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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, May 17, 2018

अफसोस,शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया। पलाश विश्वास

अफसोस,शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया। 
पलाश विश्वास
आदरणीय जगदीश्वर चतुर्वेदी ने जनवादी लेखक संघ की कथा बांची है और इसपर प्रतिक्रियाओं के जरिये शिवराम और महेंद्र नेह के नाम आये हैं,जिनसे हमारे बेहद अंतरंग संबंध आपातकालके दौरान हो गये थे।

जगदीश्वरजी की कथा पर मेरा यह मतव्य नहीं है क्योंकि जिन लोगों के नाम उन्होंने गिनाये हैं,उनकी सचमुच बहुत बड़ी भूमिका रही है। लेकिन जनवादी लेखकों का संगठन बनाने में उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची जी की बहुत बड़ी भूमिका रही है,जिसे बाद की कुछ घटनाओं में उन्हें हाशिये पर कर दिये जाने से खास चर्चा नहीं होती तो जनवादी लेखक संघ के गठन के लिए सव्यसाची की पहल पर शिवराम और महेंद्र नेह ने आपातकाल के दौरान कोटा में जो गुप्त बैठक का आयोजन किया,उसकी शायद चर्चा करना जरुरी है।

इलाहाबाद के शेखर जोशी,अमरकांत मार्केंडय,दूधनाथ सिंह और भैरव प्रसाद गुप्त भी जनवादी लेखक बनाने के प्रयासों में लगातार जुटे हुए थे।इलाहाबाद में 100,लूकर गंज के शेखरजी के आवास में रहते हुए शैलेश मटियानी और इन सभी लेखकों से पारिवारिक जैसे संबंद होने की वजह से यह मैं बखूब जानता हूं।

हमने साम्यवाद के बारे में दिनेशपुर में रहते हुए ही पढ़ना शुरु कर दिया था और मेरे घर बसंतीपुर में मरे जन्म से पहले से नियमित तौर पर स्वाधीनता डाक से आती थी।क्योंकि मेरे पिता पुलिन विश्वास नैनीताल जिला किसानसभा के नेता थे जिन्होंने 1958 में तेलंगाना आंदोलन की तर्ज ढिमरी ब्लाक में किसान विद्रोह का नेतृत्व किया था।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन के सिलसिले में वे जेल गये।पुलिस ने उनकी बेरहमी से पिटाी की हाथ तोड़ दिया।इस आंदोलन में उनके साथी थे कामरेड हरीश ढौंडियाल एडवोकेट जो नैनीताल में पढ़ाई के के  दौरान मेरे स्थानीय अभिभावक थे,कामरेड सत्येंद्र,चौधरी नेपाल सिंह,हमारे पड़ोसी गांव अर्जुन पुर के बाबा गणेशा सिंह।तब कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कामरेड पीसी जोशी थे।

इस आंदोलन का सेना,पुलिस और पीएसी के द्वारा दमन करने वाले थे भारत में किसानों के बड़े नेता चौधरी चरण सिंह,जिनके अखिल बारत किसान समाज की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य पुलिनबाबू थे और तब चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे।तेलंगाना की तर्ज पर पार्टी ने ढिमरी ब्लाक आंदोलन से पल्ला झाड़ दिया।

किसानों के चालीस गांव फूंक दिये गये थे।भारी लूटपाट हुई थी और तराई के हजारों किसान इस आंदोलन केकारण जेल गये थे।तब यूपी में कांग्रेस के मुकाबले कम्युनिस्ट पार्टी बहुत मजबूत थी और पूरे उत्तर प्रदेश में पार्टी का जनाधार था,उसके सक्रिय कार्यकर्ता थे।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन से दगा करना पहला बड़ा झटका था।बाबा गणेशा सिंह जेल में सड़कर मर गये।बाकी लोगों पर 1967 तक उत्तर प्रदेश में संविद सरकार बनने तक मुकदमा चला।

आजादी के बाद शरणार्थी आंदोलन को लेकर  भी पिताजी का कामरेड ज्योति बसु से टकराव हो गया था,जिसके कारणवे ओड़ीशा चरबेटिया कैंप भेज दिये गये थे और वहां भी आंदोलन करते रहने के कारण उन्हें  और उनके साथियों को 1952 में नैनीताल के जंगल में भेज दिया गया।

आंदोलन के उन्ही साथियों के साथ वे दिनेशपुर इलाके में गांव बसंतीपुर आ बसे।जाति या खूनका रिश्ता न होने के बावजूद आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले ये लोग जो पूर्वी बंगाल में भी तेभागा आंदोलन से जुड़े थे,हमेशा एक परिवार की तरह रहे।

आज भी बसंतीपुर एक संयुक्त परिवार है जबकि उन आंदोलनकारियों में से आज कोई जीवित नहीं हैं और उनकी तीसरी चौथी पीढ़ी गांव में हैं।आंदोलनों की विरासत की वजह से इन सभी लोगों में पारिवारिक रिश्ता आज भी कायम है और इस गांव में आज भी पुलिस नहीं आती क्योंकि लोग आपस में सारे विवाद निपटा लेते हैं और थाने में  इस गांव का कोई केस आज तक दर्ज नहीं हुआ है।

पार्टी के ढिमरी ब्लाक आंदोलन के नेताओं,किसानों से पल्ला झाड़ लेने की वजह से मेरे पिता कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग हो गये लेकिन 1967 तक तराई में क्म्युनिस्ट आंदोलन जोर शोर से चलता रहा औऱ इस आंदोलन का दमन का सिलसिला भी जारी रहा।

मैं शुरु से आंदोलनकारियों के साथ था और नेताओं से भरोसा उठ जाने की वजह से पिताजी मुझे इसके खिलाफ लगातार सावधान करते रहे।हालांकि उन्होंने मुझपर कभी कोई रोक नहीं लगायी उऩसे गहरे राजनीतिक मतभेद के बावजूद।

जीआईसी में गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के निर्देशन में विश्व साहित्य और मार्क्सवाद का हमने सिलसिलेवार अध्ययन शुरु किया और इसी सिलसिले में मैं और कपिलेश भोज उत्तरार्द्ध के पाठक बन गये।

सव्यसाची की पुस्तिकाओं से हमें मार्क्सवाद को गहराई से समझने में मदद मिली और हम मथुरा तक रेलवे का टिकट काटकर सव्यसाची के घर इमरजेंसी के दौरान पहुंच गये।

हमने वापसी के लिए टिकट का पैसा घड़ियां बेचकर जुगाड़ लेने का फैसला किया था।मथुरा में सव्यसाची जी के घर डा.कुंवरपाल सिंह,डा.नमिता सिंह,विनय श्रीकर,भरत सिंह,सुनीत चोपड़ा के साथ हमारी मुलाकात हुई और वहीं कोटा की बैठक के बारे में पता चला।सव्यसाची जी ने कोटा के लिए हमारे भी टिकट कटवा दिये।

कोटा में हमारी मुलाकात देहरादून से आये धीरेंद्र अस्थाना से हुई।वहीं हम पहलीबार शिवराम और महेंद्र नेह से मिले।

शिवराम के नुक्कड़ नाटक के तो हम पाठक थे ही।महेंद्र नेह के जनगीत के भी हम कायल थे।इसी सम्मेलन में जनवादी लेखक सम्मेलन बनाने पर चर्चा की शुरुआत हुई।

बैठक के संयोजन में कांतिमोहनकी स्करियभूमिका थी तो सबसे ज्यादा मुखर सुधीश पचौरी थे।हम सभी लोग अलग अलग टोलियों में कोटा का दशहरा मेला भी घूम आये।हमारी टोली में महेंद्र नेह और शिवराम दोनों थे।

कपिलेश और मैं महेंद्र नेह के साथ ही ठहरे थे।

बैठक के अंतराल के दौरान मैं और कपिलेश भोज कोटा के बाजार में भटकते हुए घड़ी बेचकर वापसी का टिकट कटवाने की जुगत में थे तो फौरन शिवराम और महेंद्र नेह को इसकी भनक लग गयी।उन्होंने तुरंत हमारे लिए टिकट निकाल लिये।

अफसोस की बात यह है कि सव्यसाची को लोगों ने भुला दिया है और जनवादी लेखक संघ के गठन में शिवराम और महेंद्र नेह की भूमिका को भी भुला दिया गया।

यहीं नहीं,हिंदी में नुक्कड़ नाटक आंदोलन में शिवराम की नेतृत्वकारी भूमिका भी भुला दी गयी।हमने तो शिवराम से ही नुक्कड़ नाटक सीखा।गिरदा भी शिवराम से प्रभावित थे।हमने नैनीताल में भी नुक्कड़ नाटक इमरजेंसी और बाद के दौर में किये।

गौरतलब है कि शिवराम ने तब नुक्कड़ नाटक लिखे और खेले जब हिंदी में गुरशरणसिंह और सफदर हाशमी की कोई चर्चा नहीं थी।

शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया।इन कामरेडों में सुनीत चोपड़ा भी शामिल हैं।

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