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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, November 2, 2014

हमारे नवारुण दा और उन्हें हम जैसे जानते हैं पलाश विश्वास

हमारे नवारुण दा और उन्हें हम जैसे जानते हैं

पलाश विश्वास

(यह आलेख समयांतर के सितंबर अंक में प्रकाशित है।शीर्षक भिन्न है और स्थानाभाव से थोड़ा संपादित भी)


शुरु में ही यह साफ कर दिया जाये कि नवारुण भट्टाचार्य का रचनाकर्म सिर्फ जनप्रतिबद्ध साहित्य नहीं है,वह बुनियादी तौर पर प्रतिरोध का साहित्य है और वंचितों का साहित्य भी।मंगलेश डबराल के सौजन्य से यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है,के बागी कवि जिस नवारुण को हम जानते हैं,अपने उपन्यासों,असंख्य छोटी कहानियों और कविताओं के मार्फत शब्द शब्द जनमोर्चे पर गुरिल्ला युद्ध दरअसल उन्हीं नवारुण दा का साहित्य है।


हमरे हिसाब से कविताओं की तुलना में गद्य में नवारुणदा मृत्युउपत्का की घनघोर प्रासंगिकता के बावजूद कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं।लेकिन उनकी हर्बर्ट को छोड़कर बाकी गद्य रचनाओं खासकर फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मालसाट की ज्यादा चर्चा भारतीय भाषाओं में नहीं हो पायी है।


नवारुण दा और महाश्वेता दी दोनों हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का बाकी भाषाओं के रचनाकर्मियों से ज्यादा सम्मान करते रहे हैं और मानते रहे हैं कि हिंदी जनता को संबोधित किये बिना और हिंदी के मार्फत जनमोर्चे की गतिविधियों चलाये बिना हालात बदलने वाले नहीं हैं।


इसके अलावा नवारुणदा खास तौर पर भारतीय भाषाओं के सेतुबंधन के प्रचंड पक्षधर थे और चाहते थे कि समूची रचनात्मकता को समग्रता में जनयुद्ध में त्बदील किया जाये जो दरअसल उनकी बुनियादी रचनाकर्म है।


भारतीय गणनाट्य आंदोलन,भारतीय सिनेमा ,भारतीय साहित्य,भारतीय कला समेत तमाम विधायों में निकट परिजनों की अविराम सक्रियता ने उनकी दृष्टि को प्रखर बनाया है और उनके रचनाकर्म को धारदार।


नवारुण दा ब्यौरे और किस्सों में,बिंब संयोजन और भाषिक कला कौशल,देहवाद,मिथक और विचारधारा की जुगाली में अपनी रचना ऊर्जा का अपचय नहीं किया करते थे।


उनके रचनाक्रम में अरबन इलिमेंट प्रबल होने के कारण अंत्यज समूहों के हाशिये पर रखे बहिस्कृत अस्पृश्य जीवन का अनंत कैनवास है लेकिन वे जैसे शास्त्रीयता का परहेज करते रहे हैं,वैसे ही जनपदी भाषा और लोक का प्रयोग भी करके अपने को देहात से जोड़ने काप्रयास भी उन्होंने नहीं किया।


वर्गीय ध्रूवीकरण मार्फते राज्यतंत्र को सिरे से उखाड़कर जनवादी शोषन विहीन वर्गविहीन समता और न्याय के लिए उनकी जो विलक्षण रचना प्रक्रिया है,वहां आप जनपदों को पल पल हर कदम पर मौजूद पायेंगे,भाषा और आचरण के स्तर पर,जबकि वे लोक मुहावरों के बजाय भदेश शहरी भाषा का ही इस्तेमाल करते रहे हैं और उनकी यह भाषा भद्रलोक की आभिजात भाषा भी नहीं है।लेकिन उनके लिखे शब्दों को आप गाली गलौच के स्तर पर किसी भी हालत में नहीं देख सकते।


भाषा बंधन की शुरुआती टीम में शामिल होने की वजह से बहुत संक्षिप्त दौर के लिए नवारुणदा को बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला तो उन्हें अपने लेखन की तरह हमेशा अनौपचारिक और स्ट्रेट फारवर्ड पाया।लैंगवेज वर्क से उन्हें सख्त नफरत थी और वे न जीवन में और न साहित्य में लफ्फा जी करते रहे।उनका आब्जर्वेशन सरिजकल आपरेशन की तरह परफेक्ट है और वहां वे कोई चूक या गुंजाइश नहीं रखते।उनके लिखे में वहीं किसी शब्द को एडिट करने की भी कोई संभावना नहीं थी।

हम उनसे सीख नहीं पाये ज्यादा कुछ,खासकर उनके सटीक आक्रामक लेखन का तौर तरीका हमारे अभ्यास में नहीं जमा।  लेकिन बहुत कम समय के संबंध के बावजूद वे हमारे वजूद का हिस्सा जरुर बन गये।


गौरतलब है कि महाश्वेतादी के लेखन में डाकुमेंटेशन प्रबल है,नवारुण दा का लिखा लेकिन हर मायने में साहित्य है विधाओं के आरपार।किसी भी सूरत में डाकुमेंटेशन का कोईप्यास वहां नहीं है।विधाओं के व्याकरण को उन्होंने उसी तरीके से तहस नहस किया जैसे भाषा के प्रचलित सौंदर्यशास्त्र को लेकिन क्या मजाल जिस अर्थ में वे लिखते रहे हैं,वहा वर्तनी में कोई चूक हो जाये।बहुआयामी अभिव्यक्ति के जरिये उनका साहित्य दृश्य माध्यम की तरह  पूरी संवेदनाओं के साथ संप्रेषणीय है।इसमें उनकी विशेषज्ञता के आस पास भी नहीं है दूसरे साहित्यकर्मी,ऐसा हमारा मानना है।


जाहिर है कि आभिजात भाषा,सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण के भद्र संस्कृकर्म से एकदम अलहदा हैं नवारुण दा।वितचारधारा और प्रतिबद्धता के झंडवरदारों के झुंड में भी वे नजर नहीं आते।फिरभी आज के हालात में भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा प्रासंगिक रचनाकार भी वहीं हैं क्योंकि जनविरोधी अलोकतांत्रिक मानवाधिकार हननकारी मुक्तबाजारी राज्यतंत्र के विरुद्ध सतह से उठते आदमी के लिए नवारुण दो शब्द दर शब्द अविराम हथियार गढ़ते रहे हैं।


उनके हथियार अस्मिताओं के आर पार ,उन्हें तहस नहस करके वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत फैताड़ु फौज का निर्माण करने में सक्षम हैं।जहां अंत्यज जमीन से बेदखल विस्थापित भूगोल के मानगर में स्थानातंरित आबादी के अंधकार कोनों में हीनता बोध के बजाय उनके तमाम पात्र जीते हैं तो हर वक्त उनकी राउंड दि क्लाक अविराम अक्लांत युद्ध प्रस्तुतियों के लिए,जहां गद्य पद्य एकाकार है।फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मालसाट में गद्य पद्य के बीच कोई घोषित नियंत्रणरेखा नहीं है और मारक अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के अचूक लोक भदेस शब्दों से लैस उनके तमाम पात्र जहां आटोरिक्शा चलाने वाले आटो के नायक की भाषा आटो की आवाज में तब्दील है तो दंडवायस त्रिकालदर्शी  सूत्रधार।


जैसे कैंसर के खिलाफ उन्होंने आत्म समर्पण नहीं किया वैसे ही व्यवस्था के साथ समझौता करने से भी आमृत्यु घृणा करते रहे नवारुणदा।प्रतिष्ठित प्रकाशनों और पत्रिकाओं के वित्ज्ञापनी तामझाम के जरिये नहीं,बल्कि लघुपत्रिकाओं के मोर्चे से युद्धरत रहे नवारुण दा।


इस पर विवाद की गुंजाइश जरुर हो सकती है कि भारतीय भाषाओं में सत्तर दशक के सबसे बड़े प्रतिनिधि भी नवारुण दा हैं,जिसका मकसद शाकाहारी विरोध दर्ज कराकर क्रातिकारियों की पात में शामिल होकर व्यवस्ता का अंग बन जाना नहीं है।उनके आकस्मिक निधन के बाद हमने लिखा भी कि हमारे लिए तो यह सत्तर दशक का अवसान है।

माफ करना दोस्तों,अंत्यज हूं और फैताड़ू भी।लेकिन हर्बर्ट नहीं हूं एकदम।दढ़ियल दंडवायस हूं तो फेलकवि गर्भपाती विद्रोही पुरंदर भट या मालखोर मदन जैसा कोई डीएनए मेरा भी होगा।


इसलिए नवारुणदा के बारे में मेरा लिखा कोई शास्त्रीय आलोचना भी नहीं है ,वैसे ही जैसे उनका खुद का लिखा किसी भी मायने में न शास्त्रीय है और न वैदिकी।


मेरे लिए आवाज ही अभिव्यक्ति का मूलाधार है,शब्द संस्कृति का ब्राह्मणवाद नहीं।व्याकरण नहीं और न ही अभिधान और न सौंदर्यशास्त्र का अभिजन दुराग्रह।इसलिए नवारुण दा के लिखे को आत्मसत करने में मुझे कोई दिक्कत कभी नहीं हुई। मंचीय प्रस्तुति और गायकी में भी आवाज के प्रयोग के भिन्न तरीके हैं।किशोर कुमार के खेल को समझ लें।आवाज मार्फत ही अभिव्यक्ति का हुनर नवारुण दा का ट्रेडमार्क है।


मेरे लिए भी भाषा ध्वनि की कोख से जनमती है और आंखर पढ़े लिख्खे लोगों के वर्ण नस्ली धार्मिक सत्ता वर्चस्व का फंडा है,ज्ञान का अंतिम सीमा क्षेत्र नहीं आंखर।वह ध्वनि के उलझे तारों की कठपुतली ही है।


इसलिए ध्वनि ही मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है।

ध्वनि ही मेरी अभिव्यक्ति है।

ध्वनि ही अभिधान।ध्वनि ही व्याकरण और ध्वनि ही सौंदर्यशास्त्र।


नवारुण दा कैसे सोचते होंगे,हमें नहीं मालूम लेकिन उनके शब्द शब्द का अभ्यास धव्नि प्रतिध्वनि का सार्थक समावेश है।जहां शब्दों के भाषांतर से अभिव्यक्ति बदल जाने की संभावना कमसकम है।


अरस्तू से लेकर पतंजलि तक और उनके परवर्ती तमाम पिद्दी भाषाविदों, संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों और विद्वतजनों  को मैं इसीलिए बंगाल की खाड़ी में या अरब सागर में विसर्जित करता हूं समुचित तिलांजलि के साथ।ऐसा नवीारुण दा ने करके दिखाया है।


दरअसल जिस आंखर में ध्वनि की गूंज नहीं,जो आंखर रक्त मांस के लोक का वाहक नहीं,जो कोई बैरिकेड खड़ा करने लायक नहीं है,उस आंखर से घृणा है मुझे।दरअसल यह घृणा की विरासत हमें नवारुण दा से ही मिली है,हांलाकि उनके हमारे बीच कोई रक्त संबंध नहीं है,लेकिन वंश धारा को तोड़ते हुए शायद हमारा डीएनए एकाकार हैं।


दरअसल यह घृणा लेकिन नवारुणदा की मृत्युउपत्यका मौलिक और वाया मंगलेशदा अनूदित हिंदी घृणा के सिलसिले में भी  है,जाहिर है कि यह घृणा मौलिकता में नवारुणदा की पैतृिक विरासत है,जिसको मात्र स्पर्श करने की हिम्मत कर रहा हूं उन्हीं की जलायी मोमबत्तियों के जुलूस में स्तब्ध वाक खड़ा हुआ।


हम बाबुलंद कहना चाहेंगे कि हम  इस मृत आंखर उपनिवेश का बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिक होने से साफ इंकार करते हैं और यह इंकार गिरदा से लेकर मंटो, इलियस, मुक्तिबोध, दस्तावस्की, काफ्का, कामू,डिकेंस. उगो, मार्क्वेज, मायाकोवस्की,पुश्किन,शा, होकर माणिक ,ऋत्विक घटक, सोमनाथ होड़,लालन फकीर ,कबीर दास  से लेकर  नवारुण दा की मौलिक विरासत है और हम दरअसल उसी विरासत से नत्थी होने का प्रयत्न ही कर रहे हैं।


यही हमारी  संघर्ष गाथा है और प्रतिबद्धता भी है जो संभ्रांत नहीं,अंत्यजलोक है।इसी सूत्र से हम और नवारुण दा एकाकार हैं।


नवारुण दा की  तरह हमारे  लिए भी गौतम बुद्ध और बौद्धधर्म कोई आस्था नहीं,जीवनपद्धति है और वर्चस्ववादी सत्ता के खिलाफ लोक का बदलाव ख्वाब है,जिसे साधने के लिए ध्यान की विपश्यना तो है लेकिन मूल वही पंचशील।


नवारुण दा स्वभाव से बौद्ध थे और द्विजता का बहिस्कार ही उनकी रचनात्मक ऊर्जा का चरमोत्कर्ष है।ब्राह्मणवादी सत्ता के पक्ष में कभी नहीं रहा है उनका रचनाकर्म और बंगाल के वैज्ञानिक ब्राह्ममणवाद पर इतना तीखा प्रहार तो महाराष्ट्र के दलित फैंथर आंदोलन में भी हुआ हो,ऐसा मुझे नहीं लगता।उनकी रचनाधर्मिता बिना किसी घोषणा,बिना किसी प्रकाशित एजंडे के सीधे अंत्यज बहिस्कृत अस्पृश्य जीवन को वर्गीय चेतना से लैस करके बदलाव का मोर्चा बनाने की सीधी कार्रवाई,डायरेक्ट एक्शन है।


नवारुण दा घोषित तौर पर वामपक्षधर रहे हैं और वे संसदीय वाम संसोदनवाद के झंडेवरदार ,सिपाही या सिपाहसालार नहीं रहे हैं। बदलाव की विछारधारा के लोग अंतिम क्षण तक उनके साथ थे और उनकी शवयात्रा में भी उनके साथ थे।


भाषा बंधन में दलित विमर्श और दलित आंदोलन को उचित स्थान देने के बावजूद न अंबेडकरी आंदोलन और न अंबेडकरी विचारधाारा से उनकी कोई सहानुभीति रही है। लेकिन शरणार्थी समस्या पर वाम पक्ष के विश्वासघात से मोहभंग के बाद जो हमने अंबेडकर पढ़ना शुरु किया तो हमारे और उनके रास्ते भी अलग होते चले गये।यहां तक कि उनके कैंसर पीड़ित होने की खबर भी हमें मिली नहीं,मिली तो बहुत बाद।इसके बावजूद आज हमें यह कहने में कोई दुविधा नहीं है कि अंबेडकर पढ़कर हम जितने अंबेडकरी नहीं हुए,वंचित वर्ग से होते हुए,हम जितना वंचितों के नहीं हुए,नवारुण दा उससे कहीं ज्यादा अंबेडकरी थे और वंचितों के पक्षधर किसी भी दलित पिछड़ा आदिवासी सरचनाकर्मी से ज्यादा।


हम जैसे वाम और अंबेडकरी आंदोलन के बुनियादी लक्ष्य न्याय और समता में अंतरविरोध नहीं देखते,वैसा नवारुण दा ने न कभी कहा है और न लिखा है,लेकिन उनका रचनाकर्म फिर वही आनंद पटवर्ध्धन का जय भीम कामरेड है जहां लालझंडे के साथ नीले रिबन की अनिवार्य मौजूदगी है।इस रहस्य को आत्मसात किये बिना कंगाल मालसाट,फैताड़ु बोम्बाचाक और नवारुण दा की किसी भी गद्य रचना को समझा ही नहीं जा सकता और न मूल्यांकन संभव है।


वर्चस्ववादी बंगीय समाज में इस रचनादृष्टि के लिए कोई स्पेस अभी तैयार हुआ ही नहीं है।आदिवासी जनविद्रोह को कथावस्तु बतौर पेश करने वाली उनकी मां महाश्वेता दी भी सत्ता हेजेमनी के खिलाफ इतना डट कर युद्धरत नहीं रही हैं और न उनके साहित्य में वह अंत्यज अस्पृश्य जीवन है।


मां बेटे  के रचनाकर्म के समांतर पाठ से साफ जाहिर होता है कि नवारुण दा को हम समूचे भारतीय भाषां के लिए मुक्तबाजारी उपनिवेश समय में प्रतिरोध के लिहाज से सबसे ज्यादा प्रासंगिक क्यों मानते हैं।उनका इतिहास बोध और उनका दृष्टिकोण अनिवार्य तौर पर सांप्रतिक इतिहास और समकालीन समाजवास्तव के सात साथ राज्यतंत्र के खिलाप प्रतिरोध की प्रेरणा और ऊर्जा दोनों हैं,इसीलिए।


मां बेटे का अलगाव भी निहायत पारिवारिक घटना नहीं है,वैचारिक द्वंद्व और प्रतिबद्धता के भिन्न भिन्न आयाम हैं।


जैसे नवारुणदा के पिता नवान्न नाटक और बहुरुपी के शंभु मित्र  के प्राण बिजन भट्टाचार्य ने जैसे समझौता न करना अपनी उपलब्धि मानते रहे हैं,नवारुण दा की कुल उपलब्धि यही है और आप ऐसा महाश्वेता दी के बारे में कह नहीं सकते जो आधिपात्यवादी व्यवस्था और सत्ता से नत्थी होकर भी लगातार क्राति की बातें करती हैं हूबहू बंगीय कामरेडों की तरह।कथनी और करनी का यह विभेद नवारुण दा का जीवनदर्शन नहीं रहा है।ऐसे थे हमारे नवारुण दा।


जाहिर है कि पंचशील अभ्यास के लिए प्रकृति का सान्निध्य अनिवार्य है बौद्धमय होने से हमारा तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण चेतना है,जिसके बिना धर्म फिर वही है जो पुरोहित कहें और आचरण में पाखंड का जश्न जो है और जो अनंत फतवा श्रंखला है नागरिक मानवाधिकारों के विरुद्ध दैवी सत्ता के लिए।इस ब्राह्मणी संस्कृति के खिलाफ युद्धघोषणा और भगवाकरण के खिलाप निरंतर मोर्चा दरअसल नवारुण दा का साहित्य है।


इसे समझने के लिए यह भी समझ लें कि नवारुण दा का यही पंचशील मुझे तसलिमा के साथ भी खड़ा करता है पुरुषवर्चस्व के खिलाफ उनकी गैरसमझौतावादी बगावत के लिए जबकि उनकी देहगाथा में मैं कहीं नहीं हूं।इससे नवारुण रचनाकर्म के दस दिगंत का अंदाजा लगाया जा सकता है।


और चितकोबरा सांढ़ संस्कृति का तो हम सत्तर के दशक से लगातार विरोध करते रहे हैं।स्त्री वक्ष,स्त्री योनि तक सीमाबद्ध सुनामी के बजाय प्रबुद्ध स्त्री के विद्रोह में ही हमारी मुक्ता का मार्ग है और हमें उसकी संधान करनी चाहिए।लेकिन सुनील गंगोपाध्याय संप्रदाय ने बंगीय साहित्य और सस्कृति को चितकोबरा बना छोड़ा है,उसके खिलाफ भी है नवारुण दा का मुखर समाज वास्तव।देहगाथा से पृथक साहित्य,नायकरहित नायिका रहित सामाजिक जनजीवन के पात्रों का साहित्य ही नवारुण दा का साहित्य है,जिनका वर्गीय आधार पर ध्रूवीकरण प्रतिरोध की अनिवार्य शर्त है।



नवारुण दा की तरह हमारे लिए वाम कोई पार्टी नहीं,न महज कोई विचारधारा है।यह शब्दशः वर्गचेतना को सामाजिक यथार्थ से वर्गहीन जातिविहीन शोषणविहीन समता और सामाजिक न्याय के चरमोत्कर्ष का दर्शन है जैसा कि अंबेडकर का व्यक्तित्व और कृतित्व,उनकी विचारधारा,आंदोलन,प्रतिबद्धता,उनका जुनून,उनका अर्थशास्त्र ,धर्म और जातिव्यव्सथा के खिलाफ उनका बदतमीज बगावत और उनके छोड़े अधूरे कार्यभार।


गौरतलब है कि नवारुणदा वाम को वैज्ञानिक दृष्टि मानते रहे हैं और बाहैसियत लेखक मंटो वाम से जुड़े न होकर भी इसी दृष्टिभंगिमा से सबसे ज्यादा समृद्ध हैं जैसे अपने प्रेमचंद,जिन्हें किसी क्रांतिकारी विश्वविद्यालय या किसी क्रांतिकारी संगठन या किसी लोकप्रिय अखबार के प्रायोजित विमर्श का ठप्पा लगवाने की जरुरत नहीं पड़ी।जैसे जनता के पक्ष में अंधेरे से निकलने की मुक्तबोध का ब्रह्मराक्षस कार्यभार है,वैसा ही है नवारुण दा का रचनाकर्म।


इलियस,शहीदुल जहीर से लेकर निराला और मुक्तिबोध का डीएनए भी यही है।शायद वाख ,वैनगाग,पिकासो,माइकेल जैक्शन,गोदार,ऋत्विक घटक,मार्टिन लूथर किंग और नेसल्सन मंडेला का डीएनए भी वही।यह डीएनए लेकिन तमाम प्रतिष्ठित कामरेडों की सत्ता और सौदेबाजी से अलहदा है।


इसीलिए हमारे लिए अंबेडकर के डीप्रेस्ड वर्किंग क्लास और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सर्वहारा में कोई फर्क नहीं है और न जाति उन्मूलन और वर्गहीन समाज के लक्ष्यों में कोई अंतर्विरोध है।नवारुण दा से इस मुद्दे पर संवाद हुआ नहीं,लेकिन भरोसा है कि वे इससे असहमत होते नहीं क्योंकि उनकी रचनाओं का स्थाई भाव दरअसल यही है।


यही वह प्रस्थानबिंदू है,जहां महाश्वेता दी से एक किमी की दूरी के हजारों मील के फासले में बदल जाने के बाद भी नवारुण दा उन्हींकी कथा विरासत के सार्थक वारिस हैं तो अपने पिता बिजन भट्टाचार्य और मामा ऋत्विक घटक के लोक विरासत में एकाकार हैं उनके शब्दों और आभिजात्य को तहस नहस करने वाले तमाम ज्वालामुखी विस्फोट।


भाषाबंधन ही पहला और  अंतिम सेतुबंधन है मां और बेटे के बीच।संजोग से इस सेतुबंधन में हम जैसे अंत्यज भी जहां तहां खड़े हैं बेतरतीब।


महाश्वेता दी ने बेटे से संवादहीनता के लिए उनकी मत्यु के उपरांत दस साल के व्यवधान समय का जिक्र करते हुए क्षमायाचना की है और संजोग यह कि इन दस सालों में मैं दोनों से अलग रहा हूं।जब दोनों से हमारे अंतरंग पारिवारिक संबंध थे,तब हम सभी भाषा बंधन से जुड़े थे।पंकज बिष्ट,मंगलेश डबराल  से लेकर  मैं ,अरविंद चतुर्वेद और कृपाशंकर चौबे तक।


तभी इटली से आया था तथागत,जो हमें ठीक से जानता भी नहीं है।





अपनी विश्वप्रसिद्ध मां से निरंतर अलगाव के मध्य उनका व्यक्तित्व कृतित्व का विकास हुआ और इसीलिए उनके साहित्य में क्रांति का वह रोमांस भी नहीं।


उनके पात्र हारने के लिए नहीं,शहादत के लिए भी नहीं,मोर्चा फतह करने के लिए एक मुकम्मल लड़ाई रणनीतिक लड़ते हैं,इसलिए उनका कांटेंट भी महज कांटेट नहीं है,स्ट्रैटेजिक कांटटेंट हैं।


फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मलसाट तो क्या कीड़े की तरह खत्म हुए हर्बर्ट में भी मुक्तबाजारी साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ उनकी खुली युद्धघोषणा है,जो मृत्यु उपत्यका का मूल स्वर और स्थाई भाव दोनों हैं।


वे रंग कर्मी भी रहे हैं।


बतौर रंगकर्मी वे पिता की विरासत की कमान भी संभालते रहे हैं और इसी रंगकर्म के तहत उनका साहित्य कुल मिलाकर एक मंचीय प्रस्तुति है चाहे आप नाटक कर लो या सिनेमा बना लो।


फालतू एक शब्द भी नवारुणदा ने कभी नहीं लिखा और उनके हर शब्द में युद्ध जारी है और रहेगा।


रंगकर्म के जरिये वे तेभागा से लेकर  सिंगुर नंदीग्राम तक तमाम जनांदोलन, जो उनके जीवन काल में हुए,उनमें उनकी सक्रिय भूमिका रही है और भारतीय जननाट्य आंदोलन के सलिल मित्र,सोमनाथ होड़,देवव्रत विश्वास और पिता बिजन भट्टाचार्य की सोहबत की ठोस तैयारी है उनकी रनाधर्मिता की देसी पूंजी।


साहित्य और संस्कृति की हर धारा में सक्रिय परिवार में पृथक धारा का निर्माण सबसे बड़ी चुनौती होती है।उनके नाना मनीश घटक बंगाल के सबसे अच्छे गद्यकार हैं तो उनके मामा ऋत्विक घटक इस उपमहाद्वीप के मूर्धन्य फिल्मकार।मां इतनी बड़ी साहित्यकार।लेकिन प्रखर जनप्रतिबद्धता के अलावा पारिवारिक कोई छाप उनके रचनाकर्म में नहीं है। न भाषा के स्तर पर और न शैली या सौंदर्यशास्त्र के पैमाने पर।


अपने अति घनिष्ठ मित्र बांग्लादेशी ख्वाबनामा के उपन्यासकार और छोटी कहानियों में उससे भी बड़े कथाकार अख्तराज्जुमान इलियस से बल्कि उनकी रचनात्मक निकटता रही है ,जिनकी असमय मौत हो गयी।


अख्तर और नवारुण दा का समाजवास्तव जीवन के सबसे निचले स्तर से शुरु होता है,जहा भद्रजनों का प्रवेश नहीं है।


अख्तर की तरह नागरिक और ग्रामीण दोनों स्तर पर रचनाकर्म करने वाले रचनाकार भी नहीं है।वे बेसिकैली अरबन संस्कृतिकर्मी हैं और भाषा को उन्होंने हर स्तर पर अंत्यज व्रात्य जीवन से उठाकर नागरिक और सामाजिक यथार्थ को एकाकार करके एक विलक्षण संयुक्त मोर्चा का निर्माण करते रहे हैं।


कविता में नवारुणदा की प्रासंगिकता के संदर्भ में निवेदन है कि हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, जो कयामती हालात हैं,जो देश बेचो निरंकुश अश्वमेध है,उसके प्रतिरोध की प्रेरणा समसामयिक उत्तरआधुनिक किस कविता में है, जरा उसे पेश कीजिये।जो समय को दिशा बदलने को मजबूर कर दें,पत्थर के सीने से झरना निकाल दें और सत्ता चालाकियों का रेशां रेशां बेनकाब कर दें, जो मुकम्मल एक युदध हो जनता के हक हकूक के लिए,ऐसी कोई कविता लिखी जा रही हो तो बताइये।


उस कवि का पता भी दीजिये जो मुक्तबाजारी कार्निवाल से अलग थलग है किंतु और जनता की हर तकलीफ,हर मुश्किल में उसके साथ खड़ा है।जिसका हर शब्द बदलाव के लिए  गुरिल्ला युद्ध है।


अस्थिकेशवसाकीर्णं शोणितौघपरिप्लुतं।

शरीरैर्वहुसाहस्रैविनिकीर्णं समंततः।।



महाभारत का सीरियल जोधा अकबर है इन दिनों लाइव,जो मुक्तबाजारी महापर्व से पहले तकनीकी क्रांति के सूचनाकाल से लेकर अब कयामत समय तक निरंतर जारी है।


उसी महाभारत के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे युद्धोपरांत यह दृश्यबंध है।


उस धर्मक्षत्रे अस्थि,केश,चर्बी से लाबालब खून का सागर यह।एक अर्यूद सेना, अठारह अक्षौहिणी मनुष्यों का कर्मफल सिद्धांते नियतिबद्ध मृत्युउत्सव का यह शास्त्रीय, महाकाव्यिक विवरणश्लोक।


गजारोही,अश्वारोही,रथारूढ़,राजा महाराजा, सामंत, सेनापति, राजपरिजन,श्रेष्ठी अभिजन और सामान्य युद्धक पैदल सेनाओं के सामूहिक महाविनाश का यह प्रेक्षापट है।जो सुदूर अतीत भी नहीं है,समाज वास्तव का सांप्रतिक इतिहास है और डालर येन भवितव्य भी।


मालिकों को खोने वाले पालतू जीव जंतुओं और युद्ध में मारे गये पिता,पुत्र,भ्राता,पति के शोक में विलाप में स्त्रियां का प्रलयंकारी शोक का यह स्थाईभाव है।नरभक्षियों के महाभोज का चरमोत्कर्ष है यह।


यह है वह शास्त्रीय उन्मुक्त मुक्तबाजार का धर्मक्षेत्र जिसे कुरुवंश के उत्तराधिकारी भरतवंशी देख तो रहे हैं रात दिन चौबीसो घंटे लाइव लेकिन सत्ताविमर्श में निष्णात इतने कि महसूस नहीं रहे हैं क्योंकि धर्मोन्मादी दिलदिमाग कोमा में है।आईसीयू में लाइव सेविंग वेंटीलेशन में है।कृतिम जीवन में है,जीवन में नहीं हैं।


अब उत्तरआधुनिक राजसूय अश्वमेध धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे तेलयुद्ध विकास कामसूत्र मध्ये अखंड भारतखंडे की पृष्ठभूमि भी वही महाकाव्यिक।नियति भी वही।मृत्यु उपत्यका शाश्वत वही।


यही कविता में नवारुणदा की याद की वजह भी है।


कविता अगर जीवित होती और किसी अंधेरे कोने में भी बचा होता कोई कवि तो इस मृत्युउपत्यका की सो रही पीढ़ियों को डंडा करके उठा देता और आग लगा देता इस जनविरोधी तिलस्म के हर ईंट में,सत्तास्थापत्य के इस पिंजर को तोड़ कर किरचों में बिखेर देता।


दरअसल उभयलिंगियों का पांख नहीं होते और वे सदैव विमानयात्री होते हैं।पांख के पाखंड में लेकिन आग कोई होती नहीं है।विचारधारा और प्रतिबद्धताओं की अस्मितामध्ये किसी अग्निपाखी का जन्म भी असंभव है।कविता अंतत- वह अग्निपाखी है और कुछ भी नहीं और बिना आग कविता या तो निखालिस रंडी, स्त्रियों के लिए अक्सर दी जाने वाली यह गाली किसी स्त्री का चरित्र है नहीं और दरअसल यह उपमा उभयलिंगी है जो सत्ता के लिए किराये की कोख भी है।


जो कविता परोसी जा रही है कविता के नाम पर वे मरी हुई सड़ी मछलियों की तरह मुक्तबाजारी धारीदार सुगंधित कंडोम की तरह मह मह महक रही हैं अवश्य,लेकिन  कविता कंडोम से हालात बदलने वाले नहीं है।


यह काउच पर,सोफे पर,किचन में ,बाथरूम में, बिच पर,राजमार्गे,कर्मक्षेत्रे मस्ती का पारपत्र जरुर है,कविता हरगिज नहीं।


सच तो  यह भी है कि इस धर्मक्षेत्रे महाभारते  कविता के बिना कोई लड़ाई भी होनी नही है क्योंकि कविता के बिना सत्ता दीवारों की किलेबंदी को ध्वस्त करने की बारुदी सुरंगें या मिसाइली परमाणु प्रक्षेपास्त्र भी कुुरुक्षेत्र की दिलोदमाग से अलहदा लाशें हैं।


लोक की नस नस में बसी होती है कविता।

हनवाओं की सुगंध में रची होती है कविता।


बिन बंधी नदियां होती हैं कविता।उत्तुंग हिमाद्रिशिखरों की कोख में जनमी ग्लेशियरों के उल्लास में होती है कविता।


निर्दोष प्रकृति और पर्यावरण की गोद में होती है कविता।

कविता महारण्य के हर वनस्पति में होती है और समुंदर की हर लहर में होती है कविता।


मेहनतकशों के हर पसीना बूंद में होती है कविता।

खेतों और खलिहानों की पकी फसल में होती है कविता।


वह कविता अब सिरे से अनुपस्थित है क्योंकि लोक परलोक में है अब और प्रकृति और पर्यावरण को बाट लग गयी है।


पसीना अब खून में तब्दील है।


हवाएं अब बिकाऊ है।


कोई नदी बची नहीं अनबंधी।


सारे के सारे ग्लेशियर पिघलने लगे हैं और उत्तुंग हिमाद्रिशिखरों का अस्तित्व ही खतरें में है। हिमालयअब आफसा है।आपदा है।


खामोश हो गयी हैं समुंदर की मौजें और महाअरण्य अब बेदखल  बहुराष्ट्रीय रिसार्ट,माइंनिंग है,परियोजना हैं ह या विकास सूत्र का निरंकुश महोत्सव है या सलवा जुड़ुम या सैन्य अभियान है।


वातानुकूलित सत्ता दलदल में धंसी जो कविता है कुलीन,उसमें शबाब भी है,शराब भी है,देह भी है कामाग्नि की तरह,लेकिन न उस कविता की कोई दृष्टि है और न उस निष्प्राण जिंगल सर्वस्व स्पांसर में संवेदना का कोई रेशां है।


अलख बिना,जीवनदीप बिना,वह कविता यौन कारोबार का रैंप शो के अलावा कुछ नहीं है और महाकवि जो सिद्धहस्त हैं भाषिक कौशल में दक्ष,शब्द संयोजन बिंब व्याकरण में पारंगत वे दरअसल मुक्तबाजार के दल्ला हैं या फिर सुपरमाडल।


हमने नवारुण दा की कविता में वह अलख जगते देखा है और उनके गद्य में भी फैताड़ुओं की कविता में ज्वालामुखी की वह धारा बहते हुई देखी है।
































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