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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, October 20, 2016

सत्ता समीकरण साधने के लिए कश्मीर में बाहरी हस्तक्षेप की जमीन बना दी! बंगाल और असम में कश्मीर से भी खतरनाक हालात! कारपोरेट विश्वव्यवस्था के शिकंजे में हैं हमारी राजनीति और राजनय और नागरिकों का सीधे तौर पर सांप्रदायिक ध्रूवीकरण हो चुका है। फिजां कयामत है और पानियों में आग दहकने लगी है।हवाओं में विष के दंश हैं।पांव तले जमीन खिसकने लगी है।हिमालय के उत्तुंग शिखरों में ज्वालामुखियो�

सत्ता समीकरण साधने के लिए कश्मीर में बाहरी हस्तक्षेप की जमीन बना दी!

बंगाल और असम में कश्मीर से भी खतरनाक हालात!

कारपोरेट विश्वव्यवस्था के शिकंजे में हैं हमारी राजनीति और राजनय और नागरिकों का सीधे तौर पर सांप्रदायिक ध्रूवीकरण हो चुका है।

फिजां कयामत है और पानियों में आग दहकने लगी है।हवाओं में विष के दंश हैं।पांव तले जमीन खिसकने लगी है।हिमालय के उत्तुंग शिखरों में ज्वालामुखियों के मुहाने खुलने लगे हैं।खानाबदोश मनुष्यता की स्मृतियों में जो जलप्रलय की निरंतरता है,उसमें अब रेगिस्तान की तेज आंधी है।

पलाश विश्वास


फिजां कयामत है और पानियों में आग दहकने लगी है।हवाओं में विष के दंश हैं।पांव तले जमीन खिसकने लगी है।हिमालय के उत्तुंग शिखरों में ज्वालामुखियों के मुहाने खुलने लगे हैं।खानाबदोश मनुष्यता की स्मृतियों में जो जलप्रलय की निरंतरता है,उसमें अब रेगिस्तान की तेज आंधी है।

अपनी मुट्ठी में कैद दुनिया के साथ जो खतरनाक खेल हमने शुरु किया है,वह अंजाम के बेहद नजदीक है।हम परमाणु विध्वंस के मुखातिब हो रहे हैं।

असंगठित राष्ट्र,असंगठित समाज और खंडित परिवार में कबंधों के कार्निवाल में अराजक आदिम असभ्य बर्बर दुस्समय के शिकंजे में हम अनंत चक्रव्यूह के अनंत महाभारत में हैं।

1973 से,तैतालीस साल से मैं लिख रहा हूं।पेशेवर पत्रकारिता में भारत के सबसे बड़े मीडिया समूहों में छत्तीस साल खपाने के बावजूद कोई मंच ऐसा नहीं है ,जहां चीखकर हम अपना दिलोदिमाग खोलकर आपके समाने रख दें या हमारे लिए इतनी सी जगह भी कहीं नहीं है कि हम आपको हाथ पकड़कर कहीं और किसी दरख्त के साये में ले जाकर कहें वह सबकुछ जो महाभारत के समय अपनी दिव्यदृष्टि से अंध धृतराष्ट्र को सुना रहा था।

धृतराष्ट्र सुन तो रहे थे आंखों देखा हाल ,लेकिन वे यकीनन कुछ भी नहीं देख रहे थे।संजोग से वह दिव्यदृष्टि हमें भी कुछ हद तक मिली हुई है और हमारी दसों दिशाओं में असंख्य अंध धृतराष्ट्र अपने कानों के अनंत ब्लैक होल के सारे दरवाजे खोलकर युद्धोन्माद के शित्कार से अपने इंद्रियों को तृप्त करने में लगे हैं।जो दृश्य हमारी आंखों में घनघटा हैं,उन्हें हम साझा नहीं कर सकते।

हालात बेहद संगीन है।मैं कहीं चुनाव में आपसे अपने समर्थन में वोट नहीं मांग रहा हूं।मुझे देश में या किसी सूबे में राजनीतिक समीकरण साधकर सत्ता हासिल भी नहीं करना है।हम मामूली दिहाड़ी मजदूर हैं और किसी पुरस्कार या सम्मान के लिए मैंने कभी कुछ लिखा नहीं है।डिग्री या शोध के लिए भी नहीं लिखा है।जब तक आजीविका बतौर नौकरी थी, पैसे के लिए भी नहीं लिखा है।आज भी पैसे के लिए लिखता नहीं हूं।आजीविका बतौर अनुवाद की मजदूरी करता हूं जो अभी छह महीने में शुरु भी नहीं हुई है।

मुझे आपकी आस्था अनास्था से कुछ लेना देना नहीं है और न आपके धर्म कर्म के बारे में कुछ कहना है।पार्टीबद्ध भी नहीं हूं मैं।अकारण सिर्फ शौकिया लेखन बतौर आजतक मैंने एक शब्द भी नहीं लिखा है।समकालीन यथार्थ को यथावत संबोधित करने का हमेशा हमारा वस्तुनिष्ठ प्रयास रहा है।यही हमारा मिशन है।

मुझे सत्ता वर्चस्व का कोई डर नहीं है।मुझे असहिष्णुता का भी डर नहीं है।मेरे पास रहने को घर भी नहीं है तो कुछ खोने का डर भी नहीं है। मेरी हैसियत सतह के नीचे दबी मनुष्यता से बेहतर किसी मायने में नहीं है तो उस हैसियत को खोने के डर से मौकापरस्त बने जाने की भी जरुरत मुझे नहीं है।

हमने सत्तर के दशक के बाद अस्सी के दशक का खून खराबा खूब देखा है और तब हम दंगों में जल रहे उत्तर प्रदेश के मेरठ और बरेली शहर के बड़े अखबारों में काम कर रहा था।हवाओं में बारुदी गंध सूंघने की आदत हमारी पेशावर दक्षता रही है और जलते हुए आसमान और जमीन पर जलजला के मुखातिब मैं होता रहा हूं और जन्मजात हिमालयी होने के कारण प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं के बारे में हमारी भी अभिज्ञता है हम यह कहने को मजबूर हैं कि हालात बेहद संगीन हैं।हमारा अपराध इतना सा है कि हम आपको आगाह करने का दुस्साहस कर रहे हैं।

बांग्लादेश युद्ध जीतने के बाद किसी को यह आशंका नहीं थी कि त्रिपुरा,असम और पंजाब से देश भर में खून की नदियां बह निकलेंगी।1965 की लड़ाई के बाद 1971 के युद्ध में कश्मीर में आम तौर पर अमन चैन का माहौल रहा तो समूचे अस्सी के दशक में बाकी देश में खून खराबा का माहौल रहा,वह सिलसिला अब भी खत्म हुआ नहीं है।

इतनी लंबी भूमिका की जरुरत इसलिए है कि हालात इतने संगीन हैं कि इस वक्त खुलासा करना संभव नहीं है।सिर्फ इतना समझ लें कि कश्मीर से ज्यादा भयंकर हालात इस वक्त बंगाल और असम में बन गये हैं।

इतने भयंकर हालात हैं कि अमन चैन के लिहाज से उनका खुलासा करना भी संभव नही है।पूरे बंगाल में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रूवीकरण होने लगा है,वह गुजरात से कम खतरनाक नहीं है तो असम में भी गैरअसमिया तमाम समुदाओं के लिए जान माल का भारी खतरा पैदा हो गया है।गुजरात अब शांत है।लेकिन बंगाल और असम में भारी उथल पुथल होने लगा है।

इस बीच कुछ खबरें भी प्रकाशित और प्रसारित हुई हैं।राममंदिर आंदोलन के वक्त उत्तर भारत में जिस तरह छोटी सी छोटी घटनाएं बैनर बन रही थी,गनीमत है कि बंगाल में वैसा कुछ नहीं हो रहा है और हालात नियंत्रण में हैं।चूंकि इस पर सार्वजनिक चर्चा हुई नहीं है तो हम भी तमाम ब्योरे फिलहाल साझा नहीं कर रहे हैं और ऐसा हम अमन चैन का माहौल फिर न बिगड़े,इसलिए कर रहे हैं।

बांग्लादेश में हाल की वारदातों के लिए तमाम तैयारियां बंगाल और पूर्वोत्तर भारत में होती रही है,इसका खुलासा हो चुका है।

अब आम जनता के सिरे से सांप्रदायिक ध्रूवीकरण में बंट जाने के बाद दशकों से राजनीतिक संरक्षण में पल रहे वे तत्व क्या गुल खिला सकते हैं,असम और बंगाल में आगे होने वाली घटनाएं इसका खुलासा कर देंगी।

वोटबैंक की राजनीति के तहत पूरे देश में अस्मिता राजनीति कमोबेश फासिज्म के राजकाज को ही मजबूत कर रही है,फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस राजनीति का समर्थन कितना आत्मघाती होने जा रहा है,यह हम सत्तर,अस्सी और नब्वे के दशकों में बार बार देख चुके हैं और तब सत्ता का रंग केसरिया भी नहीं था।

परमाणु विध्वंस के लिए वोटबैंक दखल के राजनीतिक समीकरण साधने की राजनीति और राजकाज से यह सांप्रदायिक ध्रूवीकरण बेहद तेज होने लगा है और विडंबना यह है कि असंगठित राष्ट्र,असंगठित समाज और खंडित परिवार के हम कबंध नागरिक इस खंडित अंध अस्मिता राष्ट्रवाद के कार्निवाल में तमाम खबरों से बेखबर किसी न किसी के साथ पार्टीबद्ध होकर नाचते हुए तमाम तरह के मजे ले रहे हैं और मुक्त बाजार में अबाद पूंजी प्रवाह की निरंकुश क्रयशक्ति की वजह से हमारा विवेक,सही गलत समझने की क्षमता सिरे से गायब है।

हम बार बार आगाह कर रहे हैं कि ये युद्ध परिस्थितियां कोई भारत पाक या कश्मीर विवाद नहीं है।बल्कि कारपोरेट विश्वव्यवस्था के तहत सुनियोजित संकट का सृजन है।जैसे पाकिस्तान की फौजी हुकूमत ने पूर्वी पाकिस्तान की आम जनता का दमन का रास्ता अख्तियार करके बांग्लादेश में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप की परिस्थितियां बना दी थी,हम उस इतिहास से कोई सबक सीखे बिना कश्मीर की समस्या सुलझाने के बजाये उसे सैन्य दमन के रास्ते उलझाते हुए अपनी आत्मघाती राजनीति और राजनय से कश्मीर में बाहरी हस्तक्षेप की जमीन मजबूत करने लगे हैं।

पाकिस्तान की फौजी ताकत और हथियारों की होड़ में उसकी मौजूदा हैसियत चाहे कुछ भी हो ,भारत का उससे कोई मुकाबला नहीं है क्योंकि सन 1962,सन 1965 और सन 1971 की लड़ाइयों और अंधाधुंध रक्षा व्यय के बावजूद भारत में लोकतंत्र पर सैन्यतंत्र का वर्चस्व कभी बना नहीं है।

भारत में युद्धकाल से निकलकर विकास की गतिविधियां जारी रही हैं और हर मायने में भारतीय अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर रही है तो सत्ता परिवर्तन के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता सत्तर के दशक के आपातकाल के बावजूद कमोबेश भारत राष्ट्र के लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ नहीं सका है।

जबकि पाकिस्तान में लोकतंत्र उस तरह बहाल हुआ ही नहीं है।लोकतांत्रिक सरकार पर फौज हावी होने से पाकिस्तान में युद्ध परिस्थितियां उसके अंध राष्ट्रवाद के लिए अनिवार्य है और भारत विरोध के बिना उसका कोई वजूद है ही नहीं।

इसी वजह से पाकिस्तान लगातार अपनी राष्ट्रीय आय और अर्थव्यवस्था को अनंत युद्ध तैयारियों में पौज के हवाले करने को मजबूर है और इसीलिए उसकी संप्रभुता अमेरिका ,चीन और रूस जैसे ताकतवर देशों के हवाले हैं।यह भारत की मजबूरी नही है।

हमारी राजनीति चाहे कुछ रही हो,अबाध पूंजी निवेश और मुक्त बाजार के बावजूद राष्ट्रनिर्माताओं की दूर दृष्टि की वजह से हमारा बुनियादी ढांचा निरंतर मजबूत होता रहा है।विकास के तौर तरीके चाहे विवादास्पद हों,लेकिन विकास थमा नहीं है।अनाज की पैदावार में हम आत्मनिर्भर हैं हालाकि अनाज हर भूखे तक पहुंचाने का लोकतंत्र अभी बना नहीं है। हमें पाकिस्तान की तरह बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहने की जरुरत नहीं है।

अस्सी के दशक के खून खराबा और नब्वे के दशक में हुए परिवर्तन के मध्य पाकिस्तान से भारत का कबी किसी भी स्तर पर कोई मुकाबला नहीं रहा है।कश्मीर मामले को भी वह अंतरराष्ट्रीिय मंचों पर उठाने में नाकाम रहा है।

पाकिस्तानी फौजी हुकूमत की गड़बड़ी फैलाने की तमाम कोशिशों के बावजूद कश्मीर विवाद अंतर राष्ट्रीय विवाद 1971 से लेकर अबतक नहीं बना था और न तमाम देशों,अमेरिका,रूस या चीन समेत की विदेश नीति में भारत और पाकिस्तन को एक साथ देखने की पंरपरा रही है।

पाकिस्तान राजनयिक तौर पर अमेरिका और चीन का पिछलग्गू रहा है और बाकी दुनिया से अलग रहा है।इस्लमी राष्ट्र होने के बावजूद उसे भारत के खिलाफ इस्लामी देशों से कभी कोई मदद मिली नहीं है और भारतीय विदेश नीति का करिश्मा यह रहा है कि उसे लगातार अरब दुनिया और इस्लामी दुनिया का समर्थन मिलता रहा है।पाकिस्तान हर हाल में अलग थलग रहा है।

ब्रिक्स के गठन के बाद तो चीन ऱूस ब्राजील के साथ भारत एक आर्थिक ताकत के रुप में उभरा है और भारत जहां है,उस हैसियत को हासिल पाकिस्तान ख्वाबों में भी नहीं कर सकता क्योंकि फौजी हुकूमत के शिकंजे से निकले बिना ऐसा असंभव है।

हमारे अंध राष्ट्रवाद ने कश्मीर समस्या को भारत पाक विवाद बना दिया है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को घेरने की अंध राजनय ने हाल में गोवा में हुए ब्रिक शिखर वार्ता के विशुध आर्थिक मंच पर भी बेमतलब कश्मीिर को मुद्दा बना दिया है,जिसकी गूंज अमेरिकी,चीनी,रूसी कूटनीतिक बयानों में सुनायी पड़ रही है।

यह राजनयिक आत्मघात है ,भले ही इस कवायद से किसी राजनीतिक पार्टी को यूपी और पंजाब में सत्ता दखल करने में भारी मदद मिलेगी,लेकिन इस ऐतिहासिक भूल की भारी कीमत हमें आगे अदा करनी होगी।

नागरिकों का विवेक जब पार्टीबद्ध हो जाये तब राष्ट्र और राष्ट्रवाद की चर्चा बेमानी है।

यह बेहद खतरनाक इसलिए है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में चाहे मैडम हिलेरी जीते या फिर डोनाल्ड ट्रंप,जिन्हें ग्लोबल हिंदुत्व के अलावा पोप का समर्थन भी मिला हुआ है,अमेरिका की तैयारी परमाणु युद्ध की है और आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका के युद्द में पार्टनर होने से तेल कुओं की आग से भारत को बचाना उतना आसान भी नहीं होगा।

कारपोरेट विश्वव्यवस्था के शिकंजे में है हमारी राजनीति और राजनय और नागरिकों का सीधे तौर पर सांप्रदायिक ध्रूवीकरण हो चुका है।

आप चाहे तो हमें जी भरकर गरियायें।सोशल मीडिया पर भी आप हमें आप जो चाहे लिख सकते हैं।हम जैसे कम हैसियत के नामानुष को इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है,लेकिन जिन खतरों की तरफ हम आपका ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं,अपनी अस्मिता और अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर एक मनुष्य और एक भारतीय नागरिक बतौर उन पर तनिक गौर करें तो हम आपके आभारी जरुर होगें।


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