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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
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Monday, June 16, 2008
हिमालय सबसे बडा़ परमाणु बम है, उससे मत खेलो। खोयी जमीन हासिल करने के लिए शुरू गोरखालैंड और उग्र पश्चिम बंगीय ब्राह्मणवादी राष्ट्रीयता से देश की एकता औ
हिमालय सबसे बडा़ परमाणु बम है, उससे मत खेलो। खोयी जमीन हासिल करने के लिए शुरू गोरखालैंड और उग्र पश्चिम बंगीय ब्राह्मणवादी राष्ट्रीयता से देश की एकता और अखंडता खतरे में।
पलाश विश्वास
हिमालय सबसे बडा परमाणु बम है। भारतवर्ष के लिए सुरक्षा और आस्था के प्रतीक हिमालय से छेड़छाड़ आत्मघाती है। हिमालयी जनगोष्ठियों की जायज मांगों को नजरअंदाज करके औपनिवेशिक तौर तरीके और सैन्यदमन से मसले निरंतर उलझ रहे हैं। नगा मसला अभी सुलझा नहीं है। कश्मीर अंतरराष्ट्रीय सरदर्द बना हुआ है। सिक्किम तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता गोरखालैंड होकर गुजरता है।
केंद्र सरकार ने गोरखालैंड के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल के विभाजन को खारिज कर दिया है। केंद्र दार्जिलिंग, पहाड़ी क्षेत्र और समीप के इलाकों में जारी संकट के मुद्दे को बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के पक्ष में है। सूचना प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने कहा कि हम दार्जिलिंग हिल काउंसिल के तहत मसले का शांतिपूर्ण तरीके से हल करने की कोशिश करेंगे और यह देखेंगे कि राज्य के विभाजन का कोई खतरा नहीं हो। उन्होंने कहा कि गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के सुप्रीमो सुभाष घीसिंग की दार्जिलिंग में प्रवेश करा पाने ने राज्य सरकार की अक्षमता से ही उसकी शक्ति का पता चल गया था। उन्होंने कहा कि दार्जिलिंग के मामले में छठी अनुसूची को प्रभावी करने से पहले वहां की स्थिति का सही आंकलन कर पाने में भी सरकार विफल हुई है। श्री दासमुंशी ने कहा कि कांग्रेस भी अलग गोरखालैंड की मांग के खिलाफ है।
उत्तराखंड और हिमालय में ज्यादातर लोग सवर्ण हैं, पर पर बाहैसियत राष्ट्रीयता उत्तराखंडी और हिमालयी जनता दलित से दलित हैं। पृथक राज्य जरूर मिल गये हैं उत्तराखंड और हिमाचल के नाम से । पर वहां की जनता भी कश्मीर, गोरखालैंड और नगालैंड की तरह दिल्ली आधारित सत्ता वर्ग की औपनिवेशिक सामंतवादी, ब्राह्मणवादी शोषक नीतियो की शिकार हैं।पहाड़ की तमाम सड़कें आज भी वर्टिकल हैं। समांतर सड़कें नहीं हैं पहाड़ और पहाड़ के बीच। आज भी लकड़ी, लड़की, चाय, बिजली और खनिज मानव संपदा, फौज के लिए रंगरूटों की निकासी पहड़ों की मनी आर्डर अर्थ व्यवसथा है।
पहाड़ बाकी देश का गुलाम है और पहाड़ी जनता, सवर्ण, आदिवासी , पिछड़ी और दलित की कोई पहचान नहीं है। बंदूक के बल पर कब तक चलेगा राजकाज?
बांग्ला पश्चिमबंगीय राष्ट्रीयता के आक्रमण का नतीजा है असम का उग्रवादी आन्दोलन।
बिहार और झारखंड ने आजादी के बाद बंगाली सत्तावर्ग के प्रभाव क्षेत्र से अपने को अलग कर लिया। ओड़ीशा भी पश्चिम बंगीय वर्चस्व को तोडकर अपना अलग वजूद बनाने में कामयाब हो गया है।
बंगाल का विभाजन करके दलितों को दुनियाभर में छितराकर पश्चिम बंगाल मे सवर्ण राष्ट्रीयता का वर्चस्व है जीवन के हर क्षेत्र में।
कांग्रेस के अवसान के बाद भूमि सुधार और किसान आंदोलन की विरासत के दम पर सत्ता में आयी माकपा पिछले तीस साल से उग्र बंगाली राष्ट्रीयता और मुसलमान वोट बैंक के दम पर तीस साल से लगातार सत्ता में है।
बांग्ला मार्क्सवाद अंततः पूंजीवादी विकास का बाजारू ब्रांड है, नंदीग्राम और सिंगुर जनविद्रोह के तूफान से कामरेडों के प्रगतिशील चेहरे बेनकाब हो गये हैं।
शरणार्थियों के सफाये के लिए इनकी कारगुजारियां अभी कायदे से बेनकाब नहीं हुई हैं।
बांग्ला साम्प्रदायिकता ने भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को हाशिये पर डाल दिया है। तीन राज्यों की सत्ता तक सिमट गयी है माकपाई क्रांति।
नन्दीग्राम सिंगुर जनविद्रोह के नतीजतन ग्राम पंचायत के चुनावों में पचास फीसद सीटों से बेदखल बंगाली ब्राह्मण माकपाइयों ने बांग्ला सांप्रदायिकता का तूफान खड़ा करके विपक्ष का सफाया करने का जो रणकौशल तय किया है,उसीकी तार्किक परिणति है मौजूदा गोरखालैंड आंदोलन।
अलग गोरखालैंड राज्य की मांग कर रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने रविवार कोकहा कि वह केंद्र और बंगाल सरकार के साथ त्रिपक्षीय वार्ता के लिए तैयार है। इस बीच 60 घंटे के अंतराल के बाद उसने दार्जिलिंग हिल्स में सोमवार से अनिश्चितकालीन बंद फिर से शुरू करने की घोषणा की।
जीजेएम महासचिव रोशन गिरि ने कहा कि हम अपनी मांग पर एक ़ित्रपक्षीय बैठक चाहते हैं। विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि समस्या राजनीतिक है और हम राजनीतिक समाधान चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जीजेएम को बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 17 जून को होने वाली सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित नहीं किया, लेकिन नेतृत्व शीघ्र एक समानांतर सर्वदलीय बैठक आयोजित करने पर विचार कर रहा है। यह फैसला जीजेएम केंद्रीय समिति की बैठक में किया गया। वहां बिमल गुंग और जीजेएम की सभी इकाइयों के सचिव मौजूद थे। गिरि ने कहा कि दार्जिलिंग हिल्स में सोमवार से बंद के साथ-साथ भूख हड़ताल भी शुरू की जाएगी, जिसके तहत सात जीजेएम सदस्यों का जत्था एक-एक कर उपवास रखेगा। गिरि ने कहा कि दुआर्स और सिलिगुड़ी को बंद से मुक्त रखा जाएगा और जीजेएम सदस्य जीजेएम समर्थकों के मकानों की मरम्मत करेंगे। इन मकानों को आमरा बंगाली जन जागरण मंच और अन्य संगठनों ने क्षति पहुंचाई थी।
वाम मोर्चा के अध्यक्ष विमान बोस ने आज इस बात का खंडन किया कि मोर्चा का कोई घटक दल जीजेएम द्वारा आयोजित की जाने वाली समानांतर बैठक में हिस्सा लेने के लिए तैयार है। बोस ने कहा जीजेएम प्रमुख विमल गुंग ने बातचीत के लिए मुख्यमंत्री के न्योते को ठुकरा दिया इसलिए दार्जिलिंग जिला वाम मोर्चा ने शनिवार को फैसला किया कि वह जीजेएम द्वारा बुलाई गई किसी भी बैठक में हिस्सा नहीं लेगा। मुख्यमंत्री द्वारा 17 जून को यहां बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में जीजेएम को न्योता नहीं दिया गया था। इस पर जीजेएम ने 18 जून को मुख्यमंत्री की ओर से बातचीत के संबंध में की गई पेशकश को खारिज कर दिया।
बंगाल के दलित बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर कर दिये गये। पर गोरखालैंड और उत्तर बंगाल के मूलनिवासी अपनी जमीन और जड़ों से मजबूती से कायम हैं।
प्रणव मुखर्जी न सिर्फ बंगाल बल्कि भारतीय और ग्लोबल ब्राह्मणी सत्तावर्ग के सिपाहसालार हैं। उन्होंने कहा है कि गोरखालैंड हरगिज नहीं बनेगा।
हालात हिमालय में बदल गये हैं, फारत के विदेश मंत्री को यह बात समझ में नहीं आती।
बहादुर गोरखा कौम, जिन्होंने समूचे हिमालय पर कभी राज किया, नेपाल में राजतंत्र के अवसान के बाद अब बंगाली ब्राह्मणों की गुलामी कतई मंजूर नहीं करेगी, इस समझ से ही गोरखालैंड का मसला हल किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
पर इस तथ्य पर गौर करने की मानसिकता भारत के सत्तावर्ग की नहीं है, जो १९५८ से लेकर अबतक लगातार समूचे पूर्वोत्तर और कश्मीर में विशष सैन्य अधिनियम के तहत राष्ट्रीयताओं को कुचलने को अभ्यस्त है। मुख्यभूमि की मुख्यधारा की जनता को हिमालयी हकीकत की जानकारी न के बराबर है। ग्लोबल वर्मिंग की वजह से पृथ्वी पर जलवायु में जो परिवर्तन हो रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में हिमालय से अनन्त बलात्कार की व्यथा कथा है। पर पर्यावरण की चिंता तो दूर, पर्यटन के सिवाय हिमालय की चर्चा तक नहीं होती।
ऊंचे ऊंचे पहाड़, खूबसूरत घाटियों, हिल स्टेशन, सैर सपाटा. झील और झरने या फिर तीर्थस्थल- इन्हीं बिंदुओं तक सीमाबद्ध है भारतीय सोच।
बांग्ला के मशहूर उपन्यासकार समरेश मजुमदार, जो नक्सली पृष्ठभूमि पर आधारित कालबेला, उत्तराधिकार और कालपुरूष उपन्यासों के लिए विख्यात हैं और जन्मजात सिलीगुड़ी से जुड़े़ हैं, ने बांग्ला वर्चस्ववाद और बांग्ला सांप्रदायिकता के मुखपत्र आनन्द बाजार के संपादकीय पृष्ठ पर एक आलेख के जरिए एलान कर दिया है कि दार्जिलिंग एक आर्थिक बोझ है, पश्चिम बंगाल को इसे अपने कंधे से उतार फेंकना है।
सोचिए, धारा ३७० को खत्म करने वाले अगर अब बयान दें कि कश्मीर एक आजर्थिक बोझ है, इस भारत से अलग होने दिया जाये, तो आपका क्या वक्तव्य होगा?
समरेश बाबू के मुताबिक निनानव्बे प्रतिशत बंगाली गोरखा जनसमुदाय को बंगाली नहीं मानते। रोरखा लोग भी अपने को बंगाली नहीं बताते। वे पश्चिम बंग नहीं, पश्चिम बंगाल कहते हैं। उनकी भाष गोर्खाली है और दार्जिलिंग में आप को हिंदी में बातचीत करनी पड़ती है। उनके मुताबिक पृथक राज्य का यही वास्तविक आधार है। वे मानते हैं कि परंपरागत तौर पर दार्जिलिंग बंगाल का हिस्सा नहीं रहा है। अगर अलग राज्य से शांति लौटती है तो हम फिर बिना रोक टोक दार्जिलिंग में पर्यटन कर सकते हैं।
तो हिमालय सिर्फ पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण है। बाकी देश की तरह हिमालय की जनता को कोई हक हकूक की जरुरत नहीं है। वे विकास की मांग करे या अपनी पहचान बनाये रखने पर जोर दें या अलग राज्य की मांग कर दें तो वे राष्ट्रविरोधी ताकतों में शुमार हो जायेंगे और इस तथाकथित लोकतांत्रिक देश में उनसे बातचीत की कोई गुंजाइश बची नहीं रहेगी। उन्हें सिर्फ राष्ट्रशक्ति की ताकत से ही निपटा दिया जाये। सेना तैनात करके ही हिमालय में शान्ति लौट सकती है।
उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान मुलायम सिंह राज के दौरान हुए मुजफ्फरनगर बलात्कार कांड तो एक झांकी है कि कैसे राष्ट्रीयताओं से निपटा जाता है।
हमारा सारा प्रेम पहाड़ों से है, पहाड़ियों से हमारी कोई सहानुभूति नहीं है।
चिपको आन्दोलन तो सत्तर के दशक में चल रहा था और कल तक सुंदर लाल बहुगुणा टिहरी डाम के खिलाफ आंदोलनरत थे। पर पहाड़ के पर्यावरण के बदले पहाड़ से मिलने वाले पेयजल और बिजली पर नजर रही सबकी।
गोरखा रेजीमेंट की लड़ाकू मिजाज पर तो हम बाग बाग है, पर आम गोरखा जनता की हैसियत बहादुर से ज्यादा नहीं है। उत्तर पूर्व के लोग दिल्ली में स्वागत नहीं है। पहाड़ी ब्राह्मण दिल्ली में राज करते हैं, लेकिन उनके लिए हम पहाड़ी गाली का बखूब इस्तेमाल करते हैं। मुसलमानों को हम पाकिस्तानियों से बेहतर नहीं समझते। मणिपुर की शर्मिला लगातार अनशन पर है। जब तब दिल्ली आती जाती रहती है, पर बाकी देश में पूर्वोत्तर या कश्मीर में सैन्य कानून के खिलाफ प्रतिवाद नहीं है।
दरअसल हिमालय से सख्ती से निपटना और हिमालयी संपदा का दोहन, सेक्स पर्यटन या तीर्थाटन के बिंदुओं को ठोड़कर हम पहाड़ों के बारे कुछ नहीं सोच सकते। कश्मीर या हिमाचल, या उत्तराखंड या दार्जिलिंग में फिल्माये गये दृश्यों के हम दीवाने होजाते हैं, पर उन फिल्मों में पहाड़ी जनता की तकलीफें या आम पहाड़ी लोग कहां होते हैं? हम सभी लोग इस दमन का भोग करते हैं।
गोरखालैंड आन्दोलन के ताजा उभार में खास बात है, इसके प्रतिरोध में सिलीगुड़ी, डुआर्स और तराई में हिंसा। बंगाल के विभाजन का जख्म अभी ताजा है। आज भी शरणार्थियों का वोटबैंक अटूट है और फिर बंग्ला सांप्रदायिकता , जिसे मार्क्सवाद ने बाकायदा ब्रांड बना दिया है। जिस आनंद बाजार में समरेश मजुमदार का लेख छपा, वहीं आनन्द बाजार बांग्ला विपन्न और बंगाली विपर्यस्त का ूफान खड़ा करने का मुख्य कारीगर है। चाहे मामला भारतीय टीम से सौरभ गांगुली का निष्कासन हो, या फिर ज्योति बसु को प्रधानमंत्रित्व से वंचित किया जाना या पिर विदेश मंत्रालय के जरिए प्रणव मुखर्जी का कमाल।
गोरखालैंड आन्दोलन को पश्चमबंगीय बांग्ला राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा संकट बनाकर पेश करने में मीडिय और खासकर आनन्द समूह जिम्मेवार है।
बंगाल का विभाजन फिर नहीं हो, इस मुद्दे पर समूचे बांग्ला भा।ी जनता को एकमुश्त वोट बैंक बनाना माकपा का खेल है। सर्व दलीय बैठक का बायकाट करके ममता बनर्जी और एसयूसी ने माकपा के लिए खुल्ला ैदान ठोड़ दिया है।
सवाल यह है कि गोरखालैंड का मौजूदा दौर आखिर किसकी शह पर शुरू हुआ?
पिछले आठ साल में गोरखालैंड स्वायत्त परि।द बनने के बाद सिर्फ सुभास घीसिंग को सत्ता में बनाये रखने के अलावा पश्चिम बंगाल सरकार और वाममोर्चा ने पहाड़ के विकास के लिए क्या पहल की? विपक्ष की भूमिका कितनी सकारात्मक है?
चायबागानों में भुखमरी पर क्यों खामोश रहा बाकी बंगाल? बाकी दे?
प्रकाश तामांग के बहाने गोरखा राष्ट्रीयता के उफान कहन अति सरलीकरण है।
सुभास घीसिंग को किनारे करने के लिए किसने विमल गुरुंग को खड़ा किया जरनैल सिंह भिंडरावाला की तर्ज पर?
दार्जिलिंग जिला का काम खुद मुख्यमंत्री दैखते हैं, अशोक भट्टाचार्ट को उत्तर ंगाल के डान बतौर किसने तैयार किया?
गोरखालैंड आन्दोलन के प्रतिरोध में आमरा बंगाली और संतान दल को सामने रखकर कौन भड़का रहा है सांप्रदायिकता?हिमालय सबसे बडा़ परमाणु बम है, उससे मत खेलो। खोयी जमीन हासिल करने के लिए शुरू गोरखालैंड और उग्र पश्चिम बंगीय ब्राह्मणवादी राष्ट्रीयता से देश की एकता और अखंडता खतरे में।
पलाश विश्वास
हिमालय सबसे बडा परमाणु बम है। भारतवर्ष के लिए सुरक्षा और आस्था के प्रतीक हिमालय से छेड़छाड़ आत्मघाती है। हिमालयी जनगोष्ठियों की जायज मांगों को नजरअंदाज करके औपनिवेशिक तौर तरीके और सैन्यदमन से मसले निरंतर उलझ रहे हैं। नगा मसला अभी सुलझा नहीं है। कश्मीर अंतरराष्ट्रीय सरदर्द बना हुआ है। सिक्किम तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता गोरखालैंड होकर गुजरता है।
उत्तराखंड और हिमालय में ज्यादातर लोग सवर्ण हैं, पर पर बाहैसियत राष्ट्रीयता उत्तराखंडी और हिमालयी जनता दलित से दलित हैं। पृथक राज्य जरूर मिल गये हैं उत्तराखंड और हिमाचल के नाम से । पर वहां की जनता भी कश्मीर, गोरखालैंड और नगालैंड की तरह दिल्ली आधारित सत्ता वर्ग की औपनिवेशिक सामंतवादी, ब्राह्मणवादी शोषक नीतियो की शिकार हैं।पहाड़ की तमाम सड़कें आज भी वर्टिकल हैं। समांतर सड़कें नहीं हैं पहाड़ और पहाड़ के बीच। आज भी लकड़ी, लड़की, चाय, बिजली और खनिज मानव संपदा, फौज के लिए रंगरूटों की निकासी पहड़ों की मनी आर्डर अर्थ व्यवसथा है।
पहाड़ बाकी देश का गुलाम है और पहाड़ी जनता, सवर्ण, आदिवासी , पिछड़ी और दलित की कोई पहचान नहीं है। बंदूक के बल पर कब तक चलेगा राजकाज?
बांग्ला पश्चिमबंगीय राष्ट्रीयता के आक्रमण का नतीजा है असम का उग्रवादी आन्दोलन।
बिहार और झारखंड ने आजादी के बाद बंगाली सत्तावर्ग के प्रभाव क्षेत्र से अपने को अलग कर लिया। ओड़ीशा भी पश्चिम बंगीय वर्चस्व को तोडकर अपना अलग वजूद बनाने में कामयाब हो गया है।
बंगाल का विभाजन करके दलितों को दुनियाभर में छितराकर पश्चिम बंगाल मे सवर्ण राष्ट्रीयता का वर्चस्व है जीवन के हर क्षेत्र में।
कांग्रेस के अवसान के बाद भूमि सुधार और किसान आंदोलन की विरासत के दम पर सत्ता में आयी माकपा पिछले तीस साल से उग्र बंगाली राष्ट्रीयता और मुसलमान वोट बैंक के दम पर तीस साल से लगातार सत्ता में है।
बांग्ला मार्क्सवाद अंततः पूंजीवादी विकास का बाजारू ब्रांड है, नंदीग्राम और सिंगुर जनविद्रोह के तूफान से कामरेडों के प्रगतिशील चेहरे बेनकाब हो गये हैं।
शरणार्थियों के सफाये के लिए इनकी कारगुजारियां अभी कायदे से बेनकाब नहीं हुई हैं।
बांग्ला साम्प्रदायिकता ने भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को हाशिये पर डाल दिया है। तीन राज्यों की सत्ता तक सिमट गयी है माकपाई क्रांति।
नन्दीग्राम सिंगुर जनविद्रोह के नतीजतन ग्राम पंचायत के चुनावों में पचास फीसद सीटों से बेदखल बंगाली ब्राह्मण माकपाइयों ने बांग्ला सांप्रदायिकता का तूफान खड़ा करके विपक्ष का सफाया करने का जो रणकौशल तय किया है,उसीकी तार्किक परिणति है मौजूदा गोरखालैंड आंदोलन।
बंगाल के दलित बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर कर दिये गये। पर गोरखालैंड और उत्तर बंगाल के मूलनिवासी अपनी जमीन और जड़ों से मजबूती से कायम हैं।
प्रणव मुखर्जी न सिर्फ बंगाल बल्कि भारतीय और ग्लोबल ब्राह्मणी सत्तावर्ग के सिपाहसालार हैं। उन्होंने कहा है कि गोरखालैंड हरगिज नहीं बनेगा।
हालात हिमालय में बदल गये हैं, फारत के विदेश मंत्री को यह बात समझ में नहीं आती।
बहादुर गोरखा कौम, जिन्होंने समूचे हिमालय पर कभी राज किया, नेपाल में राजतंत्र के अवसान के बाद अब बंगाली ब्राह्मणों की गुलामी कतई मंजूर नहीं करेगी, इस समझ से ही गोरखालैंड का मसला हल किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
पर इस तथ्य पर गौर करने की मानसिकता भारत के सत्तावर्ग की नहीं है, जो १९५८ से लेकर अबतक लगातार समूचे पूर्वोत्तर और कश्मीर में विशष सैन्य अधिनियम के तहत राष्ट्रीयताओं को कुचलने को अभ्यस्त है। मुख्यभूमि की मुख्यधारा की जनता को हिमालयी हकीकत की जानकारी न के बराबर है। ग्लोबल वर्मिंग की वजह से पृथ्वी पर जलवायु में जो परिवर्तन हो रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में हिमालय से अनन्त बलात्कार की व्यथा कथा है। पर पर्यावरण की चिंता तो दूर, पर्यटन के सिवाय हिमालय की चर्चा तक नहीं होती।
ऊंचे ऊंचे पहाड़, खूबसूरत घाटियों, हिल स्टेशन, सैर सपाटा. झील और झरने या फिर तीर्थस्थल- इन्हीं बिंदुओं तक सीमाबद्ध है भारतीय सोच।
बांग्ला के मशहूर उपन्यासकार समरेश मजुमदार, जो नक्सली पृष्ठभूमि पर आधारित कालबेला, उत्तराधिकार और कालपुरूष उपन्यासों के लिए विख्यात हैं और जन्मजात सिलीगुड़ी से जुड़े़ हैं, ने बांग्ला वर्चस्ववाद और बांग्ला सांप्रदायिकता के मुखपत्र आनन्द बाजार के संपादकीय पृष्ठ पर एक आलेख के जरिए एलान कर दिया है कि दार्जिलिंग एक आर्थिक बोझ है, पश्चिम बंगाल को इसे अपने कंधे से उतार फेंकना है।
सोचिए, धारा ३७० को खत्म करने वाले अगर अब बयान दें कि कश्मीर एक आजर्थिक बोझ है, इस भारत से अलग होने दिया जाये, तो आपका क्या वक्तव्य होगा?
समरेश बाबू के मुताबिक निनानव्बे प्रतिशत बंगाली गोरखा जनसमुदाय को बंगाली नहीं मानते। रोरखा लोग भी अपने को बंगाली नहीं बताते। वे पश्चिम बंग नहीं, पश्चिम बंगाल कहते हैं। उनकी भाष गोर्खाली है और दार्जिलिंग में आप को हिंदी में बातचीत करनी पड़ती है। उनके मुताबिक पृथक राज्य का यही वास्तविक आधार है। वे मानते हैं कि परंपरागत तौर पर दार्जिलिंग बंगाल का हिस्सा नहीं रहा है। अगर अलग राज्य से शांति लौटती है तो हम फिर बिना रोक टोक दार्जिलिंग में पर्यटन कर सकते हैं।
तो हिमालय सिर्फ पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण है। बाकी देश की तरह हिमालय की जनता को कोई हक हकूक की जरुरत नहीं है। वे विकास की मांग करे या अपनी पहचान बनाये रखने पर जोर दें या अलग राज्य की मांग कर दें तो वे राष्ट्रविरोधी ताकतों में शुमार हो जायेंगे और इस तथाकथित लोकतांत्रिक देश में उनसे बातचीत की कोई गुंजाइश बची नहीं रहेगी। उन्हें सिर्फ राष्ट्रशक्ति की ताकत से ही निपटा दिया जाये। सेना तैनात करके ही हिमालय में शान्ति लौट सकती है।
उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान मुलायम सिंह राज के दौरान हुए मुजफ्फरनगर बलात्कार कांड तो एक झांकी है कि कैसे राष्ट्रीयताओं से निपटा जाता है।
हमारा सारा प्रेम पहाड़ों से है, पहाड़ियों से हमारी कोई सहानुभूति नहीं है।
चिपको आन्दोलन तो सत्तर के दशक में चल रहा था और कल तक सुंदर लाल बहुगुणा टिहरी डाम के खिलाफ आंदोलनरत थे। पर पहाड़ के पर्यावरण के बदले पहाड़ से मिलने वाले पेयजल और बिजली पर नजर रही सबकी।
गोरखा रेजीमेंट की लड़ाकू मिजाज पर तो हम बाग बाग है, पर आम गोरखा जनता की हैसियत बहादुर से ज्यादा नहीं है। उत्तर पूर्व के लोग दिल्ली में स्वागत नहीं है। पहाड़ी ब्राह्मण दिल्ली में राज करते हैं, लेकिन उनके लिए हम पहाड़ी गाली का बखूब इस्तेमाल करते हैं। मुसलमानों को हम पाकिस्तानियों से बेहतर नहीं समझते। मणिपुर की शर्मिला लगातार अनशन पर है। जब तब दिल्ली आती जाती रहती है, पर बाकी देश में पूर्वोत्तर या कश्मीर में सैन्य कानून के खिलाफ प्रतिवाद नहीं है।
दरअसल हिमालय से सख्ती से निपटना और हिमालयी संपदा का दोहन, सेक्स पर्यटन या तीर्थाटन के बिंदुओं को ठोड़कर हम पहाड़ों के बारे कुछ नहीं सोच सकते। कश्मीर या हिमाचल, या उत्तराखंड या दार्जिलिंग में फिल्माये गये दृश्यों के हम दीवाने होजाते हैं, पर उन फिल्मों में पहाड़ी जनता की तकलीफें या आम पहाड़ी लोग कहां होते हैं? हम सभी लोग इस दमन का भोग करते हैं।
गोरखालैंड आन्दोलन के ताजा उभार में खास बात है, इसके प्रतिरोध में सिलीगुड़ी, डुआर्स और तराई में हिंसा। बंगाल के विभाजन का जख्म अभी ताजा है। आज भी शरणार्थियों का वोटबैंक अटूट है और फिर बंग्ला सांप्रदायिकता , जिसे मार्क्सवाद ने बाकायदा ब्रांड बना दिया है। जिस आनंद बाजार में समरेश मजुमदार का लेख छपा, वहीं आनन्द बाजार बांग्ला विपन्न और बंगाली विपर्यस्त का ूफान खड़ा करने का मुख्य कारीगर है। चाहे मामला भारतीय टीम से सौरभ गांगुली का निष्कासन हो, या फिर ज्योति बसु को प्रधानमंत्रित्व से वंचित किया जाना या पिर विदेश मंत्रालय के जरिए प्रणव मुखर्जी का कमाल।
गोरखालैंड आन्दोलन को पश्चमबंगीय बांग्ला राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा संकट बनाकर पेश करने में मीडिय और खासकर आनन्द समूह जिम्मेवार है।
बंगाल का विभाजन फिर नहीं हो, इस मुद्दे पर समूचे बांग्ला भा।ी जनता को एकमुश्त वोट बैंक बनाना माकपा का खेल है। सर्व दलीय बैठक का बायकाट करके ममता बनर्जी और एसयूसी ने माकपा के लिए खुल्ला ैदान ठोड़ दिया है।
सवाल यह है कि गोरखालैंड का मौजूदा दौर आखिर किसकी शह पर शुरू हुआ?
पिछले आठ साल में गोरखालैंड स्वायत्त परि।द बनने के बाद सिर्फ सुभास घीसिंग को सत्ता में बनाये रखने के अलावा पश्चिम बंगाल सरकार और वाममोर्चा ने पहाड़ के विकास के लिए क्या पहल की? विपक्ष की भूमिका कितनी सकारात्मक है?
चायबागानों में भुखमरी पर क्यों खामोश रहा बाकी बंगाल? बाकी दे?
प्रकाश तामांग के बहाने गोरखा राष्ट्रीयता के उफान कहन अति सरलीकरण है।
सुभास घीसिंग को किनारे करने के लिए किसने विमल गुरुंग को खड़ा किया जरनैल सिंह भिंडरावाला की तर्ज पर?
दार्जिलिंग जिला का काम खुद मुख्यमंत्री दैखते हैं, अशोक भट्टाचार्ट को उत्तर ंगाल के डान बतौर किसने तैयार किया?
गोरखालैंड आन्दोलन के प्रतिरोध में आमरा बंगाली और संतान दल को सामने रखकर कौन भड़का रहा है सांप्रदायिकता?
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अस्वीकार कर दिया है। गोरखालैंड की मांग को लेकर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने आंदोलन तेज कर रखा है।
एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के बाद संवाददाताओं से चर्चा करते हुए प्रणव ने कहा, 'हम अलग गोरखलैंड राज्य की मांग का समर्थन नहीं करते। अलग राज्य की किसी भी मांग का हम विरोध करते हैं।'
मुखर्जी से जब यह पूछा गया कि क्या सरकार इस संबंध में जीजेएम के साथ वार्ता करेगी तो इसके जवाब में उन्होंने कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के लिए जीजेएम से वार्ता के सारे रास्ते खुले हैं।
उल्लेखनीय है कि जीजेएम ने शुक्रवार को इस मुद्दे पर केंद्र व राज्य सरकार के साथ मिलकर त्रिस्तरीय वार्ता की मांग की थी।
जीजेएम ने अपने अध्यक्ष बिमल गुरूंग के नेतृत्व में अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर पूरे पहाड़ी क्षेत्र में आंदोलन तेज कर दिया है।
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा [जीजेएम] के अध्यक्ष विमल गुरुंग ने सोमवार को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय इलाके की समस्या के समाधान के लिए केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग की।
जीजेएम ने पृथक गोरखालैंड की मांग को लेकर दार्जिलिंग, कुर्सियांग और कलिमपोंग में आज शाम छह बजे से दूसरे चरण की हड़ताल का आह्वान करते हुए सिलीगुड़ी में पिछले सप्ताह हुई हिंसा की घटनाओं में शामिल लोगों को गिरफ्तार करने की भी मांग की।
गुरुंग ने कहा कि हम दार्जिलिंग के गोरखाओं का वाम मोर्चा सरकार पर विश्वास नहीं रहा। दार्जिलिंग में गोरखाओं के पृथक राज्य की मांग को लेकर चलाए जा रहे प्रजातांत्रिक आंदोलन से उत्पन्न संकट के समाधान के लिए हम अब केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग करते हैं।
जीजेएम अध्यक्ष ने कहा कि हम उस सरकार पर कैसे निर्भर रह सकते हैं, जिसने प्रत्येक लोकतांत्रिक मांग पर अपने कान बंद कर रखे हैं और पुलिस एवं कार्यकर्ताओं के दम पर मौलिक अधिकारों पर रोक लगा रही है। हमें राज्य सरकार पर भरोसा नहीं रहा और हम केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं।
गुरुंग की यह नई मांग उस समय आई है, जब राज्य सरकार ने दार्जिलिंग मुद्दे पर चर्चा के लिए मंगलवार को कोलकाता में सर्वदलीय बैठक बुलाई है। राज्य सरकार ने जीजेएम को इस बैठक के लिए आमंत्रित नहीं किया है। कांग्रेस और सभी वाम दलों के सभी सहयोगी इस बैठक में भाग लेंगे जबकि तृणमूल कांग्रेस ने जीजेएम को बैठक में नहीं बुलाने के राज्य सरकार के निर्णय के विरोध में बैठक के बहिष्कार का ऐलान किया है।
गुरुंग ने कहा कि जीजेएम नेतृत्व उस बैठक में भाग नहीं लेगा, जहां शर्ते तय कर दी गइ्र हों। उन्होंने कहा कि जीजेएम केवल गोरखाओं के लिए पृथक राज्य की मांग पर ही चर्चा करेगा। पर्वतीय इलाके में राज्य की मांग के अलावा कोई अन्य राजनीति नहीं है।
उन्होंने पश्चिम बंगाल के शहरी विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य की पिछले सप्ताह सिलीगुड़ी में हुई हिंसा के पीछे प्रमुख भूमिका होने का आरोप लगाते हुए उनकी आलोचना की। इन घटनाओं में पर्वतीय इलाकों के कई लोगों पर हमले किए गए थे।
गुरुंग ने बागडोगरा प्रधाननगर और नक्सलबाड़ी में जातीय हिंसा के लिए भट्टाचार्य को जिम्मेदार ठहराते हुए उनकी गिरफ्तारी की मांग की। उन्होंने बताया कि पर्वतीय क्षेत्र में पूरी तरह से बंद के अलावा तराई और दूआर में गोरखालैंड और हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर 128 कार्यकर्ता क्रमिक भूख हड़ताल करेंगे। इन इलाकों में इस बार वे हड़ताल नहीं करेंगे।
गुरुंग ने बताया कि सभी तीनों पर्वतीय उप क्षेत्र दार्जिलिंग, कुरसियांग और कलिमपोंग में अनिश्चितकालीन हड़ताल की जाएगी।
हालांकि, चाय बागान, सिंकोना बागान, परीक्षा केंद्र और अन्य आपात सेवाएं बंद से अलग रखी जाएंगी। पुलिस महानिरीक्षक कुंदल लाल टमटा ने पर्वतीय इलाके में बंद और नए आंदोलन के मद्देनजर स्थिति का जायजा लेने और सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा के लिए उच्चस्तरीय बैठक की है।
नंदीग्राम कांड से हाथ जला चुकी माकपा गोरखालैंड मामले में फूंक-फूंक कर कदम उठाने के हक में है। इस लिहाज से माकपा महासचिव प्रकाश करात ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को 'एकतरफा' फैसला नहीं करने की सलाह दी है।
गोरखालैंड को लेकर सूबे के उत्तारी हिस्से में बढ़ रही तनातनी के बीच करात ने वाममोर्चा सरकार के मुखिया से दो टूक कहा है कि वे किसी भी फैसले पर पहुंचने से पहले घटक वामदलों को भरोसे में लें। सूत्रों की मानें तो करात ने यह भी कह दिया है कि बंगाल के माकपा नेता फिलहाल इस मुद्दे पर किसी भी बयानबाजी से बचें। सूत्रों के अनुसार गोरखालैंड के विरोध में बंगाल माकपा के सचिव बिमान बोस की तात्कालिक टिप्पणी करात को खल रही है। उनका मानना था कि बोस को इतनी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी।
वैसे करात की सबसे ज्यादा चिंता इस बात को लेकर है कि एकतरफा फैसला कर बुद्धदेव वही गलती न कर बैठें जो उन्होंने नंदीग्राम में की थी। गौरतलब है कि नंदीग्राम संग्राम के बाद वाममोर्चा के घटक दलों ने बुद्धदेव पर उन्हें अंधकार में रखने का आरोप मढ़ दिया था। भाकपा महासचिव ए बी बर्धन तो सार्वजनिक तौर पर अभी भी यही कहते रहते हैं कि बुद्धदेव को एकतरफा फैसला नहीं करना चाहिए था। अब गोरखालैंड विवाद के गहराते ही माकपा नेतृत्व ऐसी स्थिति नहीं बनने देना चाहता है।
इस बीच, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के साथ बातचीत करने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार पर भाकपा के दबाव बनाने से करात की चिंता और बढ़ गई है। भाकपा ने दो टूक कह दिया है कि बुद्धदेव सरकार को गोरखालैंड की मांग कर रहे इस मोर्चा से न 'केवल वार्ता करनी चाहिए बल्कि इसके लिए कोई भी शर्त नहीं रखनी चाहिए।' भाकपा के इस तल्ख तेवर के मद्देनजर करात को पूरा अंदेशा है कि सहयोगी वामदलों का हल्के ढंग से लेना बुद्धदेव और वाममोर्चा दोनों के लिए महंगा साबित हो सकता है। सूत्रों के अनुसार यह करात की सलाह का ही असर है कि बुद्धदेव ने 17 जून को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है। यही नहीं, इसके ठीक एक दिन बाद ही उन्होंने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता बिमल गुरुंग से बातचीत करने का भी फैसला किया है। गोरखा नेता को वार्ता के लिए आमंत्रण भेजा जा चुका है।
गरम हुआ गोरखालैंड
आलोक प्रकाश पुतुल
गोरखालैंड से
यह 13 अप्रैल 1986 की बात है, जब अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले सुभाष घीसिंग ने कहा था- “ मेरी पहचान गोरखालैंड है.”
लेकिन आज 22 साल बाद जब गोरखालैंड की मांग अपने चरम पर है और इन दिनों दार्जिलिंग, कर्सियांग, मिरिक, जाटी और चामुर्ची तक ताबड़तोड़ रैली और विशाल प्रदर्शन हो रहे हैं तब सुभाष घीसिंग का कहीं अता-पता नहीं है.
कहां हैं सुभाष घीसिंग ?
गोरखालैंड के नये नायक विमल गुरुंग
गोरखालैंड आंदोलन के नए नायक गोजमुमो के विमल गुरुंग हैं, जिनके इशारे पर पहाड़ के इलाके में लाखों लोग उठ खड़े हुए हैं.
“ सुबास घिसिंग इधर में घिस गिया.”
इस वाक्य के साथ कालिंपोंग के एक बुजुर्ग ने जब अपनी पोपली हंसी बिखेरी तो आसपास खड़े लोग भी हंसे बिना नहीं रह सके.
दार्जिलिंग, डुवार्स, तराई और सिलीगुड़ी को मिलाकर अलग गोरखालैंड बनाने के मुद्दे पर अब सुभाष घीसिंग की यही पहचान है.
घीसिंग को बाय-बाय
डुवार्स के वीरपाड़ा नेपाली हाईस्कूल में कोई 25 हजार लोग सुबह से इक्कठा हुए थे. लेकिन शाम को जब जनसभा खत्म हुई तो लगता नहीं था कि भीड़ के जोश में कहीं कोई कमी है. यह सुभाष घीसिंग की नहीं, गोजमुमो की सभा थी.
गोजमुमो यानी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा. और अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले नए नायक हैं विमल गुरुंग.
गोरखालैंड के अलग-अलग इलाके में लोगों ने इस नायक को पलकों पर बिठा कर रखा है. और गुरुंग ?
कभी बेहद आक्रमक नेता रहे गुरुंग बेहद विनम्रता के साथ कहते हैं- “सुभाष घीसिंग ने जनता के साथ धोखा किया. मैं अपने खून की आखरी बूंद तक लड़ूंगा. मैं मार्च 2010 तक अलग गोरखालैंड अलग करके दम लूंगा.”
1980 के आसपास गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट बनाकर भारतीय राजनीति में धमाका करने वाले सुभाष घीसिंग ने दार्जिलिंग और उसके आसपास के पहाड़ी इलाकों में एक ऐसी आग भर दी थी, जिसके बाद लगता ही नहीं था कि यह आग अलग गोरखालैंड के बिना बंद होगी.
कोई एक हजार से अधिक लोग गोरखालैंड की इस आग की भेंट चढ़ गए. इस हिंसक जनांदोलन के नेता सुभाष घीसिंग और उनके साथ के विशाल जन सैलाब ने अलग राज्य की मांग करने वाले देश के दूसरे नेताओं को भी आंदोलन की एक नई धारा दिखाई.
लेकिन 1988 में घीसिंग को मना लिया गया और फिर दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल बना कर उन्हें उसकी कमान सौंप दी गई. हालांकि घीसिंग के समर्थकों का एक बड़ा धड़ा मानता था कि काउंसिल के सहारे पृथक गोरखालैंड की मांग को खत्म करने की कोशिश की गई है. यही कारण है कि विमल गुरुंग जैसे समर्थक घीसिंग के खिलाफ उठ खड़े हुए. लेकिन यह विरोध असफल साबित हुआ.
दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल का राजपाट 20 साल तक चला और तब तक पृथक गोरखालैंड का मुद्दा राजनीतिक और जन संगठनों की ओर से लगभग हाशिए पर धकेल दिया गया.
कहते हैं, सत्ता और भ्रष्टाचार एक ही पतलून के दो पायंचे हैं और अगर ऐसा न हो तो भी सत्ता को काजल की कोठरी मानने से कौन इंकार करता है ? सुभाष घीसिंग भी इसी का शिकार हुए.
विमल गुरुंग कहते हैं- “ उन्होंने गोरखालैंड की मांग को भूला दिया और काउंसिल के भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए.”
आप पहाड़ के किसी भी इलाके में चले जाएं, गोजमुमो के नारे और झंडे आपको हर कहीं मिल जाएंगे.
2005 में इस इलाके को छठवीं अनुसूचि में शामिल किए जाने पर अपनी मुहर लगाकर घीसिंग विवादों में घिर गए थे. दूसरी ओर विमल गुरुंग उनके खिलाफ बगावती झंडा लहराते पहाड़ में घुम ही रहे थे. कोई सात महीने पहले गुरुंग ने गोजमुमो बनाकर तो जैसे गोरखालैंड आंदोलन में भूचाल ला दिया.
हालत ये हुई कि इसी साल मार्च में जब काउंसिल का कार्यकाल खत्म होने को था और सुभाष घीसिंग ने काउंसिल की कमान छोड़ते हुए त्याग पत्र दिया तो कहा गया कि घीसिंग से यह त्यागपत्र जबरदस्ती गुरुंग समर्थकों ने दिलवाया है.
माकपा का राग 'विदेशी'
लेकिन गुरुंग की राह भी आसान नहीं है.
गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता सुभाष घीसिंग के समर्थक भी इस आंदोलन को एक बार फिर से अपने कब्जे में लेने की कोशिश में हैं. जिसके तहत गोरखालैंड के लिए बयानबाजी शुरु हो गई है. सुभाष घीसिंग की गोरामुमो के नेता तो विमल गुरुंग के आंदोलन को मुंगेरीलाल के सपने करार दिया है.
दूसरी ओर गुरुंग को राज्य सरकार के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है. नगर विकास मंत्री और माकपा नेता अशोक नारायण भट्टाचार्य तो सीधे-सीधे इस आंदोलन से जुड़े लोगों को “ विदेशी ” ठहरा रहे हैं.
हालत ये है कि सिलीगुड़ी में गोजमुमो की प्रस्तावित जनसभा के विरोध में माकपा आमने-सामने आ खड़ी हुई. 2 मई को तो माकपा कार्यकर्ताओं ने सिलीगुड़ी में जम कर आतंक मचाया और गोरखालैंड समर्थकों को जगह-जगह बेरहमी से मारा. इससे पहले 27 अप्रेल को गोजमुमो को सिलीगुड़ी में सभा करने की अनुमति ही नहीं मिली.
हालांकि गोजमुमो को दूसरे दलों का समर्थन भी मिल रहा है.
गोरखालैंड आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण इलाके सिलीगुड़ी से कोई 25 किलोमीटर दूर है नक्सलबाड़ी और सिलीगुड़ी-नक्सलबाड़ी के रास्ते में हाथीघिसा में रहते हैं, नक्सल आंदोलन के शुरुवाती नेताओं में से एक कानू सान्याल.
कानू कहते हैं- “ हम विमल गुरुंग के साथ हैं. अब गोरखालैंड बनाने का समय आ गया है. ”
गौरखालैंड बनाने का समय आ गया है
कानू सान्याल
भाकपा-माले के राष्ट्रीय सचिव कानू सान्याल तत्काल दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग गठित करने की मांग करते हुए कहते हैं कि गोरखालैंड में सिलीगुड़ी शामिल हो या न हो यह प्रशासन का मामला है.
तो क्या इस बार भी पृथक गोरखालैंड की मांग के लिए खून की नदियां बहेंगी ?
हजार से भी अधिक लोगों की बलि लेने वाले सुभाष घीसिंग के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के आंदोलन के साथी और अबके कट्टर विरोधी विमल गुरुंग कहते हैं- “ कंप्यूटर और इंटरनेट के जमाने में हम बंदूक या बम से नहीं, कलम से लड़ेंगे. यह जनतांत्रिक आंदोलन है.”
हो सकता है, गुरुंग सही कह रहे हों लेकिन गुरुंग के आंदोलन ने इस इलाके के खुशगवार मौसम में एक गरमाहट ला दी है. जाहिर है, इस पहाड़ी इलाके की गरमी से दिल्ली का तापमान भी बढ़ेगा और सबकी आंखें यहां दिल्ली पर ही लगी है.
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