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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, September 7, 2016

लगातार गहराते जल महायुद्ध गृहयुद्ध से कैसे बच सकें हम? तमिलनाडु का जल संकट कश्मीर विवाद से कम जटिल नहीं है क्योंकि कावेरी से ही भारत के साथ जुड़ा है तमिलनाडु। कृषि संकट में उलझे कर्नाटक के किसानों के पास भी क्या विकल्प है? आइये याद करें रोहिणी जल विवाद हल करने में राजकुमार सिद्धार्थ की भूमिका! पलाश विश्वास

लगातार गहराते जल महायुद्ध गृहयुद्ध से कैसे बच सकें हम?

तमिलनाडु का जल संकट कश्मीर विवाद से कम जटिल नहीं है क्योंकि कावेरी से ही भारत के साथ जुड़ा है तमिलनाडु।

कृषि संकट में उलझे कर्नाटक के किसानों के पास भी क्या विकल्प है?

आइये याद करें रोहिणी जल विवाद हल करने में राजकुमार सिद्धार्थ की भूमिका!

पलाश विश्वास

बेहतर होता कि हम यह विमर्श तमिल और कन्नड़ में शुरु कर पाते।क्योंकि इसके संदर्भ और प्रसंग दोनों कावेरी जलविवाद को लेकर घमासान से जुड़ते हैं।तमिलनाडु को पानी देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को फिर हस्तक्षेप करना पड़ा है और इसके खिलाफ कर्नाटक में जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहा है। हम तमिल या कन्नड़ भाषा नहीं जानते।अंग्रेजी दक्षिण भारत में  आम जनता की बोली उसीतरह नहीं है,जैसे बाकी भारत में।


यह मसला सिर्फ कावेरी जलविवाद से जुड़ा नहीं है,यह गहराते जल संकट की युद्ध परिस्थितियों के साथ जल जंगल जमीन और आजीविका से कृषि प्रधान भारत को सुनियोजित तरीके से ध्वस्त करने का मामला है और इस पर यथासंभव हर जनभाषा और बोली में हम जितनी जल्दी संवाद कर सकें, बेहतर है।


फासिस्ट राजकाज की निरंकुश सत्ता दिल्ली में केंद्रित होकर जीवन का हर क्षेत्र अब सामंती और साम्राज्यवादी उपनिवेश है तो देश के कोने कोने में आम बहुसंख्या जनता पर एकाधिकार कारपोरेट हमले हो रहे हैं।


इसी वजह से सत्ता की राजनीति चूंकि गाय पट्टी से आकार लेती है,तो वहां की मातृभाषा के राजभाषा बन जाने से हिंदी का हिंदी क्षेत्र से बाहर राजनीतिक विरोध प्रबल है।वरना तमिलनाडु से लेकर पूरे दक्षिण भारत में,बंगाल में और पूर्वोत्तर में लोग हिंदी पढ़े या लिखें न भी तो हिंदी खूब समझते हैं।


हिंदी की सार्वभौम इस ग्रहणीयता और संवाद की भाषा बनने के लिए भारतीय सिनेमा का आभार मानना चाहिए।साहित्य हिंदी का लोग जाने या न जाने,हिंदी फिल्में देखे बिना देश के किसी भी हिस्से में जनता के सारे ख्वाब खत्म हैं,जान लीजिये।


कावेरी जलविवाद की समस्या है तो जलविवाद अब सार्वभौम है।


क्योंकि हम अपनी जरुरत के मुकाबले कई कई पृथ्वी के अतिरिक्त संसाधनों का दोहन करके इस पृथ्वी का रोज दसों दिशाओं में सत्यानाश कर रहे हैं।


नतीजतन हमारा हिमालय मर रहा है तो हम समुद्रतटों को रेडियोएक्टिव बना रहे हैं और हरियाली को खत्म करके सबकुछ गेरुआ बनाने में लगे हैं।बड़े बांधों का कहर अभी पूरी तरह टूटा नहीं है हालांकि सालाना मनुष्यकृत आपदाओं का मुक्तबाजारी महोत्सव और राहत सहायता के पाखंड का अनंत सिलसिला जारी है।

गहराते जलसंकट की वजह पिघलते हुए ग्लेशियर है,ग्लोबल वार्मिंग है,अनियमित मानसून है,बदलता हुए मौसम और जलवायु हैं,तो इन सारे कुकृत्यों की वजह विकास के नाम हमारा नरसंहारी धतकरम है।अबाध पूंजी की अंधी दौड़ बेलगाम है।


अब यह तनिक विचार कर लें कि ब्रह्मपुत्र नदी के मुहाने को बांधने की चीन की हरकत को अगर हम भारत और समूचे दक्षिण एशिया के खिलाफ खुला युद्ध मानते हैं तो फरक्का में पद्मा नदी का पानी रोक लेने पर बांग्लादेश की प्रतिक्रिया जन्मजात मानवबंधन और साझा इतिहास,साझा विरासत,साझा संस्कृति के बावजूद इसतर भारतविरोधी क्यों हो जाती है।


इसीतरह तनिकमझ भी लें कि बांग्लादेश को पानी देने के किसी समझौते के सवाल पर बंगाल के किसानों के हितों को लेकर बंगाल की अग्निकन्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सिरे से इंकार कर देती है। फिर बिहार के मुख्यमंत्री अपने राज्य को बाढ़ से बचाने के लिए फरक्का बांध को ही तोड़ देने की वकालत क्यों करने लगते हैं। फिर ममता बनर्जी भी बंगाल में बाढ़ के लिए  दामोदर वैली निगम के बांध के खिलाफ एतनी आगबबूला क्यों हैं।अभी तो हमने नर्मदा बांध और टिहरी बांधों के नतीजों का समाना नहीं किया है,जो और भयंकर होने वाले हैं।


सिंधु घाटी के इतिहास को बांचे बिना हम अपनी नगर केंद्रित सभ्यता को समझ नहीं सकते।विश्वभर की प्राचीन सभ्यताओं में जीवन सीधे नदियों से जुड़ा से है क्योंकि जल के बिना जीवन असंभव है।


हम जिसतरह गंगा यमुना नर्मदा समेत तमाम नदियों को मां मानते हैं उसीतरह प्राचीन मिस्र में भी नील नदी की पूजा होती रही है।गंगा की तरह नील भी देवी है।मोसापिटामिया की सभ्यता में भी दजला और फरात का वही महत्व है जैसे आर्यों के आगमन के बाद भारतीयता की सारी कथाएं गंगा और यमुना से जुड़ती है।


थेम्स से लंदन है तो सीन से पेरिस।रूस की कल्पना दोन के बिना की ही नहीं जा सकती।अबाध जल प्रवाह ही सभ्यता की विकासयात्रा है।उसी अबाध जलप्रवाह को विकास के नामपर बांधते रहकर जल को राष्ट्रीयता के नाम  किसी व्यक्ति और समुदाय की निजी और कारपोरेट संपत्ति बना देने की वजह से आज यह जलहायुद्ध है।


तमिलनाडु या बांगल्लादेश की समस्या शायद हम तभी समझ सकेंगे जब राजधानी नई दिल्ली और उससे जुड़े तमाम नगर उपनगर टिहरी जलाशय के पानी पर निर्भर हो जाये और उत्तराखंड की शक्ति इतनी बड़ी हो जाये कि वह टिहरी का जल दिल्ली और यूपी ,पंजाब, हरियाणा को देने से मना कर दें।तभी हम तमिलनाडु का दर्द और उसके लिए बिन पानी गहराते अस्तित्व संकट को समझने की मनःस्थिति बना सकेंगे।


भारत में गंगा यमुना के मैदानों से जुड़े राज्यों के अलावा बंगाल और पंजाब कमसकम दो सूबे हजारों सालों से नदियों पर निर्भर रहे हैं।


अखंड बंगाल नदीमातृतक है और यहां की जीवन यात्रा नदी से शुरु होती है तो नदी में खत्म होती है और लोगो की भाषा और लोक संस्कृति में सर्वत्र ये नदियां अबाध बहती रहती हैं।बंगाल में हजारों तरह के लोकगीत नदी के साथ जुड़े हैं तो गाय पट्टी में भी तीज त्योहार, धर्म संस्कार,रीति रिवाज ,जनम मृत्यु पवित्र गंगा जल के बिना असंभव है।


इसीतरह पांच नदियों से ही पंजाब है।नदियों की बहती धार ही पंजाब की मस्ती है।पंजाब की समृद्ध संस्कृति और जिंदगी अपने तरीके से जीने की जिद है।


तमिलनाडु के प्रसंग में यह मामला बेहद संवेदनशील है क्यंकि बाकी भारत से उसकी भाषा,संस्कृति एकदम अलहदा है।


जैसे कश्मीर की समस्या इसीलिए जटिल है कि वह बाकी भारत से हर मायने में अलहदा है।


बंगाली,मराठी और पंजाबी जैसी राष्ट्रीयताएं कम ताकतवर या कम आजाद नहीं है।


पंजाब में धर्म भी हिंदुत्व से अलग है।लेकिन पंजाब हजारों सालों से आर्यावर्त का हिस्सा रहा है और बंगाल आर्यावर्त स बाहर व्रात्य और अनार्य होने के बावजूद बुद्धमय बंगाल के पतन के बाद चैतन्य महाप्रभु और कवि जयदेव की वजह से बाकी भारत से जुड़ गया तो अंग्रेजी हुकूमत,आदिलवासी किसान आंदोलनो और जनविद्रोहों के साथ सात नवजागरण और बहुजन दलित आंदोलन के मार्फत बाकी भारत से उसका अलगाव लगातार खत्म होता रहा है।


महाराष्ट्र आदिकाल से आर्यावर्त से बाहर रहा है बंगाल की तरह तो उसका नाता बुद्धमय बंगाल से ज्यादा गहरा है और पंजाब को मिला ले तो ये तीनों राज्य ब्राह्माण धर्म की निरंकुश सत्ता के खिलाफ युद्ध के सबसे बड़े मोर्चे हैं।


अब भी पूर्वोत्तर में  भारत को विदेश माना जाता है और पूर्वोत्तर से आने वालों से राजधानी नई दिल्ली में विदेशियों से भी बुरा सलूक उसी तरह किया जाता है जैसे कश्मीर के लोगों के साथ।पूर्वोत्तर में चीन और म्यांमार की चीजों की कदर ज्यादा है भारतीय उपभोक्ता समाग्रियों की तुलना में।


पूर्वोत्तर के इस अलगाव की का खास वजह राजनीति है तो इसकी एक बड़ी वजह हैकि हमारी गंगा या यमुना या नर्मदा या कृष्णा या कावेरी जैसी कोई नदी पूर्वोत्तर को बाकी भारत से जोड़ती नहीं है।


यही खास मुद्दा है।


मूलतः अनार्य द्रविड़ भाषा और संसकृति की पहचान के सवाल पर आत्म सम्मान के द्रविड़ आंदोलन की भाव भूमि को बाकी देश से कावेरी नदी ही जोड़ती है।


इसलिए कावेरी का जल विवाद सिर्फ जल विवाद नहीं है,यह बाकी भारत से तमिलनाडु के नाभि नाल का संबंध सेतु है।मैसूर जब था कर्नाटक,तबसे यह जलविवाद बार बार पेचीदा होता रहा है।


मसला पेचीदा इसलिए भही है क्योंकि बाकी देश की तरह कर्नाटक के किसानों के लिए भी कृषि संकट गहरा जाने से वे लोकतातंत्रिक तरीके से तमिलनाडु को पानी का हिस्सा देने को तैयार नहीं है और पानी उनके लिए भी जीवन मरण की समस्या है।


बड़े बांधों ने जो विषम परिस्थितियां बना दी है,उससे अब बहुत देर तक जल युद्ध को चाटाल पाना असंभव है और पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों की जो काररपोरेट एकाधिकारवादी नरसंहारी लूटखसोट मची है, उस लिहाज से जल भी अब बहुत तेजी से निजी कारपोरेट संपदा में बदले लगी है।


जैसे जंगल के अब कारपोरेट राष्ट्रीयता की आड़ में कारपोरेट संपदा बन जाने से जंगल से जुड़े आदिवासी भूगोल में सलवा जुड़ुम सार्वभौम है,उसीतरह नदियों के बंध जाने और जल के निजी कारपोरेट संपदा में बदल जाने से राष्ट्रीयता की आड़ में राष्ट्रों और राज्यों के बीच युद्ध और गृहयुद्ध परिसि्थतियां गगनघटा गहरानी है।


तमिलनाडु जैसे राज्य के मामले में यह कश्मीर से जटिल समस्या है क्योंकि कावेरी के अलावा बाकी भारत के साथ तमिलनाडु का शायद ही कोई वास्तविक संबंध है जिससे चरमराते हुए संघीय लोक गणराज्य के ढांचे में फासिस्ट निरंकुश सत्ता की नई दिल्ली बहाल रख सकें।संसदीय लोकतंतत्र से नाता भी कावेरी का जलसेतु है,इसे समझ लें।


नदी जल बंटवारा कोई नयी समस्या है,ऐसा भी नहीं है।


भारत के गणरज्यों ने मोहनजोदाड़ो हड़प्पा के सिंधु सभ्यता समय से इस समस्या का सामना बार बार किया है और हर बार इसे सामाजिक यथार्थ के मुताबिक सुलझाया है।


इसी प्रकरण में कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ के तथागत गौतम बुद्ध बनने की कथा है।जल महायुद्ध और गृहयुद्ध के प्रसंग में जल संकट सुलझाने की भारतीय गणराज्यों की गौरवशाली पंरपरा में लौटने के लिए तथागत के जीवन में निर्णायक रोहिणी जल विवाद को समझने की जरुरत है।


इसी विवाद की वजह से राजकुमार सिद्धार्थ ने स्वेच्छा निर्वासन स्वीकार किया था क्योंकि जल विवाद में उलझे शाक्य और कोलियों के विवाद में उनके मत के खिलाफ बहुमत था और इसी बहुमत के सामने सर झुकाकर सिद्धार्थ ने राजमहल त्याग करके देशाटन का विकल्प चुना था।शाक्य गणराज्य ने कोलियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी थी और राजकुमार सिद्धार्थ इस आत्मघाती युद्ध के विरुद्ध थे।


शाक्यों ने चूंकि बहुमत से राजकुमार सिद्धार्थ का युद्धविरोधी तर्क खारिज कर दिया था,इसलिए उन्होंने कपिलवस्तु को छोडने का निर्णय किया।


जाहिर है,रोग शोक जरा मृत्यु और सन्यास के यथार्थ से आकस्मिक मोहभंग की कथा से राजकुमार गौतम के गृहत्याग की किंवंदती से कोई लेना देना नहीं है।यह प्रक्षेपण बुद्धमय भारत के अवसान के बाद ब्राह्मण धर्म के विष्णुपद और पिंडदान की कथा की तरह  समता और न्याय के लिए गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को रद्द करने की प्रतिक्रांति के तहत उनके बुद्धत्व के निर्वाण को ब्राह्मणत्व के अवतारवाद के तहत मोक्ष की आध्यात्मिक खोज में बदलने के मकसद से गढी हुई कथा है।


इसके विपरीत सिद्धार्थ के गृहत्याग की असल वजह शाक्यों और कोलियों  के जलविवाद की वजह से बनी युद्ध परिस्थितिया हैं।


गौरतलब है कि गौतम बुद्ध के गृहत्याग के बाद हालांकि शाक्यों और कोलियों ने उन्हीेंके बताये रास्ते पर जलविवाद का समाधान कर लिया,लेकिन तब तक सत्य की खोज में गौतम बुद्ध की अनंत यात्रा शुरु हो चुकी थी और वे फिर कभी राजमहल में लौटे नहीं।


मौजूदा जल संकट को सुलझाने के लिए ढाई हजार साल पहले हमारे ही प्राचीन गणराज्यों की उस लोकतांत्रिक परंपरा में लौटने की जरुरत है और विस्तार से इस कथा को जाने समझने की अनिवार्यता है।


वीकिपीडिया में इस विवाद का ब्यौरा इस प्रकार हैः

बुद्ध शाक्य वंश के थे--देखे सुत्तनिपात पालि और उनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु (शाक्य महाजनपद की राजधानी) के पास लुंबिनी (वर्तमान में दक्षिण मध्य नेपाल) में हुआ था। इसी स्थान पर, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने बुद्ध की स्मृति में एक स्तम्भ बनाया था।

सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोदन थे। परंपरागत कथा के अनुसार, सिद्धार्थ की माता महामाया उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गयी थी। कहा जाता है कि उनका नाम रखने के लिये 8 ऋषियो को आमन्त्रित किया गया था, सभी ने 2 सम्भावनाये बताई थी, (1) वे एक महान राजा बनेंगे (2) वे एक साधु या परिव्राजक बनेंगे। इस भविष्य वाणी को सुनकर राजा शुद्धोदन ने अपनी योग्यता की हद तक सिद्धार्थ को साधु न बनने देने की बहुत कोशिशें की। शाक्यों का अपना एक संघ था। बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरुण को शाक्यसंघ में दीक्षित होकर संघ का सदस्य बनना होता था। सिद्धार्थ गौतम जब बीस वर्ष के हुये तो उन्होंने भी शाक्यसंघ की सदस्यता ग्रहण की और शाक्यसंघ के नियमानुसार सिद्धार्थ को शाक्यसंघ का सदस्य बने हुये आठ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। वे संघ के अत्यन्त समर्पित और पक्के सदस्य थे। संघ के मामलों में वे बहुत रूचि रखते थे। संघ के सदस्य के रुप में उनका आचरण एक उदाहरण था और उन्होंने स्वयं को सबका प्रिय बना लिया था। संघ की सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी। शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का राज्य था। रोहणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी। शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे। हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा। ये विवाद कभी-कभी झगड़े और लड़ाइयों में बदल जाते थे। जब सिद्धार्थ २८ वर्ष के थे, रोहणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलियों के नौकरों में झगड़ा हुआ जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हुये। झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये। शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्यसंघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा। सिद्धार्थ गौतम ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी, इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण होगा। सिद्धार्थ ने कहा मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें। फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें। ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें। सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया। शाक्यसंघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्ततः सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये। तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, (2) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना, (3) फाँसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना। उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राज़ी हो गए।(साभार वीकिपीडिया)।



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