कृषि तबाह हुई तो भ्रष्टाचार घटेगा, अनाज नहीं हुआ तो पैसे वाले खरीदकर खायेंगे ही!खाद्य सुरक्षा के लिए अनाज कहां से आयेगा?
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
माना जा रहा है कि खाद्य सुरक्षा बिल को महीने भर में कैबिनेट से मंजूरी मिलना संभव है। सरकार की बजट सत्र में खाद्य सुरक्षा बिल को पारित करवाने की कोशिश है।खाद्य सुरक्षा बिल के तहत शहरी क्षेत्र के 50 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्र के 75 फीसदी लोगों को लाने का प्रस्ताव है। फूड सिक्योरिटी बिल को लागू कर सरकार की हर व्यक्ति को 5 किलो अनाज हर महीने देने की गारंटी की योजना है।लेकिन खाद्य सुरक्षा के लिए अनाज कहां से आयेगा, इसकी किसी को कोई फिक्र नहीं है। खेती एक कदम हाशिये पर है।हालांकि खाद्य सुरक्षा बिल को पारित करवाना आसान नहीं होगा क्योंकि विपक्षी पार्टियों ने अभी से इसका विरोध करना शुरू कर दिया है।उधर महंगी खाद अब खेती की नई मुसीबत बनने लगी है। लागत बढ़ने के डर से किसानों ने खाद से तौबा करना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि 80 लाख टन खाद गोदामों में ही पड़ी रह गई।खाद, बीज, सिंचाई, जोताई आदि का प्रबंधन कर खेती किसानी को अंजाम देने में बढ़ती महंगाई ने अन्नदाताओं को बेहाल कर दिया है।राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि देश 12वीं पंचवर्षीय योजनावधि में कृषि क्षेत्र में 4 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य हासिल कर सकता है। उन्होंने कहा कि बेहतर बीजों, जल प्रबंधन व्यवस्था में सुधार और उर्वरक व कीटनाशकों के संतुलित इस्तेमाल से यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।मुखर्जी ने कहा कि कृषि क्षेत्र को बिजली, ऋण, जल और उर्वरकों तक पहुंच में प्राथमिकता दिए जाने की जरूरत है।उन्होंने कहा कि हम 12वीं योजनावधि (2012-17) में 4 प्रतिशत की कृषि वृद्धि का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं, बशर्ते इसके लिए हमें फसलों का विविधीकरण करना होगा, अधिक उपज देने वाले रोग प्रतिरोधी बीजों को विकसित करना होगा और जल प्रबंधन व्यवस्था में सुधार लाने के साथ ही उर्वरकों व कीटनाशकों के संतुलित उपयोग को प्रोत्साहन देना होगा।
उल्लेखनीय है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान कृषि और इसके सहायक क्षेत्रों की वृद्धि दर 3.3 प्रतिशत रही।
आशीष नंदी प्रख्यात समाज शास्त्री हैं और उन्होंने कह दिया है कि भ्रष्टाचार के मूल में है ओबीसी, अनुसूचित जनजतियों और अनुसूचित जातियों का सशक्तीकरण। अपनी दलील पेश करते हुए उन्होंने कहा कि बंगाल में पिछले सौ साल से चूंकि दलितों को सत्ता में प्रतिनिधित्व मिला नहीं है, इसलिए बंगाल भ्रष्टाचार के मामले में बाकी देश के मुकाबले ज्यादा पाक साफ हैं। इससे उत्तरभारत में सामाजिक आंदोलन में सत्ता की मलाई खा रहे राजनेता जहां उबाल खा रहे हैं, वहीं आरक्षण विरोधियों को मजबूत समर्थन मिलने लगा है।मालूम हो कि किसान जातियां ही इन्हीं समुदायों में बहुसंख्य हैं। खेती से किसान बेहल हैं , पर नेता मालामाल हैं। राजनीतिक आरक्षण से मलाईदार तबका खा कमा रहा है, लेकिन बाकी लोगों का सशक्तीकरण का आलम यह है कि ओबीसी ,एससी और एसटी समुदायों से जुड़े किसान देशभर में आत्महत्या करने को मजबूर हैं। जो राजनीतिक बहस हो रही है, उसमें इन किसानों की सुनवाई होगी क्या? जयपुर साहित्यउत्सव को आरक्षणविरोधी मंच बना देने के बावजूद इस सत्य के खुलासे के लिए कि बंगाल में सामाजिक बदलाव नाम की कोई चीज नहीं है, उनका आभार मानना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने भ्रष्टाचार के लिए कमजोर तबके को यानि बहुजन समाज को दोषी ठहराकर कारपोरेट भ्रष्टाचार, जिसपर एकाधिकार सिर्फ सवर्णों और सवर्णों का ही है, को क्लीन चिट दे दी है। अब भ्रष्टाचार के लिए न कालाधन दोषी है, न पूंजी का अबाध प्रवाह और न ही आर्थिक सुधार और कारपोरेट नीति निर्धारण। बस, संविधान से समता, सामाजिक न्याय और राजनीति से समावेशी विकास जैसे शब्द हटाने की जरुरत है। मनुस्मृति व्यवस्था की इतनी जोरदार वकालत के बाद देहात और कृषि की बदहाली के लिए रोना मना है। क्या कीजिए, कृषि से जुड़ी तमाम जातियां तो भ्रष्ट समुदायों यानी पिछड़ों और अनुसूचितों में शामिल है। भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए औद्योगीकरण और शहरीकरण के जरिये इस बहुजनसमाज के सफाये के एजंडे पर इसीलिए काम हो रहा है। इससे खाद्य संकट हो तो जो बाजार में पैसे खरीदकर जी सकते हैं, उनके लिए क्या परेशानी?खाद्य सुरक्षा के लिए अनाज कहां से आयेगा?
कारपोरेट मीडिया, सोशल मीडिया और सिविल सोसाइटी की अद्भुत गोलबंदी दिख रही है नंदी के समर्थन में, जो कारपोरेट भ्रष्टाचार को विकास की अनिवार्य बुराई मानते हैं और आर्थिक सुधारों को देश के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता।भले ही किसान आत्महत्या करते रहे और देहात में भुखमरी की हालत हो, चाहे कृषि वाकास दर शून्य ही क्यों न रहे, पूंजीपतियों जो निश्चय
ही पिछड़े और अनुसूचित नहीं है हर साल बजट में लाखों करोड़ की करछूट देकर आर्थिक विकास दर को आसमान पर पहुंचाना धर्मराष्ट्रवाद की प्राथमिकता है। आशीष नंदी ने धर्म राष्ट्रवाद के खिलाफ कुछ नहीं कहा है। कहा तो सिर्फ सामाजिक बदलाव के बारे में, जिससे सामाजिक न्याय के अच्छे खासे ठेकेदार भी नाराज नहीं हैं, राजनेता चिल्ल पों कर रहे हैं और बाकी जनता को तो जीते रहने की अंधी दौड़ में मरने तक की फुरसत नहीं है। आप कितनी ही सनसनीखेज सुर्खियां बना डालें, उनकी सेहत पर कोई असर नहीं होता। हजारों साल से अस्पृश्यता के अभिशाप को ढोने वाले समुदाय को किसी कारपोरेट आयोजन में किसी के कहने से भावनाओं को चोट लगने का सवाल ही नही उठता। वे बेचारे क्या जाने कि कितनी बड़ी हस्तियां उनकी सेहत को लेकर फिक्रमंद हैं! उन्हें तो अनाज चाहिए कोने को दो जून भर अधपेट ही सही। लेकिन अबकि दफा वह भी नहीं मिलने जा रहा। दलित ऐक्टिविस्ट-लेखक कांचा इलैया ने सोमवार को समाजविज्ञानी नंदी के बयान पर बवाल को शांत करने की कोशिश की। उन्होंने क्या खूब कहा है कि नंदी की टिप्पणी खराब थी, लेकिन उनकी मंशा अच्छी थी! आशीष नंदी ने कहा था कि देश में ज्यादातर भ्रष्ट लोग ओबीसी, एससी और एसटी जातियों से आते हैं। इलैया ने यहां एक बयान में कहा, 'प्रोफेसर आशीष नंदी ने अच्छी मंशा के साथ खराब टिप्पणी की। जहां तक मैं जानता हूं वह कभी भी आरक्षण के खिलाफ नहीं थे। विवाद यहां खत्म हो जाना चाहिए।' नंदी के विवादास्पद बयान के बाद बीएसपी प्रमुख मायावती समेत कई लोगों ने उनकी आलोचना की थी।
फसल विपणन वर्ष 2012-13 में देश का कुल अनाज उत्पादन पिछले साल के मुकाबले कम रहने की आशंका है। पिछले साल अनाज उत्पादन करीब 25.9 करोड़ टन रहने का अनुमान (संशोधित) लगाया गया था। कहा जा रहा है कि इस साल कम उत्पादन की प्रमुख वजह खरीफ बुआई के दौरान उत्पादन कम रहना है।फिर भी मौजूदा रबी मौसम के दौरान गेहूं का उत्पादन पिछले साल के लगभग 9.4 करोड़ टन के बराबर रह सकता है। कृषि सचिव आशिष बहुगुणा ने एक कार्यक्रम में यह जानकारी दी।सरकार के पहले अग्रिम अनुमान के मुताबिक खरीफ सीजन 2012-13 के दौरान अनाज का उत्पादन 2011-12 के मुकाबले करीब 9.8 फीसदी कम रहने की आशंका थी। देश के अधिकांश हिस्सों में कम-ज्यादा दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून की वजह से अनाज उत्पादन में गिरावट आ सकती है।उन्होंने कहा कि फसल वर्ष 2011-12 (जुलाई-जून) के दौरान देश में गेहूं की बंपर पैदावार हुई क्योंकि फरवरी और मार्च में अनुकूल मौसम की वजह से उत्पादकता में काफी इजाफा हुआ। यह पूछने पर कि क्या इस साल अब तक गेहूं की कम बुआई का असर इसकी पैदावार पर हो सकता है? उन्होंने कहा, 'गेहूं समेत लगभग तमाम रबी फसलों की बुआई करीब-करीब हो चुकी है। गेहूं का रकबा पिछले साल के मुकाबले 0.4 लाख हेक्टेयर कम रहा है। यदि आप पिछले 5 वर्षों के औसत रकबे से तुलना करेंगे, तो इसमें 4.1 लाख हेक्टेयर की वृद्घि नजर आएगी। जाहिर है, चिंता की कोई वजह नहीं है।आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक मौजूदा रबी सीजन के दौरान अब तक गेहूं का रकबा 294.98 लाख हेक्टेयर रहा है, जबकि एक साल पहले इस फसल का रकबा 295.93 लाख हेक्टेयर था। सरकार ने इस साल के लिए 8.6 करोड़ टन गेहूं उत्पादन का लक्ष्य रखा है।
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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
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