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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, October 28, 2011

विदेश व्यापार की विसंगतियां


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भारत डोगरा

खिलौने बनाने वाले लघु और मध्यम उद्यमियों ने शिकायत की है कि खिलौनों का बाजार तेजी से सिमट रहा है। हिमाचल प्रदेश के सेब उत्पादक उचित दाम न मिल पाने और सेब की बिक्री में आ रही कठिनाइयों से परेशान हैं। कैंसर मरीजों के संगठनों ने कैंसर, खासकर ल्यूकेमिया की जीवन-रक्षक दवाओं की कीमत में संभावित वृद्धि के बारे में चेतावनी दी है।
ये तीनों समाचार अलग-अलग क्षेत्रों से हैं, पर इन सभी की मूल समस्या विदेश व्यापार की विसंगतियों से जुड़ी है। खिलौनों के संदर्भ में आश्चर्यजनक तेजी से बाजार में स्थानीय उत्पाद लुप्त हुए और चीन से आयातित खिलौने छा गए। ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन के गठन के बाद व्यापार के जो नियम बनाए गए उनके अंतर्गत आयात शुल्क को काफी कम करना पड़ा। सांस्कृतिक दृष्टि से बच्चों के खिलौनों का स्थानीय परिवेश से जुड़ा होना बहुत जरूरी होता है, पर विदेश व्यापार के नियम इस तरह के बने कि ऐसे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की कोई जगह ही नहीं रह गई और बहुत थोडेÞ-से समय में देखते ही देखते भारत के खिलौनों के बाजार में चीन का वर्चस्व हो गया।
सेब के उत्पादकों की कठिनाई भी विश्व व्यापार संगठन के नियमों से जुड़ी है, जिनके तहत आयातों से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा दिए गए और आयात शुल्क का सीमा निर्धारण कर दिया गया।
कैंसर के मरीजों और उनके परिजनों की चिंता भी एक तरह से विदेश व्यापार की विसंगति से ही जुड़ी है, क्योंकि एक विशेष प्रकार के ल्यूकेमिया के लिए जरूरी दवा पर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी पेटेंट का हक प्राप्त करना चाहती है और इसके लिए उसे विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के आसपास हुए और उससे जुडेÞ हुए ट्रिप्स समझौते- बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते- से मदद मिल रही है। अगर इस बहुराष्ट्रीय कंपनी ने यह मुकदमा जीत लिया तो इस जीवनरक्षक दवा का उसे एकाधिकार मिल जाएगा, जबकि यह कंपनी अन्य कंपनियों की तुलना में इस दवा को बारह गुना अधिक कीमत पर बेचती है। इतनी महंगी दवा बहुत सारे कैंसर के मरीज खरीद नहीं पाएंगे, उनकी शीघ्र मृत्यु की संभावना बहुत बढ़ जाएगी।
ये सभी आशंकाएं विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय भी प्रकट की गई थीं। हालांकि आम लोगों में इस तरह की जानकारी भली-भांति नहीं पहुंच पाई थी और इस कारण इस बारे में व्यापक जनमत भी नहीं बन पाया था। पर अब जैसे-जैसे ये विभिन्न कठिनाइयां और समस्याएं आम लोगों के सामने आ रही हैं, इस बारे में जनमत बन रहा है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों के जिन प्रावधानों में खाद्य-सुरक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका आदि जन-हितों की क्षति होती है, उन्हें स्वीकार नहीं किया जाए।
शायद यही वजह है कि दोहा वार्ता के दौरान अमीर देशों के अपने हित साधने के अतिवादी प्रयासों के विरुद्ध भारत सहित अनेक विकासशील देशों ने आवाज उठाई है। इसके चलते अमेरिका और यूरोपीय संघ की मनमर्जी यहां उतनी नहीं चल सकी, जितनी वे उम्मीद लगाए बैठे थे, हालांकि अभी तक उनके प्रयास जारी हैं कि भारत जैसे विकासशील देशों पर दबाव बना कर वे अपने स्वार्थों को और आगे बढ़ाएं।
पर दूसरी ओर द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों के रूप में एक नया संकट उत्पन्न हो गया है। इस बारे में लोगों की जागरूकता बहुत कम है। वैसे भी मुक्त व्यापार समझौतों का अधिकतर कार्य काफी गोपनीयता के माहौल में हो रहा है। शायद यही वजह है कि जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, सिंगापुर जैसे कई महत्त्वपूर्ण देशों से भारत के मुक्त व्यापार समझौते हो गए, मगर इन पर बहुत कम चर्चा हुई। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समझौता यूरोपीय संघ के साथ विचाराधीन है, जिसके बारे में अधिक सावधान रहने की जरूरत है।
प्राय: माना गया है कि उन मुक्त व्यापार समझौतों के बारे में ज्यादासावधानी की जरूरत होती है, जो विकासशील देशों द्वारा किसी विकसित देश से या किसी बड़ी आर्थिक ताकत से किए जाते हैं। द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों में अधिकतर आदान-प्रदान और आयात-निर्यात में व्यापार शुल्क नहीं के बराबर कर दिए जाते हैं। जहां अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों में कम से कम यह मान लिया जाता है कि विकासशील देशों को विकसित देशों की अपेक्षा कुछ राहत मिलेगी, वहीं द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों में प्राय: यह कुछ सीमा तक का लाभ भी विकासशील देशों को नहीं मिल पाता है। इन समझौतों की कुछ धाराएं विश्व व्यापार संगठन के नियमों से आगे भी जा सकती हैं। इसलिए भारत जैसे विकासशील देशों को इस मामले में बहुत सतर्क रहने की जरूरत है। खासकर यूरोपीय संघ से होने वाले व्यापार समझौते के बारे में यह आशंका व्यक्त की गई है कि उससे कृषि और दुग्ध उत्पादों का सस्ता आयात भारतीय किसानों और पशुपालकों के लिए काफी नुकसानदेह सिद्ध हो सकता है। 
दरअसल, यूरोपीय संघ में कृषि और दुग्ध क्षेत्र को काफी भारी-भरकम सबसिडी मिलती है, जिसके आधार पर- और अन्य कारणों से- वहां से भारत में जो आयात होगा, उससे भारतीय किसानों और दुग्ध उत्पादकों के लिए प्रतिस्पर्धा करना बहुत कठिन होगा। इस स्थिति में भारतीय किसानों का संकट और गहरा सकता है, असंतोष फैल सकता


है।
इसके अलावा छोटे और मध्यम उद्योगों में रोजगार पर भी आयातों का प्रतिकूल असर पड़ सकता है। पहले ही एक सर्वेक्षण में इकहत्तर प्रतिशत मध्यम और छोटे उद्यमियों ने कहा है कि बढ़ते आयातों से उनकी बिक्री पर काफी प्रतिकूल असर पड़ चुका है। मुक्त व्यापार समझौतों   के असर से अगर कुछ महत्त्वपूर्ण कच्चे माल से निर्यात शुल्क हट गया तो बेहतर कीमत से आकर्षित होकर कच्चे माल का निर्यात ज्यादा होगा और स्थानीय उद्यमियों को कच्चे माल की कमी हो सकती है। 
'थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क' और 'श्रमिक भारती' के एक अध्ययन में यह संभावना व्यक्त की गई है कि कुछ विशेष तरह के चमड़े के उत्पादों के उद्योग में कच्चे चमडेÞ और फर्नीचर उद्योग में लकड़ी की कमी हो सकती है। इस अध्ययन ने बताया है कि मुक्त व्यापार समझौतों से छोटे और मध्यम उद्यमियों के लिए कई तरह के संकट पैदा हो सकते हैं और इनका सामना करने के लिए उन्हें पहले से पर्याप्त तैयारी की जरूरत है।
ऐसे समझौतों और खासकर यूरोपीय संघ से होने वाले मुक्त व्यापार समझौतों का भारतीय दवा उद्योग पर प्रतिकूल असर पडेÞगा। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए पेटेंट प्राप्त करना और सरल हो जाएगा, जिससे अनेक दवाओं की कीमत बढ़ सकती हैं। दूसरी ओर अनेक भारतीय कंपनियां जो सस्ती जेनेरिक दवाइयां बना रही हैं उन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। एक ओर तो इन भारतीय कंपनियों का कारोबार कम होगा और दूसरी ओर अपेक्षया सस्ती दवाओं की उपलब्धि कम होगी।
बौद्धिक संपदा के कानून और सख्त हुए तो इसका किसानों के बीज अधिकारों पर प्रतिकूल असर पडेÞगा और बड़ी कंपनियों का बीज क्षेत्र में दखल बढेÞगा। मुक्त व्यापार समझौते सरकारी खरीद और विदेशी निवेश को भी प्रभावित करेंगे। सरकारी खरीद में विदेशी कंपनियों की आर्डर प्राप्त करने की क्षमता बढ़ जाएगी। देश में विदेशी कंपनियों के प्रसार पर जो नियंत्रण बचे हैं वे और भी कम हो जाएंगे और अति साधन-संपन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रसार के दरवाजे और खुल जाएंगे। इन कंपनियों के जो परियोजनाएं देश के लिए हानिकारक साबित हो सकती हैं उन पर रोक लगाना पहले से और कठिन हो जाएगा। 
कुछ लोगों का मानना है कि ओड़िशा में पोस्को परियोजना के अनेक दुष्परिणामों के सामने आने पर भी इसके पक्ष में कई सरकारी निर्णय लिए जाने का एक कारण यह भी था कि दक्षिण कोरिया से भारत का मुक्त व्यापार समझौता हो चुका है। इन विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए मुक्त व्यापार समझौतों, विश्व व्यापार संगठन और दोहा वार्ता को लेकर बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है, ताकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार के बदलते नियमों और शर्तों से देश के कमजोर तबकों की आजीविका और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।
पहले स्थिति यह थी कि कोई भी सरकार व्यापार शुल्क और संख्यात्मक नियंत्रण या प्रतिबंध द्वारा उन आयातों को रोक सकती थी, या उनकी मात्रा सीमित कर सकती थी जो स्थानीय अर्थव्यवस्था और आजीविका के लिए हानिकारक हैं। पर अब किसी देश की, विशेषकर विकासशील देश की सरकार का यह अधिकार बहुत सीमित कर दिया गया है। विश्व व्यापार संगठन के दौर में विदेश व्यापार का चरित्र कुछ बुनियादी तौर पर बदल गया है। अब विकासशील देशों में ऐसी स्थिति बन रही है कि उनके आयात अपनी जरूरतों या सरकारी नीतियों से उतने निर्धारित नहीं होंगे, जितने विश्व व्यापार संगठन के नियम-कायदों से। इस विसंगति को हाल के मुक्त व्यापार समझौतों ने और बढ़ा दिया है।
यह एक कष्टदायक स्थिति है, क्योंकि इससे किसी देश के किसानों, उद्योगों, छोटे व्यापरियों, कर्मचारियों और मजदूरों आदि पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इतना ही नहीं, अपने लोगों का दुख-दर्द कम करने में उनकी सरकार खुद सक्षम नहीं रह जाती, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन के नियम उसकी इच्छाओं से भी ऊपर माने जाते हैं। इस तरह जिस आधार पर विदेशी व्यापार का मूल औचित्य टिका रहा है, वह विश्व व्यापार संगठन के दौर में गड़बड़ा गया है। जब किसी लोकतांत्रिक देश की सरकार अपने लोगों के दुख-दर्द और उसके कारणों को जानते-पहचानते और मानते हुए भी बाहरी कारणों या मजबूरियों से इस दुख-दर्द को कम करने के लिए उचित कदम न उठा सके तो इससे लोकतंत्र को भी चोट पहुंचती है, उसका अवमूल्यन होता है।
इसलिए न्यायसंगत यही होगा कि विदेश व्यापार और विश्व व्यापार को अपने मूल औचित्य की ओर लौटा दिया जाए। इस स्थिति में विभिन्न देश अपनी वस्तुओं और सेवाओं के आयात-निर्यात को निर्धारित करने में सर्वप्रभुता संपन्न बने रहेंगे। व्यापार पर पाबंदियां हटाने या लगाने का निर्णय वे अपनी जरूरतों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करेंगे, किसी बाहरी दबाव के अंतर्गत नहीं। 
विश्व व्यापार संगठन विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को आगे बढ़ाने वाला ऐसा संगठन बन गया है, जो इनके प्रसार के तरह-तरह के अनैतिक प्रयासों को किसी न किसी तरह विश्व स्तर पर कानूनी रूप देने का प्रयास करता रहता है। विश्व व्यापार की ऐसी अवधारणा को बुनियादी तौर पर अन्यायपूर्ण ठहराते हुए हमें इस संबंध में वैकल्पिक और न्यायसंगत विचारों का प्रसार करना चाहिए।

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