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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, June 18, 2014

बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़ने वाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती। जो पहले से आत्मसमर्पण कर चुके हों, उनके खिलाफ किसी युद्ध की जरूरत होती नहीं

बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़ने वाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती।

जो पहले से आत्मसमर्पण कर चुके हों, उनके खिलाफ किसी युद्ध की जरूरत होती नहीं


ये किसका लहू है कौन मरा!

पहाड़ों का रक्तहीन कायकल्प ही असली जलप्रलय चूंकि प्रकृति में दुर्घटना नाम की कोई चीज नहीं होती।

गनीमत है कि दार्जिलिंग से लेकर हिमाचल तक समूचे मध्य हिमालय में कोई अशांति है नहीं और न कोई माओवादी उग्रवादी या राष्ट्रविरोधी है। बिना दांत के दिखावे का पर्यावरण आंदोलन जरूर है और है अलग राज्य आंदोलन। हिमाचल और उत्तराखंड अलग राज्य बन गये हैं। सिक्किम का भारत में विलय हो गया है। हो सकता है कि कल सिक्किम के रास्ते भूटान और नेपाल भी भारत में शामिल हो जाये तो हिंदुत्व की देवभूमि का मुकम्मल भूगोल तैयार हो जायेगा। बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़ने वाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती।

पलाश विश्वास

फैज और साहिर ने देश की धड़कनों को जैसे अपनी शायरी में दर्ज करायी है, हमारी औकात नहीं है कि वैसा कुछ भी हम कर सकें। जाहिर है कि हम मुद्दे को छूने से पहले हालात बयां करने के लिए उन्हीं के शरण में जाना होता है।

इस लोक गणराज्य में कानून के राज का हाल ऐसा है कि कातिलों की शिनाख्त कभी होती नहीं और बेगुनाह सजायाफ्ता जिंदगी जीते हैं। चश्मदीद गवाहों के बयानात कभी दर्ज होते नहीं हैं। चाहे राजनीतिक हिंसा का मामला हो या चाहे आपराधिक वारदातें या फिर केदार जलसुनामी से मरने वाले लोगों का किस्सा, कभी पता नहीं चलता कि किसका खून है कहां-कहां, कौन मरा है कहां। गुमशुदा जिंदगी का कोई इंतकाल कहीं नुमाइश पर नहीं होता।

तवारीख लिखी जाती है हुक्मरान की, जनता का हाल कभी बयां नहीं होता।

 प्रभाकर क्षोत्रियजी जब वागार्थ के संपादक थे, तब पर्यावरण पर जया मित्र का एक आलेख का अनुवाद करना पड़ा था मुझे जयादि के सामने। जयादि सत्तर के दशक में बेहद सक्रिय थीं और तब वे जेल के सलाखों के दरम्यान कैद और यातना का जीवन यापन करती रही हैं। इधर पर्यावरण कार्यकर्ता बतौर काफी सक्रिय हैं।

उनका ताजा आलेख आज आनंद बाजार के संपादकीय में है। जिसमें उन्होंने साफ-साफ लिखा है कि प्रकृति में कोई दुर्घटना नाम की चीज नहीं होती। सच लिखा है उन्होंने, विज्ञान भी कार्य कारण के सिद्धांत पर चलता है।

जयादि ने 10 जून की रात से 16 जून तक गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में आये जलसुनामी की बरसी पर यह आलेख लिखा है। जिसमें डीएसबी में हमारे गुरुजी हिमालय विशेषज्ञ भूवैज्ञानिक खड़ग सिंह वाल्दिया की चेतावनी पंक्ति दर पंक्ति गूंज रही है। प्रख्यात भूगर्भ शास्त्री प्रो. खड़क सिंह वाल्दिया का कहना है कि प्रकृति दैवीय आपदा से पहले संकेत देती है, लेकिन देश में संकेतों को तवज्जो नहीं दी जाती है। उन्होंने कहा कि ग्वोबल वार्मिग के कारण खंड बरसात हो रही है। प्रो. वाल्दिया ने कहा है कि 250 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय की उत्पत्ति प्रारंभ हुई। एशिया महाखंड के भारतीय प्रायदीप से कटकर वलित पर्वतों की श्रेणी बनी।

जयादि ने लिखा है कि अलकनंदा, मंदाकिनी भागीरथी के प्रवाह में उस हादसे में कितने लोग मारे गये, कितने हमेशा के लिए गुमशुदा हो गये, हम कभी जान ही नहीं सकते। उनके मुताबिक करोड़ों सालों से निर्मित प्राकृतिक संस्थागत व्यवस्था ही तहस-नहस हो गयी उस हादसे से।

जयादि जिसे प्राकृतिक संस्थागत व्यवस्था बते रहे हैं, धार्मिक और आस्थावान लोग उसे ईश्वरीय सत्ता मानते हैं।

 बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़ने वाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती।

बुनियादी सवाल यही है कि इस बेरहम कत्ल के खिलाफ चश्मदीद गवाही दर्ज क्यों नहीं होती।

पर्यावरण संरक्षण आंदोलन बेहद शाकाहारी है।

जुलूस धरना नारे भाषण और लेखन से इतर कुछ हुआ नहीं है पर्यावरण के नाम अब तक। वह भी सुभीधे के हिसाब से या प्रोजेक्ट और फंडिंग के हिसाब से चुनिंदा मामलों में विरोध और बाकी अहम मामलों में सन्नाटा। जैसे केदार क्षेत्र पर फोकस है तो बाकी हिमालय पर रोशनी का कोई तार कहीं भी नहीं। जैसे नर्मदा और कुड़नकुलम को लेकर हंगामा बरपा है लेकिन समूचे दंडकारण्य को डूब में तब्दील करने वाले पोलावरम बांध पर सिरे से खामोशी। पहाड़ों में चिपको आंदोलन अब शायद लापता गांवों, लोगों और घाटियों की तरह ही गुमशुदा है। लेकिन दशकों तक यह आंदोलन चला है और आंदोलन भले लापता है, आंदोलनकारी बाकायदा सक्रिय हैं।

वनों की अंधाधुंध कटाई लेकिन दशकों के आंदोलन के मध्य अबाध जारी रही, जैसे अबाध पूंजी प्रवाह। अंधाधुध निर्माण को रोकने के लिए कोई जनप्रतिरोध पूरे हिमालय क्षेत्र में कहीं हुआ है, यह हमारी जानकारी में नहीं है।

परियोजनाओं और विकास के नाम पर जो होता है, उसे तो पहाड़ का कायकल्प मान लिया जाता है और अक्सरहां कातिल विकास पुरुष या विकास माता के नाम से देव देवी बना दिये जाते हैं।

कंधमाल में आदिवासी जो विकास का विरोध कर रहे हैं तो कॉरपोरेट परियोजना को खारिज करके ही। इसी तरह ओड़ीसा के दूसरे हिस्सों में कॉरपोरेट परियोजनाओं का निरंतर विरोध हो रहा है।

विरोध करने वाले आदिवासी हैं, जिन्हें हम राष्ट्रद्रोही और माओवादी तमगा देना भूलते नहीं है। उनके समर्थक और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग भी राष्ट्रद्रोही और माओवादी मान लिये जाते हैं। जाहिर सी बात है कि हिमालय में इस राष्ट्रद्रोह और माओवाद का जोखिम कोई उठाना नहीं चाहता।

पूर्वोत्तर में कॉरपोरेट राज पर अंकुश है तो कश्मीर में धारा 370 के तहत भूमि और संपत्ति का हस्तांतरण निषिद्ध। दोनों क्षेत्रों में लेकिन दमनकारी सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून है।

मध्यभारत में निजी कंपनियों के मुनाफे के लिए भारत की सुरक्षा एजेंसियां और उनके जवान अफसरान चप्पे-चप्पे पर तैनात है। तो कॉरपोरेट हित में समस्त आदिवासी इलाकों में पांचवी़ और छठीं अनुसूचियों के उल्ल्ंघन के लिए सलवाजुड़ुम जारी है।

गनीमत है कि दार्जिलिंग से लेकर हिमाचल तक समूचे मध्य हिमालय में कोई अशांति है नहीं और न कोई माओवादी उग्रवादी या राष्ट्रविरोधी है। बिना दांत के दिखावे का पर्यावरण आंदोलन जरूर है और है अलग राज्य आंदोलन।

हिमाचल और उत्तराखंड अलग राज्य बन गये हैं। सिक्किम का भारत में विलय हो गया है।हो सकता है कि कल सिक्किम के रास्ते भूटान और नेपाल भी भारत में शामिल हो जाये तो हिंदुत्व की देवभूमि का मुकम्मल भूगोल तैयार हो जायेगा।

बाकी हिमालय में धर्म का उतना बोलबाला नहीं है, जितना हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल और सिक्किम भूटान में। नेपाल, हिमाचल और उत्तराखंड में हिंदुत्व है तो भूटान और सिक्किम बौद्धमय हैं।

जाहिर है कि आस्थावान और धार्मिक लोगों की सबसे ज्यादा बसावट इसी मध्य हिमालय में है, जिसमें आप चाहें तो तिब्बत को भी जोड़ लें। वहाँ तो बाकी हिमालय के मुकाबले राष्ट्र सबसे प्रलयंकर है जो कैलाश मानसरोवर तक हाईवे बनाने में लगा है और ग्लेशियरों को बमों से उड़ा भी रहा है। ब्रह्मपुत्र के जलस्रोत बांधकर समूचे दक्षिण एशिया को मरुस्थल बनाने का उपक्रम वहीं है।

अपने हिमाचल और उत्तराखंड में राष्ट्र का वह उत्पीड़क दमनकारी चेहरा अभी दिखा नहीं है। जो पहले से आत्मसमर्पण कर चुके हों, उनके खिलाफ किसी युद्ध की जरूरत होती नहीं है। फिर राष्ट्र के सशस्त्र सैन्य बलों में गोरखा, कुंमायूनी और गढ़वाली कम नहीं हैं।

सैन्यबलों का कोई आतंकवादी चेहरा मध्यहिमालय ने उस तरह नहीं देखा है जैसे कश्मीर और तिब्बत में। नेपाल में एक परिवर्तन हुआ भी तो उसका गर्भपात हो चुका है और वहाँ सब कुछ अब नई दि्ल्ली से ही तय होता है।

जाहिर है कि मध्यहिमालय में अबाध पूंजी प्रवाह है तो निरंकुश निर्विरोध कॉरपोरेट राज भी है। जैसा कि हम छत्तीसगढ़ और झारखंड में देख चुके हैं कि दिकुओं के खिलाफ आदिवासी अस्मिता के नाम पर बने दोनों आदिवासी राज्यों में देश भर में आदिवासियों का सबसे ज्यादा उत्पीड़न है और इन्हीं दो आदिवासी राज्यों में चप्पे-चप्पे पर कॉरपोरेट राज है।

स्वयत्तता और जनांदोलनों के कॉरपोरेट इस्तेमाल का सबसे संगीन नजारा वहाँ है जहाँ आदिवासी अब ज्यादा हाशिये पर ही नहीं है, बल्कि उनका वजूद भी खतरे में है।

देवभूमि महिमामंडित हिमाचल और उत्तराखंड में भी वहीं हुआ है और हो रहा है। हूबहू वही। पहाड़ी राज्यों में पहाड़ियों को जीवन के हर क्षेत्र से मलाईदारों को उनका हिस्सा देकर बेदखल किया जा रहा है और यही रक्तहीन क्रांति केदार सुनामी में तब्दील है।

गोऱखालैंड अलग राज्य भी अब बनने वाला है जो कि मध्य हिमालय में सबसे खस्ताहाल इलाका है, जहाँ पर्यावरण आंदोलन की दस्तक अभी तक सुनी नहीं गयी है। गोरखा अस्मिता के अलावा कोई मुद्दा नहीं है। विकास और अर्थव्यवस्था भी नहीं। जबकि सिक्किम में विकास के अलावा कोई मुद्दा है ही नहीं और वहाँ विकास के बोधिसत्व है पवन चामलिंग।

मौसम की भविष्यवाणी को रद्दी की टोकरी में फेंकने वाली सरकार को फांसी पर लटका दिया जाये तो भी सजा कम होगी। हादसे में मारे गये लोगों, स्थानीय जनता, लापता लोगों, गांवों, घाटियों की सुधि लिये बिना जैसे धर्म पर्यटन और पर्यटन को मनुष्य और प्रकृति के मुकाबले सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी, जिम्मेदार लोगों को सूली पर चढ़ा दिया जाये तो भी यह सजा नाकाफी है।

अब वह सरकार बदल गयी लेकिन आपदा प्रबंधन जस का तस है। कॉरपोरेट राज और मजबूत है। भूमि माफियाने तराई से पहाड़ों को विदेशी सेना की तरह दखल कर लिया है।

प्रोमोटरों और बिल्डरों की चांदी के लिए अब केदार क्षेत्र के पुनर्निर्माण की बात कर रही है ऊर्जा प्रदेश की सिडकुल सरकार। पहाड़ और पहाड़ियों के हितों की चिंता किसी को नहीं है। देवभूमि की पवित्रता सर्वोपरि है। कर्मकांड सर्वोपरि है। मनुष्य और प्रकृति के ध्वंस का कोई मुद्दा नहीं है।

हिमालय की इस नरकयंत्रणा पर लेकिन किसी ने किसी श्वेत पत्र की मांग नहीं की है। धारा 370 को पूरे हिमालय में लागू करने की मांग हम इसीलिये कर रहे हैं क्योंकि हमारी समझ से हिमालय और हिमालयवासियों को बचाने का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं है।

लेकिन इस मांग पर बार-बार लिखने पर भी हिमालय क्षेत्र के अत्यंत मुखर लोगों को भी सांप सूंघ गया है। अरे, पक्ष में नहीं हैं तो विपक्ष में ही बोलो, लिखो।

कम से कम बहस तो हो।

About The Author

पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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