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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, October 16, 2015

गुजरात हाई कोर्ट का सामाजिक न्याय को ध्वस्त करने वाला मनमाना निर्णय ===================== लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

गुजरात हाई कोर्ट का सामाजिक न्याय
को ध्वस्त करने वाला मनमाना निर्णय
=====================

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में उपबन्धित समानता के मूल अधिकार की न्यायिक विवेचना करते हुए आजादी के तत्काल बाद सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मामलों में इस बात को दोहराया है कि राज्य अर्थात् सरकार इस बात के लिये प्रतिबद्ध होगा कि भारत मेंं सभी व्यक्ति चाहे वे भारत के नागरिक हों या न हों भारत में विधि के समक्ष समान समझे जायेंगे और सभी को विधि का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि समानता के सिद्धान्त को आंख बन्द करके लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि समानता का अर्थ है—समान लोगों के साथ, समान व्यवहार, न कि अ-समान लोगों के साथ समान व्यवहार।


अजा, अजजा, ओबीसी, विकलांग एवं स्त्रियों आदि कमजोर, पिछड़े एवं दुर्बल वर्गों को सरकार एवं प्रशासन में पर्याप्त और उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये शासकीय पदों के आरक्षण के प्रावधानों के लिये संविधान के अनुच्छेद 15—4, 16—4, 21 और 46 को एक साथ पढे जाने की जरूरत है।

इन संवैधानिक प्रावधानों के प्रकाश में देश की समस्त आबादी को समान रूप से न्याय प्रदान करने के लिये वर्गीकरण के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है। जिसके तहत देश की बहुसंख्यक मोस्ट अनार्य वंचित और पिछड़ी जातियों के मिलते—जुलते समूहों को विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। जिसका मूल मकसद एक समान सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों वाले जाति—समूहों को समुचित और पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करना है। सामान्यत: इसी वर्गीकरण संविधान में अजा, अजजा एवं ओबीसी वर्ग कहा जाता है।

बहुसंख्यक अनार्य वंचित वर्गों को प्रशासन में उचित और पर्याप्त भागीदारी प्रदान करने के लिये संविधान निर्माताओं की मूल भावना यह थी कि इन वर्गों के लोगों को प्रशासन और सरकार में कम से कम उनकी कुल जनसंख्या के अनुपात में भागीदारी/प्रतिनिधित्व अवश्य मिलना चाहिये। इसलिये प्रारम्भ में अजा एवं अजजा वर्गों को इनकी तब तक की अन्तिम बार की गयी जनगणना 1931 के अनुसार न्यूनतम प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु सरकार की ओर से आरक्षण क्रमश: 15 एवं 7.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन एआर बालाजी और इन्द्रा शाहनी प्रकरणों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आर​क्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत तक निर्धारित/निर्णीत किये जाने के कारण ओबीसी के लोगों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व/आरक्षण नहीं दिया जा सका।

यह ओबीसी के लोगों के साथ न्यायिक निर्णय की आड़ में सरकार द्वारा खुल्लमखुल्ला किया जा रहा संवैधानिक अत्याचार है। यह संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित अवसर की समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धान्त का खुला उल्लंघन है, लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षित वर्गों के मेरिटधारी अभ्यर्थियों को मेरिट के अनुसार अनारक्षित पदों पर नियुक्ति प्रदान करके इस अन्याय की कुछ सीमा तक प्रतिपूर्ति की जाती रही थी, इसलिये आरक्षित वर्गों को भयंकर क्षति नहीं हो रही थी। यद्यपि अन्याय बरकार था।

गुजरात लोक सेवा आयोग द्वारा प्रारम्भ से प्रचलित उक्त सिद्धान्त के अनुसार आरक्षित वर्गों के मेरटधारी अभ्यर्थियों को अनारक्षित कोटे में नौकरी में नियुक्ति प्रदान की गयी थी। जिन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दूवादी संगठनों से सम्बन्ध रखने वाले अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों द्वारा गुजरात हाई कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गयी। जिसे हाई कोर्ट की सिंगल/एकल बैंच/पीठ ने तो अस्वीकार कर दिया, लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश द्वय एमआर शाह व जीआर उधवानी की खंडपीठ ने एकल/सिंगल न्यायाधीश के फैसले को खारिज करते हुए अपने नवीनतम निर्णय में मूलत: निम्न दो बातें कही हैं:—
1. आरक्षित वर्ग के व्यक्तियों को सिर्फ आरक्षण उनके वर्ग में ही मिलेगा चाहे उनका मेरिट मे कितना ही ऊँचा स्थान क्यों न हो।
2. यदि आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को सामान्य श्रेणी की वरीयता सूची में शामिल किया गया तो इससे सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार चयन से वंचित रह जाएंगे। यह राज्य सरकार की नीति के खिलाफ है।
गुजरात हाई कोर्ट की उक्त दोनों टिप्पणियों को पढने के बाद लगता ही नहीं कि ये टिप्पणी किसी न्यायालय के निर्णय की हैं, बल्कि ऐसा लगता है, जैसे कि आरक्षण विरोधी मानसिकता के किसी मनुवादी संगठन की हैं। इनको पढकर ऐसा लगता है—मानो मोहनदास कर्मचंद गांधी एवं सरदार बल्लभभाई पटेल की आरक्षण विरोधी विचारधारा को आगे बढाते हुए, इन दोनों गुजरातियों को श्रृद्धांजलि दी जा रही है।
आखिर गुजरात हाई कोर्ट कहना क्या चाहता है? क्या शेष अनारक्षित 51 फीसदी कोटा देश के 10 से 15 फीसदी आर्य—मनुवादियों की बपौती है? इस निर्णय का सीधा अर्थ तो यही है कि अजा, अजजा एवं ओबीसी के 49 फीसदी आरक्षण के बाद बचने वाला शेष 51 फीसदी कोटा देश के मुट्ठीभर अनारक्षित वर्ग के लोगों के लिये आरक्षित है।

इसलिये मैं बार—बार कहता और लिखता रहा हूॅं कि अब आरक्षित वर्ग को आरक्षण की मांग छोड़कर आर्य—मुनवादियों को उनको जनसंख्या के अनुसार प्रतिबन्धित करने की मांग का देशव्यापी अभियान चलाये जाने की जरूरत है। अर्थात् सवर्ण—आर्य—मनुवादियों को प्रत्येक क्षेत्र में अधिकतम 10 से 15 फीसदी पदों तक प्रतिबन्धित कर दिया जावे। इसके बाद शेष अनार्य आबादी को किसी भी क्षेत्र में न्याय, हिस्सेदारी ​और भागीदारी से कोई नहीं रोक सकता। हक रक्षक दल सामाजिक संगठन इस दिशा में काम कर रहा है।

अन्यथा वर्तमान में देश में न्यायपालिका के मार्फत वंचित—अनार्य मोस्ट वर्गों को प्राप्त सभी संवैधानिक हकों से वंचित किये जाने का अभियान रुकने वाला नहीं है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' राष्ट्रीय प्रमुख, हक​ रक्षक दल सामाजिक संगठन

मोबाइल नं. : 9875066111 दिनांक : 14.10.2015

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