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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, November 24, 2011

लोकतंत्र पर हावी पूंजी

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/4682-2011-11-23-05-25-38

आनंद प्रधान 
जनसत्ता, 23 नवंबर, 2011 : यूपीए सरकार ने पिछले दिनों ताबड़तोड़ कई फैसले किए हैं जिनका एकमात्र मकसद बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करना है। उदाहरण के लिए, वित्त मंत्रालय ने खुदरा व्यापार में इक्यावन फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के विवादास्पद और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी है। इसी तरह, पेंशन फंड के बारे में संसद की स्थायी समिति की गारंटीशुदा आमदनी की सिफारिश को परे रखते हुए पीएफआरडीए कानून में संशोधन करके विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को मंत्रिमंडल की मंजूरी दे दी गई है। साथ ही, आवारा विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों और कॉरपोरेट बांडों में विदेशी निवेश की सीमा पांच अरब डॉलर बढ़ा कर क्रमश: पंद्रह और बीस अरब डॉलर कर दी गई है। इसके अलावा बडेÞ विदेशी निवेशकों (क्यूएफआई) को शेयर बाजार में सीधे निवेश का रास्ता खोलने की तैयारी हो चुकी है। इससे पहले सरकार ट्रेड यूनियनों के विरोध के बावजूद विवादास्पद नई मन्युफैक्चरिंग नीति को मंजूरी दे चुकी है। 
यही नहीं, एयरलाइंस उद्योग में विदेशी निवेश खासकर विदेशी एयरलाइनों के निवेश को भी इजाजत देने की तैयारी हो गई है। साफ है कि यूपीए सरकार न सिर्फ देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने की जल्दबाजी में है बल्कि नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपना समर्पण और भक्तिभाव साबित करने पर भी तुल गई है। असल में, मनमोहन सिंह सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की बढ़ती नाराजगी से घबराई हुई है। इन दिनों बड़ी पूंजी संकट में है और इससे बाहर निकलने के लिए बेचैन है। उसे लगता है कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों की आपसी लड़ाई, सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच खींचतान और अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राजनीतिक चुनौती में उलझ कर यूपीए सरकार 'नीतिगत पक्षाघात' का शिकार हो गई है। इसके संकेत गुलाबी अखबारों से मिलते हैं, जिनका दावा है कि न सिर्फ देशी-विदेशी बडेÞ कारोबारियों और उद्योगपतियों का देश की अर्थव्यवस्था में विश्वास कमजोर हुआ है बल्कि देश में 'निवेश का माहौल' खराब हो रहा है। आमतौर पर बडेÞ उद्योगपति सार्वजनिक तौर पर राजनीतिक बयान देने से बचते हैं, लेकिन पिछले छह महीनों में एक के बाद एक कई उद्योगपतियों ने सरकार के 'नीतिगत पक्षाघात' की खुल कर आलोचना की है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की अपील दोहराई है।
दरअसल, बड़ी पूंजी को यह आशंका सताने लगी है कि अगर यूपीए सरकार ने आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण से जुडेÞ लेकिन वर्षों से फंसे, विवादास्पद और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय कुछ बडेÞ नीतिगत फैसले तुरंत नहीं किए तो अगले छह महीनों में ये फैसले करने और मुश्किल हो जाएंगे। इसकी वजह यह है कि अगर आने वाले विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो केंद्र सरकार राजनीतिक रूप से काफी कमजोर हो जाएगी। दूसरी ओर, सरकार के तीन साल पूरे हो जाएंगे और तीन साल के बाद यों भी किसी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय फैसले करना मुश्किल हो जाता है। 
इसी कारण देशी-विदेशी बड़ी पूंजी बहुत बेचैन है। उसे यूपीए सरकार से बहुत उम्मीद थी। खासकर 2009 के चुनावों में वामपंथी पार्टियों की हार और यूपीए की उन पर निर्भरता खत्म हो जाने के बाद बड़ी पूंजी की उम्मीदें बहुत बढ़ गई थीं। माना जाता है कि चुनाव जीतने के बाद पहले दो-ढाई साल में सरकारें राजनीतिक रूप सख्त और अलोकप्रिय फैसले ले लेती हैं, क्योंकि उसके बाद उन पर अगले चुनावों का राजनीतिक दबाव बढ़ने लगता है। लेकिन पिछले दो-ढाई साल में यूपीए सरकार एक के बाद एक विवादों, भ्रष्टाचार के आरोपों और आपसी खींचतान में ऐसी फंसी कि वह बड़ी पूंजी की अधिकांश उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई। 
इससे बड़ी पूंजी की सरकार से निराशा बढ़ती जा रही है। उसके गुस्से का एक बड़ा कारण यह भी है कि पिछले दो-तीन साल में देश भर में जहां भी बड़ी पूंजी ने नए प्रोजेक्ट शुरू करने की कोशिश की, चाहे वह कोई इस्पात संयंत्र हो, अल्युमिनियम संयंत्र हो, बिजलीघर हो, एटमी बिजली संयंत्र हो, सेज हो, आॅटोमोबाइल इकाई हो या  रीयल इस्टेट की कोई परियोजना, उसे स्थानीय आम जनता का विरोध झेलना पड़ रहा है। लोग अपने जल-जंगल-जमीन और खनिज संसाधनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। इस कारण, बड़ी पूंजी न मन-मुताबिक परियोजना लगा पा रही है न प्राकृतिक संसाधनों का पूरा दोहन कर पा रही है। 
इससे बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट जगत के गुस्से का अनुमान लगाया जा सकता है। इस बीच अजीम प्रेमजी, मुकेश अंबानी और सुनील मित्तल जैसे बडेÞ उद्योगपतियों के बयानों ने सरकार की नींद उड़ा दी है। लिहाजा, घबराई हुई मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले दस दिनों में ऐसे कई बडेÞ नीतिगत फैसले किए हैं और आने वाले दिनों में कई और करने जा रही है जिन्हें लेकर न सिर्फ व्यापक राजनीतिक सहमति नहीं है बल्कि उनका कई राजनीतिक दलों, जन संगठनों, ट्रेड यूनियनों, छोटे और खुदरा व्यापारियों के संगठनों द्वारा विरोध किया जा रहा है। यही नहीं, इन फैसलों से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को भले खूब फायदा हो, लेकिन अर्थव्यवस्था और खासकर आम लोगों के रोटी-रोजगार पर


बुरा असर पड़ने की आशंका है। 
उदाहरण के लिए, खुदरा व्यापार में इक्यावन फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव को वित्त मंत्रालय की हरी झंडी को ही लीजिए।   दुनिया भर के अनुभवों से साफ  है कि खुदरा व्यापार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से आम उपभोक्ताओं को कोई खास फायदा नहीं होता, अलबत्ता उनकी आक्रामक रणनीति के कारण करोड़ों छोटे और मंझोले व्यापारियों की रोटी-रोजी खतरे में पड़ जाती है। इसी तरह, नई मन्युफैक्चरिंग नीति और पेंशन फंड में सुधारों के नाम पर न सिर्फ श्रमिकों के हितों की बलि चढ़ाई जा रही है बल्कि लाखों लोगों की जीवन भर की कमाई को शेयर बाजार में उड़ाने का रास्ता साफ किया जा रहा है। 
ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार इन खतरों से वाकिफ नहीं है। लेकिन वह बड़ी पूंजी की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहती। सरकार के इस रवैए का एक और उदाहरण यह है कि आसमान छूती महंगाई के बावजूद न सिर्फ पेट्रोल की कीमतें नियंत्रण-मुक्त की गर्इं बल्कि हर पखवाड़े बढ़ाई भी गर्इं। सरकार और कांग्रेस को पता है कि आम आदमी इस फैसले से नाराज है और इसकी उसे राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसके बावजूद सरकार अपने फैसले पर डटी हुई है। इससे पूंजीवादी जनतंत्र की असलियत का पता चलता है। यह कैसा जनतंत्र है कि जनता कुछ चाहती है और सरकार ठीक उसका उलटा कर रही है। लेकिन यह भारत तक सीमित परिघटना नहीं है। यूनान, इटली, पुर्तगाल, स्पेन जैसे वित्तीय संकट में फंसे देशों की सरकारें बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए किफायतशारी उपायों का सारा बोझ आम लोगों पर डाल रही हैं। इन देशों में हो रहे जबर्दस्त प्रदर्शनों से साफ  है कि आम लोग इन उपायों का समर्थन नहीं कर रहे हैं। 
मगर सवाल यह है कि इसे जनतंत्र कैसे कहा जाए, जिसमें सरकारें लोगों की इच्छाओं के खिलाफ जाकर फैसले कर रही हैं? याद कीजिए, हाल में यूनान के (अब पूर्व) प्रधानमंत्री जॉर्ज पॉपेंद्रु ने देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय संघ से मिलने वाले बचाव (बेलआउट) पैकेज की शर्त के रूप में प्रस्तावित कमखर्ची-उपायों पर जब देश में जनमत संग्रह कराने का एलान किया तो क्या हुआ था? इस फैसले के खिलाफ न सिर्फ ब्रुसेल्स, बान से लेकर लंदन और न्यूयार्क तक वित्तीय बाजारों में हंगामा मच गया बल्कि यूरोपीय संघ का पूरा राजनीतिक नेतृत्व किसी भी तरह से जनमत संग्रह को टालने में जुट गया। 
यह सबको पता था कि अगर जनमत संग्रह हुआ तो लोग इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करेंगे। मजबूरी में पॉपेंद्रु को अपनी बात वापस लेनी पड़ी। लेकिन इससे भी बात नहीं बनी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसी तरह, इटली में बर्लुस्कोनी को हटा कर नई सरकार बनाई गई है जिसने बेलआउट पैकेज के बदले किफायतशारी के कडेÞ उपाय लागू करने पर सहमति जताई है। क्या यही 'जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा' शासन वाला लोकतंत्र है? साफ  है कि इस लोकतंत्र में जनता के हितों के मुकाबले पूंजी के हितों को तरजीह दी जा रही है। 
इस मायने में पूंजीवाद और जनतंत्र परस्पर विरोधी विचार हैं। दरअसल, मार्क्स ने पूंजीवाद को एक ऐसी 'स्वत: संचालित व्यवस्था' बताया था जो अपने भागीदारों की इच्छा और समझ से स्वतंत्र परिचालित होती है। तात्पर्य यह कि एक स्वत: संचालित व्यवस्था होने के कारण पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य के किसी ऐसे हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती जो पूंजीवाद की स्वाभाविक गति को प्रभावित करे। लेकिन कोई भी लोकतंत्र तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता, जिसमें लोगों की इच्छाओं के मुताबिक राजनीति और राज्य हस्तक्षेप न करे। लेकिन यहां तो राजनीति और राज्य के हाथ बांध दिए गए हैं और पूंजी को मनमर्जी की खुली छूट मिली हुई है।
याद रहे कि एकीकृत यूरोपीय आर्थिक संघ और एकल मुद्रा (यूरो) की बुनियाद में यही विचार है जिसने अर्थनीति को राजनीति से पूरी तरह आजाद कर दिया। आर्थिक एकीकरण के लिए हुई मास्ट्रिख संधि में अर्थनीति तय करने के मामले में सदस्य राष्ट्रों के हाथ बांधते हुए यह व्यवस्था की गई है कि कोई देश पूर्वघोषित वित्तीय घाटे की सीमा को नहीं लांघ सकता। मतलब यह कि आम लोगों की जरूरत भी हो तो सरकारें एक सीमा से ज्यादा खर्च नहीं कर सकतीं। आश्चर्य नहीं कि आज यूरो को बचाने के लिए राजनीति यानी लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की बलि चढ़ाई जा रही है। 
कहने की जरूरत नहीं कि भारत भी उसी रास्ते पर है। राजग सरकार ने विश्व बैंक-मुद्राकोष और आवारा बड़ी पूंजी के दबाव में संसद में वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) कानून पारित किया था, जिसमें वित्तीय घाटे की सीमा तय की गई है। यह अर्थनीति के राजनीति के बंधन से आजाद होने का एक और सबूत है। हैरानी की बात नहीं कि राजग के बाद सत्ता में आई यूपीए सरकार ने सबसे पहला काम इस कानून को अधिसूचित करने का किया था। समझना मुश्किल नहीं है कि यूपीए सरकार बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक नतीजों की परवाह किए बगैर जिस हड़बड़ी में फैसले कर रही है, उसकी जड़ें कहां हैं।

 

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