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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, June 5, 2014

कार्ल मार्क्‍स और ग़ालिब की ख़त-ओ-किताबत

कार्ल मार्क्‍स और ग़ालिब की ख़त-ओ-किताबत

क्‍या ग़ालिब और कार्ल मार्क्‍स एक-दूसरे को जानते थे। अब तक तो सुनने में नहीं आया था। लेकिन सच यह है कि दोनों एक-दूसरे को जानते ही नहीं थेबल्कि उनके बीच ख़त-ओ-किताबत भी हुई थी। इन बहुमूल्य चिट्ठियों को खोज निकालने का श्रेय आबिदा रिप्ले को जाता है। आबिदा वॉयस ऑफ अमेरिका में कार्यरत हैं। ये चिट्ठियां ई-मेल से भेजी हैं लखनऊ से हमारे साथी उत्‍कर्ष सिन्‍हा ने... सबसे पहले उन्‍हें क्रांति और अदब के इस दुर्लभ संवाद को लोगों तक हिंदी में पहुंचाने के लिए धन्‍यवाद। इन चिट्ठियों की खोज की कहानी आप आबिदा के शब्दों में ही पढ़ लीजिए। उसके बाद चिट्ठियों की बारी। 


आज से ठीक पंद्रह वर्ष पहले मैं लंदन स्थित इंडिया ऑफिस के लाइब्रेरी गई थी। किताबों की आलमारियों के बीच मुग़ल काल की एक फटी-पुरानी किताब दिख गई। जिज्ञासावश उसे खोला, तो उसके अंदर से एक पुराना पत्ता नीचे फ़र्श पर जा गिरा। पत्ते को उठाते ही चौंक पड़ी। लिखने की शैली जानी-पहचानी लग रही थी, लेकिन शक़ अब भी था। पत्ते के अंत में ग़ालिब के दस्‍तख़त और मुहर ने मेरे संदेह को यक़ीन में बदल दिया। घर लौटकर खलिक अंजुम की किताबों में चिट्ठियों के बारे में खोजा, लेकिन जो ख़त मेरे हाथ में था, उसका जिक्र कहीं नहीं मिला। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि इस पत्र में जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्‍स को संबोधित किया गया था। विडंबना यह है कि आज तक किसी इतिहासकार की नज़र इस ख़त पर नहीं गई। पंद्रह साल के बाद आज मेरे हाथ मार्क्‍स का ग़ालिब के नाम लिखा गया पत्र भी लग गया है। उर्दू एवं फारसी भाषा के महान शायर ग़ालिब और महान साम्यवादी विचारक मार्क्‍स... एक-दूसरे से परिचित थे।

- आबिदा रिप्‍ले

कुछ भी मौलिक लिखें, जिसका संदेश स्पष्ट हो - क्रांति

प्रिय ग़ालिब,

दो दिन पहले दोस्त एंजल का ख़त मिला। पत्र के अंत में दो लाइनों का खूबसूरत शेर था। काफी मशक्कत करने पर पता चला कि वह कोई मिर्जा़ ग़ालिब नाम से हिन्दुस्तानी शायर की रचना है। भाई, अद्धुत लिखते हैं! मैंने कभी नहीं सोचा था कि भारत जैसे देश में लोगों के अंदर आज़ादी की क्रांतिकारी भावना इतनी जल्दी आ जाएगी। लॉर्ड की व्यक्तिगत लाइब्रेरी से कल आपकी कुछ अन्य रचनाओं को पढ़ा। कुछ लाइनें दिल को छू गईं।

'हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा हैं'

कविता के अगले संस्करण में इंकलाबी कार्यकर्ताओं को संबोधित करें। जमींदारों, प्रशासकों और धार्मिक गुरुओं को चेतावनी दें कि गरीबों, मजदूरों का खून पीना बंद कर दें। दुनिया भर के मजदूरों मुताहिद हो जाओ।

हिन्दुस्तानी शेरो-शायरी की शैली से मैं वाकिफ़ नहीं हूं। आप शायर हो,शब्दों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। कुछ भी मौलिक लिखें,जिसका संदेश स्पष्ट हो- क्रांति। इसके अलावा, यह भी सलाह दूंगा कि ग़ज़ल, शेरो-शायरी लिखना छोड़ कर मुक्त कविताओं को आज़माएं। आप ज्यादा लिख पाएंगे और इससे लोगों को अधिक सोचने को मिलेगा।

इस पत्र के साथ कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का हिन्दुस्तानी संस्करण भेज रहा हूं। पहला संस्करण भेज रहा हूं। दुर्भाग्यवश पहले संस्करण का अनुवाद उपलब्ध नहीं है। अगर यह पसंद आई तो आगे और साहित्य भेजूंगा। वर्तमान समय में भारत अंग्रेजी साम्राज्यवाद के मांद में परिवर्तित कर दिया गया है और केवल शोषितों, मजदूरों के सामूहिक प्रयास से ही जनता को ब्रिटिश अपराधियों के शिकंजे से आज़ाद किया जा सकता है। आपको पश्चिमी आधुनिक दर्शन के साथ-साथ एशियाई विद्वानों के विचारों का अध्ययन भी करना चाहिए। मुग़ल राजाओं और नवाबों पर झूठी शायरी करना छोड़ दें। क्रांति निश्चित है। दुनिया की कोई ताकत इसे रोक नहीं सकती। मैं हिन्दुस्तान को क्रांति के निरंतर पथ पर चलने के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

आपका,

कार्ल मार्क्‍स

तुम किस इनकलाब के बारे में बात कर रहे हो

मेरे अनजान दोस्त काल मार्क्‍स,

कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के साथ तुम्हारा ख़त मिला। अब तुम्हारे पत्र का क्या जवाब दूं। दो बातें हैं...पहली बात कि तुम क्या लिखते हो, यह मुझे पता नहीं चल पा रहा है। दूसरी बात यह कि लिखने और बोलने के हिसाब से मैं काफी बूढ़ा हो गया हूं। आज एक दोस्त को लिख रहा था, तो सोचा क्यों न तुम्हें भी लिख दूं।

फ़रहाद (संदर्भ में ग़ालिब की एक शायरी) के बारे में तुम्हारे विचार गलत हैं। फ़रहाद कोई मजदूर नहीं है, जैसा तुम सोच रहे हो बल्कि वह एक प्रेमी है। लेकिन प्यार के बारे में उसके सोच मुझे प्रभावित नहीं कर पाए। फरहाद प्यार में पागल था और हर वक्त अपने प्यार के लिए आत्महत्या की बात सोचता है।

और तुम किस इनकलाब के बारे में बात कर रहे हो। इनकलाब तो दस साल पहले 1857 में ही बीत गया। आज मेरे मुल्क की सड़कों पर अंग्रेज सीना चौड़ा कर घूम रहे हैं। लोग उनकी स्तुति करते हैं... डरते हैं। मुग़लों की शाही रहन-सहन अतीत की बात हो गई है। उस्ताद-शागिर्द परंपरा भी धीरे-धीरे अपना आकर्षण खो रही है। यदि तुम विश्वास नहीं करते, तो कभी दिल्ली आओ। और यह सिर्फ दिल्ली की बात नहीं है। लखनऊ भी अपनी तहजीब खो चुकी है... पता नहीं वो लोग और अनुशासन कहां ग़ुम हो गया। तुम किस क्रांति की भविष्यवाणी कर रहे हो। अपने ख़त में तुमने मुझे शेरो-शायरी और ग़ज़ल की शैली बदलने की सलाह दी है। शायद तुम्हें पता न हो कि शेरो-शायरी या ग़ज़ल लिखे नहीं जाते हैं। ये आपके ज़हन में कभी भी आ जाते हैं। और मेरा मामला थोड़ा अलग है। जब विचारों का प्रवाह होता है, तो वे किसी भी रूप में आ सकते हैं। वो चाहे फिर ग़ज़ल हो या शायरी। मुझे लगता है कि ग़ालिब का अंदाज़ सबसे जुदा है। इसी कारण मुझे नवाबों का संरक्षण मिला। और अब तुम कहते हो कि मैं उन्हीं के खिलाफ कलम चलाऊं। अगर मैंने उनकी शान में कुछ पंक्तियां लिख भी दीं, तो इसमें गलत क्या है।

दर्शन क्या है और जीवन में इसका क्या संबंध है, यह मुझसे बेहतर शायद ही कोई और समझता हो। भाई, तुम किस आधुनिक सोच की बात कर रहे हो। अगर तुम सचमुच दर्शन जानना चाहते हो, तो वेदांत और वहदुत-उल-वजूद पढ़ो। क्रांति की रट लगाना बंद कर दो।

तुम लंदन में रहते हो... मेरा एक काम कर दो। वायसराय को मेरी पेंशन के लिए सिफारिश पत्र डाल दो...।

बहुत थक गया हूं। बस यहीं तक।

तुम्हारा,

ग़ालिब

नोट अविनाश ने बताया कि ये पत्र पहले भी आ चुके हैं। मैं इनका लिंक डाल देता हूं जहां पिछले साल ये पहली बार छपे थे

http://kissago.blogspot.com/2008/08/blog-post.html

इसे भी देखें

http://www.merinews.com/catFull.jsp?articleID=137382


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