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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, May 21, 2016

अस्सी नब्वे के दशक में संपादक की रीढ़ भी होती थी। पूरे सूबे में आग की तरह भड़के महतोष आंदोलन के सिलसिले में तत्काकालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने एकदम लाचारी में धीरेंद्र मोहन को नहीं,सीधे दैनिक जागरणके प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन को एकबार नहीं दो दो बार फोन मुझे तुरंत हटाने के लिए किया था और दोनों बार उनने मुख्यमंत्री को दो टुक शब्दों में नहीं कह दिया था।जबिक वे मुख्यमंत्री के बेहद करीब थे। पत्रकारिता की नौकरी छोड़ने के बाद एक ऐसे संपादक का शुक्रिया अदा करने और दैनिक जागरण में मेरी हैसियत के बारे में किसी गलतफहमी को खत्म करना मेरी जिम्मेदारी बनती है।यह साफ करना भी जरुरी है कि जनसत्ता ने मुझे आजादी दी है,भले कुछ और न दिया हो।इसके लिए मैं तहे दिल से आभारी हूं। मेरी हैसियत चाहे जो हो जनसत्ता में मुझे इतनी आजादी मिली है कि अपने पुराने साथियों के साथ आगे और पच्चीस साल काम करने का मौका बने तो मैं तैयार हूं बशर्त कि मेरी जनपक्षधरता को आंच न आये।शर्त इकलौती है। अशोक अग्रवाल के सिवाय अमर उजाला के बाकी तमाम लोग मेरे कोलकाता आने से नाराज थे लेकिन अशोक अग्रवाल के रवैये की

अस्सी नब्वे के दशक में संपादक की रीढ़ भी होती थी।

पूरे सूबे में आग की तरह भड़के  महतोष आंदोलन के सिलसिले में तत्काकालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी  ने  एकदम लाचारी में धीरेंद्र मोहन को नहीं,सीधे दैनिक जागरणके प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन को एकबार नहीं दो दो बार फोन मुझे तुरंत हटाने के लिए किया था और दोनों बार उनने मुख्यमंत्री को दो टुक शब्दों में नहीं कह दिया था।जबिक वे मुख्यमंत्री के बेहद करीब थे।


पत्रकारिता की नौकरी छोड़ने के बाद एक ऐसे संपादक का शुक्रिया अदा करने और दैनिक जागरण में मेरी हैसियत के बारे में किसी गलतफहमी को खत्म करना मेरी जिम्मेदारी बनती है।यह साफ करना भी जरुरी है कि जनसत्ता ने मुझे आजादी दी है,भले कुछ और न दिया हो।इसके लिए मैं तहे दिल से आभारी हूं।



मेरी हैसियत चाहे जो हो जनसत्ता में मुझे इतनी आजादी मिली है कि अपने पुराने साथियों के साथ आगे और पच्चीस साल काम करने का मौका बने तो मैं तैयार हूं बशर्त कि मेरी जनपक्षधरता को आंच न आये।शर्त इकलौती है।


अशोक अग्रवाल के सिवाय अमर उजाला के बाकी तमाम लोग मेरे कोलकाता आने से नाराज थे लेकिन अशोक अग्रवाल के रवैये की वजह से और खासकर रामजन्मभूमि आंदोलन के सिलसिले में उनकी विशुध  हिंदू वादी पत्रकारिता की वजह से मैंने उनकी एक नहीं सुनी।वीरेनदा अकेले मेरे इस फैसले के पक्ष में थे बल्कि उनकी बात मानकर ही मैं कोलकाता चला आया।अडे सेंते लोग इसी दौर की कहानियां हैं तो धनबाद की कहानियां ईश्वर की गलती है।


मैंने पहले ही निवेदन किया है कि मेरा जैसा तुच्छ प्राणी किसी सम्मान पुरस्कार के योग्य नहीं हैं और कृपया मुझे किसी सम्मान और पुरस्कार के लिए विवेचना में न रखें।हमारे साथियों तक शायद यह बात नहीं पहुंची और लगे हाथों मेरे रिटायर करने के मौके पर उनने प्यार की जिद में मेरा सम्मान कर डाला।


बहरहाल यह अंतिम मौका है।कृपया अपने प्यार और समर्थन को सम्मान या पुरस्कार में बदलने का कोई और प्रयास न करें।मुझे बेवजह लज्जित न करें।


पलाश विश्वास

आज बुद्ध पूर्णिमा है और मुझे और सविता जी को यह दिन कोलकाता के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बिताने का मौका मिला है।


रात से साइक्लोन की खबर थी और सुबह बूंदाबांदी होने लगी थी।लेकिन शनिवार होने की वजह से पटना से लौटे लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्थ बर्वे के न्यौते पर दक्षिण कोलकाता के विजयगढ में आसानी से पहुंचकर कार्यकर्ताओं का जमावड़ा देखकर बेहद खुशी हुई।


बुद्ध पूर्णिमा का पर्व मनाने के अलावा उन लोगों ने मुझे शाल वगैरह देकर सम्मानित भी किया और इसके लिए लज्जित हूं मैं।


मैंने पहले ही निवेदन किया है कि मेरा जैसा तुच्छ प्राणी किसी सम्मान पुरस्कार के योग्य नहीं हैं और कृपया मुझे किसी सम्मान और पुरस्कार के लिए विवेचना में न रखें।हमारे साथियों तक शायद यह बात नहीं पहुंची और लगे हाथों मेरे रिटायर करने के मौके पर उनने प्यार की जिद में मेरा सम्मान कर डाला।


बहरहाल यह अंतिम मौका है।कृपया अपने प्यार और समर्थन को सम्मान या पुरस्कार में बदलने का कोई और प्रयास न करें।मुझे बेवजह लज्जित न करें।


इस मौके पर हमने आज की परिस्थितियों पर जो कहा ,वह सुबह अंग्रेजी और हिंदी में लिख ही चुका हूं और आगे दोहराने की जरुरत नहीं है।


मैंने इंडियन एक्सप्रेस समूह की नौकरी से रिटायर भले किया हो,समाज.देश और दुनिया से रिटायर नहीं किया है और न मेरी जनपक्षधरता में कुछ कमी होने वाली है।मैंने वैकल्पिक मीडिया के लिए उन सबसे सहयोग मांगा।सविता जी ने भी कह दिया कि गुजारे के लिए चाहे हमें आलू बेचना पड़े,हम जनपक्षधरता का रास्ता किसी भी कीमत पर छोड़ने वाले नहीं हैं।


घर लौटकर बहुत थका हुआ हूं लेकिन अपडेट करते हुए आदतन मैंने भड़ास का पेज खोला तो अमर उजाला में हमारे पुरान साथी इंद्रकांत मिश्र का आलेख वहां टंगा पाया।उनने मुझे और मेरे साथ पुराने साथियों को याद किया,मेरे लिए यह बेहद खुशी की बात है।रीता बहुगुणा के बारे में उनने साफ कियाहै कि वे छात्र राजनीति में नहीं थी और पीएसओ की तरफ से कुमुदिनी पति इलाहाबाद विश्वविद्यलय छात्र संघ की उपाध्यक्ष थीं।लगता है कि थोड़ा स्मृतिभ्रम हुआ होगा।मिश्र जी का आभार।यह लंबा चौड़ा संस्मरण मेरे ही संदर्भ में लगाने के लिए यशवंत का भी आभार।


बाकी उनने मेरी जो भयंकर तारीफें की हैं,मुझे कभी नहीं लगा कि मुझमें सचमुच ये गुण हैं,होते तो यकीनन मैं सब एडीटर पर रिटायर  न करता ।


कमसकम अमर उजाला जागरण जैसे अखबारों में मेरी जो हैसियत थी,वह बनी रहती।


इंद्रकांत जी ने पुराने दोस्त के प्यार में कुछ ज्यादा ही हमारी तारीफ कर दी है और यकीन मानें कि इसके लायक मैं नहीं हूं।


मुझे तुरंत इसका जवाब लिखना इसलिए पड़ रहा है कि यह साफ करना बेहद जरुरी है कि अस्सी नब्वे के दशक में संपादक की रीढ़ भी होती थी।


मेरी जानकारी में पूरे सूबे में आग की तरह भड़के  महतोष आंदोलन के सिलसिले में तत्काकालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी  ने  एकदम लाचारी में धीरेंद्र मोहन को नहीं,सीधे दैनिक जागरणके प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन को एकबार नहीं दो दो बार फोन मुझे तुरंत हटाने के लिए किया था और दोनों बार उनने मुख्यमंत्री को दो टुक शब्दों में नहीं कह दिया था।जबकि वे मुख्यमंत्री के बेहद करीब थे।यह स्मृति भ्रम का मामला भी नहीं है।तिवारी जी और महतोष मोड़ के बारे में दिल्ली यूपी वालों को लबकुछ मालूम है।मरे कहानी सागोरी मंडल जिंदा है,लोगों ने पढ़ी भी होगी।


पत्रकारिता की नौकरी छोड़ने के बाद एक ऐसे संपादक का शुक्रिया अदा करने और दैनिक जागरम में मेरी हैसियत के बारे में किसी गलतफहमी को खत्म करना मेरी जिम्मेदारी बनती है।यह साफ करना भी जरुरी है कि जनसत्ता ने मुझे आजादी दी है,भले कुछ और न दिया हो।इस आजादी के लिए मैं तहे दिल से आभारी हूं।


उसीतरह मेरी हैसियत चाहे जो हो जनसत्ता में मुझे आजादी मिली है तो अपने पुराने साथियों के साथ आगे और पच्चीस साल काम करने का मौका बने तो मैं तैयार हूं बशर्त कि मेरी जनपक्षधरता को आंच न आये।शर्त इकलौती है।


अगर ध्यान से देखा जाये तो जनसत्ता का माहौल दूसरे हिंदी अखबारों में माननीय प्रभाष जोशी से लेकर ओम थानवी तक काफी लोकतांत्रिक रहा है।एकदम अलग।


माननीय मुकेश भारद्वाज नये आये हैं और दूसरे किस्म के प्रयोग कर रहे हैं और उन्हें मैं कायदे से जानने से पहले रिटायर कर चुका हूं तो उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं है। आगे उनके कामकाज की समीक्षा करने की कभी जरुरत हुई तो करुंगा।अभी नहीं।


जनसत्ता में जैसे प्रभाष जोशी लिखा करते थे या जैसे बेबाक बोल नये संपादक मुकेशजी लिख रहे हैं,उनके अलावा बाकी संपादकीय में से किसी के लिखने का रिवाज नहीं है।संवाददाताओं को ही अखबार के लिए लिखना होता है।जाहिर है कि लेखन को लेकर कोई टकराव कभी नहीं रहा है।मैं तो ब्लागिंग ही करता रहा हूं।वैसे भी मैंने एक पंक्ति भी बिना मकसद कभी लिखा नहीं है और न आगे लिखना है।


बाकी अखबारों की तुलना में जनसत्ता के पत्रकारों पर अब तक कोई बंदिश नहीं है और न गतिविधिोयों पर अंकुश रहा है।बहरहाल मैंने अमर उजाला छोड़ने के बाद फिर अखबार के लिए नहीं लिखा है लेकिन मुझे अपने हिसाब से लिखने पढ़ने की आजादी मिलती रही है और मेरी जनपक्षधरता पर  अंकुश भी नहीं रहा है।मेरे लिए यह सबसे बड़ी बात है जो मैं जनसत्ता में पच्चीस साल तक टिका रहा और ऐसा टकराव नहीं हुआ कि मुजे नौकरी छोड़नी पड़ जाये।जनसत्ता के तमाम संपादकों का आभारी हूं इसीलिए।


माननीय प्रभाष जोशी से  लेकर माननीय ओम थानवी से मेरे मतभेद जरुर रहे हैें और मैंने उनके खिलाफ भी खूब उन्हींके कार्यकाल में लिखा है,नौकरी करते हुए लिखा लेकिन मुझे किसी ने रोका टोका नहीं है।इस आजादी की कीमत कम नहीं है।


जब उम्र कम थी तो सही है कि संपादक बनने की महत्वाकांक्षा मेरी भी थी लेकिन संपादक बनने के बजाय मैंने हर कीमत पर जनपक्षधरता का विकल्प चुना जो कारपोरेट मीडिया के माफिक नहीं है।इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।


मुझे नौकरी से हटाया नहीं गया है और प्रोमोशन वगैरह नीतिगत फैसले हैं और जनसत्ता में यह संपादक का एकाधिकार है।


बाकी कलकाता में मैंने जिन लोगों के साथ पच्चीस साल बिताये,जैसा अन्यत्र सर्वत्र रहा है,इन सबको मैंने अपना परिवार माना है और किसी से मेरी कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं है।


आगे एक्सप्रेस समूह इजाजत दें तो अपने पुराने साथियों के साथ किसी भी हैसिटत से 25 साल और काम करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है।मैं तो अंग्रेजी, हिंदी, बांग्ला, मराठी और गुजराती भाषाओं में भी काम करने को तैयार हूं।


दूसरी तरफ,अमर उजाला में नौकरी के अलावा दिवंगत वीरेनदा के साथ मिलकर हम दूसरी किस्म की पत्रकारिता भी करते थे और अखबार से बाहर हमारी इन गतिविधियों में दिवंगत सुनील साह की तरह इंद्रकांत मिश्र जी का भी सहयोग रहता था।प्रेस से बाहर हम वीरेनदा के साथ राजेश श्रीनेत और दीप अग्रवाल को लेकर दसरी किस्म की पत्रकारिता भी कर रहे थे।तब प्रभात  और तसलीम भी हमारे साथ थे।


दिवंगत सुनील साह और इंद्रकांत मिश्र के साथ अशोक अग्रवाल के सिवाय अमर उजाला के बाकी तमाम लोग मेरे कोलकाता आने से नाराज थे लेकिन अशोक अग्रवाल के रवैये की वजह से और खासकर रामजन्मभूमि आंदोलन के सिलसिले में उनकी विशुध  हिंदू वादी पत्रकारिता की वजह से मैंने उनकी एक नहीं सुनी।वीरेनदा अकेले मेरे इस फैसले के पक्ष में थे बल्कि उनकी बात मानकर ही मैं कोलकाता चला आया।


अतुल माहेश्वरी के अलावा राजुल माहेश्वरी से भी मेरे निकट संबंध थे तो इसकी वजह कुल इतनी थी कि दोने बरेली कालेज में वीरेनदा के छात्र थे और वीरेनदा और मेरी बात वे मान लेते थे।इसीतरह दैनिक जागरण में भी मानीय दिवंगत प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन जी से मेरे बहुत अच्छे संबंध थे।


1984 से लेकर 1990 तक दैनिक जागरण में मेरठ में दर्जनों नियुक्तियां करने के अलावा प्रशिक्षु पत्रकारों को प्रशिक्षित करने का जिम्मा बी उनने मुझ पर छोड़ा था।मैं कानपुर में हुई मुलाकात के बाद उनके मौखिक निर्देश के तहत मेरठ पहुचा तो बिना लिखित नियुक्तिपत्र के धीरेंद्र मोहन और तब वहां मेरठ संस्करण के प्रभारी संपादक भगवत शरण ने मुझे ज्वाइन करने की इजाजत नहीं दी थी।


नरेंद्र मोहन जी कानपुर से आये तो उनने मुझे जागरण में लगा दिया।जैसा कहा था ,उसी मुताबिक।जबकि माननीय प्रभाष जी ने इसके उलट मुझे बुलाकर छह महीने बाद उपसंपादक का लेटर थमा दिया।


इस नजरिये से नरेंद्र मोहन भी मेरे लिए जोशी जी से बड़े हैं।


दरअसल नरेंद्र मोहन जी को ही तत्कालीन कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने जागरण से निकालने के लिए दो दो बार फोन किया था।


वैसे तो नरेंद्र मोहन जी तिवारी की हर बात मानते थे और उनकी इज्जत भी खूब करते थे लेकिन मेरठ में नरेंद्र मोहन ने मुझे हर किस्म की आजादी दी हुई थी और मेरे हर कदम का वे समर्तन करते थे।


नरेंद्र मोहन ने  दोनों बार तिवारी जी को सीधे मना कर दिया।इस प्रकरण में धीरेंद्र मोहन जी की भूमिका मुझे नहीं मालूम है लेकिन अमर उजाला और जागरण के पत्रकारों को मालूम था कि हर कीमत पर तिवारी तब मुझे जागरण से हटाने के लिए तुले हुए थे क्योंकि तब उनके खिलाफ महतोष मोड़ सामूहिक बलात्कार कांड के खिलाफ जो आंदोलन तेज होकर उनकी कुर्सी डांवाडोल कर रहा था,उस आंदोलन के पीछे वे मेरा ही हाथ मानते रहे थे और उस आंदोलन के पीछे मैंने उनके खास दोस्त अपने पिता की परवाह भी नहीं की।यह मामला विशुद्ध पत्रकारिता का न था।


उस आंदोलन में मेरी भूमिका  के बारे में उत्तराखंड के सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं, बीबीसी के संपादक राजेश जोशी,दिल्ली के तमाम पत्रकारों और यूपी और उत्तराखंड के राजनेताओं को सबकुछ मालूम था और उस आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था प्रगतिशील महिला संगठन।


हालत यह हो गयी कि आंदोलन के समर्थन में हल्दानी और रुद्रपुर में महिलाओं और छात्रो पर पुलिस को लाठीचार्ज करना पडा़ तो आंदोलन यूपी के हर जिले में चालू हो गया था और नैनीताल में जब महिलाओं ने डीएसबी की प्राध्यापिकाओं की अगुवाई में मुख्यमंत्री का घेराव किया तो तिवारी ने प्राध्यापिकाओं को अलग बुलाकर कुमांयूनी में कहा कि जो कुछ हुआ वह तो तराई में दलित बंगाली शरणार्थियों का मामला है ,आप पहाड़ में आंदोलन क्यों कर रही हो।


नैनीताल में महिलाओं ने इसके जवाब में मुख्यमंत्री की सार्वजनिक भर्त्सना की और आंदोलन और तेज कर दिय।हम अपनी इन इजाओं और वैणियों को भूल नहीं सकते जिन्होंने मुझे सिखाया कि जात पांत भाषा और मजहब के आर पार इंसनियत का मुल्क बड़ा होता है और नागरिक और मानवाधिकार,जल जंगल जमीन और पर्यावरण के लिए, मेहनतकशों के हक हकूक के लिए बाहैसियत मनुष्य तमाम नागरिकों की गोलंबदी जरुरी है।देश प्रदेश को जोड़े बिना कोई आंदोलन होता नहीं है।


मेरी इन्हीं इजाओं और वैणियों ने चिपको माता गौरा पंत के नेतृत्व में देश और दुनिया को प्रयावरण का पाठ पढ़ाया तो उन्होंने ही तराई में महतोष आंदोलन के दौरान मेहनतकश दलित शरणार्थियों के हक हकूक के लिए अखंड उत्तर प्रदेश में जनता को गोलबंद किया ।इन्हीं महिलाओं ने फिर अलग राज्य के लिए मुलायम सरकार की पुलिस और गुंडोें से लड़ाई जारी रखी और खटीमा और मजप्परनगर में कुर्बानियां दीं।


मेरे पिता के के साथ तमाम बंगाली नेता तब महतोष आंदोलने से इसलिए अलग हो गये कि तिवारी के गिरोहबंद लोगों ने गांव गांव घर घर जाकर बंगालियों को यूपी से खदेड़ने की धमकिां देनी शुरु कर दी और वे गहन असुरक्षाबोध के कारण आंदोलन जारी रखने की हालत में न थे और इसी वजह से आंदोलन टूटा भी।


तिवारी की कुर्सी बच गयी।अपराधियों को सजा भी नहीं हो पायी।जिस वजह से पिता से मेरी बरसों तक बातचीत बंद रही और उनके अंतिम दिनों तक सत्ता के हक में उनकी भूमिका मैं भूला नहीं।उनकी मजबूरी तो मैंने बहुत बाद में महसूस की।शरणार्थी आंदोलन में।अपने लोगों के हक में उनकी लड़ाई की विरासत ढोते हुए।


मेरा अपराध यह था कि मैं हर कीमत पर आंदोलन का साथ दे रहा था।तिवारी मुझे बचपन से जानते रहे हैं और तराई के अलावा पहाड़ में मेरे जनादार से वे अपरिचित भी न थे।पिताजी आजीवन उनकी मित्रता बनी हुई थी और पिताजी जब कैंसर से मरने लगे तो वे नई दिल्ली से बसंतीपुर आकर उनका हाथ पकड़कर बच्चों की तरह फूट फूटकर रो रोये भी।जाहिर है कि निजी संबंधों से बेपरवाह तिवारी ने सत्ता के लिए यह हरकत की।


नरेंद्र मोहन ने तब सत्ता की और मुॆक्यमंत्री से निजी संबंधों की परवाह नहीं की और वे बेहिचक मेरे साथ खड़े हुए।नरेंद्र मोहन की मर्जी के खिलाफ धीरेंद्र मोहन जी ने मुझे हटाने के लिए सहमति दी होगी,अगर ऐसा हमारे मित्रों का मानना है तो गलत है।


धीरेंद्र मोहन जी से हमारी कभी नहीं बनी जैसे अशोक अग्रवाल से मेरी नहीं बनी.असोक जी के भाई अजय अग्रवाल मेरे सबसे बड़े समर्थक थे अमर उजाला में।लेकिन अजय अग्रवाल या अतुलज या राहुल जी की भी कोई खास परवाह नहीं थी अशोक अग्रवाल को।इसी वजह से अमर उजाला से मेरे संबंध कायम नहीं रह सके।


इसके उलट दैनिक जागरण में नरेंद्र मोहन जी ही सर्वेसर्वा थे और उनके समर्थन के बावजूद मैेंने दैनिक जागरण निजी कारण से छोड़ा।


कमलेश्वर जी जब नई दिल्ली जागरण के संपादक बने तो उनने मुझे नई दिल्ली के लिए चुन लिया लेकिन धीरेन्द्र मोहन  ने मुझे दिल्ली जाने की इजाजत नहीं दी और इस मामले में नरेंदर मोहन जी ने हस्तक्षेप नहीं किया।


इसके अलावा धीरेंद्र मोहन ने मेरी बहन के विवाह के मौके पर जागरण से मेरे कर्जे की अर्जी को अंतिम वक्त तक लटकाये रखा तो मैंने सीधे अतुल जी को फोन करके कह दिया कि मेरठ में मैंने अखबार जमाया है तो मेरठ में नहीं,मैं बरेली अमरउजाला ज्वाइन कर रहा हूं।


मेरे अमर उजाला जाने के फैसेले के बाद ही धीरेंद्र मोहन ने क्रजे की अर्जी मंजूर की।कर्जा मैंने ले लिया लेकिन कर्जा लेने से पहले मैंने धीरेंद्र मोहन से कह दिया कि अब मैं जागरण में रहुंगा नहीं।मुझे जागरण छोड़ने में देरी हुई क्योंकि मंगल जायसवाल छुट्टी पर चले गये और मैं इंचार्ज था।मैंने उन्हें चार्ज सौंपकर ही जागरण छोड़ा और अतुल जी ने मोहलत दे दी।


दिवंगत नरेंद्र मोहन जी ने जागरण छोड़ने के बाद मेरा नाम लेकर जागरण गये हर शख्स को नौकरी दी तो दिवंगत अतुल जी ने अमर उजाला छोड़ने के बाद भी मेरी हर सिफारिश मानी।राजुल जी को मैंने कभी आजमाया नहीं।इसलिए नरेंद्र मोहन और अतुल माहेश्वरी कमसकम मेरे लिए बेहद खास हैं।बाद के लोगों से रिश्ते अब नहीं हैं।


मैं रिटायर हुआ हूं और आय के स्रोत बंद होने से निजी समस्याएं मुझे सुलझानी है लेकिन इसके बावजूद जैसे मैं 36 साल की अखबारी पत्रकारिता से पहले छात्र जीवन में लगातार जनपक्षधर पत्रकारिता करता रहा हूं,वह सिलसिला अब भी  टूटेगा नहीं।पत्रकारिता मेरे लिए आजीविका या नौकरी कभी नहीं थी क्योंकि मैंने कभी सरकारी गैरसरकारी दूसरी नौकरी के लिए आवेदन किया ही नहीं है और न मुझे कुछ खो देने या अपनी बेहद छोटी हैसियत या मामूली उपलब्थि के लिए शर्म है।


पत्रकारिता मेरे लिए मिशन रहा है और आज भी है।

क्योंकि पत्रकारिता मेरे लिए जनपक्षधरता है आजभी।


हमारी कालजयी बनने की कोई इच्छा नहीं है ,ज्वलंत मुद्दों को संबोधित करना और सूचनाओं से वंचित उत्पीड़ित जनता को लैस करना बचपन से मेरी आदत रही है और अभिव्यक्ति के लिए जोखिम न उठा सकूं,ऐसा मेरे जीते जी होगा नहीं।


बेहतर है कि वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर हमारे साथी हमारे साथ खड़े हों,तो यह मेरा सबसे बड़ा सम्मान और पुरस्कार होगा।जो भी मुझसे प्यार करते हैं या मेरा समर्थन करते हैं,उनसे निवेदन है कि बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ गौतम बुद्ध के समता और न्याय के धम्म में वे मेरा साथ दें।


यही बुद्ध पूर्णिमा का मेरा पर्व और मेरा धम्म है और मैेने धर्म परिवर्तन भी नहीं किया है।गौतम बुद्ध और बाबासाहेब के अंतिम लक्ष्य समानता और न्याय है और इसके लिए धम्म और पंचशील का अनुशीलन जरुरी है,धर्म परिवर्तन नहीं।दीक्षा लेने से ही कोई बौद्ध नहीं हो जता और अछूत होने से ही कोई अंबेडकर का अनुयायी नहीं हो जाता।


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