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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, August 13, 2015

एहसान फरामोश -एल.एस. हरदेनिया

दिनांक 13.08.2015

एहसान फरामोश

-एल.एस. हरदेनिया

अड़सठवें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर यदि हम हमारे देश की अब तक कि महायात्रा का मूल्यांकन करें तो हमें नज़र आएगी गरीबी, भुखमरी, निरक्षरता, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव और कमजोर वर्ग के लोगों के जीवन में गरिमा का अभाव। इसके अतिरिक्त, इन दिनों कुछ लोग योजनाबद्ध तरीके से यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि इन अड़सठ सालों में देश में कुछ भी नहीं हुआ है। इस तरह की बातें करने वालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सबसे आगे हैं।

वे एक ऐसा चित्र खींचते हैं मानों इन छः दशकों में देश में विकास तो हुआ ही नहीं, वरन् अवनति के स्पष्ट लक्षण दिखाई दे रहे हैं। यह स्वीकार करने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए कि हम इन वर्षों में और ज्यादा प्रगति कर सकते थे और देश की सम्पत्ति का समतामूलक वितरण भी कर सकते थे। हमारी आबादी का एक बड़ा भाग, जो अभाव की जिंदगी जी रहा है, उसका जीवन बेहतर बनाया जा सकता था।

एक लंबे और कठिन संघर्ष के बाद भारत ने आज़ादी पाई। आज़ादी के आंदोलन का नेतृत्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किया था। कांग्रेस ने इस आंदोलन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। हमारे देश की आज़ादी का आंदोलन, विश्व के इतिहास में हुए आज़ादी के आंदोलनों में सबसे बड़ा आंदोलन था। दुर्भाग्यवश हमें जब आज़ादी मिली तब देश को अत्यधिक कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। देश के दो टुकड़े हुए, जिसके लिए अंग्रेजों की ''फूट डालो और राज करो'' की नीति विशेष रूप से उत्तरदायी थी। विभाजन के बाद लाखों की संख्या में शरणार्थी पाकिस्तान छोड़कर भारत आए और उसी तरह लाखों शरणार्थी भारत छोड़कर पाकिस्तान गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शरणार्थियों का न सिर्फ पुनर्वास करवाया बल्कि जहां तक संभव हो सका, उन्हें सहायता भी दी।

आज़ादी के बाद दूसरी चुनौती यह थी कि हम शासन और विकास का कौनसा मॉडल चुनें। खासकर, उद्योग, शिक्षा और विदेश नीति के क्षेत्र में। सामाज कल्याण के लिए कौनसी रणनीति अपनाई जाए? यहां यह स्मरण रखना भी आवश्यक है कि हमारे साथ अन्य कई देशों को भी आज़ादी मिली थी। इनमें श्रीलंका, बर्मा, चीन, वियतनाम आदि शामिल हैं।

हमने  धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के रास्ते को अपनाया, सभी को मतदान का अधिकार दिया। चुनाव पर आधारित व्यवस्था को स्थापित करना एक बड़ा कठिन काम था जिसे हमने सफलतापूर्वक संपन्न किया। हमने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित समाज के मॉडल को अपनाया। उस समय तक समाज को बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतें उतनी मज़बूत नहीं थीं। विभाजन के बाद हमारे देश के अधिकांश सांप्रदायिक मुस्लिम नेता पाकिस्तान चले गए। उस समय हिंदू संप्रदायवादियों की शक्ति अत्यधिक क्षीण थी। कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट उस समय महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्तियां थीं। कम्युनिस्ट उस समय देश के सबसे बड़े प्रतिपक्ष समूह थे।

नेहरू के नेतृत्व में शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान और तकनीकी के विकास के साथ-साथ, हमनें तार्किकता, वैज्ञानिक सोच और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया। औद्योगिक क्षेत्र में भी हमने महत्वपूर्ण कदम उठाए। देश के उद्योगपतियों ने मिलकर एक योजना बनाई जिसे बंबई योजना के नाम से जाना जाता है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि देश के सभी पूंजीपति मिलकर भी औद्योगिकरण के लिए आवश्यक अधोरचना नहीं बना सकते। नेहरू सोवियत संघ मॉडल से बहुत प्रभावित थे। उनकी मान्यता थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के आधार पर ही हमारे देश का आर्थिक विकास  हो सकता है। यद्यपि सोवियत संघ में निजी क्षेत्र के लिए कोई स्थान नहीं था तथापि सोवियत मॉडल से प्रभावित होने के बावजूद हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव डाली गई।

इस नीति के अंतर्गत राज्य ने बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया और उद्योगपतियों को इससे लाभ उठाने के लिए निमंत्रित किया। मिश्रित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत हमारे देश में इस्पात, रसायनिक खाद, विद्युत, और रक्षा उत्पादन संयंत्र स्थापित किए गए। ये सभी को सार्वजनिक क्षेत्र में थे। इसके कारण हम अन्य नवोदित राष्ट्रों की तुलना में काफी आगे बढ़ सके। इस सिलसिले में हमारी और हमारे साथ आज़ाद हुए मुल्कों की आर्थिक प्रगति की तुलना करना प्रासंगिक होगा। हमने पंचवर्षीय योजना को विकास का आधार बनाया और पंचवर्षीय योजना को संचालित करने के लिए योजना आयोग का गठन किया। यह दुःख की बात है कि योजना आयोग को वर्तमान केंद्रीय सरकार ने भंग कर दिया है।

हमारे देश में कृषि पूरी तरह से वर्षा पर आधारित थी। यदि यथेष्ठ वर्षा नहीं होती थी तो फसलें चौपट हो जाती थीं। इस समस्या से निपटने के लिए हमने बड़े-बड़े बांध बनाए। यद्यपि कुछ लोग बड़े बांधों के आलोचक हैं परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बांधों ने कृषि विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भाखड़ानंगल, हीराकुड, नागार्जुन सागर और इस तरह के अन्य बड़े बांधों ने कृषि के क्षेत्र में लगभग क्रांति ला दी।

पंजाब हमारे देश में अनाज की सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। पंजाब के अलावा देश के कई अन्य राज्यों में भी कृषि के क्षेत्र में जबरदस्त विकास हुआ है। उस समय स्थितियां इतनी विकट थीं कि जवाहरलाल नेहरू अपील करते थे कि देशवासी सिर्फ एक समय भोजन करें। परंतु इस समस्या से हम शीघ्र ही उबर गए और खाद्यान्न के मामले में हम आत्मनिर्भर हो गए। परंतु एक वास्तविकता यह भी है कि इन बड़े बांधों से छोटे किसानों को कोई बहुत लाभ नहीं हुआ और उनकी स्थिति लगभग वैसी ही रही।

हम इस बात को नहीं भूल सकते हैं कि पीएल 480 के अंतर्गत हमारे देश में अमरीका से गेंहू भेजा जाता था। उस समय अमरीका के लोग यह कहते थे कि यदि भारतवासी तीन रोटी खाता है तो उसमें से एक रोटी हमारे गेहूं की होती है। हमने अमरीका के इस घमंड को चूर-चूर कर दिया और अब हमारे गोदाम 365 दिन लबालब भरे रहते हैं। यह दूसरी बात है कि इन गोदामों के लबालब भरे रहने के बाद भी कभी-कभी हमारे देश के लोगों को अनाज के अभाव का सामना करना पड़ता है। इसके लिए हमारी वितरण प्रणाली काफी हद तक जिम्मेदार है।

अनाज के उत्पादन में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ हमने दूध के उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी की, जिससे देश की जनता को पोषण प्राप्त होने लगा और तपेदिक जैसी बीमारियों पर हमने विजय पाई। शिक्षा के क्षेत्र में भी हमने महत्वपूर्ण प्रगति की है। नेहरू जी ने विज्ञान व तकनीकी शिक्षा पर बहुत ज़ोर दिया। देश में अनेक आईआईटी खोले गए, जिससे हम वैज्ञानिकों की फौज तैयार कर सके। सूचना तकनीकी के विकास में भी हमने महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की। इन क्षेत्रों में हमने अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक प्रगति की है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हम काफी पिछड़े हुए थे। सरकार द्वारा अस्पतालों का संचालन अपने हाथों में लेने से कई किस्म के टीकाकरण कार्यक्रम प्रारंभ किए गए। इन कार्यक्रमों की बदोलत हमनें चेचक व पोलियो सहित अनेक खतरनाक बीमारियों पर विजय पाई। जहां हमने स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी प्रगति की है वहीं हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग तक स्वास्थ्य और शिक्षा के लाभ अभी तक नहीं पहुंचे हैं। यह दुःख की बात है कि वर्तमान सरकार ने इन क्षेत्रों को मिलने वाले संसाधनों में कमी की है।

वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण भूमण्डलीकरण और निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिला है। इससे हमने अभाव में जीने वाले लोगों के लिए और दिक्कतें पैदा कर दी हैं।

हमारी महायात्रा में देश में ऐसा वातावरण पैदा करना भी शामिल है जिसमें आम आदमी समानता और इज्ज़त के साथ अपने मानवीय अधिकारों को सुरक्षित रख सके। हमारे समाज में आज भी जाति  और लिंग की महत्वपूर्ण भूमिका है और उच्च जाति के पुरूषों को ज्यादा अधिकार और सुविधाएं प्राप्त हैं।

आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही जोतिबा फुले, अंबेडकर और पेरियार ने इस तरह के आंदोलन चलाए थे जिससे समता पर आधारित समाज का निर्माण हो सके। सरकार ने छुआछूत की समाप्ति के लिए जाति आधारित भेदभाव और दलितों पर ज्यादतियों को रोकने के लिए कानून बनाए। अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों को अनेक सुविधाएं प्रदान की गईं। धीरे-धीरे जाति आधारित समाज कमजोर हो रहा है। शिक्षा और उद्योग के क्षेत्र में काम के अवसर निर्मित हुए हैं। इनसे भी हमारे देश की प्रगति में महत्वपूर्ण सहायता मिली है। यह भी एक वास्तविकता है कि जब भी जाति विभाजित समाज के दुष्परिणामों के खिलाफ आवाज़ उठाई गई तो देश के कुछ तत्वों ने उस आवाज़ को दबाने का प्रयास किया है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमने आधुनिक भारत को धर्मनिरपेक्षता की नींव पर खड़ा किया है। यह धर्मनिरपेक्षता की नीति के ही कारण है कि हमारे देश में एक मजबूत प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम हो सकी है। हमारे देश में समय पर चुनाव हो रहे हैं, पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक।

जो यह कहते हैं कि पिछले अड़सठ साल में कुछ भी नहीं हुआ है, उन्हें हमारे पड़ोस के देशों पर नज़र डालना चाहिए। उन्हें दिखेगा कि इन देशों में प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता लगभग तहसनहस हो गई है। पाकिस्तान की स्थिति से हम वाकिफ हैं। एक लंबे संघर्ष के बाद बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष ताकतें मज़बूत हो रही हैं परंतु वे कब ताश के पत्तों की तरह लड़खड़ा कर गिर जायेंगी, कहा नहीं जा सकता। नेपाल इतने वर्षों के बाद भी अपना संविधान नहीं बना सका है। बर्मा में आज भी सैनिक शासन है। श्रीलंका में नस्लवादी संघर्ष ने उस देश को तहसनस कर दिया है। इस सबके बीच क्या यह अपने आप में एक सफलता नहीं है कि हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता पर आधारित प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम है?

अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी हमने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जवाहरलाल नेहरू ने एशिया और अफ्रीका के राष्ट्रों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया था। 1946 में दिल्ली में एशियाई राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ था, जिसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने किया था। 1956 में इंडोनेशिया के बांडुंग में एशिया-अफ्रीका के देशों का सम्मेलन हुआ, जिसकी 60वीं वर्षगांठ अभी हाल में मनाई गई। इस अवसर पर बांडुंग में बड़ा सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें भारत का प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने किया था। परंतु उन्होंने अपने भाषण में नेहरूजी का नाम तक नहीं लिया। इससे यह पता लगता है कि हमारा सत्ताधारी दल कितने संकुचित विचार रखता है। यद्यपि सुषमा स्वराज ने नेहरूजी का नाम नहीं लिया परंतु बाकी सभी देशों के प्रतिनिधियों ने नेहरूजी को ही एशियाई-अफ्रीकी एकता का जनक माना। इसके साथ ही नेहरूजी ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव भी रखी।

आज मोदी, जो मेक इन इंडिया की बात करते हैं, वह मेक इन इंडिया संभव ही नहीं होता यदि भारत ने पिछले वर्षों में विज्ञान, तकनीकी, कृषि, शिक्षा आदि के क्षेत्र में प्रगति नहीं की होती। नेहरूजी द्वारा रखी गई नींव पर ही नरेन्द्र मोदी अपने विशालकाय महल का निर्माण करना चाहते हैं। इतिहास से नेहरूजी को मिटाकर, मोदी को कुछ नहीं मिलेगा बल्कि ऐसा करने से वे एक एहसानफरोश नेता समझे जायेंगे। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं)   



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