Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Monday, September 2, 2013

Fwd: जब हम खुद ही हैं, दुश्मन अपने आपके...?-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'



जब हम खुद ही हैं, दुश्मन अपने आपके...?

पुलिस के सिपाही से लेकर पुलिस महानिदेशक तक किसी के लिये भी कानून की शिक्षा की अनिवार्यता नहीं है, इस कारण पुलिस का पूरा का पूरा महकमा कानून और कानून की गहन-गम्भीर न्यायिक अवधारणा से पूरी तरह से अज्ञानी और अनभिज्ञ ही बना रहता है। फिर भी हमारे देश में कानून के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी पुलिस की है। इसके उपरान्त भी हम चाहते हैं कि हमारे देश में कानून का राज कायम रहे। लोगों की समस्याओं का पुलिस द्वारा कानून के अनुसार निदान किया जाये और हम समर्थ लोगों द्वारा कानून को धता बताने तथा कानून की धज्जियॉं उड़ाने पर पुलिस को कोसते हैं? इससे बढी हमारी मूर्खता और क्या हो सकती है?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

बचपन से हमें घर, परिवार से स्कूल तक कदम-कदम पर सिखाया, पढाया और समझाया जाता रहा है कि हमें ऐसा आचरण करना चाहिये, जिससे हमारा कोई दुश्मन नहीं बन सके। कोई हम से जले-भुने नहीं। यहॉं तक कि हम से कोई नाराज तक न हो। अर्थात् हमें ऐसा आचरण करने की शिक्षा और प्रेरणा दी जाती है, जिससे कि कोई हमारा दुश्मन बनना तो दूर, कोई हमारा विरोधी तक न बन सके। मेरा मानना है कि हम सभी बचपन से ही इस प्रकार की सीख को अपने जीवन में उतारने की पूरी-पूरी कोशिश करते रहे हैं। इसके उपरान्त भी व्यवहार में हम देखते हैं कि सरल से सरल और सादगी पसन्द व्यक्ति के दुश्मनों की भी कोई कमी नहीं है। ऐसे में ये एक बड़ा सवाल है कि आखिर क्यों लोग दूसरों के दुश्मन हैं? 

विशेषकर तब जबकि आदि काल से लेकर वर्तमान तक हमें प्रेम और भाईचारे को बढावा देने की शिक्षा दी जाती रही है। आज के समय में तो सकारात्मक चिन्तन को बढावा देने के नाम पर ''पोजेटिव एज्यूकेशन एण्ड एप्टीट्यूट इंस्टीट्यूशंस'' के नाम पर जो भी सरकारी या गैर-सरकारी दुकानें चल रही हैं, उन सभी में सबसे अधिक जोर इसी बात पर दिया जा रहा है।

व्यक्तित्व विकास को बढावा देने का नाम पर हजारों किताबें मार्केट में आ गयी हैं। इन सभी में लोगों का प्यारा बनने, लोगों को प्यारा बनाने और लोगों का दिल जीतने की कला सिखाने और निपुण बनाने पर जोर दिया जा रहा है। इन विषयों की हर एक कार्यशाला में आधुनिक संगीत की कथित स्वर लहरियों के बीच लच्छेदार भाषा में समझाया जाता है कि लोगों को अपना अनुयायी, प्रशंसक और समथर्क कैसे बनाया जाये?

जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि समाज के हर एक तबके की हकीकत इससे बिलकुल उलट नजर आती है। न तो हम सभी के प्यारे बन पाते हैं और न हीं हम सभी को अपना सुहृदयी, स्नेही या शुभचिन्तक ही बना पाते हैं। हम चाहे कितने ही सकारात्मक हो जायें, न तो दूसरे हमें अपना मुक्तकण्ठ प्रशंसक मानते हैं और न हीं हमें सन्देह से परे शुभचिन्तक मानने को तैयार होते हैं! इसके उलट भी हालात ज्यों के त्यों हैं। हम स्वयं भी लोगों को सन्देह ही दृष्टि से देखते हैं। लोगों पर हमें विश्‍वास नहीं होता है। हमें लोगों की निष्ठा पर सन्देह होता है। ऐसे में बचपन से हमें सिखायी जाने वाली आदर्शवादी शिक्षा की जीवन के लिये उपयोगिता कैसे सम्भव है? ऐसी शिक्षाओं की उपादेयता क्या है?

हम देखते हैं कि यदि परीक्षा, व्यवसाय या किसी भी क्षेत्र में असफलता हाथ लगती है या परिवार के किसी सदस्य का दाम्पत्य जीवन सुखद नहीं हो तो हम समस्याओं के असली कारणों का पता लगाने के बजाय और समस्याओं से जुड़े सही तथ्यों का ईमानदारी से विश्‍लेषण करने के साथ-साथ आत्मविश्‍लेषण करने के बजाय अनेक बार तो अपने ग्रह- नक्षत्रों, हस्तरेखाओं या अपने वक्त को ही कोसने लग जाते हैं।

ऐसे में हमारे अपने ही परिवार में कोई न कोई टिप्पणी करता है-

''हमारे हंसते-खेलते परिवार को किसकी नजर लग गयी?''

हम सब चुपचाप ऐसी टिप्पणियों पर चुप रहते हैं। जिससे परिवार में अनेक रुग्ण विकारों और रुग्ण मनोग्रथियों का उदय होता है। दुष्परिणामस्वरूप हम निराशा और आसन्न संकट से घिरकर अनेक प्रकार की दुश्‍चिन्ता और मनोविकारों के शिकार हो जाते हैं और ऐसे हालात में हमारी रोनी सूरत, मुर्झाये चेहरे को देखकर परिवार में और परिवार के बाहर हमें अनेक प्रकार की बिन मांगी सलाहें मिलनी शुरू हो जाती हैं। लोगों के सुझावों की बोछार शुरू हो जाती है। हर कोई हमारा शुभचिन्तक बनकर हमें समस्याओं से निजात दिलाने के नये-नये फार्मूले सुझाने लगता है। हम विवेकशून्य से इन सब लोगों और उनकी सहानुभूतिपूर्ण बातों के प्रभाव या कहो इन सब तथाकथित अपने हितैषियों के मोहपाश में ये भूल ही जाते हैं कि ऐसे कठिन समय में हमें अधिक सतर्क, सचेत और बुद्धिमता से जीवनपथ पर आगे बढना है। हम बचपन से सिखायी गयी सभी शिक्षाओं को भूल जाते हैं।

ऐसे संकट में घिरे लोगों को फांसने के लिये समाज में अनेक रूपों में दुष्ट लोगों के गिरोह सक्रिय हैं। जो कहीं तांत्रिक, कहीं ज्योतिषी, कहीं संत, कहीं महात्मा, कहीं पोप, कहीं पादरी, कहीं मौलवी, कहीं पीर और कहीं वैद्य-हकीम के रूप में नजर आते हैं। जिनके चक्करों में फंसकर हम अपने और परिवार के जीवन को नर्कमय बना लेते हैं। इसी कारण से अनेक लोगों को असमय मौत का शिकार तक होना पड़ता है।

ऐसे लोगों के लिये विचारणीय सवाल हैं कि बिना तकनीकी ज्ञान और सुव्यवस्थित शिक्षा के-
-क्या कोई सुथार हृदय का ऑपरेशन कर सकता है?
-क्या कोई किसान पुलों का निर्माण कर सकता है?
-क्या कोई कृषि विशेषज्ञ, मनोचिकित्सक हो सकता है?
-क्या कोई संस्कृति शास्त्री उर्दू भाषा को पढा सकता है?
लेकिन हमारे देश में बेरोकटोक यही सब चल रहा है और हम सब आंख बन्द किये ये सब होने दे रहे हैं। कुछेक दृष्टान्त प्रस्तुत हैं-
-पुलिस के सिपाही से लेकर पुलिस महानिदेशक तक किसी के लिये भी कानून की शिक्षा की अनिवार्यता नहीं है, इस कारण पुलिस का पूरा का पूरा महकमा कानून और कानून की गहन-गम्भीर न्यायिक अवधारणा से पूरी तरह से अज्ञानी और अनभिज्ञ ही बना रहता है। फिर भी हमारे देश में कानून के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी पुलिस की है। इसके उपरान्त भी हम चाहते हैं कि हमारे देश में कानून का राज कायम रहे। लोगों की समस्याओं का पुलिस द्वारा कानून के अनुसार निदान किया जाये और हम समर्थ लोगों द्वारा कानून को धता बताने तथा कानून की धज्जियॉं उड़ाने पर पुलिस को कोसते हैं? इससे बढी हमारी मूर्खता और क्या हो सकती है?
-हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करने का जिम्मा संघ लोक सेवा आयोग और राज्य लोक सेवा आयोगों के उत्पाद प्रशासनिक सेवा के लोक सेवकों के जिम्मे डाला गया है। जो स्वयं को लोक सेवक अर्थात् जतना का नौकर कहलवाने के बजाय प्रशासनिक अधिकारी अर्थात् शासक कहलवाना अधिक पसन्द करते हैं। जिनमें से किसी को भी प्रशासन के संचालन के लिये जरूरी योग्यता में दक्षता नहीं होती है। क्योंकि संघ लोक सेवा आयोग और राज्यों के लोक सेवा आयोग किसी भी विषय में स्नातक को प्रशासनिक अधिकारी की परीक्षा में शामिल होने लिये योग्य व पात्र मानते हैं। परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाने और वरिष्ठ ऐसे ही प्रशासनिक अफसरों के समक्ष साक्षात्कार में येन-कैन प्रकारेण योग्य घोषित होने पर प्रशासनिक अधिकारी की योग्यता हासिल हो जाती है। जिसका दुष्परिणाम ये होता है कि-
-पशुचिकित्सक के रूप में स्नातक की डिग्रीधारी प्रशासनिक अधिकारी कालान्तर में सचिव पद पर पदासीन होकर सरकार के वित्त, गृह या उद्योग मंत्रालय की नीतियों का निर्धारण करता है।
-इसी प्रकार से विज्ञान में स्नातक की डिग्रीधारी प्रशासनिक अधिकारी कालान्तर में सचिव पद पर पदासीन होकर सरकार के कपड़ा मंत्रालय, या कोयला मंत्रालय या स्वास्थ्य की नीतियों का निर्धारण करता है।
इस प्रकार से हर एक प्रशासनिक अधिकारी तकनीकी रूप से अदक्ष, अनिपुण और अयोग्य होते हुए भी अपनी पदीय शक्तियों और अपने ओहदे के रुआब के बल पर विभाग से सारे लोगों को डंडे के बल पर हांकता है। 

ऐसे में जबकि राजनेता पूरी तरह से अपने सचिवों पर निर्भर रहते हैं और सचिव स्वयं ही मासा-अल्लाह डंडाभारती होते हैं तो देश की संस्द्भति सहित देश के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और अन्तर्राष्ट्रीय हालात बद से बदतर होते जायें तो आश्‍चर्य किस बात का और क्यों?

जिन प्रशासनिक अफसरों को इतना सा प्रारम्भिक ज्ञान तक नहीं होता कि अन्तर्देशीय कूटनीति क्या होती है? राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और वैदेशिक सम्बन्धों की पृष्ठभूमि तथा आधारशिलाा कैसे रखी जाती है? ऐसे अफसर ही विदेश मंत्रालय में सचिव के पद पर पहुंचकर देश की विदेशनीति को तय करते हैं। फिर विदेशनीति कैसे सफल हो सकती है?

सोचने वाली बात यह है कि हिन्दी साहित्य में स्नातक की डिग्रीधारी एक प्रशासनिक अफसर के गृहसचिव बनने से गृहविभाग का क्या भला हो सकता है। व्यावहारिक दृष्टि से देखें ऐसे अफसर से तो गृह विभाग में वर्षों तक काम करने वाला एक सिपाही कहीं अधिक योग्य होता है।

कुल मिलाकर बात ये है कि ऐसे में कोई किसी पर कैसे विश्‍वास कर सकता है। कोई कैसे निश्‍चिन्त होकर अपने घर में सो सकता है? कोई कैसे सोच सकता है कि सब लोग सबका भला करेंगे? इसी का दुष्परिणाम है कि देश में कानून का राज होते हुए भी टीवी, अखवारों पर तांत्रिकों, दवा व्यापारियों के दुराग्रही विज्ञापनों का साम्राज्य है। जिन पर निगरानी रखने के लिये जिम्मेदार प्रशासनिक अफसर चुपचाप हिस्सा ले लते हैं!

देश में धर्म, मंत्र और तंत्र के नाम पर हर धर्म और मजहब में ठगों का साम्राज्य कायम है। संतों और महात्माओं के कुकर्मों के समक्ष लोगों और सरकार में खडे़ होने की हिम्मत नहीं है।

ऐसे में इस देश के लोगों को बिना किसी लागलपेट के इस बात को हृदय से खुद-ब-खुद स्वीकार कर लेना चाहिये कि-जब हम खुद ही हैं, अपने आपके दुश्मन तो हमें कोई कैसे हमें बचा सकता है?

-लेखक : होम्योपैथ चिकित्सक, प्रकाशक एवं सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक), नेशनल चेयरमैन-जर्नलिसट्स, मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एशोसिएशन और राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास), मोबाइल : 085619-55619, 098285-02666 

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV