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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, March 7, 2016

जातिप्रथा और धर्म-परिवर्तन भीमराव आंबेडकर

जातिप्रथा और धर्म-परिवर्तन 
भीमराव आंबेडकर

हिंदू समाज की वर्तमान उथल-पुथल का कारण है, आत्म-परिरक्षण के भावना। एक समय था, जब इस समाज के अभिजात वर्ग को अपने परिरक्षण के बारे में कोई डर नहीं था। उनका तर्क था कि हिंदू समाज एक प्राचीनतम समाज है, उसने अनेक प्रतिकूल शक्तियों के प्रहार को झेला है, अतः उसकी सभ्यता और संस्कृति में निश्चय ही कोई अंतर्निहित शक्ति और दमखम होगा, तभी तो उसकी हस्ती बनी रही, अतः उनका दृढ़ विश्वास था कि उसके समाज का तो सदा जीवित रहना निश्चित है। लगता है कि हाल की घटनाओं ने उनके इस विश्वास को झकझोर दिया है। हाल ही में समूचे देश में जो हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए हैं, उनमें देखा गया है कि मुसलमानों का छोटा-सा गिरोह हिंदुओं को पीट ही नहीं सकता, बल्कि बुरी तरह पीट सकता है। अतः हिंदुओं का अभिजात वर्ग नए सिरे से इस प्रश्न पर विचार कर रहा है कि अस्तित्व के संघर्ष में क्या इस प्रकार जीवित रहने का कोई मूल्य है। जो गर्वीला हिंदू सदा ही यह राग अलापता रहा है कि उसके जीवित रहने का तथ्य इस बात का प्रमाण है कि जीवित रहने में सक्षम है, उसने कभी शांत मन से यह नहीं सोचा कि जीवित रहना कई प्रकार का है और सभी का मूल्य एक जैसा नहीं होता। हम शत्रु के सामने सीना तानकर और उसे जीत कर अपना अस्तित्व कायम रख सकते हैं अथवा हम पीछे हटकर और स्वयं को सुरक्षित स्थान में छिपाकर भी अपना अस्तित्व कायम रख सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में अस्तित्व बना रहेगा, लेकिन निश्चय ही दोनों अस्तित्वों में आकाश-पाताल का अंतर है। महत्त्व अस्तित्व के तथ्य का नहीं है, बल्कि अस्तित्व के स्तर का है। हिंदू जीवित रह सकते हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि वो आजाद लोगों के रूप में जीवित रहेंगे या गुलामों के रूप में, लेकिन मामला इतना निराशाजनक लगता है कि मान भी लें कि वे जैसे-तैसे गुलामों के रूप में जीवित रह सकते हैं, फिर भी यह पूर्णतः निश्चित नहीं दिख पड़ता कि वे हिंदुओं के रूप में जीवित रह सकते हैं, क्योंकि मुसलमानों ने न केवल उन्हें बाहुबल के संघर्ष में मात दी है, बल्कि सांस्कृतिक संघर्ष में भी मात दी है। हाल के दिनों में इस्लामी संस्कृति के प्रसार के लिए मुसलमानों ने एक नियमित और तेज अभियान चलाया है। कहा जाता है कि धर्म-परिवर्तन के अपने आंदोलन द्वारा उन्होंने हिंदू धर्म के लोगों को अपनी ओर करके अपनी संख्या में भारी वृद्धि कर ली है। मुसलमानों का कैसा सौभाग्य! अज्ञात कुल के कोई सात करोड़ लोगों की विशाल संख्या है। उन्हें हिंदू कहा तो जाता है, पर उनका हिंदू धर्म से कोई खास घनिष्ठ संबंध नहीं है। हिंदू धर्म ने उनकी स्थिति को इतना असहनीय बना दिया है कि उन्हें सहज ही इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए फुसलाया जा सकता है। उनमें से कुछ तो इस्लाम में शामिल हो रहे हैं और अन्य अनेक शामिल हो सकते हैं।
हिंदू अभिजात वर्ग के मानस में खलबली मचाने के लिए यह काफी है। यदि हिंदू संख्या में अधिक होने पर भी मुसलमानों का सामना नहीं कर सकते तो उस समय उनकी क्या दुर्गति होगी, जब उनके अनुयायियों की संख्या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेने के कारण और घट जाएगी। हिंदू अनुभव करने लगे हैं कि उन्हें अपने लोगों को इतर धर्म में जाने से रोकना होगा। उन्हें अपनी संस्कृति को बचाना होगा। इससे शुद्धि आंदोलन या लोगों को पुनः हिंदू धर्म में लेने के आंदोलन की उत्पत्ति हुई।
कुछ रूढ़िवादी लोग इस आंदोलन का विरोध इस आधार पर करते हैं कि हिंदू धर्म कभी भी धर्म प्रचार करने वाला धर्म नहीं था और हिंदू को ऐसा होना चाहिए। इस दृष्टिकोण के पक्ष में कुछ कहा जा सकता है। जहां तक स्मृति या परंपरा पहुंच सकती है, उस काल से आज तक कभी भी धर्म प्रचार हिंदू धर्म का व्यवहार पक्ष नहीं रहा है। मिशनों के निवेदन-दिवस 3 दिसंबर, 1873 को वेस्टमिन्स्टर एब्बे की ओर से महान जर्मन विद्वान और प्राच्यविद प्रोमैक्समूलर ने जो अभिभाषण दिया था, उसमें उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा था कि हिंदू धम्र, धर्म-प्रचार करने वाला धर्म नहीं है। अतः जो रुढ़िवादी वर्ग स्वार्थ परायणता में विश्वास नहीं करता, वह अनुभव कर सकता है कि शुद्धि के उनके विरोध का सुदृढ़ आधार है, क्योंकि उस प्रथा का हिंदू धर्म के सर्वोपरि मूल सिद्धांतों से प्रत्यक्ष विरोध है, लेकिन वैसी ही ख्याति वाले अन्य विद्वान हैं, जो शुद्धि आंदोलन के पक्षधरों का समर्थन करते हैं। उनकी राय है कि हिंदू धर्म, धर्म-प्रचार करने वाला धर्म रहा है और वह ऐसा हो सकता है। प्रो.जौली ने अपने लेख 'डाई औसब्रेटुंग डेर इंडिसचेन फुल्टर' में उन साधनों और उपायों का विशद वर्णन किया है, जो देश के आदिवासियों के बीच हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए प्राचीन हिंदू राजाओं एवं प्रचारकों ने अपनाए हैं।
प्रो.मैक्समूलर के तर्क का खंडन करने वाले दिवंगत सर अल्फेड लयाल ने भी यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिंदू धर्म ने धर्म का प्रचार किया है। केस की संभाव्यता निश्चय जोली और लयाल के पक्ष में दिख पड़ती है, क्योंकि जब तक हम यह नहीं मानते कि हिंदू धर्म ने निश्चय ही कुछ-न-कुछ प्रचार व प्रसार का कार्य किया, तब तक इस बात का आकलन नहीं किया जा सकता कि किस प्रकार उसका प्रसार एक ऐसे विशाल महाद्वीप में हुआ, जिसमें अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति वाली विभिन्न जातियां बसी हुई हैं। इसके अलावा कतिपय यज्ञों तथा योगों के प्रचलन को तभी स्पष्ट किया जा सकता है, जब यह मान लिया जाए कि ब्रात्यों (पतितों, अनार्यों) की शुद्धि के लिए अनुष्ठान थे। अतः हम निरापद रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्राचीन-काल में हिंदू धर्म ने धर्म का प्रचार व प्रसार किया, लेकिन किसी कारणवश उसके ऐतिहासिक क्रम में काफी समय पूर्व यह कार्य बंद हो गया था।
मैं इस प्रश्न पर विचार करना चाहता हूं कि किस कारण हिंदू धर्म, धर्म-प्रचार करने वाला धर्म नहीं रहा, इसके अलग-अलग स्पष्टीकरण हो सकते हैं। मैं अपना निजी स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना चाहता हूं। अरस्तु ने कहा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अपने कथन के समर्थन में अरस्तु के तर्कों का जो भी औचित्य रहा हो, पर इतना तो सच है कि यह तो संभव ही नहीं है कि कोई व्यक्ति शुरू से ही इतना व्यक्तिवादी हो जाए कि वह स्वयं को अपने संगी-साथियों से एकदम अलग-थलग कर ले। सामाजिक बंधन मजबूत बंधन है और वह आत्म-चेतना के विकास के साथ ही गहरा जुड़ा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति की अपने और अपने हित की चिंता में दूसरों की तथा उनके हितों की मान्यता शामिल है और एक प्रकार के प्रयोजन के लिए उसका प्रयास, चाहे उदार हो या स्वार्थपूर्ण, उस हद तक दूसरे का भी प्रयास है। सभी अवस्थाओं में व्यक्ति के जीवन, हितों और प्रयोजनों के लिए सामाजिक संबंध का मूल महत्त्व है। अपने जीवन की सभी परिस्थितियों में वह सामाजिक संबंधों की ओजस्विता को अनुभव करता है और समझता है। संक्षेप में, जैसे पानी के बिना मछली जिंदा नहीं रह सकती, वैसे ही वह समाज के बिना जिंदा नहीं रह सकता।
इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि इससे पूर्व कि कोई समाज किसी का धर्म परिवर्तन कर सके, उसे यह देखना ही होगा कि उसके गठन में ऐसी व्यवस्था हो कि परदेसियों को उसका सदस्य बनाया जा सके और वे उसके सामाजिक जीवन में भाग ले सकें। उसका उपयोग इस प्रकार का होना ही चाहिए कि उन व्यक्तियों के बीच कोई भेदभाव न हो, जो उसमें पैदा हुए हैं और जो उसमें बाहर से लाए गए हैं। उसका हर स्थिति में खुलेदिल से स्वागत होना ही चाहिए, ताकि वह उसके जीवन में प्रवेश कर सके और इस प्रकार उस समाज में घुलमिल और फलफूल सके। यदि परदेशी के बारे में धर्म-परिवर्तन करने वाले को कहां स्थान दिया जाए। यदि धर्म-परिवर्तन करने वाले के लिए कोई स्थान नहीं होगा, तो न तो धर्म-परिवर्तन के लिए कोई न्योता दिया जा सकता है और न ही उसे स्वीकार किया जा सकता है।
धर्म-परिवर्तन करके हिंदू धर्म ग्रहण करने वाले के लिए हिंदू समाज में क्या कोई स्थान है? अब हिंदू समाज के संगठन में जातिप्रथा की प्रधानता है। प्रत्येक जाति में सजातीय विवाह होते हैं और प्रत्येक दूसरे का विरोध करती है या यूं कहिए कि वह केवल उसी व्यक्ति को अपना सदस्य बनाती है, जो उसके भीतर पैदा होता है और बाहर के किसी व्यक्ति को अपने भीतर नहीं आने देती। चूंकि हिंदू समाज जातियों का परिसंघ है और प्रत्येक जाति अपने-अपने अहाते में बंद है, अतः उसमें धर्म-परिवर्तन करने वाले के लिए कोई स्थान नहीं हैं। कोई भी जाति उसे अपनी जाति में शामिल नहीं करेगी। किस कारण हिंदू धर्म, धर्म प्रचारक धर्म नहीं रहा, इस प्रश्न का उत्तर इस तथ्य में खोजा जा सकता है कि उसने जातिप्रथाका विकास किया। जातिप्रथा और धर्म-परिवर्तन परस्पर विरोधी हैं। जब तक सामूहिक धर्म-परिवर्तन संभव था, तब तक हिंदू समाज धर्म-परिवर्तन कर सकता था, क्योंकि धर्म-परिवर्तन करने वाले इतनी अधिक संख्या में होते थे कि वे एक ऐसी नयी जाति का गठन कर सकें, जो स्वयं उनके बीच में से सामाजिक जीवन के तत्व प्रदान कर सके, लेकिन जब सामूहिक धर्म-परिवर्तन की गुंजाइश न रही और केवल व्यक्ति का धर्म-परिवर्तन किया जा सका तो अनिवार्य था कि हिंदू धर्म, धर्म प्रचारक धर्म नहीं रहा, क्योंकि उसका सामाजिक संगठन धर्म-परिवर्तन करने वालों के लिए कोई स्थान नहीं बना सका।
किस कारण हिंदू धर्म, धर्म प्रचारक धर्म नहीं रहा, इस प्रश्न की व्याख्या मैंने इसलिए नहीं की है कि एक नयी व्याख्या देकर विचार की मौलिकता का श्रेय प्राप्त कर सकूं। मैंने प्रश्न की व्याख्या करके उसका उत्तर दिया है, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि दोनों का शुद्धि आंदोलन से अति महत्त्वपूर्ण संबंध हैं। चूंकि इस आंदोलन के पक्षधरों के प्रति मेरी गहरी सहानुभूति है, अतः मैं कहना ही चाहूंगा कि उन्होंने अपने आंदोलन की सफलता के मार्ग की बाधाओं का विश्लेषण नहीं किया है। शुद्धि आंदोलन का उद्देश्य है कि वह हिंदू समाज की संख्या में वृद्धि करे। कोई समाज इसलिए सशक्त नहीं होता कि उसकी संख्या अधिक है, बल्कि इसलिए होता है कि उसका गठन ठोस होता है।
ऐसी मिसालों की कमी नहीं है, जहां धर्मोंमत्तों के एक संगठित सशक्त दल ने असंगठित धर्मयोद्धाओं की एक बड़ी सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया है। हिंदू-मुस्लिम दंगों में भी यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदुओं की वहीं पिटाई नहीं होती, जहां उनकी संख्या कम है, अपितु उस स्थान पर भी मुस्लिम उन्हें पीट देते हैं, जहां उनकी संख्या अधिक होती है। मोपलाओं का मामला संगत है। केवल उसी से पता चल जाना चाहिए कि हिंदुओं की कमजोरी उनकी संख्या की कमी नहीं है, बल्कि उनमें एकजुटता का अभाव है। यदि हिंदू समाज की एकजुटता को सशक्त करना है तो हमें उन शक्तियों से निपटना होगा, जिन पर उसके विघटन का दायित्व है। मेरी आशंका है कि हिंदू समाज की एकजुटता के स्थान पर यदि केवल शुद्धि का सहारा लिया गया तो इससे और अधिक विघटन होगा, उससे मुस्लिम संप्रदाय नाराज हो जाएगा और हिंदुओं को कोई लाभ नहीं होगा। शुद्धि के कारण जो ऐसा व्यक्ति आएगा, वह बेघर ही रहेगा। वह अलग-थलग एकाकी जीवन ही बिताएगा और उसकी किसी के प्रति न कोई विशिष्ट निष्ठा होगी और न कोई खास लगाव होगा। यदि शुद्धि आ भी जाए तो उससे केवल वही होगा कि वर्तमान संख्या में एक और जाति की वृद्धि हो जाएगी। अब देखिए, जितनी अधिकता जातियों की होगी, हिंदू समाज का उतना ही अधिक अलगाव और विलगाव होगा और वह उतना ही अधिक कमजोर होगा। यदि हिंदू समाज जीवित रहना चाहता है तो उसे सोचना ही पड़ेगा कि वह संख्या में वृद्धि न करे, बल्कि अपनी एकात्मा में वृद्धि करे और उसका अर्थ है, जातिप्रथा का उन्मूलन। जातिप्रथा का उन्मूलन हिंदुओं का सच्चा संघटन है। जब जातिप्रथा के उन्मूलन से संघटन की प्राप्ति हो जाएगी तो शुद्धि की जरूरत ही नहीं रहेगी और यदि शुद्धि की भी गई तो उससे वास्तविक शक्ति प्राप्त होगी। जातिप्रथा के रहते वह संभव नहीं होगा और यदि शुद्धि को अमल में लाया गया तो वह हिंदुओं के वास्तविक संघटन और एकात्मा के लिए हानिकारक सिद्ध होगी, लेकिन जैसे-तैसे हिंदू समाज का अति क्रांतिकारी तथा प्रबल सुधारक जातिप्रथा के उन्मूलन की अनदेखी करता है। वह धर्मांतरित हिंदू के पुनः धर्मांतरण जैसे निरर्थक उपायों की वकालत करता है। वह कहता है कि खानपान में परिवर्तन किया जाए और अखाड़े खोले जाएं। किसी दिन तो हिंदुओं को इस बात का आभास होगा कि वे न तो अपने समाज को बचा सकते हैं और न ही अपनी जातिप्रथा को। आशा की जाती है कि वह दिन अधिक दूर नहीं है।
 तेलुगु समाचार स्पेशल नंबर में प्रकाशित, नवंबर 1926

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