपने लगीं। मैंने यह अनुभव किया है कि किसी नए लेखक की रचना का प्रकाशित न हो पाना बहुधा लेखक के ही दोष के कारण न होकर संपादकों की गैर-जिम्‍मेदारी के कारण भी होता है, इसलिए लेखक को हताश नहीं होना चाहिए।

सन 1935 से 37 तक मैंने अंग्रेजी के माध्‍यम से अनेक विदेशी कहानियों तथा गुस्‍ताव फ्लाबेर के एक उपन्‍यास मादाम बोवेरी का हिंदी में अनुवाद भी किया। यह अनुवाद कार्य मैं छपाने की नियत से उतना नहीं करता था, जितना कि अपना हाथ साधने की नीयत से। अनुवाद करते हुए मुझे उपयुक्‍त हिंदी शब्‍दों की खोज करनी पड़ती थी। इससे मेरा शब्‍द भंडार बढ़ा। वाक्‍यों की गठन भी पहले से अधिक निखरी।

-- में आगरा में जन्मे नागर जी का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर हिंदी समय के इस अंक में हमने नागरजी के विशाल रचना-संसार की एक प्रतिनिधि झलक रखने की कोशिश की है। हालाँकि नागर जी का रचना संसार इतना विशाल और बहुमुखी है कि ऐसे किसी भी चयन की सीमा स्वतः ही उजागर होती रहेगी।

आत्मकथ्य
अमृतलाल नागर
आईने के सामने 
मैं लेखक कैसे बना 

पाँच कहानियाँ
अमृतलाल नागर
प्रायश्चित 
दो आस्थाएँ 
हाजी कुल्फीवाला 
सिकंदर हार गया 
धर्म संकट

डायरी
अमृतलाल नागर
डायरी के पृष्ठ

संस्मरण
अमृतलाल नागर
प्रसाद : जैसा मैंने पाया 
शरत के साथ बिताया कुछ समय 
तीस बरस का साथी : रामविलास शर्मा 

यात्रावृत्त
अमृतलाल नागर
एकदा नैमिषारण्ये 
गढ़ाकोला में पहली निराला जयंती 

निबंध 
अमृतलाल नागर
कलाकार की सामाजिक पृष्ठभूमि

व्यंग्य
अमृतलाल नागर
यदि मैं समालोचक होता

गदर के फूल
अमृतलाल नागर
लखनऊ

ये कोठेवालियाँ
अमृतलाल नागर 
सुआ पढ़ावत गणिका तरि गई
सीता-सावित्री के देश का दूसरा पहलू

रंगमंच
अमृतलाल नागर 
नौटंकी
हिंदी का शौकिया रंगमंच

हमारी हिंदी
अमृतलाल नागर 
हिंदी और मध्यम वर्ग का विकास
नवाबों की नगरी लखनऊ में हिंदी का बिरवा कैसे रोपा गया?

पत्र
अमृतलाल नागर 
श्री उपेंद्रनाथ अश्क को
श्री सुमित्रानंदन पंत को
डॉ. रामविलास शर्मा को - 1
डॉ. रामविलास शर्मा को - 2

बात-चीत
अमृतलाल नागर 
सृजन-यात्रा के प्रेरक प्रसंग और पड़ाव
(सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' को दिया गया साक्षात्कार)


परिशिष्ट
शरद नागर 
नागरजी का रचना-संसार
अमृतलाल नागर : जीवन-वृत्त 

चरित्र-चित्रण
अमृतलाल नागर

प्लॉट के बाद हमें अपनी कहानी के चरित्रों का चरित्रांकन करने के लिए भी बहुत सतर्क रहना चाहिए। जैसे जैसे चरित्रों की अपनी स्वाभाविक विशेषताओं का विकास होता चलेगा, वैसे वैसे ही घटनाओं और परिस्थितियों का विकास भी होगा। चरित्रों की गति सही मनोवैज्ञानिक आधार पर होगी तो कथा का घटनाक्रम भी निश्चय ही विश्वसनीय रूप से बन सकेगा। मान लीजिए एक संत है। उसे हम रोज देखते-सुनते हुए उसके प्रति श्रद्धालु हो जाते हैं। उसके बाद एक दिन हमें यह पता चलता है कि वह संतजी बड़े नामी डाकू और हत्यारे हैं तो हम सहसा इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते। हो सकता है कि अपने हत्यारे और डाकूपन को छिपाकर वह संत वह संत का ढोंग रचकर बैठ गया हो अथवा यह भी संभव हो सकता है कि वह सच्चा हो और उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचकर उसे हत्यारा सिद्ध किया जा रहा हो। इन दोनों ही स्थितियों में हम संत चरित्र के विभिन्न पहलू दर्शाकर ही हम दर्शक के मन में वह निर्णयात्मक स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं जो चरित्र के प्रति न्याय कर सके। पात्रों का चित्रण इसीलिए खूब मनोयोग से करना चाहिए।

अपने फोटो नाटक 'चढ़त न दूजो रंग' के नायक का मनोचित्रण करने के लिए मैंने एक प्रतीक नायिका कल्पना से गढ़ी, उसका नाम है आराधना। वह वस्तुतः सूर का ही दूसरा मन है। वह मन जो अपने इष्टदेव के साथ पूरी तरह से जुड़ गया है और जब जब सूर मानवीय दुर्बलताओं के कारण किसी बाहरी लालच की ओर झुकता है तब वह उसे सचेत कर जाता है। याद रहे कि हम फोटो नाटक में सब कुछ देखना चाहते हैं। फोटो नाटक एक ऐसा कैमरा है जो स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही रूपों के चित्र सजीव रूप से अंकित कर सकता है। इसलिए चरित्र चित्रण करते हुए इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उनकी मनोवृत्तियों की परस्पर टकराहटों अथवा मिलाप के क्षणों से हमारी फोटो-कथा की उचित प्रगति हो रही है या नहीं। यदि चरित्र चित्रण सही होता है तो कथा का विकास भी सही होगा।

कुछ व्यक्ति निष्काम भाव से अपनी प्रकृतिवश परोपकारी और सद्व्यवहारी होते हैं, कुछ स्वार्थवश परोपकारी। स्वार्थ न होने पर वह दूसरे व्यक्ति का भला नहीं करते। कुछ घृणा और भीतरी कुंठाओं से जकड़े होने के कारण बड़े ही घातक होते हैं। इस तरह फोटो नाटक के लेखक को अपनी कथावस्तु (थीम) और कथानक (प्लॉट) को ध्यान में रखकर ही पुरुष पात्रों अथवा महिला पात्रों का चयन करना होता है।

संपादकीय परिवार

संरक्षक 
प्रो. गिरीश्‍वर मिश्र 
(कुलपति)

संपादक 
अरुणेश नीरन 
फोन - 07743886879,09451460030 
ई-मेल : neeranarunesh48@gmail.com

समन्वयक 
अमित कुमार विश्वास 
फोन - 09970244359 
ई-मेल : amitbishwas2004@gmail.com

सहायक संपादक 
मनोज कुमार पांडेय 
फोन - 08275409685 
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

भाषा अनुषंगी (कंप्यूटर) 
गुंजन जैन 
फोन - 09595212690 
ई-मेल : hindisamaymgahv21@gmail.com

विशेष तकनीकी सहयोग 
अंजनी कुमार राय 
फोन - 09420681919 
ई-मेल : anjani.ray@gmail.com

गिरीश चंद्र पांडेय 
फोन - 09422905758 
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हेमलता गोडबोले 
फोन - 09890392618 
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ISSN 2394-6687

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