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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, January 2, 2015

सावित्रीबाई फुले के 3 जनवरी को मनाएं जा रहे 184 वें जन्मदिन पर अनिता भारती का विशेष लेख

सावित्रीबाई फुले के 3 जनवरी को मनाएं जा रहे 184 वें जन्मदिन पर विशेष लेख-

 

शिक्षा की कभी ना बुझने वाली क्रांतिकारी मशाल- सावित्रीबाई फुले 

3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में जन्मी महान विभूति सावित्रीबाई फुले, मात्र 18 साल की छोटी उम्र में ही, भारत में स्त्री शिक्षा की ऊसर-बंजर जमीन पर स्त्री शिक्षा की नन्हा पौधा रोप उसे एक विशाल छतनार वृक्ष में तब्दील करने वाली, महान विदुषी सावित्रीबाई फुले के अतुलनीय योगदान को कौन नहीं सराहना करेगा।  भारत में सदियों से शिक्षा से महरुम कर दिए गए शोषित वंचित, दलित-आदिवासी, और स्त्री समाज को  सावित्रीबाई फुले ने अपने निस्वार्थ प्रेम, सामाजिक प्रतिबद्धता, सरलता तथा अपने अनथक सार्थक प्रयासों से शिक्षा पाने का अधिकार दिलवाया। शिक्षा के नेत्री सावित्रीबाई फुले ने इस तरह शिक्षा पर षडयंत्रकारी तरीके से एकाधिकार जमाएं बैठी ऊंची जमात का भांडा एक ही झटके में फोड़ डाला।

जिस देश में एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांगने वाले के नाम पर पुरस्कार दिए जाते हो, जिस देश में शम्बूक जैसे विद्वान के वध की परंपरा हो, जिस देश में शूद्रों-अतिशूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने पर यहां के धर्मग्रंथों में उनके कान में पिघला शीशा डालने का फरमान जारी किया गया हो और जिस देश के तथाकथित ब्राह्मणवादी समाज के तथाकथित ब्राह्मणवादी कवि द्वारा यहां की दलित शोषित-वंचित जनता को "ढोल गंवार शूद्र अरु नारी यह सब ताड़न के अधिकारी" माना गया हो ऐसे देश में किसी शूद्र समाज की स्त्री द्वारा इन सारे अपमानों, बाधाओं, सड़े-गले धार्मिक अंधविश्वास व रुढियां तोड़कर निर्भयता और बहादुरी से घर-घर, गली-गली घूमकर सम्पूर्ण स्त्री व दलित समाज के लिए शिक्षा की क्रांति ज्योति जला देना अपने आप में विश्व के किसी सातवें आश्चर्य से कम नही था। परंतु अफसोस तो यह है कि इस "जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान" वाले देश में जाति के आघार पर ही ज्ञान की पूछ होती है। प्रतिभाओं का सम्मान होता है। हमेशा जाति के आधार पर यह पुरस्कार, सम्मान और मौके ऊंची जाति के लोगों को आराम से मिलते रहे है। और यदि ऐसा नही है तो सवाल यह कि भारत में आज भी "शिक्षक दिवस" क्रांतिसूर्य सावित्रीबाई फुले के नाम पर ना मनाकर सर्वपल्ली राधाकृष्णऩ के नाम पर क्यों मनाया जाता है? जबकि सावित्रीबाई फुले द्वारा स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में देश को दिया गया योगदान बेहद गंभीर योगदान है।

 

शिक्षा नेत्री सावित्रीबाई फुले ना केवल भारत की पहली अध्यापिका और पहली प्रधानाचार्या थी अपितु वे सम्पूर्ण समाज के लिए एक आदर्श प्रेरणा स्त्रोत, प्रख्यात समाज सुधारक, जागरुक और प्रतिबद्ध कवयित्री, विचारशील चितंक, भारत के स्त्री आंदोलन की अगुआ भी थी। सावित्रीबाई फुले ने हजारों-हजार साल से शिक्षा से वंचित कर दिए शुद्र आतिशुद्र समाज और स्त्रियों के लिए बंद कर दिए गए दरवाजों को एक ही धक्के में लात मारकर खोल दिया। इन बंद दरवाजों के खुलने की आवाज इतनी ऊंची और कानफोडू थी कि उसकी आवाज से पुणे के  सनातनियों के तो जैसे कान के पर्द फट गए हो। वे अचकचाकर सामंती नींद से जाग उठे।  वे सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले पर तरह तरह के घातक और प्राणलेवा प्रहार करने लगे। सावित्री और ज्योतिबा द्वारा दी जा रही शिक्षा ज्योति बुझ जायें इसके लिए उन्होने ज्योतिबा के पिता गोविंदराव को भड़काकर उन्हें घर से निकलवा दिया। घर से निकाले जाने के बाद भी सावित्री और ज्योतिबा ने अपना कार्य जारी रखा। जब सावित्रीबाई फुले घर से बाहर लड़कियों को पढ़ाने निकलती थीं तो उन पर इन सनातनियों द्वारा गोबर-पत्थर फेंके जाते थे। उन्हे रास्ते में रोक कर उच्च जाति के गुण्डो द्वारा भद्दी-भद्दी गाली दी जाती थी तथा उन्हें जान से मारने की लगातार धमकियां दी जातीं थीं। लड़िकयों के लिये चलाए जा रहे स्कूल बंद कराने के अनेक प्रयास किये जाते थे। सावित्री बाई डरकर घर बैठ जायेगी इसलिए उन्हे सनातनी अनेक विधियों से तंग करवाते। ऐसे ही एक बदमाश रोज सावित्रीबाई फुले का पीछा कर उन्हे तंग करने लगा। एक दिन तो उसने हद ही कर दी। वह अचानक उनका रास्ता रोककर खडा हो गया और फिर उनपर शारीरिक हमला कर दिया तब सावित्रीबाई फुले ने बहादुरी से उस बदमाश का मुकाबला करते हुए निडरता से उसे दो-तीन थप्पड़ कसकर जड़ दिए। सावित्रीबाई फुले से थप्पड़ खाकर वह बदमाश इतना शर्मशार हो गया कि फिर कभी उनके रास्ते में नजर नही आया।

सावित्रीबाई ने समय के उस दौर में काम शुरु किया जब धार्मिक अंधविश्वास, रुढिवाद, अस्पृश्यता, दलितों और स्त्रियों पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार अपने चरम पर थे। बाल-विवाह, सती प्रथा, बेटियों के जन्मते ही मार देना, विधवा स्त्री के साथ तरह-तरह के अमानुषिक व्यवहार, अनमेल विवाह, बहुपत्नी विवाह आदि प्रथाएं समाज का खून चूस रही थी। समाज में ब्राह्णवाद और जातिवाद का बोलबाला था। ऐसे समय सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबाफुले का इस अन्यायी समाज और उसके अत्याचारों के खिलाफ खडे हो जाना से सदियों से ठहरे और सड़ रहे गंदे तालाब में हलचल पैदा करने के समान था ।

 

1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान इन तीन सालों ने सावित्रीबाई फुले ने अपने पति और प्रख्यात सामाजिक क्रांतिकारी नेता ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर लगातार एक के बाद एक बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोलकर, सामाजिक क्रांति की बिगुल बजा दिया था। ऐसा सामाजिक क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी काम इस देश में सावित्री-ज्योतिबा से पहले किसी ने नही किया था। समाज बदलाव के इतने दमदार योगदान के बाबजूद इस देश के सवर्ण समाज के जातीय घमंड से भरे पुतलों ने उनके इस शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में दिए योगदान को किसी गिनती में नही रखा। लेकिन सबसे बडी खुशी की बात यह है कि आज स्वयं दलित पिछडा वंचित शोषित समाज उनके योगदान के एक-एक कण को ढूंढकर-परखकर उनके अतुलनीय योगदान की गाथा को सबके सामने उजागर कर रहा है। ना केवल वह उनके काम को ही उजागर कर रहा है अपितु उनको और उनके निस्वार्थ मिशन को आदर्श मानकर उनसे प्रेरणा लेकर उनके नाम पर स्कूल, कालेज, आदि खोलकर दलित आदिवासी व वंचित समाज के छात्र-छात्राओं की आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक मदद कर रहा है।

सावित्रीबाई फुले ने पहला स्कूल भी पुणे, महाराष्ट्र में खोला और अठारहवां स्कूल भी पूना में ही खोला । पूना में अस्पृश्यता का सबसे क्रूर और अमानवीय रुप देखने को मिलता है। इसी    स्थान पर दलित-वंचित और स्त्री समाज के लिए लगातार स्कूल खोलना भी एक तरह से इस बात का इशारा था कि अब ब्राह्मवाद की जड़े हिलने में देर नही है। पूना के भिडेवाडा में 1848 में खुले पहले स्कूल में छह छात्राओं ने दाखिला लिया। जिनकी आयु चार से छह के बीच थी। जिनके नाम अन्नपूर्णा जोशी, सुमती मोकाशी, दुर्गा देशमुख, माधवी थत्ते, सोनू पवार और जानी करडिले थी। इन छह छात्राओं की कक्षा ने बाद सावित्री के घर घर जाकर अपनी बच्चियों  को पढाने का आह्वान करने का फल यह निकला कि पहले स्कूल में ही इतनी छात्राएं हो गई कि एक और अध्यापक नियुक्त करने की नौबत आ गई। ऐसे समय विष्णुपंत थत्ते ने मानवता के नाते मुफ्त में पढाना स्वीकार कर विद्यालय की प्रगति में अपना योगदान दिया। सावित्रीबाई फूले ने 1849 में पूना में ही उस्मान शेख के यहॉं मुस्लिम स्त्रियों व बच्चों के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खोला। 1849 मे ही पूना, सतारा व अहमद नगर जिले में पाठशाला खोली।

 

महान शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ना केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया अपितु भारतीय स्त्री की दशा सुधारने के लिए उन्होने 1852 में "महिला मंडल" का गठन कर भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुआ भी बन गई। इस महिला मंडल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ स्त्रियों को तथा अन्य समाज को मोर्चाबन्द कर समाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया। हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था। विधवाओं के सर मूंडने जैसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए सावित्री बाई फूले ने नाईयों से विधवाओं के "बाल न काटने" का अनुरोध करते हुए आन्दोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाईयों ने भाग लिया तथा विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली। इतिहास गवाह है कि भारत क्या पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं मिलता जिसमें औरतों के उपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरूष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो। नाइयों के कई संगठन सावित्रीबाई फूले द्वारा गठित महिला मण्डल के साथ जुड़े। सावित्री बाई फूले और "महिला मंडल" के साथियों ने ऐसे ही अनेक आन्दोलन वर्षों तक चलाये व उनमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।

यहां का इतिहास, धर्मग्रंथ और समाजिक सुधार आंदोनल गवाह है कि हमारे समाज में स्त्रियों की कीमत एक जानवर से भी कम थी। स्त्री के विधवा होने पर उसके परिवार के पुरूष जैसे देवर, जेठ, ससुर व अन्य सम्बन्धियों द्वारा उसका दैहिक शोषण किया जाता था। जिसके कारण वह कई बार मॉं बन जाती थी। बदनामी  से बचने के लिए विधवा या तो आत्महत्या कर लेती थी, या फिर अपने अवैध बच्चे को मार डालती थी। अपने अवैध बच्चे के कारण वह खुद आत्महत्या न करें तथा अपने अजन्मे बच्चे को भी ना मारें, इस उद्देश्य से सावित्रीबाई फूले ने भारत का पहला "बाल हत्या प्रतिबंधक गृह" खोला तथा निराश्रित असहाय महिलाओं के लिए अनाथाश्रम खोला। स्वयं सावित्रीबाई फूले ने आदर्श सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन अपनाते हुए आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण स्त्री काशीबाई जोकि विधवा होने के बाद भी माँ बनने वाली थी, उसको आत्महत्या करने से रोककर उसकी अपने घर में प्रसूति करवा के उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रुप में गोद लिया। दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर डॉक्टर यशवंत बनाया। इतना ही नही उसके बड़े होने पर उसका अंतरजातीय विवाह किया। महाराष्ट्र का यह पहला अंतरर्जातीय विवाह था। सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने सारे परिवर्तन के कार्य अपने घर से ही शुरु कर समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत किए। सावित्रीबाई फूले जीवन पर्यन्त अन्तर्राजातीय विवाह आयोजित व सम्पन्न कर जाति व वर्ग विहिन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत रहीं। सावित्री बाई फूले ने लगभग 48 वर्षा तक दलित, शोषित, पीड़ित स्त्रियों को इज्जत से रहने के लिए प्रेरित किया उनमें स्वाभिमान और गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया।

 

  भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रसिद्ध कवयित्री भी थी। उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता। उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोले तथा समाज में व्याप्त सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ जंग लड़ी. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों को फेंकने की बात करती हैं...

"जाओ जाकर पढ़ो-लिखो / बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती / काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो / ज्ञान के बिना सब खो जाता है / ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है / इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लोदमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो / तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है / इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो / ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो /"

 

एक चिंतक के तौर पर सावित्रीबाई का मानना था कि ऊंच-नीच ईश्वर ने नही बनाए है। बल्कि इसको बनाने में तो स्वार्थी इंसान का ही हाथ है। उसी ने अपनी आगे की पीढियों का भविष्य सुरक्षित करने और अपना ऐशोआराम से जीवन जीने के लिए जातियां बनाई है। अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करने पर जब सावित्रीबाई फुले के भाई ने उसे भला बुरा कहते हुए लिखा- तुम और तुम्हारा पति बहिष्कृत हो गए हो। महार मांगो के लिए तुम जो काम करते हो वह कुल भ्रष्ट करने वाला है। इसलिए कहता हूं कि जाति रुढि के अनुसार जो भट्ट जो कहे तुम्हे उसी प्रकार आचरण करना चाहिए। भाई की पुरातनपंथी बातों का जबाब सावित्रीबाई फुले ने खूब अच्छी तरह देते हुए कहा कि- भाई तुम्हारी बुद्धि कम है और भट्ट लोगो की शिक्षा से वह दुर्बल बनी हुई है। एक अन्य पत्र में 1877 मे पडने वाले अकाल का भीषणता का जिस मार्मिकता से वर्णन किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने ना केवल अन्न सत्र चलाएं बल्कि अकाल पीडितों को अनाज देने के लिए लोगो से अपील भी की। 1890 में ज्योतिबा फुले का निर्वाण होने के बाद भी सावित्रीबाई फुले पूरे सात साल समाज में काम करती रही। 1897 में महाराष्ट्र में भयंकर रुप से प्लेग फैल गया था. परंतु सावित्रीबाई फुले बिना कि भय के प्लेग-पीडितों की मदद करती रही। एक प्लेग पीडित दलित बच्चे को बचाते हुए स्वयं भी प्लेग पीडित हो गई। अतंत अपने पुत्र यशवंत के अस्पताल में 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले का परिनिर्वाण हो गया।

सावित्रीबाई फुले अपने कार्यों से सदा समाज में अमर रहेगी। जिस वंचित शोषित समाज के मानवीय अधिकारों के लिए उन्होने जीवन पर्यन्त संघर्ष किया वही समाज उनके प्रति अपना आभार, सम्मान, और उनके योगदान को चिन्हित करने के लिए पिछले दो-तीन दशकों से दिल्ली से लेकर पूरे भारत में सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को "भारतीय शिक्षा दिवस" और उनके परिनिर्वाण 10 मार्च को "भारतीय महिला दिवस" के रुप में मनाता आ रहा है।

अनिता भारती

ए.डी 118 बी शालीमार बाग, दिल्ली-110088

ईमेल-anita.bharti@gmail.com

Mob- 9899700768


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