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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, April 4, 2010

उनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं हुआ.लालगढ़ के लोगों को समाधान की आशा नहीं.कृषि क्षेत्र के दरवाजे खोलने की जरूरत! जंगलों में छिपे नक्सली कायर हैं : चिदंबरम.उड़ीसा में नक्सली हमला, 11 मौतें.जमेगी इंफ्रास्ट्रक्चर की बुनियाद!कृषि क्षेत्र के दरवाजे खोल

उनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं हुआ.लालगढ़ के लोगों को समाधान की आशा नहीं.कृषि क्षेत्र के दरवाजे खोलने की जरूरत! जंगलों में छिपे नक्सली कायर हैं : चिदंबरम.उड़ीसा में नक्सली हमला, 11 मौतें.जमेगी इंफ्रास्ट्रक्चर की बुनियाद!कृषि क्षेत्र के दरवाजे खोलने की जरूरत!

पलाश विश्वास

वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने आज भरोसा जताया कि 2010-11 के बजट में उठाए गए कदमों से निजी

निवेश सुधरेगा और अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की वृद्धि दर की राह पर वापस आएगी। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अडचनें दूर करने और इसे सरल बनाने के लिए सरकार ने 1,200

करोड़ रुपए तक के एफडीआई प्रस्तावों को वित्त मंत्री के स्तर पर ही मंजूरी देने के फैसले को लागू कर दिया। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआईपीपी) की ओर से बताया गया कि एफडीआई के ऐसे प्रस्ताव जिनमें सरकारी मंजूरी की आवश्यकता होगी उनके मामले में 1,200 करोड़ रुपए तक के निवेश प्रस्ताव वित्त मंत्री के ही स्तर पर निपटाए जा सकेंगे। इससे अधिक राशि के एफडीआई प्रस्तावों को मंजूरी के लिए मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति (सीसीईए) के समक्ष लाया जाएगा।

डीआईपीपी के अनुसार यह नई व्यवस्था तुरंत प्रभाव से लागू हो गई है। विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड (एफआईपीबी) सचिवालय एफडीआई प्रस्तावों की जांच कर उन्हें मंजूरी के लिए वित्त मंत्री अथवा मंत्रिमंडलीय समिति के समक्ष भेजेगा।

इससे पहले एफआईपीबी की सिफारिश पर वित्त मंत्री 600 करोड़ रुपए तक के ही प्रस्तावों को मंजूरी दे सकते थे जबकि इससे अधिक राशि के एफडीआई प्रस्तावों को सीसीईए के समक्ष रखा जाता था। फरवरी 2003 से पहले इन प्रस्तावों को मंत्रिमंडल की विदेशी निवेश समिति के समक्ष रखा जाता था।

सरकार ने कुछ और मामलों में भी एफडीआई प्रक्रिया को सरल बनाया है। ऐसे मामले जिनमें शुरुआती निवेश के लिए कंपनियों को एफआईपीबी अथवा सीसीईए की मंजूरी लेनी पडी थी लेकिन बाद में वह क्षेत्र जिसमें वह कारोबार कर रही उसे आटोमेटिक रूट में डाल दिया गया। ऐसी कंपनियां यदि उसी भारतीय इकाई में और निवेश लाना चाहती हैं तो उन्हें नए सिरे से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी।

कृषि क्षेत्र के दरवाजे खोलने की जरूरत!
निजी निवेश आकर्षित करने के लिए घरेलू कृषि

क्षेत्र के दरवाजे खोलने से जुड़ी नीति-निर्माताओं की राय के बावजूद योजना आयोग का मानना है कि इस तंत्र में काफी नियंत्रण रखे गए हैं, जिससे लॉजिस्टिक और स्टोरेज में निजी सेक्टर की ओर से बड़े निवेश के लिए बाधा खड़ी होती है। ड्राफ्ट रिपोर्ट में कहा गया है, 'इसका नतीजा भारी नुकसान और वैल्यू चेन के स्तर पर घाटे के रूप में सामने आता है।'

सिफारिश में कहा गया है कि प्राइसिंग तंत्र को बेहतर बनाने के लिए समर्थन मूल्य का नाता खरीद कीमत से तोड़ दिया जाना चाहिए और खरीद भाव बाजार के हालात के हिसाब से और निजी कारोबार की ओर से पूरी प्रतिस्पर्धा मिलने पर बदला जा सकता है।

इस मसौदे में चावल और गन्ने पर लगे शुल्क खत्म करने, एकीकृत राष्ट्रीय बाजार तैयार कर देश भर में उत्पादों की मुक्त आवाजाही सुनिश्चित करने, भंडारण सीमा हटाने, निर्यात और वायदा कारोबार पर प्रतिबंध खत्म करने का मशविरा भी दिया गया है। फर्टिलाइजर सब्सिडी पर इस मसौदे में सुझाव दिया गया है कि उर्वरक की कीमतों को गेहूं, चावल और गन्ने के न्यूनतम समर्थन मूल्य से जोड़ा जाना चाहिए।


देश के कुछ हिस्सों पर सूखे और बाढ़ की मार के चलते

आर्थिक
वृद्धि दर की रफ्तार सुस्त हो सकती है। कृषि क्षेत्र की सुस्ती के कारण तीसरी तिमाही में इकनॉमिक ग्रोथ घटकर 6-6.5 फीसदी के आसपास रह सकती है। यह कहना है कि देश के मुख्य सांख्यिकीविद् और सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के सचिव प्रणव सेन का। हालिया आंकड़ों के मुताबिक, तीसरी तिमाही में कृषि उत्पादन 6 से 7 फीसदी घट सकता है। डॉ. सेन ने गुरुवार को कहा, 'तीसरी तिमाही में ग्रोथ रेट दूसरी तिमाही की तुलना में काफी कम रह सकती है।' जुलाई-सितंबर 2009 में 7.9 फीसदी की मजबूत बढ़त और हाल में औद्योगिक उत्पादन के पुख्ता आंकड़ों ने इस कारोबारी साल के लिए कुल बढ़त का अनुमान 8 फीसदी के करीब पहुंचा दिया था। नवंबर 2009 में औद्योगिक उत्पादन 11.7 फीसदी की दर से बढ़ा। प्रणव सेन ने ईटी से कहा, '2009-10 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 7 फीसदी पर पहुंचना मुमकिन है। इससे ज्यादा किसी भी स्तर के लिए कृषि क्षेत्र पर सूखे के प्रभाव पर भी गौर करना होगा।'

वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने हाल में कहा था कि उन्हें 2009-10 में 8 फीसदी ग्रोथ रेट तक पहुंचने की उम्मीद है। योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन ने भी आशंका जताई थी कि कृषि क्षेत्र में पैदावार मंद रहने का असर इकनॉमिक ग्रोथ पर पड़ सकता है। उन्होंने कहा था, 'तीसरी तिमाही काफी खराब रह सकती है। कृषि उपज में 7 फीसदी से लेकर 10 फीसदी तक की कमी देखने को मिल सकती है, हालांकि रबी फसल ठीक-ठाक दिख रही है। कृषि क्षेत्र का उत्पादन समूचे कारोबारी साल के लिए 3 फीसदी लुढ़क सकता है।'

केंद्र सरकार को फरवरी के पहले सप्ताह में अक्टूबर-दिसंबर 2009 तिमाही के लिए जीडीपी के शुरुआती अनुमान जारी करने हैं, जिससे तस्वीर और साफ हो जाएगी। ज्यादातर आर्थिक जानकारों का मानना है कि अर्थव्यवस्था 7 फीसदी की ग्रोथ रेट तक पहुंच जाएगी। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के निदेशक एम गोविंद राव ने कहा, '2009-10 में जीडीपी वृद्धि दर 6.75 फीसदी और 7 फीसदी के बीच रहेगी। अगर हम 7 फीसदी बढ़त दर तक पहुंचने में कामयाब रहते हैं, तो यह खुश होने की बात होगी।'

उन्होंने कहा, 'तीसरी तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ रेट लगभग 6 फीसदी पर यानी दूसरी तिमाही से काफी कम रहेगी, क्योंकि कृषि क्षेत्र में नकारात्मक बढ़त दिख रही है। हमें याद रखना चाहिए कि दूसरी तिमाही की ग्रोथ के पीछे छठे वेतन आयोग की सिफारिश पर किया गया एरियर का भुगतान भी था, जिसने उपभोग में भारी बढ़ोतरी की थी।'


जमेगी इंफ्रास्ट्रक्चर की बुनियाद
4 Mar 2010, 0955 hrs IST, इकनॉमिक टाइम्स

नई दिल्ली : भारत के निजी बैंक और गैर बैंकिंग फाइनेंस कंपनियां भी उन चुनिंदा

सरकारी फर्मों की सूची में शामिल होने वाली हैं, जिन्हें निवेशकों के लिए कर मुक्त बॉन्ड जारी करने का अधिकार प्राप्त है। सरकार ने सड़कें, बंदरगाह और बिजली प्लांट लगाने के लिए फंड जुटाने के साधनों को और व्यापक बनाने के लिए फैसला किया है।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दौरान देश को अपना बुनियादी ढांचा मजबूत करने के लिए 1 लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा की जरूरत होगी। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि महत्वपूर्ण परियोजनाओं के वित्तपोषण में मौजूद बाधाओं को देखते हुए सरकार ने निजी कंपनियों को भी कर मुक्त इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड जारी करने का विकल्प देने का फैसला किया है। अब तक केवल सरकारी नियंत्रण वाली कंपनियों को ही ऐसे बॉन्ड जारी करने का अधिकार था।

इस साल बजट में मुखर्जी ने घोषणा की थी कि करदाताओं को पीपीएफ और यूलिप जैसे साधनों में 1 लाख रुपए तक के निवेश के अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड में किए गए सालाना 20,000 रुपए के निवेश पर भी टैक्स में छूट मिलेगी। हालांकि इन बॉन्ड की अवधि 10 वर्षों तक या उनसे ज्यादा की ही होती है।

वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर ईटी को बताया कि बुनियादी ढांचा सेक्टर को रकम मुहैया कराने वाले निजी क्षेत्र के बैंकों और गैर-बैकिंग वित्तीय संस्थाओं को इस कदम से खास तौर पर फायदा होगा।

आरबीआई ने इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को कर्ज देने वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए हाल ही में एक नई श्रेणी 'इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस कंपनी (आईएफसी)' बनाई है। ये खास एनबीएफसी ही इस तरह के बॉन्ड जारी करने वालों में सबसे पहली होंगी। इन बॉन्ड के जरिए जुटाई गई रकम पर दी जाने वाली ब्याज दर काफी कम होगी, लेकिन कर छूट को साथ मिलाकर देखा जाए तो प्रभावी रिटर्न काफी ज्यादा होगा।

प्राइसवाटरहाउसकूपर्स में कार्यकारी निदेशक विश्वास उदगिरकर ने कहा, 'कई सरकारी संस्थाओं ने 7.5 फीसदी की दर पर कर मुक्त बॉन्ड जारी किए हैं। अगर कोई निजी कंपनी ऐसा ही बॉन्ड जारी करे तो उसका खर्च 8-9 फीसदी बैठ सकता है, लेकिन बैंकों से कर्ज लेने पर लग रही मौजूदा 11 फीसदी की दर के मुकाबले यह भी कम ही है।'

पिछले दशक के पूर्वार्द्ध में इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड निवेशकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए थे, लेकिन 2005-06 के बजट में नियमों में किए गए बदलाव से उनका आकर्षण कम हुआ। मुखर्जी एक तरह से अपने पूर्ववर्ती पी चिदंबरम की नीतियों को उलटते हुए लग रहे हैं।

रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉरपोरेशन जैसे संस्थान नियमित तौर पर बॉन्ड जारी करते रहे हैं और इससे पहले 6 फीसदी की दर से रकम जुटाने में भी कामयाब रहे हैं। लेकिन कर मुक्त बॉन्ड केवल सरकारी समर्थन वाली आईएफसीएल ही जारी करती है जिन्हें लगभग सभी संस्थागत निवेशक हाथोहाथ लेते हैं।

बजट में की गई घोषणा बुनियादी ढांचा सेक्टर को कर्ज देने के लिए बैंकों द्वारा बॉन्ड जारी करने की अनुमति मांगे जाने को ध्यान में रखते हुए की गई थी। इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को आमतौर पर 15-20 वर्षों के लिए कर्ज की जरूरत होती है, लेकिन बैंकों की पहुंच इतनी लंबी अवधि के फंड तक होती ही नहीं है क्योंकि उनके द्वारा जुटाई गई रकम काफी कम अवधि की होती है।

बैंक फिलहाल कर छूट की सुविधा के साथ केवल 5 वर्षों तक के लिए रकम जुटा सकते हैं। करदाताओं को यह सुविधा वित्त विधेयक के पारित होने के बाद और वित्त मंत्रालय की ओर से इस प्रावधन के लिए अधिसूचना जारी होने के बाद मिलेगी।

निजी कंपनियों को इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड जारी करने की अनुमति दिया जाना लंबी अवधि के बॉन्ड बाजार के विकास की दृष्टि से काफी सकारात्मक है, जिसमें कि फिलहाल गहराई और तरलता, दोनों का अभाव दिखता है। फिर भी, विशेषज्ञों का कहना है कि यह केवल पहला कदम हो सकता है और छोटे निवेशकों में रुचि जगाने के लिए और कदमों की दरकार होगी।

केपीएमजी में रियल एस्टेट एवं कंस्ट्रक्शन के प्रमुख जय मवानी ने कहा, 'बुनियादी ढांचा सेक्टर में भारी पैमाने पर पूंजी की जरूरत होती है और इस कदम से छोटे निवेशकों से कर्ज जुटाने का एक बड़ा रास्ता खुल जाएगा। ऐसे बॉन्ड के लिए बाजार तैयार करने के लिए इन्हें जोखिम के आधार पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है।

पहली श्रेणी नई परियोजनाओं के लिए फंड जुटाने की हो सकती है और दूसरी मौजूदा इंफ्रा परियोजनाओं से होने वाले कैश फ्लो को सिक्योरिटाइज कर बन सकती है, जो कि ज्यादा सुरक्षित होगी।' विशेषज्ञों का कहना है कि बॉन्ड बाजार को और गहराई देने के लिए उसमें पेंशन फंड की भागीदारी बढ़ाने पर भी काम करना होगा।

वित्त मंत्री ने भी इस पहलू को पूरी तरह ध्यान में रखा है। मुखर्जी ने कहा, 'हम अभी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में बीमा या पेंशन फंड की पूरी क्षमता का इस्तेमाल कर सकने में सफल नहीं हुए हैं।' ग्यारहवीं योजना के तहत बुनियादी ढांचा क्षेत्र की कुल करीब 500 अरब डॉलर की जरूरत का 30 फीसदी निजी क्षेत्र से पूरा होने की संभावना है।

सांसद सुमन ने कहा, लालगढ़ जिंदाबाद पी.डी.एफ़ छापें ई-मेल

कोलकाता। तृणमूल कांग्रेस से नाता तोड़ चुके सांसद कबीर सुमन ने मंगलवार को मनाने गए तृणमूल कार्यकर्ताओं से दो टूक कहा कि अब वे पार्टी छोडऩे के फैसले पर पुनर्विचार नहीं करेंगे, लेकिन गण आंदोलन से जुड़े रहेंगे।
इससे पहले बेहला स्थित आवास पर मंगलवार को तृणमूल कार्यकर्ताओं ने उनसे मुलाकात कर पार्टी से नाता तोडऩे के फैसले पर पुनर्विचार का आग्रह किया। कबीर ने कार्यकर्ताओं की बात सुनी जरूर लेकिन किसी भी कीमत पर तृणमूल में लौटने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि आत्म सम्मान देकर राजनीति करने वाले और लोग होंगे, सुमन उनमें से नहीं है। वे साधारण आदमी हैं और तृणमूल कांग्रेस से नाता तोड़कर आम आदमी की हैसियत में आ गए हैं। अब संगीत का रियाज करुंगा और स्वास्थ्य पर ध्यान दूंगा। उम्र 61 वर्ष हो गई है, बावजूद इसके गण आंदोलन से जुड़ा रहूंगा। उन्होंने कहा कि मैं कल भी चाहता था और आज भी चाहता हूं कि अगले विधानसभा चुनाव में माकपा की विदाई हो और तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनें।
इससे पहले कार्यकर्ताओं ने उनसे कहा कि यदि उन जैसे व्यक्ति राजनीति में नहीं रहेंगे तो स्वार्थी लोगों की संख्या और बढ़ेगी। फिर तो अच्छे लोग राजनीति में आएंगे ही नहीं, इसलिए फैसले पर पुनर्विचार करें। इस पर उत्तेजित होकर सुमन ने कार्यकर्ताओं से कहा कि आप लोग इस तरह से दबाव डालेंगे, तो मैं कोलकाता छोड़कर चला जाऊंगा और फिर कभी वापस नहीं आऊंगा। उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों के लिए कुछ नहीं कर सका, इसका मुझे दुख है। कबीर ने समर्थकों की मौजूदगी में फिर कहा-लालगढ़ जिंदाबाद, छत्रधर महतो जिंदाबाद, गण आंदोलन जिंदाबाद। सांसद को मनाने में विफल रहे कार्यकर्ताओं ने कहा कि वे आगे भी प्रयास जारी रखेंगे।
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साम्राज्यवादी खतरों से लड़ता लेखक
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दो दशक पहले धनबाद के जो दो लोग मेरे निकट संपर्क में आए थे, वे हैं - एके राय और पलाश विश्वास। माक्र्सवादी चिंतक एके राय सांसद भी रहे और अपने इलाके में वामपंथी आंदोलन को दिशा देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, तो पलाश गद्य लेखक हैं और पत्रकारिता उनकी वृत्ति रही है। उसी पलाश ने एक युग से भी पहले (1में) अमेरिकी साम्राज्यवाद के उन खतरों की तरफ देश का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की थी, जिन खतरों से आज समूचा देश जूझ रहा है। पलाश का उपन्यास 'अमेरिका से सावधान' जनवरी 1से धनबाद के दैनिक आवाज में धारावाहिक रूप से छपा। इस उपन्यास में पलाश ने उसी समय भारत और अमेरिका के बीच संभावित परमाणु समझौते की आशंका जाहिर की थी। पूरी दुनिया पर बादशाहत कायम करने के लिए अमेरिका कितने क्रूर और घिनौने हथकंडे अपना सकता है, उन सबका ब्योरा भी कतिपय पात्रों के जरिए पलाश ने दिया था। लेखक को भविष्यदृष्टा कहते हैं और पलाश की दूर-दृष्टि ने 13 साल पहले ही भविष्य के खतर को भांप लिया था। इस उपन्यास की 100 से ज्यादा किश्तें आवाज में छपीं और पाठकों के साथ ही साहित्य समालोचकों का ध्यान भी उसकी तरफ गया। मैनेजर पांडेय, छेदीलाल गुप्त, नागाजरुन, त्रिलोचन जसे साहित्य शिल्पियों ने उपन्यास के वैशिष्ट्य पर रोशनी डाली थी। साम्राज्यवाद के खतरे पर पलाश ने कहानियां भी लिखी हैं। हालांकि कहानियां दूसर विषयों पर भी उन्होंने लिखी हैं। पलाश के कहानी संग्रहों-'ईश्वर की गलती' और 'अंडे सेते लोग' में विषय वैविध्य है, तो शिल्प की नवीनता भी है। पलाश का एक उपन्यास-उनका मिशन-बांग्ला में भी छपा है। पलाश बांग्लाभाषी हैं किंतु हिंदी में लिखते हैं। नैनीताल के बसंतीपुर गांव के एक पुनर्वासित शरणार्थी बंगाली परिवार में जन्मे पलाश ने जब होश संभाला, तो अपने को तराई में बसे पूर्वी बंगाल के उाड़े हुए लोगों के बीच पाया। तब से लेकर लेखक बनने तक उन्होंने गौर किया कि पूर्वी बंगाल से आए लोगों के हालात में 70 के दशक में लेबल लगने के अलावा कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया। पलाश ने अपनी अनेक कहानियों में बताया है कि आज भी बंगाली शरणार्थियों की हालत हाशिए पर पड़े आदिवासियों जसी है या फिर अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ों से भी बदतर है। बंगाली शरणार्थियों को कहीं कोई रियायत नहीं मिलती। आजादी के तुरंत बाद भारत में बसे होने के बावजूद इन्हें विदेशी या घुसपैठियों का तगमा दिया जाता है। पलाश की चिंता यह है कि इस देश की भिन्न भाषा-भाषी अनेक पीढ़ियां विभाजन की त्रासदी को ढोने को मजबूर हैं। विभाजन के खतर और साजिशों की तह तक वे जाते हैं। पलाश को बचपन से ही देश को टुकड़ा-टुकड़ा करता साम्राज्यवादी हाथ दिखता रहा। नैनीताल की तराई में ही पलाश की पढ़ाई-लिखाई हुई। प्राइमरी में गुरुाी पीतांबर पंती तो जीआईसी नैनीताल में ताराचंद त्रिपाठी से मिले। अनेक कुमाऊंनी या गढ़वाली साथी मिले। उन्हीं के बीच उन्होंने अंग्रेजी में एमए किया और देखते-देखते वे बांग्लाभाषी पहाड़ी हो गए। पलाश चिपको आंदोलन से जुड़े और उस दौरान पहाड़ को बहुत करीब से देखा, तो पाया कि पहाड़ तो कभी खत्म न होनेवाले युद्ध को प्रतिपल झेल रहा है। अपनी जमीन से उाड़े बगैर हर पल पहाड़ के लोग शरणार्थी जसी हालत में पहुंच रहे हैं। पलाश की चिंता इस त्रासदी को लेकर है कि पहाड़वासी आज भी नहीं जानते कि वे युद्धपीड़ित और शरणार्थी हैं। 1से 1तक मेरठ और बरली में अखबारी नौकरी करते हुए पलाश बार-बार पहाड़ गए-चिपको की पृष्ठभूमि में लौटने को। उसी दौरान अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया। पलाश ने महसूस किया कि अमेरिकी खाड़ी तक ही सीमित नहीं रहेंगे। खाड़ी युद्ध पर पलाश ने प्रचुर अखबारी लेखन किया, तभी भारतीय संदर्भ में कोई बड़ा काम करने का संकल्प भी किया जो 'अमेरिका से सावधान' के रूप में सामने आया। अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध इस युद्ध की घोषणा को आमतौर पर पाठकों और साथी रचनाकारों ने स्वीकार तो किया, किंतु मेरी राय में इस उपन्यास को यदि साम्राज्यवाद विरोधी मुहिम के तौर पर पूर देश में फैलाया जाता, तो एक बड़े लक्ष्य की पूर्ति होती। इस उपन्यास में जितनी कथा है उतना ही दस्तावेज भी। साम्राज्यवादी खतर से देश को आगाह करने के दायित्व का एक युग पहले ही पलाश ने निर्वाह किया था। साम्राज्यवादी हमले निरंतर जारी हैं और भारत की नियति ही अब साम्राज्यवाद विरोध पर निर्भर है। ऐसी कृतियां आज परमाणु करार विवाद के समय साम्राज्यवाद विरोधी संवाद और बहस का बड़ा मंच बन सकती हैं। मुझे याद है कि उपन्यास के शीर्षक को लेकर कई सवाल खड़े किए गए थे। मेरी राय में इसका शीर्षक कलात्मक नहीं है तो इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। प्रश्न है, साम्राज्यवाद विरोधी हमला क्या कलात्मक है? साम्राज्यवादी हमला क्या कलात्मक है?
http://www.livehindustan.com/news/1/1/1-1-38276.html

लालगढ़ इलाके का बड़ा हिस्सा नक्सलियों के कब्जे से लगभग मुक्त हो गया है। सूत्रों के अनुसार, नक्सल प्रभावित इलाकों में सामान्य हालात पैदा करने के मामले में लालगढ़ लीड कर सकता है। लालगढ़ में मिल रही कायमाबी को बाकी जगह एक्शन के सबक की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को उम्मीद है कि खाद्य पदार्थों के दाम इसी महीने से गिरने शुरू हो जाएंगे। उनका कहना था कि रबी की फसल इसी महीने से आने लगेगी...

उड़ीसा के कोरापुट जिले में रविवार को नक्सलियों को मिली कामयाबी के पीछे पुलिस वालों की लापरवाही को ही वजह माना जा रहा है। आशंका जताई जा रही है कि यहां राज्य पुलिस के जवानों ने खतरनाक इलाकों में काम करने के लिए निर्धारित नियमावली या एसओपी [स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसीजर] का पालन नहीं किया था। जिस समय गृहमंत्री पी. चिदंबरम नक्सलियों के खिलाफ उन्हीं के गढ़ रहे इलाके में जा कर सख्त बयान दे रहे थे, ठीक तभीउड़ीसा में नक्सली हमला, दस मौतें!

सुपरपावर हिन्दू राष्ट्र के पंख खुलने लगे!केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा है कि नक्सलवादियों के खिलाफ कोई सैन्य कार्रवाई नहीं होगी। माओवादियों के खिलाफ प्रदेश पुलिस और अर्द्धसैनिक बल ही संयुक्त रूप से कार्रवाई करेंगे। यह पत्रकारों से बातचीत में चिदंबरम ने कहा कि माओवादी दोबारा संगठित हो सकते हैं और उन पर सतत निगरानी की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ उनकी मुलाकात सकारात्मक रही।इस मुलाकात में एक गोपनीय बैठक भी आयोजित की गई। बताया जा रहा है कि इस बैठक में आपरेशन ग्रीन हंट के बारे में अब तक प्रगति की विस्तृत जानकारी एकत्रित की गई। हालांकि इस बारे में कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया। बैठक लगभग एक घंटे तक चली।

जाति के बारे में कोई सूचना एकत्र नहीं की जाएगी! तेजी के लंबे दौर के बाद अगले सप्ताह में मुनाफावसूली के लिए बिकवाली का दबाव शुरू और उतार-चढ़ाव का रुख देखने को मिल सकता है...

कुलीन ब्राह्मण जमींदार परिवारों की गौरवगाथाएं...राष्ट्रशक्ति!केंद्र चाहता है कि नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित इलाकों में फोर्सेज के कड़े एक्शन के बाद वहां सिविल एडमिनिस्ट्रेशन कायम किया जाए। लालगढ़ में इस समय वही करने की कोशिश हो रही है। ईसीएआई की जांच समिति ने उन बैंकों की आड़े हाथ लिया है, जिन्होंने लोन देते समय सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज की परिसंपत्तियों और देनदारियों का निरीक्षण नहीं किया...ईरान पर प्रतिबंध लगाने की पुरजोर कोशिश में जुटे अमेरिका ने ईरान के साथ गैस सौदा नहीं करने के बारे में भारत व कुछ अन्य देशों को आगाह किया है...

सूत्रों ने बताया कि लालगढ़ के बड़े हिस्से में अब माओवादियों की बजाय सुरक्षा बलों का कब्जा है। यह कामयाबी काफी सूझबूझ और दिन-रात की मेहनत से हासिल हो रही है।

मृत्यु उपत्यका है यह मेरा देश भारत वर्ष। चिदंबरम ने कहा, "वे (नक्सली) कायर हैं। वे जंगलों में क्यों छिपे हैं? अगर वे वास्तव में विकास चाहते हैं तो बातचीत के लिए आगे आ सकते हैं।"

बारूद के बीच राजनीतिक गतिविधि संभव नहीं : माकपा

किशनजी के बारे में राज्य सरकार को कुछ पता नहीं. उन्होंने दावा किया है वह राज्य के भटके लोगों को मुख्यधारा में लायेंगे. इसके लिए राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय नीति लागू करेंगे. आम लोगों और मीडिया से सुझाव लेने के अलावा राज्य में तेजी से विकास कार्यो को बढ़ावा दिया जायेगा. डॉ सिंह रविवार को जमशेदपुर के परिसदन में पत्रकारों से बात कर रहे थे. मिदनापुर और आसपास के क्षेत्रों के आदिवासी सलबोनी में बारूदी सुरंग के विस्फोट के बाद पुलिस के 'उत्पीड़न' का विरोध कर रहे हैं। माना जाता है कि बारूदी सुरंग विस्फोट मुख्यमंत्री को निशाना बनाकर किया गया था।

पीपुल्स कमिटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज के बैनर तले करीब दो हजार आदिवासियों ने सड़कें काट दी हैं। ऐसी खबरें हैं कि सुरक्षा बलों के प्रवेश को रोकने के लिए वे बारूदी सुरंग बिछा रहे हैं।

सरकार ने कहा कि हम प्रयास करेंगे कि कम से कम खूनखराबा हो। हालाँकि उन्होंने कोई निश्चित समयसीमा बताने से परहेज किया। स्थिति से निबटने के लिए सीआरपीएफ के पाँच सौ जवान तैनात किए गए हैं। इनमें माओवादी विरोधी अभियानों के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित कोबरा बल के 200 जवान भी शामिल हैं।


बोस ने कहा, "हम लालगढ़ में राजनीतिक गतिविधियां और आंदोलन शुरू करना चाहते हैं। लेकिन बारूद की दरुगध के बीच राजनीतिक गतिविधियां और राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत नहीं की जा सकती।"

रविवार को केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने लालगढ़ के तीन घंटे के संक्षिप्त दौरे के दौरान राजनीतिक दलों के नेताओं को स्थिति सामान्य करने के लिए राजनीतिक अभियान शुरू करने की अपील की।
बर्बर, रक्ताक्त समय है यह!नक्सल समर्थित आदिवासी समूह की ओर से बुलाई गई बंद के बीच केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम के पश्चिमी मिदनापुर जिले के नक्सल प्रभावित लालगढ़ इलाके के दौरे से पूर्व माओवादियों ने शनिवार को सीआरपीएफ के जवानों को निशाना बनाते हुए एक बारूदी सुरंग विस्फोट किया।

और चारों तरफ घूमते हत्यारे दस्ते खूंखार। पिछले साल के रक्षा बजट में 34 प्रतिशत की बढ़ोतरी से रक्षा हलकों में राहत महसूस की गई थी,

लेकिन यह पूरी तरह खर्च नहीं हो पाया और पूंजीगत परिव्यय में से 7,066 करोड़ रुपये लौटाने पड़े थे। इस साल 1,47, 344 करोड़ रुपये दे कर चार प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी से रक्षा हलकों में निराशा है, लेकिन यदि पिछले साल अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये की दर का हिसाब किया जाए तो पूंजीगत परिव्यय के तहत हथियारों की खरीद के लिए इस साल करीब 20 प्रतिशत अधिक प्रावधान किया गया है।

सम्प्रभुता-परतंत्र, प्रोमोटर  राष्ट्र!
पिछले साल पूंजीगत परिव्यय के तहत हथियारों और कलपुर्जों की खरीद के लिए 54,824 करोड़ रुपये का प्रावधान था जो इस साल बढ़ कर 60 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया है। मार्च 2009 में डॉलर की दर 50 रुपये 95 पैसे थी जो इस साल एक जनवरी को घट कर 46 रुपये 64 पैसे रह गई है। इस तरह पिछले साल हथियारों और इनके कलपुर्जों की खरीद के लिए अमेरिकी डॉलर में करीब 10.5 अरब डॉलर मिला, लेकिन इस साल की दर के मुताबिक हथियारों पर खरीद के लिए करीब 13 अरब डॉलर मिलेंगे। चूंकि 70 प्रतिशत से अधिक हथियार आयात होते हैं, इसलिए डॉलर की तुलना में रुपये के मजबूत होने से पूंजीगत परिव्यय के तहत विदेशी मुद्रा में और राशि उपलब्ध होगी। एक साल में डॉलर की तुलना में रुपया 9.2 प्रतिशत मजबूत हुआ है।

लेकिन, रक्षा हलकों में सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि हथियारों की खरीद के लिए जो धन मुहैया कराया जाता है, वह रक्षा मंत्रालय की नौकरशाही और जटिल खरीद प्रक्रिया की वजह से पूरी तरह खर्च नहीं हो पाता। इससे रक्षा तैयारी पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। तीनों सेनाओं के हथियार और अन्य प्रणालियां कई दशक पुरानी हो चुकी हैं और इन्हें जल्द बदलने की जरूरत है। वायुसेना के साढ़े सात सौ लड़ाकू विमानों में से दो तिहाई पुराने पड़ चुके हैं, लेकिन फिलहाल 126 लड़ाकू विमानों के आयात की प्रक्रिया चल रही है। थलसेना में भी दो दशकों से नई तोपें नहीं शामिल की गईं हैं। करीब तीन हजार तोपों के आयात पर 17 हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च करने पड़ेंगे।

चूंकि पाकिस्तान और चीन ने बलिस्टिक मिसाइलों की भारी संख्या में तैनाती कर ली है, इसलिए इनसे मुकाबले के लिए भारतीय सेनाओं को भी आने वाले सालों में भारी संख्या में बलिस्टिक मिसाइलों की खरीद की जरूरत तो पड़ेगी ही, मिसाइलों का नाश करने वाली एंटी मिसाइलों की भी जरूरत पड़ेगी। इन पर कई हजार करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। इस तरह भारतीय सेनाओं को आने वाले सालों में कई नई तरह की शस्त्र प्रणालियों की जरूरत पड़ेगी जिन्हें समय पर हासिल करने के लिए समुचित प्रावधान करना होगा।

रक्षा बजट 13 हजार करोड़ बढ़ा!

भारत को अमेरिकी उपनिवेश बनाने वाली सरकार को बचाने की हर कोशिश!इसे निर्देश कहें या नसीहत, गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से दो टूक लहजे में कह दिया है कि नक्सलियों से प्रभावी तरीके से निपटने की जिम्मेदारी उनकी है। लगे हाथ उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान में सेना को नहीं लगाया जाएगा। नक्सलियों से किसी भी मुद्दे पर बात की जा सकती है।

रविवार सुबह यहां के संक्षिप्त दौरे पर आए केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने लालगढ़ पुलिस चौकी के पास लोगों से अपील की कि वे नक्सलियों का साथ न दें। सुरक्षाकर्मियों से घिरे चिदंबरम ने लोगों से पूछा क्या उन्हें विकास का लाभ मिल रहा है।यद्यपि, चिदंबरम से मुलाकात करने वाली एक महिला ने कहा, "मैंने उनसे कहा कि हमारे यहां बिजली नहीं है। बिजली हर जगह है, लेकिन हमारे क्षेत्र में नहीं। सरकार हमारी सहायता नहीं कर रही है। लेकिन चिदंबरम ये बातें ध्यान से नहीं सुन रहे थे।"

केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने रविवार को पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले के नक्सल प्रभावित लालगढ़ में कहा कि नक्सली कायर हैं क्योंकि वे जंगलों में छिप गए हैं और उनके खिलाफ अभियान लंबे समय तक चलेगा।

 
चिदंबरम ने कहा, "नक्सली कायर हैं। वे जंगलों में क्यों छिपे गए हैं? यदि वे वास्तव में विकास चाहते हैं तो वे बातचीत के लिए आगे आ सकते हैं।"

उड़ीसा के कोरापुट ज़िले में बारुदी सुरंग में हुए विस्फोट में कम से कम दस पुलिसकर्मियों की मौत हो गई है और कई अन्य घायल हुए हैं. इस घटना की पुष्टि करते हुए पुलिस उपमहानिदेशक संजीव पंडा ने बीबीसी को फोन पर बताया कि यह धमाका [^] कोरापुट ज़िले के गोविंदपल्ली के पास सुबह नौ बजे हुआ. सुरक्षा बलों की तीन गाड़ियों में से एक गाड़ी धमाके की चपेट में आई. सूत्रों के अनुसार गाड़ी में तीस से अधिक सुरक्षाकर्मी सवार थे.
 
वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने आज भरोसा जताया कि 2010-11 के बजट में उठाए गए कदमों से निजी

निवेश सुधरेगा और अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की वृद्धि दर की राह पर वापस आएगी।

उन्होंने सिडबी के एक समारोह में यहां कहा उम्मीद है कि इस साल के बजट में जो पहल की गई है उससे निजी निवेश में सुधार होगा और अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की वृद्धि दर पर वापस आएगी। उन्होंने कहा कि 2009-10 में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.2 फीसदी रहने का अनुमान है। मुखर्जी ने कहा कि चालू वित्त वर्ष (2010-.11) के दौरान अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8.25-.8.75 फीसद रहेगी।

कल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भरोसा जताया था कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक यानी 2012 तक अर्थव्यवस्था नौ फीसद की वृद्धि दर पर वापस लौट आएगी और उसके बाद वृद्धि दर में और सुधार की उम्मीद है।

वित्त वर्ष 2007-.08 तक तीन साल तक लगातार औसतन नौ फीसद की वृद्धि दर दर्ज करने के बाद वैश्विक नरमी के बीच भारत की वृद्धि दर 2008-09 में 6.7 फीसद रह गई थी।

कोरापुट ज़िले में बारुदी सुरंग घटना उस समय हुई जब स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप यानी एसओजी का एक वाहन [^] सुरक्षाकर्मियों को लेकर पास के मलकानगिरी ज़िले से लौट रहा था. पंडा ने बताया कि मरने वालों की संख्या बढ़ सकती है क्योंकि अभी शवों की तलाश जारी है. घटनास्थल पर अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी भेजे गए हैं. पिछले रविवार को माओवादियों ने गज़पति ज़िले के अम्बज़गिरी जंगलों में भी एसओजी के जवानों पर हमला किया था जिसमें तीन सुरक्षाकर्मी मारे गए थे और एक घायल हुआ था.मलकानगिरी ज़िला नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है. एसओजी के जवान सीमा सुरक्षा बल के जवानों के साथ गए थे. बीएसएफ के जवान कुछ ही समय पहले राज्य में माओवादी [^] विरोधी अभियान के लिए आए हैं. एसओजी का गठन राज्य सरकार ने विशेष रुप से माओवादियों का सामना करने के लिए किया है. यह बल माओवादियों के ख़िलाफ़ केंद्र सरकार के अभियान में केंद्रीय सुरक्षा बलों की मदद करते हैं.

महिला ने कहा, "मैंने उसने यह भी कहा कि पानी की समस्या है। मेरे गांव में एक भी तलाब नहीं है।"लंबी जिद्दोजहद के बाद आखिरकार पश्चिम मेदिनीपुर जिले की झाड़ग्राम तहसील में स्थित बहुचर्चित लालगढ़लालगढ़ प्रखंड विकास अधिकारी कार्यालय पहुंचे और वहां लगा ताला खुलवाकर काम-काज शुरू कराया।

एक अन्य निराश और आक्रोषित महिला ने कहा, "कई मंत्री आए और गए। उन्होंने केवल मीडिया के सामने हमसे बातें की और फोटो खिंचवाया। लेकिन हमारी स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ।"

महिला ने कहा कि उन्होंने चिदंबरम से कहा कि उनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं हुआ। उन्होंने कहा, "लोग अपनी जीविका नहीं कमा सकते। केवल बाधा ही बाधा है। हमारे बच्चे बाहर नहीं जा सकते। दुकानें और बाजार अब भी बंद है।"


खाद्य मुद्रास्फीति दर पर काबू पाने में नाकामी को देखते हुए कृषि क्षेत्र से जुड़ी सरकारी नीतियों की चौतरफा आलोचना हो रही है। खाद्य मुद्रास्फीति दर फिलहाल लगभग 20 फीसदी के स्तर पर है, जो बीते कई वर्षों में नहीं देखा गया था।

2008-09 में कृषि उत्पादन की वृद्धि दर घटकर 1.6 फीसदी रह गई थी जबकि बारिश की पतली हालत के कारण रबी की फसलों की बुरी गत को देखते हुए 2009-10 में वृद्धि दर में 0.2 फीसदी गिरावट की आशंका जताई जा रही है।

सरकार ने अगले कारोबारी साल के लिए कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 4 फीसदी पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है। कृषि उत्पादन बढ़ाने से जुड़ी 11वीं योजना की रणनीति के तहत खाद्य सुरक्षा की चिंता पर गौर करते हुए आधुनिक तकनीकों तक किसानों की आसान पहुंच बनाने, सरकारी निवेश की मात्रा और उसका प्रभाव बढ़ाने, सब्सिडी को वाजिब बनाते हुए व्यवस्थागत समर्थन बढ़ाने और अधिक कीमत देने वाली फसलों और पशुपालन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने पर जोर दिया गया है।
इन्फोसिस टेक्नॉलजीज ने देश भर से अपने 2,100 कर्मचारियों को निकाल दिया है। कंपनी ने मार्च में कर्मचारियों के कामकाज की समीक्षा

की थी और इसके बाद यह कदम उठाया गया। इन्फोसिस के एचआर प्रमुख टी. वी. मोहनदास पई ने बताया कि परफॉर्मंस के आधार पर इन कर्मचारियों की छुट्टी की गई है। उन्होंने कहा कि अब नॉन परफॉर्मर के लिए कंपनी में बिल्कुल भी गुंजाइश नहीं रह गई है।

पई के मुताबिक, कंपनी के 60,000 कामकाज की समीक्षा की गई। इसमें निचले लेवल पर परफॉर्म करने वाले 3.5 परसेंट लोग अब नहीं हैं। इनमें से कुछ को हटा दिया और कुछ ने कंपनी छोड़ दी। उन्होंने बताया कि दरअसल कंपनी में ऐसे परफॉर्मंस वाले 5 परसेंट लोग हैं, लेकिन ट्रेनी कर्मचारी इस अभियान का हिस्सा नहीं थे।

छटनी के लिए कंपनियों ने नया टर्म 'आउटप्लेसमंट' ढूंढ़ा है। इन्फोसिस में कर्मचारियों की कुल संख्या 1,05,000 है, जिसमें 45,000 ट्रेनी शामिल हैं, जो इस अप्रेजल प्रोसेस का हिस्सा नहीं थे। 31 दिसंबर 2008 को खत्म हुई तिमाही में कंपनी में कुल 1,03, 078 कर्मचारी थे। इससे पहले की तिमाही में इन्फोसिस ने कहा था कि वह कारोबारी साल 2008-09 में 26,000 लोगों की भर्ती करेगी।

योजना आयोग ने कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर

सुधारों की वकालत की है। आयोग ने उपज बढ़ाने और खाद्यान्न की कीमतों पर काबू पाने की सरकार की मौजूदा रणनीति की कड़ी आलोचना भी की है।
कृषि कमोडिटी के निर्यात में पिछले तीन साल में वैल्यू आधार पर करीब 40 फीसदी की तेजी आई

है। पिछले तीन साल में देश से कृषि पदार्थों का निर्यात बढ़कर 80,600 करोड़ रुपये हो गया है। इस दौरान भारत से जाने वाले खाद्यान्नों, ऑयलमील्स, फलों और सब्जियों की विदेशी बाजारों में अच्छी-खासी मांग रही है।

केंद्र सरकारी के आंकड़ों से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2008-09 में देश से 80,613.01 करोड़ रुपये की एग्री कमोडिटी का निर्यात हुआ। वित्त वर्ष 2006-07 में यह निर्यात 57,376.67 करोड़ रुपये का था।विदेशी बाजारों में अनाज का निर्यात बढ़कर 15,089.80 करोड़ रुपये हो गया। इससे पहले वित्त वर्ष 2006-07 में यह 7,670.51 करोड़ रुपये था। इसी तरह से ऑयलमील्स का निर्यात भी बढ़कर 10,269.24 करोड़ रुपये का हो गया, जो पहले केवल 5,504.32 करोड़ रुपये था।

वित्त वर्ष 2008-09 में देश से फलों और सब्जियों का निर्यात 4,399.04 करोड़ रुपये का रहा, जो वित्त वर्ष 2006-07 में केवल 2,960.50 करोड़ रुपये था। दूसरी कमोडिटीज में तंबाकू और मसालों के निर्यात में इस दौरान तेज उछाल आया है। पिछले तीन साल में तंबाकू निर्यात बढ़कर 3,457.79 करोड़ रुपये हो गया है। वित्त वर्ष 2006-07 में देश से 1,685.16 करोड़ रुपये के तंबाकू का निर्यात हुआ था। मसालों का निर्यात भी बढ़कर 6,338.13 करोड़ रुपये जा पहुंचा। इससे पहले मसालों का निर्यात 3,157.89 करोड़ रुपये रहा था।

कॉफी निर्यात में पिछले तीन साल के दौरान मामूली तेजी आई है। वित्त वर्ष 2008-09 में देश से 2,687.63 करोड़ रुपये की कॉफी का निर्यात हुआ था। साल 2006-07 में यह 2,255.76 करोड़ रुपये था। वित्त वर्ष 2007-08 में देश से कृषि उत्पादों का निर्यात इससे एक साल पहले के मुकाबले 29 फीसदी ज्यादा रहा। इसी तरह से 2008-09 में यह निर्यात इससे पिछले साल के मुकाबले केवल 8.66 फीसदी ज्यादा रहा।

आयोग ने कहा है कि कृषि उत्पादों की कीमत तय करने में बाजार से जुड़े पहलू का ज्यादा ध्यान रखा जाना चाहिए और इसके लिए समर्थन मूल्य से खरीद मूल्य का ताल्लुक खत्म करना चाहिए। आयोग ने तमाम शुल्क और भंडार सीमा खत्म करने, देश भर में उत्पादों की बेरोकटोक आवाजाही को बढ़ावा देने और निर्यात तथा वायदा कारोबार पर पाबंदी खत्म करने का मशविरा भी दिया है।

11वीं योजना (2007-12) के मध्यवर्ती समीक्षा में आयोग ने कहा है कि 2005-06 और 2007-08 में कृषि क्षेत्र ने 4 फीसदी की दर से बढ़कर जहां बढि़या प्रदर्शन किया, वहीं पिछले दो साल का इसका प्रदर्शन दिखाता है कि सरकार की रणनीति ज्यादा प्रभावशाली नहीं रही है और इस क्षेत्र की वृद्धि दर बनाए रखने के लिए आपूर्ति के पहलू पर ज्यादा प्रयास किए जाने की जरूरत है।

इस समीक्षा को अभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में पूर्ण योजना आयोग की ओर से मंगलवार को हरी झंडी दिखाई जानी है। दस्तावेज ने कहा गया है, 'इस बात का पर्याप्त विश्लेषण नहीं किया गया है कि इसका (2005-06 से तीन वर्षों में हासिल वृद्धि) कितना हिस्सा सरकारी रणनीति के तहत कृषि के लिए बढ़े आवंटन के दम पर आया है और कितना अनुकूल मौसम के कारण मिला है। यह भी साफ नहीं है कि इसमें बेहतर मांग और कीमतों के कारण निजी निवेश में बढ़ोतरी का इसमें कितना योगदान रहा है।'
विदेशी कर्ज के लिए बन सकती है नीलामी व्यवस्था! घरेलू कंपनियों के लिए ईसीबी यानी विदेशी

वाणिज्यिक कर्ज जुटाने के लिए नीलामी व्यवस्था के प्रस्ताव को मंजूरी देने के आसार बढ़ते जा रहे हैं। दरअसल, डॉलर के मुकाबले रुपए में बनी मजबूती को देखते हुए विदेश से कर्ज जुटाने के प्रस्तावों को मंजूरी देने वाली सरकारी समिति यह व्यवस्था अपना सकती है। अगले पखवाड़े में होने जा रही समिति की अगली बैठक में यह प्रस्ताव आ सकता है। बैठक में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) नीलामी व्यवस्था की रूप-रेखा की जानकारी दे सकता है।

आधिकारिक सूत्र ने बताया, 'नीलामी व्यवस्था में कर्ज जुटाने की समूची लागत को आधार बनाया जा सकता है या फिर सरकार कर्ज के इस्तेमाल के हिसाब से प्राथमिकताएं तय कर सकती है।' वित्त सचिव की अध्यक्षता वाली इस ईसीबी समिति में रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के अधिकारी शामिल हैं। समिति चालू वित्त वर्ष के लिए ईसीबी के जरिए जुटाए जाने वाले कर्ज की अधिकतम सीमा तय करेगी। कर्ज में ईसीबी के अलावा कॉरपोरेट और सरकारी बॉन्ड में विदेशी संस्थागत निवेश भी शामिल होगा।

विदेशी कर्ज संबंधी नियम बनाने का काम वित्त मंत्रालय और आरबीआई का है। कंपनियां ईसीबी समिति के तय सीमा के भीतर 'पहले आओ, पहले पाओ' आधार पर विदेशी कर्ज जुटा सकती हैं। लेकिन अब तक देखा जाता रहा है कि विदेशी कर्ज पर कड़ा नियंत्रण नहीं होने से इसके लिए बनी ऊपरी सीमा का कई बार उल्लंघन हो जाता है। जैसे ऑटोमेटिक रूट से देश में आने वाले विदेशी कर्ज के लिए पहले से रिजर्व बैंक की इजाजत लेने की जरूरत नहीं होती। नीलामी व्यवस्था में ज्यादा पारदशिर्ता होगी और केंदीय बैंक का विदेशी कर्ज की मात्रा ज्यादा नियंत्रण होगा। विशेषज्ञ विदेशी कर्ज जुटाने के लिए नीलामी व्यवस्था की जरूरत पर सवाल उठा रहे हैं।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के प्रोफेसर अजय शाह कहते हैं, 'ऐसा लगता है कि भारत 20 साल पीछे चला गया है, जब यहां कोटा व्यवस्था थी। नई व्यवस्था से विदेशी पूंजी जुटाने की मिली सहूलियत से होने वाले फायदा खत्म हो जाएगा।' शाह के हिसाब से नीलामी व्यवस्था में विदेशी पूंजी की जरूरतमंद छोटी कंपनियां पिछड़ जाएंगी। नीलामी व्यवस्था में कंपनियों को 9 से 10 फीसदी की औसत दर से विदेशी कर्ज जुटाने की सुविधा होगी। इसमें करेंसी हेजिंग यानी रुपए के मुकाबले उस देश की मुद्रा के विनिमय दर में उतार-चढ़ाव जोखिम से बचाव का खर्च भी शामिल होगा, जिनमें कर्ज लिया जाएगा। ये दरें घरेलू वित्तीय संस्थानों से मिलने वाले कर्ज की ब्याज दरों से कम होंगी।

विदेशी कर्ज के लिए नीलामी व्यवस्था लागू करने का प्रस्ताव वित्त वर्ष 2007-08 में वित्त मंत्रालय ने रखा था। तब देश में विदेशी पूंजी निवेश उच्चतम स्तर पर था और उस पर अंकुश लगाने के लिए सरकार और वित्तीय नियामकों को कई कदम उठाने पड़े थे। विदेशी पूंजी के लिए नीलामी व्यवस्था अपनाने का प्रस्ताव नवंबर 2009 में एक बार फिर ईसीबी की उच्चस्तरीय समिति के सामने आया। तब रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय ने इस व्यवस्था पर काम करना शुरू किया।
चिदंबरन में यहां के एक गांव का दौरा कर एक घर का भ्रमण किया। उन्होंने कहा कि यहां के लोगों का जीवन काफी [^] कष्टप्रद है।

उन्होंने कहा, "यहां की जिंदगी बहुत खराब है। लेकिन वे नक्सलियों से घृणा करते हैं। वे सरकार और नक्सलियों के बीच अंतर को समझते हैं। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि शिक्षा [^], बिजली, स्वास्थ्य [^] की सुविधाएं यहां कुछ भी नहीं है।"

चिदंबरम ने कहा कि सरकार ने वार्ता के लिए केवल हिंसा छोड़ने की शर्त रखी है, जिससे हाल के वर्षो में सैकड़ों लोगों की मौत हुई है। लालगढ़ के तीन घंटे के दौरे के बाद चिदंबरम ने इलाके के लोगों से कहा कि वे नक्सलियों को भौतिक या नैतिक समर्थन न दें।

उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में स्थिति में सुधार हो रहा है। उड़ीसा और झारखण्ड की हालत अभी भी चिंताजनक है। चिदंबरम ने कहा, "लेकिन यह लंबे समय तक चलने वाली लड़ाई है। इसमें दो या तीन वर्ष का समय लगेगा।"

चिदंबरम ने कहा कि सरकार पुलिस ज्यादतियों के खिलाफ जन समिति (पीसीएपीए) से 'पुलिस ज्यादतियों' पर चर्चा को तैयार है। इसके साथ ही नक्सलियों को सहायता देने के लिए पीसीएपीए की आलोचना करते हुए मंत्री ने कहा कि नक्सलियों के साथ जाकर पीसीएपीए ने गंभीर भूल की।

नक्सलियों की रणनीति के बारे में पूछे जाने पर चिदंबरम ने कहा, "शायद वे फिर से संगठित हो रहे हैं। हमें सतर्क रहना होगा।" नक्सलियों के खिलाफ जारी अभियान में सेना को शामिल किए जाने की संभावना से इंकार करते हुए उन्होंने कहा, "सिर्फ केंद्रीय अर्ध सैनिक बल और राज्य सशस्त्र पुलिस बल तैनात किए जा रहे हैं।" उन्होंने कहा कि इन्हें हटाया नहीं जाएगा।

कामयाबी का फार्मूला लालगढ़

नई दिल्ली [मुकेश केजरीवाल]। ज्यादा समय नहीं बीता, जब नक्सली बताते थे कि व्यवस्था के खिलाफ उनके संघर्ष में 'लालगढ़' एक मिसाल है। इससे बाकी साथियों को सबक लेना चाहिए। लेकिन अब यह कहानी उलट चुकी है। अब केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम कह रहे हैं नक्सलियों के खिलाफ अभियान में लालगढ़ को एक 'केस स्टडी' के तौर पर नक्सल प्रभावित दूसरे राज्यों को देखना चाहिए।

गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक इस बात की पूरी संभावना है कि चिदंबरम अपनी पश्चिम बंगाल यात्रा के दौरान लालगढ़ भी जाएं। चिदंबरम वहां इसलिए भी जाना चाहते हैं क्योंकि यही वह इलाका है जिसे कुछ समय पहले तक माओवादी 'मुक्त' करा लेने का दावा किया करते थे। लेकिन आज यह माओवादियो 'मुक्त' हो रहा है। लिहाजा, वे चाहते हैं कि नक्सल विरोधी उनके अभियान में लालगढ़ एक माडल की तरह पेश किया जाए। हालांकि खुद गृह मंत्रालय भी मानता है कि अभी यहां से नक्सली पूरी तरह बाहर नहीं हुए हैं।

दरअसल, माओवादियों की हाल की कामयाबी में लालगढ़ एक मिसाल था। माओवादी नेता किशनजी ने यहां बिल्कुल नया फार्मूला लागू किया था। यहां उसने आदिवासियों की लड़ाई को पहले एक छद्म रूप दिया। पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज [पीसीएपीए] नामक एक मुखौटा संगठन बनाया। एक खास राजनीतिक दल की ओट ली और फिर खुले खेल में उतर आए। इस फार्मूले ने उन्हें तत्कालिक कामयाबी भी दिलाई।

इसके मुकाबले चिदंबरम ने अपना फार्मूला चलाया। इसके तहत बेहतर संसाधन और बेहतर तालमेल सुरक्षा के बहुआयामी बंदोबस्त किए गए। प्रचार और जनसंपर्क का वैसा ही इस्तेमाल किया गया जैसा नक्सलियों ने किया था। धीरे-धीरे नतीजे सामने आए और आज वहां ज्यादातर सरकारी योजनाएं फिर पटरी पर लौट आई हैं। नक्सली पीछे हट रहे हैं। हालांकि गृह मंत्रालय के अनुसार, अब भी काफी काम होना है। यहां तीन चार हजार शिक्षकों के पद भरे जाने हैं, लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही है। बाकी दफ्तरों में भी ज्यादातर अधिकारी और कर्मचारी काम पर लौटने के लिए तैयार नहीं हुए हैं। फिर भी 'लालगढ़' नक्सलियों के खिलाफ अभियान में रोल माडल की तरह सामने आ रहा है।

इसी इलाके से अपना राज चलाने वाला नक्सली नेता किशनजी के पुलिस मुठभेड़ में घायल होने के बारे में मंत्रालय अभी कुछ नहीं कहना चाहता। गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं, 'यह तो सच है कि वह काफी शांत है। जो आम तौर पर न तो उसकी फितरत है और न ही उस सिद्धांत के अनुरूप।' फिर भी उसके शांत होने के पीछे मुमकिन है कि दूसरे नक्सली नेता गणपति से वह नाराज हो, या फिर वह ऐसा किसी खास रणनीति के तहत भी कर रहा हो सकता है। तीसरी संभावना उसके घायल होने की हो सकती है।

माओवादी नेपाल से सबक लें: माले

नई दिल्ली। वामपंथ को नए सिरे से व्यवस्थित करने की वकालत करते हुए भाकपा [माले] लिबरेशन ने कहा है कि माओवादियों के पास ज्वलंत मुद्दों से निपटने के लिए सशस्त्र लड़ाई के अलावा और कोई रास्ता नहीं है, ऐसे में उन्हें नेपाल के माओवादियों की स्थिति से सबक लेना होगा।

भाकपा माले के एक नेता ने कहा कि भारत में वाम राजनीति नया रुख अख्तियार करती नजर आ रही है। माकपा के नेतृत्व वाली मा‌र्क्सवादी उत्कृष्टता और बुर्जुआ प्रतिष्ठा की राजनीति जो समझौते और आत्मसमर्पण बनाम शासक वर्ग पर केंद्रित है, बंगाल की धरती पर धराशायी हो गई है।

उनका कहना था कि कुछ लोग नेपाल में माओवादियों के अनुभव की मिसाल देते हुए कहते हैं कि भारत में भी ऐसा हो पाएगा। लेकिन नेपाल और भारत के परिप्रेक्ष्य एकदम अलग हैं। नेपाल में संवैधानिक गणराज्य स्थापित करने के लिए पूरा संघर्ष हुआ लेकिन भारत इस स्थिति से कहीं आगे निकल गया है।

उन्होंने कहा कि स्वाभाविक रूप से इसका पूरे भारत पर असर होगा। शक्तिशाली संघर्ष और लोकतांत्रिक धरातल पर पहल के जरिए ही वाम की खोई हुई धरती को फिर से हासिल किया जा सकता है।

पार्टी नेता ने कहा कि वामपंथ के पुनरुत्थान के लिए हमें नए सिरे से एकजुट होना पड़ेगा, जन आंदोलन के आधार पर संघर्ष के लिए एकजुटता के नए मॉडल को अपनाना होगा। यह देखना बाकी है कि यह नए हालात कैसे पैदा होते हैं।

भविष्य ही हमें बताएगा कि माओवादी भी एक आयामी सिद्धांत और व्यवहार के अपने दायरे से बाहर निकलकर वामपंथ के इस नए घटक या हिस्सेदार के रूप में अपने आपको नए सिरे से स्थापित करेंगे या नहीं।

माले ने कहा कि नेपाल में भी शाही शासन से संवैधानिक गणराज्य तक की संक्रमण की प्रक्रिया काफी उत्पीड़न भरी रही और माओवादी नए सिरे से जन आंदोलनों के जरिए अपनी ताकत को फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत के माओवादी नेपाल के अनुभव से सीखने को तैयार नहीं हैं और उन्होंने नेपाली कामरेड के प्रयोगों को पहले ही नकार दिया है।

पार्टी ने कहा कि शासक वर्ग के राजनीतिक आधिपत्य को समाप्त करने के लिए कामकाजी वर्ग को वैकल्पिक एवं स्वतंत्र राजनीतिक ताकत के रूप में उभरना होगा। यह कोई छोटा और आसान रास्ता नहीं है। क्या भारतीय माओवादी इसे महसूस करेंगे?

माले के मुताबिक तमाम ज्वलंत मुद्दों पर सशस्त्र जरिए के अलावा माओवादियों के पास संघर्ष का और कोई रास्ता नहीं है। जब राजनीति की बात हो या चुनाव की बात हो तो माओवादियों का उसमें हस्तक्षेप का कोई स्वतंत्र एजेंडा नहीं है और हर जगह वे प्रभावशाली पार्टियों के हाथों इस्तेमाल होते हैं।

http://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_6310521.html

'सऊदी अरब में जानवरों की तरह बिकते हैं भारतीय'
7 Jan 2010, 1515 hrs IST,टाइम्स न्यूज नेटवर्क  
 प्रिन्ट  ईमेल Discuss शेयर सेव  कमेन्ट टेक्स्ट:
रचना सिंह
जयपुर।। 'अपने घर में मिलने वाली आधी रोटी किसी अजनबी देश में मिलने वाली पूरी रोटी से बेहतर है।' यह कहना है मुरादा

बाद के हबीब हुसैन का। हाल ही में सऊदी अरब से भारत आने वाली एअर इंडिया की फ्लाइट के टॉयलेट में छुपने और फिर पकड़े जाने वाले हबीब का कहना है कि अपने दो बच्चों, प्रेगनेंट पत्नी और बीमार मां से मिलने के लिए वह भारत आने की कोशिशों में लगा हुआ था और इसीलिए उसने टॉयलेट में छिप कर आने की कोशिश की।

सऊदी अरब में हालातों के बारे में बताते हुए उसने कहा कि सऊदी अरब में भारतीय कामगार जानवरों की तरह बेचे जाते हैं। हबीब ने अपनी दो बीघा जमीन 1.25 लाख रुपए में बेची थी। इस रकम से उसने सऊदी अरब पहुंचाने वाले एजेंट को भुगतान किया था। बचे हुए केवल 11 हजार रुपए परिवार को थमा कर वह विदेश आ बसा। भीगी आंखों से हबीब अब कहता है कि सऊदी अरब में रहने का कोई मतलब ही नहीं है। मुझे वापस आना ही पड़ा। मैं वहां भूखा रहता था और मेरा परिवार यहां भूखा पड़ा रहता। यहां 80 रुपए दिहाड़ी पर गुजारा करना बेहतर है जबकि विदेश में 15 से 20 हजार रुपए के आश्वासन के नाम पर एक फूटी कौड़ी नहीं मिलती थी।

हबीब ने कहा, 'मुझे पता था कि यूं फ्लाइट में आने से कई दिक्ततें हो सकती हैं लेकिन मुझे अपने देश के लोगों पर भरोसा था। वैसे भी सऊदी अरब में रहने के मुकाबले भारत में मुझे जो भी झेलना पड़ता, वह बेहतर था।'
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उसने बताया कि प्लेन उड़ने के 45 मिनट बाद एअर होस्टेस ने मुझे टॉयलेट में पड़े देखा और मेरी कहानी सुनने के बाद मुझे सीट और खाना दिया।

छह महीने सऊदी अरब में रहते हुए वह हाजियों से बतौर टिप मिलने वाली एक रोटी प्रतिदिन पर गुजारा करता था। एंप्लॉयर की ओर से हबीब को एक रुपया तक नहीं दिया गया। हबीब ने बताया,'किसी तरह 800 रुपए की सेविंग कर मैंने कोशिश की कि मेरा पासपोर्ट मुझे वापस मिल जाए लेकिन हम जब भी पासपोर्ट मांगते, हमें मारा-पीटा जाता और फिर सजा के तौर पर 14 से 18 घंटे तक काम लिया जाता।' हबीब ने बताया कि यूपी और बंगाल से वहां पहुंचने वाले हजारों लोग जानवरों की तरह बिक रहे हैं। बिना पासपोर्ट के वे असहाय हैं। हबीब का कहना है कि उसके पिता की दो साल पहले मृत्यु हो चुकी है और उसकी मां को तीमारदारी की जरूरत है। ऐसे में अगर कोई मुझे सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाएगा तो मेरे बच्चों को कौन देखेगा।

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