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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, March 3, 2014

लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का छद्म ही जी रहे हैं हम

लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का छद्म ही जी रहे हैं हम

लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का छद्म ही जी रहे हैं हम

दो दलीय अमेरिका परस्त कॉरपोरेट बंदोबस्त अस्मिताओं का महाश्मशान!

जिनके प्राण भँवर ईवीएममध्ये बसै, उनन से काहे को बदलाव की आस कीजै?

पलाश विश्वास

सुधा राजे ने लिखा है

 तुम्हें ज़िन्दग़ी बदलने के लिये पूँजी जमीन

और कर्मचारी चाहिये

मुझे समाज बदलने के लिये केवल अपने पर

हमले से सुरक्षा और हर दिन मेरे हिस्से

मेरा अपना कुछ समय और उस समय को मेरी अपनी मरज़ी से खर्च

करने की मोहलत ।

मोहन क्षोत्रिय ने लिखा है

जैसे चूमती हैं बहनें

अपने भाई को गाल पर

वैसे ही चूमा था #राहुल को

#बोंति ने…

पर मारी गई वह

उसके पति ने जला दिया उसे !

क्या कहेंगे इस सज़ा को

और सज़ा देने वाले के वहशीपन को?

सत्ता का चुंबन बेहद आत्मघाती होता है। राहुल गांधी के गाल को चूमकर मारी गयी इस युवती ने दामोदर वैली परियोजना के उद्घाटन के मौके पर नेहरु को माला पहनाने वाली आदिवासी की नरक यंत्रणा बन गयी ज़िन्दगी की याद दिला रही है।

अस्मिता के मुर्ग मुसल्लम के प्लेट बदल जाने से बहुत हाहाकार, त्राहि त्राहि है। राष्ट्र, समाज के बदलते चरित्र औरअर्थव्यवस्था की नब्ज से अनजान उत्पादन प्रणाली और श्रम सम्बंधों से बेदखल मुक्त बाजार के नागरिकों के लिए यह दिशाभ्रम का भयंकर माहौल है। लेकिन कॉरपोरेटराज के दो दलीय एकात्म बंदोबस्त में यह बेहद सामान्य सी बात है।

भारतीय राजनीति की धुरियां मात्र दो हैं, कांग्रेस और भाजपा। लेकिन अमेरिका के डेमोक्रेट और रिपब्लिकन की तरह या ब्रिटेन की कंजरवेटिव और लेबर पार्टियों के तरह कांग्रेस और भाजपा में विचारधारा और चरित्र के स्तर पर कोई अन्तर नहीं है। आर्थिक नीतियों और राजकाज, नीति निर्धारण में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है। संसदीय समन्वय और समरसता में जनविरोधी अश्वमेध में दोनों एकाकार है।

दरअसल हम लोग लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का छद्म ही जी रहे हैं लोकतांत्रिकता और संवाद लोक गणराज्य और उसकी नागरिकता का चरित्र है और इस मायने में हम सारे भारतीय जन सिरे से चरित्रहीन हैं।

परिवार, निजी सम्बंधों, समाज, राजनीति और राष्ट्रव्यवस्था में सारा कुछ एकपक्षीय है सांस्कृतिक विविधता और वैचित्र्य के बावजूद। हम चरित्र से मूर्ति पूजक बुतपरस्त लोग हैं। हम राजनीति करते हैं तो दूल्हे के आगे पीछे बंदर करतब करते रहते हैं। साहित्य, कला और संस्कृति में सोंदर्यबोध का निर्मायक तत्व व्यक्तिवाद है, वंशवाद है, नस्लवाद है, जाति वर्चस्व है। हमारा इतिहास बोध व्यक्ति केंद्रित सन तारीख सीमाबद्ध है। जन गण के इतिहास में हमारी कोई दिलचस्पी है ही नहीं। हमारी आर्थिक समझ शेयर सूचकांक, आयकर दरों और लाभ हानि का अंकगणित है। उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था की संरचना को लेकर हम सोचते ही नहीं।

हमारे बदलाव के ख्वाब भी देव देवी केन्द्रित है।

दरअसल हम देव देवियों के ईश्वरत्व के लिए आपस में लड़ते लहूलुहान होते आत्मघाती खूंखार जानवरों की जमाते हैं, जिन पर संजोग से मनुष्य की खालें चढ़ गयी हैं। लेकिन दरअसल हम में मनुष्य का चरित्र है हीं नहीं। होता तो अमानुषों का अनुयायी होकर हम स्वयं को अमानुष साबित करने की भरसक कोशिश नहीं कर रहे होते। हमारी एकमात्र सशक्त अभिव्यक्ति अस्मिता केंद्रित सापेक्षिक व्यक्तिवाद है, जिसका स्थाई भाव धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है।

रंग बिरंगे धर्मोन्माद, चुनाव घोषणापत्रों, परस्पर विरोधी बयानों के घटाटोप को सिरे पर रख दे तो सब कुछ एक पक्षीय है। दूसरा पक्ष जो बहुसंख्य बहिष्कृत आम जनता का है, वे सिरे से गायब हैं। सारे लोग जाहिर है कि सत्ता पक्ष के रथी महारथी हैं और बाकी लोग पैदलसेनाएं, पार्टीबद्ध लोग चाहे कहीं हों वे अमेरिकी कॉरपोरेट साम्राज्यवादी सामंती वर्णवर्चस्वी नस्ली हितों के मुताबिक ही हैं।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि राम विलास पासवान धर्मनिरपेक्षता का अवतार बन गये तो फिर हिंदुत्व में उनका कायाकल्प हो गया।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि ययाति की तरह अनंत सत्तासुख के लिए रामराज उदित राज बनने के बाद "पुनर्मूषको भव" मानिंद रामराज हो गये।

हमारा सरोकार कौन कहाँ गया, इससे कतई नहीं है।

जो भी जहाँ गया, या जा रहा है, सत्तापक्ष में सत्ता की भागेदारी में गया है।

हमारे मित्र एच. एल. दुसाध एकमात्र व्यक्ति हैं, जिन्होंने संजय पासवान मार्फत घोषित संघी आरक्षण समापन एजेंडा के खिलाफ बोले हैं। "हस्तक्षेप" में उनका लिखा लम्बा आलेख हमने ध्यान से पढ़ा है वे बेहद अच्छा लिखते हैं। उनके डायवर्सिटी सिद्धांतों से हम सहमत भी हैं। हम भी अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बँटवारे के बिना सामाजिक न्याय और समता असम्भव मानते हैं।

लेकिन अभिनव सिन्हा की परिभाषा के मुताबिक मुझे दुसाध जी के संवेदनाविस्फोट को भाववादी कहने में कोई परहेज नहीं है। माफ करेंगे दुसाध जी। हम वस्तुवादी तरीके से चीजों, परिस्थियों और समय की चीरफाड़ के बजाय वर्चस्ववादी आइकानिक समाज और अर्थव्यवस्था में चर्चित चेहरों को केंद्रित विमर्श में अपना दिमाग जाया कर रहे हैं।

इसे ऐसे समझे कि भारतीय रंग-बिरंगे सेलिब्रेटी समाज में सहाराश्री कृष्णावतार है और सुप्रीम कोर्ट से निवेशकों के साथ धोखाधड़ी के मामले में सहाराश्री की गिरफ्तारी के बाद उन सारे लोगों के आर्थिक हित और सुख सुविधाओं में व्यवधान आया है। ये सारे लोग सहाराश्री के पक्ष में कानून के राज के खिलाफ लामबंद हैं।

वैसा ही राजनीति में हो रहा है, हमारे देवमंडल के सारे देव देवी अवतार के हित खतरे में हैं। राजनीतिक अनिश्चयता के कारण तो उनका पक्षांतर उनके अस्तित्व के लिए जायज हैं।

वे आज तक जो कर रहे हैं, वहीं कर रहे हैं।

हमारे हिसाब से दुसाध जी, आगामी लोकसभा चुनावों में तो क्या मौजूदा राज्य तंत्र में किसी भी चुनाव में बहुजनों की कोई भूमिका नहीं हो सकती।

मसलन अखंड बंगाल, बंगाल और पूर्वी बंगाल के अलावा समूचे पूर्वोत्तर समेत असम, बिहार और झारखंड,ओडीशा का संयुक्त प्रांत था। जहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के सासन काल से ही लगातार साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोह और किसान आंदोलन होते रहे हैं।

आज आप जिस बहुजन समाज की बात करते हैं, वह उस बंगाल में बेहद ठोस आकार में था। आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुसलमान जल जंगल जमीन की लड़ाई में एकाकार थे और सत्ता वर्ग के खिलाफ लड़ रहे थे।

सन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह के समय से इस बहुजन समाज की मुख्य मांग भूमि सुधार की थी।

बाद में हरि गुरुचांद मतुआ आंदोलन से लेकर महाराष्ट्र के ज्योतिबा फूले और अय्यंकाली के आंदोलन का जो स्वरूप बना उसका मुख्य चरित्र इस बहुजन समाज का जगरण और सशक्तीकरण का था।

आजादी से पहले बंगाल में जो दलित मुस्लिम गठबंधन बना, वह दरअसल प्रजाजनों का जमींदारों के खिलाफ एका था और इसकी नींव मजबूत उत्पादन और श्रम सम्बंध थे न कि अस्मिता, पहचान और जाति संप्रदाय का चुनावी रसायन।

इसके विपरीत बंगाल में अब रज्जाक मोल्ला और नजरुल इस्लाम का जो दलित मुस्लिम गठबंधन आकार ले रहा है, वह मायावती की सोशल इंजीनियरिंग, लालू यादव और मुलायम के जाति अंकगणित की ही पुनरावृत्ति है जिसमें न अर्थ व्यवस्था की अभिव्यक्ति है और कहीं समाज है और न सत्तावर्ग के साम्राज्यवादी, सामंती, बाजारू नस्लवादी हितों के खिलाफ विद्रोह की जुर्रत और न राज्यतंत्र को बदलकर शोषणविहीन जातिविहीन वर्गविहीन समता सामाजिक न्याय आधारित समाज की स्थापना की कोई परिकल्पना है।

आपको याद दिला दें कि अंबेडकरी आंदोलन और अंबेडकर की प्रासंगिकताखासतौर पर उनके जाति उन्मूलन के एजेंडे पर अभिनव सिन्हा और उनकी टीम की पहल पर हस्तक्षेप के जरिये पहले भी एक लम्बी बहस हो चुकी है।

कायदे से यह उस बहस की दूसरी किश्त है। हम अभिनव के अनेक दलीलों के साथ असहम थे और हैं। लेकिन उन्होंने एक अनिवार्य पहल की है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं।

हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जाति उन्मूलन की है न कि बदलते हुए कॉरपोरेट राज्यतंत्र के जनादेश निर्माण की जनसंहारी प्रस्तुति। हम मौजदूा चुनावी कुरुक्षेत्र में धर्म निरपेक्ष और सांप्रदायिकता का पक्ष विपक्ष नहीं मानते। यह तो डुप्लीकेट का राजनीतिक वर्जन है।

पक्ष में जो है, वही तो विपक्ष में है।

धर्मनिरपेक्षता का चेहरा राम विलास पासवान है तो बहुजन अस्मिता उदित राज है।

दोनों पक्ष कॉरपोरेट हितों के माफिक हैं।

दोनो पक्ष सांप्रदायिक हैं।

घनघोर सांप्रदायिक।

दोनों पक्ष जनसंहारी हैं।

दोनों पक्ष अमेरिका परस्त हैं।

दोनो पक्ष धर्मोन्मादी हैं।

दोनों पक्ष उत्पादकों और श्रमिकों के खिलाफ हैं और बाजार के हक में हैं।

दोनों पक्ष परमाणु ऊर्जा के पैरोकार हैं।

दोनों पक्ष निजीकरण पीपीपी माडल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अबाध पूंजी प्रवाह विनिवेश निजीकरण बेदखली विस्थापन कॉरपोरेट विकास के पक्ष में हैं।

इसीलिए जनसंहारी अश्वमेध केघोड़ों की अंधी दौड़ 1991 के बाद से अब तक रुकी ही नहीं है और न किसी जनादेश से रुकने वाली है।

अल्पमत सरकारों और जाती हुई सरकारों की नीतियां रंगबिरंगी सरकारें और बदलती हुई संसद बार बार सर्वदलीय सहमति से लागू करती है।

इसलिए इस राजनीतिक कारोबार से हमारा क्या लेना देना है, इसको समझ लीजिये।

कोई भूख, बेरोजगारी, कुपोषण, स्त्री बाल अधिकारों, नागरिक व मानवाधिकारों, पर्यावरण, अशिक्षा जैसे मुद्दों पर, भूमि सुधार पर, जल जंगल जमीन के हक हकूक पर, कृषि संकट पर, उत्पादन प्रणाली पर, श्रमिकों की दशा पर, बंधुआ मजदूरी पर, नस्ली भोदभाव के तहत बहिष्कृत समुदायों और अस्पृश्य भूगोल के खिलाफ जारी निरंतर युद्ध और राष्ट्र के सैन्यीकरण कारपोरेटीकरण के खिलाफ चुनाव तो लड़ ही न रहा है।

हमारी बला से कोई जीते या कोई हारे।

इसी सिलसिले में आदरणीय राम पुनियानी का जाति उन्मूलन एजेंडे पर ताजा लेक हस्तक्षेप और अन्यत्र भी लग चुका है। जाति विमर्श पर समयांतर का पूरा एक अंक निकल चुका है। आनंद तेलतुंबड़े का आलेख वहां पहला लेख है।

जाति के विरुद्ध हर आदमी है। हर औरत है। फिर भी जाति का अन्त नहीं है। रक्तबीज की तरह जाति का अभिशाप भारतीय समाज, राष्ट्र, राजकाज समूची व्यवस्था, मनुष्यता और प्रकृति को संक्रमित है। तो हमें उन बुनियादी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होगा जिस वजह से जाति है।

इस बहस से मलाईदार तबके को सबसे ज्यादा खतरा है। वह यह बहस शुरु ही होने नहीं देता।

भारतीय बहुजन समाज औपनिवेशिक शासन के खिलाफ निरंतर क्लांतिहीन युद्ध में शामिल होता रहा है और उसने सत्ता वर्ग से समझौता कभी कभी नहीं किया है।इतिहास की वस्तुगत व्याख्या में इसके साक्ष्य सिलसिलेवार हैं।

लेकिन वही बहुजन समाज आज खंड विखंड क्यों है ?

क्यों जातियां और अस्मिताएं एक दूसरे कि खिलाफ लामबंद हैं ?

क्यों संवाद के सारे दरवाजे बंद हैं ?

क्यों किसी को कोई दस्तक सुनायी ही नहीं पड़ती ?

क्यों बहुजन समाज सत्ता वर्ग का अंग बना हुआ है ?

क्यों सत्ता जूठन की लड़ाई में कुकुरों की तरह लड़ रहे हैं ब्रांडेड बहुजन देव देवी, तमाम अस्मिताओं के क्षत्रप।

ये आत्मालोचना का संवेदनशील समय है।

यक्षप्रश्नों का संधिक्षण है।

हमें सोचना होगा कि अंबेडकर को ईश्वर बनाकर हम उनकी विचारधारा और आंदोलन को कहां छोड़ आये हैं।

हमें अंबेडकर की प्रासंगिकता पर भी निर्मम तरीके से संवाद करना होगा।

संविधान में वे कौन से तत्व हैं, जिनके अन्तर्विरोधों की वजह से सत्ता वर्ग को संविधान और कानून की हत्या की निरंकुश छूट मिल जाती है, इस पर भी वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचना होगा।

अगर वास्तव मे कोई शुद्ध अशुद्ध स्थल हैं ही नहीं, शुद्ध-अशुद्ध रक्त है ही नहीं, पवित्र अपवित्र चीजें हैं ही नहीं, तो हमें वक्त की नजाकत के मुताबिक अंबेडकर, उनके जाति उन्मूलन के एजेंडे और उनके मसविदे पर बने भारतीय संविधान पर भी आलोचनात्मक विवेचना करने से किसने रोका है।

अंध भक्ति आत्महत्या समान है।

अस्मिता और अस्मिता भाषा के ऊपर उठकर मनुष्यता और प्रकृति के पक्ष में खड़े हो जाये हम तभी जनपक्षधर हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।

हमने हस्तक्षेप पर ही निवेदन किया था कि आनंद तेलतुंबड़े जाति उन्मूलन पर अपना पक्ष बतायें। उन्होंने अंग्रेजी में निजीकरण उदारीकरण ग्लोबीकरण के राज में बेमतलब हो गये आरक्षण के खेल को खोलते हुए नोट भेजा है और साफ-साफ बताया है कि जाति व्यवस्था को बनाये रखकर जाति वर्चस्व को बनाये रखने में ही आरक्षण की राजनीति है, जबकि जमीन पर आरक्षण का कोई वजूद है ही नहीं।

गौर करें कि इससे पहले हमने लिखा हैः

नरेंद्र मोदी ने कहा है कि देश में कानून बहुत ज्यादा हैं और ऐसा लगता है कि सरकार व्यापारियों को चोर समझती है। उन्होंने हर हफ्ते एक कानून बदल देने का वायदा किया है। कानून बदलने को अब रह ही क्या गया है, यह समझने वाली बात है। मुक्त बाजार के हक में सन 1991 से अल्पमत सरकारे जनादेश की धज्जियां उड़ाते हुए लोकगणराज्य और संविधान की हत्या के मकसद से तमाम कानून बदल बिगाड़ चुके हैं। मोदी दरअसल जो कहना चाहते हैं, उसका तात्पर्य यही है कि हिंदू राष्ट्र के मुताबिक देश का संवैधानिक ढांचा ही तोड़ दिया जायेगा।

मसलन डा.अमर्त्य सेन के सुर से सुर मिलाकर तमाम बहुजन चिंतक बुद्धिजीवी की आस्था मुक्त बाजार और कॉरपोरेट राज में है। लेकिन ये तमाम लोग अपना अंतिम लक्ष्य सामाजिक न्याय बताते अघाते नहीं है। कॉरपोरेट राज के मौसम के मुताबिक ऐसे तमाम मुर्ग मुसल्लम सत्ता प्लेट में सज जाते हैं। जबकि बाबासाहेब अंबेडकर ने जो संवैधानिक प्रावधान किये, वे सारे के सारे मुक्त बाजार के खिलाफ हैं। वे संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की बात करते थे, जबकि मुक्त बाजार एकतरफा निजीकरण है। वे निःशुल्क शिक्षा के प्रावधान कर गये लेकिन उदारीकृत अमेरिकी मुक्त बाजार में देश अब नालेज इकोनामी है। संविधान की पांचवीं छठीं अनुसूचियों के तमाम प्रावधान जल जंगल जमीन के हक हूक के पक्ष में हैं, जो लागू ही नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया कि जमीन जिसकी संसाधन उसी का, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए अविराम बेदखली का सलवा जुड़ूम जारी है। स्वायत्तता भारतीय संविधान के संघीय ढांचे का बुनियादी सिद्धांत है, जबकि कश्मीर और समूचे पूर्वोत्तर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत बाबासाहेब के अवसान के बाद 1958 से लगातार भारतीय नागरिकों के खिलाफ आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की पवित्र अंध राष्ट्रवादी चुनौतियों के तहत युद्ध जारी है।

अंबेडकर अनुयायी सर्वदलीय सहमति से इस अंबेडकर हत्या में निरंतर शामिल रहे हैं। अब कौन दुकानदार कहां अपनी दुकान चलायेगा, इससे बहुजनों की किस्मत नहीं बदलने वाली है। लेकिन बहुजन ऐसे ही दुकानदार के मार्फत धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की पैदल सेनाएं हैं।

मोदी व्यापारियों के हक हकूक में कानून बदलने का वादा कर रहे हैं और उसी सांस में व्यापारियों को वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार कर रहे हैं। असली पेंच दरअसल यही है। कारोबार और उद्योग में अबाध एकाधिकारवादी कालाधन वर्चस्व और विदेशी आवारा पूंजी प्रवाह तैयार करने का यह चुनाव घोषणापत्र अदृश्य है।

हमारे युवा साथी अभिषेक श्रीवास्तव ने अमेरिकी सर्वेक्षणों और आंकड़ों की पोल खोल दी है। हम उसकी पुनरावृत्ति नहीं करना चाहते। लेकिन जैसा कि हम लगातार लिखते रहे हैं कि भारत अमेरिकी परमाणु संधि का कार्यान्वयन न कर पाने की वजह अमेरिका अपने पुरातन कॉरपोरेट कारिंदों की सेवा समाप्त करने पर तुला है। अमेरिका को शिकायत है कि इस संधि के मुताबिक तमाम आर्थिक क्षेत्रों में अमेरिकी बाजार अभी खुला नहीं है और न ही अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था संकट से उबर सकी है।

इसके अलावा खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर अमेरिकी जोर है, जिसका विरोध करने की वजह से कॉरपोरेट मीडिया आप के सफाये के चाकचौबंद इंतजाम में लगा है। खुदरा बाजार में एफडीआई को हरी झंडी का पक्का इंतजाम किये बिना मोदी को अमेरिकी समर्थन मिलना असंभव है। अब समझ लीजिये कि छोटी और मंझोली पूंजी, खुदरा कारोबार में शामिल तमाम वर्गों के लोगों का हाल वही होने वाला है जो देश के किसानों, मजदूरों और अस्पृश्य नस्लों और समुदायों का हुआ है, जो उत्पादन प्रणाली, उत्पादन सम्बंधों और श्रम सम्बंधों का हुआ है।

तमाम दलित व पिछड़े मसीहा, आत्मसम्मान के झंडेवरदार डूबते जहाज छोड़कर भागते चूहों की तरह केशरिया बनकर कहीं भी छलांग लगाने को तैयार हैं। कहा जा रहा है कि दस साल से जो काम कांग्रेस ने पूरा न किया, वह नमोमय भारत में जादू की छड़ी घुमाने से पूरा हो जायेगा। बंगाल के बारासात से विश्वविख्यात जादूगर जूनियर को टिकट दिया गया है और शायद उनका जादू अब बहुजनों के काम आये।

इसी बीच संजय पासवान के मार्फत भाजपा ने हिंदुत्व ध्रुवीकरण के मकसद से आर्थिक आरक्षण का शगूफा भी छोड़ दिया है लेकिन किसी प्रजाति के बहुजन की कोई आपत्ति इस सिलसिले में दर्ज हुई हो ऐसी हमें खबर है नहीं। आपको हो तो हमें दुरुस्त करें।

इसी बीच कोलकाता जनसत्ता के संपादक शंभूनाथ शुक्ल ने खुलासा किया हैः

एक वामपंथी संपादक ने मुझसे कहा कि गरीब तो ब्राह्मण ही होता है। हम सदियों से यही पढ़ते आए हैं कि एक गरीब ब्राह्मण था। हम गरीब तो हैं ही साथ में अब लतियाए भी जा रहे हैं। उन दिनों दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में लोग जातियों में बटे हुए थे बजाय यह सोचे कि ओबीसी को आरक्षण देने का मतलब अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण है न कि अन्य पिछड़ी जातियों को। मंडल आयोग ने अपनी अनुशंसा में लिखा था कि वे वर्ग और जातियां इस आरक्षण की हकदार हैं जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से अपेक्षाकृत पिछड़ गई हैं। मगर खुद पिछड़ी जातियों ने यह सच्चाई छिपा ली और इसे पिछड़ा बनाम अगड़ा बनाकर अपनी पुश्तैनी लड़ाई का हिसाब बराबर करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि इस मंडल आयोग ने तमाम ब्राह्मण और ठाकुर व बनिया कही जाने वाली जातियों को भी आरक्षण का फायदा दिया था। पर जरा सी नासमझी और मीडिया, कांग्रेस और भाजपा तथा वामपंथियों व खुद सत्तारूढ़ जनता दल के वीपी सिंह विरोधी और अति उत्साही नेताओं, मंत्रियों द्वारा भड़काए जाने के कारण उस राजीव गोस्वामी ने भी मंडल की सिफारिशें मान लिए जाने के विरोध में आत्मदाह करने का प्रयास किया जो ब्राह्मणों की आरक्षित जाति में से था। और बाद में उसे इसका लाभ भी मिला।

 यह खुलासा बेहद मह्त्वपूर्ण है।

अब हमें 1991 में मनमोहन अवतार से पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर सरकारों के दौरान हुई राजनीति का सिलसिलेवार विश्लेषण करना होगा कि कैसे वीपी सिंह मंडल ब्रहास्त्र का इस्तेमाल करते हुए अपने राजनीति खेल को नियंत्रित नहीं रख सकें।

हमने 1990 के मध्यावधि चुनावों के दौरान बरेली में दो बार वीपी से लंबी बातचीत की जो तब दैनिक अमरउजाला में छपा भी। लेकिन वीपी इसे मिशन ही बताते रहे। जबकि आनंद तेलतुंबड़े ने जाति अस्मिता को राजनीतिक औजार बनाने का टर्रनिंग प्वायंट मानते हैं इसे। तबसे आत्मघाती अस्मिता राजनीति बेलगाम है और तभी से मुक्त बाजार का शुभारंभ हो गया। जब लंदन में वीपी अपना इलाज करा रहे थे, तब भी मंडल प्रसंग में आनंद तेलतुंबड़े की उनसे खुली बात हुई थी। बेहतर हो कि आनंद यह किस्सा खुद खोलें।

हम इस मुद्दे पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

फिलहाल यह समझ लें कि संघपरिवार ने सवर्णों के पिछड़े समुदायों को आरक्षण भी मंजूर नहीं किया और पूरे देश को खूनी युद्धस्थल में बदलने के लिए कमंडल शुरु किया।

आनंद से आज हमारी इस सिलसिले में विस्तार से बात हुई तो उन्होंने बताया कि अनुसूचित जातियों के अलावा जाति आधारित आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। ओबीसी का मतलब अन्य पिछड़ी जातिया नहीं, अदर बैकवर्ड कम्युनिटीज है, यानी अन्य पिछड़ा वर्ग।

पिछड़े वर्गों के हितों के विरुद्ध इतनी भयानक राजनीतिक खेल करने वाला संघ परिवार बहुजनों और देस के बहुसंख्य जनगण के हितों के मुताबिक अब क्या क्या करता है, देखना बाकी है।

मुक्त बाजार को स्वर्ण काल मानने और ग्लोबकरण को मुक्ति की राह बताने वालों के विपरीत आनंद तेलतुंबड़े का कहना है कि बाजार में खरीददारी की शक्ति के बजाय गर्भावस्था से ही बहुजनों के बच्चों की निःशुल्क क्वालिटी शिक्षा का इंतजाम हो जाये तो बहुजनों के उत्थान के लिए और कुछ नहीं चाहिए।

हमारे डायवर्सिटी मित्र तमाम समस्याओं के समाधान के लिए संसाधनों और अवसरों का अंबेडकरी सिद्धांत के मुताबिक न्यायपूर्ण बंटवारे को अनिवार्य मानते हैं। हम उनसे सहमत है। संजोग से दुसाध एकमात्र बहुजन बुद्धिजीवी है जिन्होंने आर्थिक आरक्षण के संघी एजेंडे को दुर्भाग्यपूर्ण माना है।

हम लेकिन कॉरपोरेट राज और मुक्त बाजार दोनों के खिलाफ जाति उन्मूलन के एजेंडे के प्रस्थान बिंदु मान रहे हैं।

अनेक साथी बिना मतामत दिये फेसबुक और नाना माध्यम से इस बहस को बेमतलब बताते हुए गाली गलौज पर उतारू हैं। हम उनके आभारी हैं और मानते हैं कि गाली गलौज उनकी अभिव्यक्ति का कारगर माध्यम हो सकता है।

हमें तो उन लोगों पर तरस आता है जो सन्नाटा बुनते रहने के विशेषज्ञ है।

कवि मदन कश्यप के शब्दों में यह दूर तक चुप्पी सबसे ज्यादा खतरनाक है। ख्वाबों की मौत से भी ज्यादा खतरनाक।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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