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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, March 28, 2014

अम्बेडकर को हेडगेवार से मिलाने का ब्राह्मणवादी षडयंत्र

अम्बेडकर को हेडगेवार से मिलाने का ब्राह्मणवादी षडयंत्र


HASTAKSHEP

दलित चिन्तन नमो का

भँवर मेघवंशी

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर दलितों का नेतृत्व बेहद आकर्षित नजर आ रहा है, ऐसा उनकी भीड़ खींचने की क्षमता की वजह से हो रहा है अथवा उनके दलित हितैषी होने की वजह से? यह अभी विचारणीय प्रश्न बना हुआ है, पर इतना तो तय है कि उनकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विगत कुछ वर्षों में अन्दर ही अन्दर काफी काम किया है, जिसका लक्ष्य था कि दलित कैसे आर.एस.एस. के साथ आयें? संघी दलितों की तो वैसे भी कमी नहीं थीजिन बेचारों ने अपनी आँखें शाखाओं मे ही खोलींवे तो ताउम्र खाकी निकर उतार ही नहीं पायेंगे। उनके लिये तो अम्बेडकर भी सदैव ही पराये रहेंगे, वे हेडगेवार, गुरूजी गोलवलकर, बाला साहब देवरस, रज्जू भैया, कु.सी. सुदर्षन के रास्ते मोहन भागवत के चरणों में ही रह कर जीवन यापन करते रहेंगे, ऐसे सभ्य, सुसंस्कृत राष्ट्रभक्त, सकारात्मक संघी दलितों की तो हम बात ही नहीं कर रहे हैं। ऐसे आज्ञाकारी, स्वामीभक्त और गुलामी को गले का हार मान बैठे दलित लोग तो देश में बड़ी संख्या में मौजूद हैं तथा यदा-कदा सामाजिक समरसता से सरोबार होकर वे अम्बेडकर चेतना को पलट देने का प्रयास भी करते हैं लेकिन ज्यादा सफल नहीं हो पाते हैं, मगर हम बात दलितों के उन कथित रहबरों की कर रहे हैं, जिन्हें अचानक नरेन्द्र मोदी में एक 'मुक्तिदाता' और दलित पिछड़ों का 'महानायक' नजर आने लगा है। संघ की योजना के तहत एक राष्ट्रवादी अम्बेडकरवादी महासभा भी बनाई गयी है जो डॉ.अम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम, के आर नारायण तथा कांशीराम के फोटो लगाकर हिन्दुत्ववाद की चाशनी में अम्बेडकरवाद को परोसने में लगी हुयी है, ऐसी महासभाएं यही करती हैं, वे अम्बेडकर को हेडगेवार से मिलाने लगती हैं, यह दलित चेतना को समाप्त करने का एक दूरगामी ब्राह्मणवादी षडयंत्र है, जिसके प्रचारक खुद ही दलित बने बैठे हैं। ये वो लकड़िया है जो कुल्हाडी के साथ मिलकर अपने ही हमजात पेड़ो का नाष करने पर लग जाती है। खैर, तो ज्यादातर दलित नेता नरेन्द्र मोदी से बेहद प्रभावित नजर आ रहे है, विषेषतः 60 की उम्र के आस पास वाले दलित नेता, जो थक हार गये है तथा अब लगभग हताश व निराश है अथवा वे युवा दलित जो 25 वर्ष से नीचे की उम्र के है जिन्हें मोदी में अपना मुक्ति दाता नजर आ रहा है। ऐसा माहौल है कि जैसे मोदी हर मर्ज की दवा है, दलितों के साथ सदियों से हो रहा अन्याय अत्याचार और भेदभाव जैसी समस्याऐं मोदी राज में एक ही झटके में खत्म हो जायेगी, सब कुछ इतना अच्छा होगा कि फिर दलित तो दलित भी नहीं रहेंगे, वे भी विश्व गुरू के पद पर आसीन हो जायेंगे।

      लेकिन यह जरूरी नहीं समझा जा रहा है कि इस पर विचार किया जाये कि आखिर नरेन्द्र मोदी का दलित चिन्तन क्या है? उनके दलित सरोकार क्या है? वे क्या सोचते है इस वर्ग के प्रति? षेष राजनीतिक दलों व नेताओं के दलितों के प्रति विचारों तथा उनके विचारों में क्या भिन्नता है? मोदी जी के दलितों के मध्य दिये गये प्रवचनों और किये गये कार्यों पर किशोर मकवाना द्वारा संपादित ' सामाजिक समरसता' नामक पुस्तक इन दिनों हर जगह उपलब्ध है, जिसमें नरेन्द्र मोदी को दलित हितैषी साबित करने की भरपूर कोशिशें हुयी हैं, इससे पूर्व उनकी एक पुस्तक 'कर्मयोग' आई थी, जिसमें 'पाखानासाफ करने के काम को आध्यात्मिक कार्यमोदी जी बता ही चुके हैं। नवम्बर 2007 में वाल्मिकी समाज के बारे में बोलते हुये मोदी ने कहा है कि- ''मैं नहीं मानता कि वे (वाल्मीकि) इस काम (सफाई) को महज जीवन यापन के लिये कर रहे हैं।

सुरेन्द्र नगर जिले के थानगढ़ में न्याय की माँग के लिये शान्ति पूर्ण प्रदर्शन करते दलितों पर की गयी गुजरात पुलिस की बर्बर गोलीबारी में तीन दलित युवाओं की मौत की खबर को मीडिया ने तवज्जों ही नहीं दी, अहमदाबाद से मात्र सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित धांडुका तहसील के गलसाना गांव के 500 दलितों ने लम्बा सामाजिक बहिष्कार सहा है तथा उन्हें मंदिर प्रवेश से भी प्रतिबंधित रखा गया। सांबरकाठा के दिशा गाँव के दलितों ने 54 माह तक न्याय के लिये धरना दिया है।

प्रसिद्ध चिन्तक सुभाष गाताडे़ का तो यहाँ तक कहना है कि गुजरात के हजारों दलित छात्र छात्राओं को छात्रवृति तक नहीं मिल पाती है, उनकी छात्रवृति के लिये आंवटित बजट का एक अच्छा खासा हिस्सा अन्य कामों में लगा दिया जाता है। यह जानकारी 'नवसर्जन ट्रस्ट, द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तह्त मिली सूचनाओं से प्राप्त हुयी है, अकेले अहमदाबाद जिले में 3123 दलित छात्रों को छात्रवृति नहीं मिली है, 1613 छात्रों के आवेदन अब तक लम्बित है तथा कोष में कमी के नाम पर 1512 छात्रों को छात्रवृति देने से इंकार ही कर दिया गया है, जबकि तकरीबन तीन करोड़ रूपया जो छात्रवृति हेतु आवंटित था, वह अन्य कामों में लगा दिया गया है। नवसर्जन द्वारा 1600 गाँवों में छुआछूत के अध्ययन के लिये की गयी 'अण्डरस्टेंडिंग अनटचैबिलिटी' रिपोर्ट पर नज़र डालें तो पता चलता है कि गुजरात के गाँवों में से 98 प्रतिशत गाँवों में आज भी अस्पृश्यता देखने को मिलती है।( शुक्रवार, 21-27 मार्च 2014, पृष्ठ – 26)

      गुजरात में दलितों से भेदभाव का आलम यह है कि उन्हे मरने बाद भी अलग जलाया जाता है, प्रदेश में दलितों को जीते जी तो छुआछूत का सामना करना ही पड़ता है। मरने के बाद भी सरकार उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करती है, गुजरात में सरकारी पैसे से काफी जगहों पर गाँवों में दलितों के लिये अलग श्मशान बनाये गये हैं। (हितेश चावड़ा, दलित दस्तक,मार्च 2014 पृष्ठ -11) इतना ही नहीं बल्कि गुजरात अनाथालयों में आने वाले बच्चों के नामकरण की भी अजीब सरकारी व्यवस्था चल रही है अगर बच्चा दिखने में 'आकर्षक' होता है तथा पूछे गये सवाल का सही जवाब देता है तो उसका नामकरण 'सवर्ण' सूचक उपनाम से होता है जबकि बच्चा जवाब नहीं दे पाता है तो 'दलित पहचान' वाले उपनाम के साथ नामकरण होता है। (लक्ष्मी पटेल, भास्कर -अहमदाबाद , 21 मार्च 2014 ) गुजरात में नहर का पानी नहीं मिलने से परेशान दलितों ने अपनी आवाजें बुलन्द की है। नरेन्द्र मोदी की सामाजिक समरसता के तमाम दावों को ध्वस्त करते हुये विगत वर्षों मे तकरीन 5 हजार गुजराती दलितों ने सामूहिक धर्मान्तरण करके गुजरात में उनके साथ हो रहे भेदभाव को कड़ी चुनौती दी है।

दरअसल संघ हो अथवा नरेन्द्र मोदी उनका दलित चिन्तन जाति को 'वैशिष्ट्य' मानने से प्रारम्भ होता है और उसी पर समाप्त हो जाता है, संघ ने जाति का कभी विरोध नहीं किया मगर जातिगत आरक्षण का सदा ही विरोध किया है, उसे तो अनुसूचित जातियों को दलित कहे जाने से भी आपत्ति है वह उन्हें 'दलित' नहीं 'वंचित' कहना पसंद करते हैं, क्योंकि दलित प्रतिरोध और चेतना का शब्द है जो कि इस दलन के लिये गैर दलितों को जिम्मेदार ठहरा कर व्यवस्था को बदलने की मांग करता है, जबकि 'वंचित' सिर्फ 'वंचना' के पश्चात 'याचना' करने के लिये प्रेरित करता हुआ शब्द है, आज भले ही दलितों के सत्तापिपासु नेता नरेन्द्र मोदी के चरणों में लौट रहे हो मगर यह तय करना है कि इस देश के दलित अम्बेडकर के प्रतिरोधी दलित होना पसंद करते हैं या कि नरेन्द्र मोदी के याचक वंचित, जिस दलित समाज ने गांधी के हरिजन होने को ठोकर मारी है, वह एक बार फिर मोदी का वंचित बनने को तैयार होता है तो इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ भी नहीं हो सकता है। अभी तो सिर्फ इतना सा तय है कि नरेन्द्र मोदी और उनकी विचारधारा कभी भी न तो दलितों की हितैषी रही है और न ही रहने वाली है। ।

 

About The Author

भँवर मेघवंशी, लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नों पर राजस्थान में सक्रिय हैं तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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