Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Friday, November 21, 2014

अपने अंदर जरा झांक मेरे वतन: साहिर को याद करते हुए

अपने अंदर जरा झांक मेरे वतन: साहिर को याद करते हुए

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/25/2014 01:12:00 PM


 
साहिर लुधियानवी शायरी के उस दौर का प्रतिनिधित्व करते हैं, जब दूसरे अनेक देशों के संघर्षों के साथ-साथ रूस और चीन की क्रांतियों ने इंसानी समाज को एक नए भविष्य की उम्मीदों से भर दिया था. फनकार और शायर इन क्रांतियों से प्रेरणा लेकर शायरी को एक नई धार दे रहे थे. एक नया मुहावरा गढ़ रहे थे. हालांकि साहिर बाद में अपने फिल्मी गीतों की वजह से लोगों के बीच ज्यादा जाने गए, लेकिन उनके फिल्मी गीतों में भी विचार की एक अनोखी सघनता है. हमारे आज के दौर में साहिर एक ऐसी मिसाल के रूप में हमारे सामने हैं, जिसने अपार लोकप्रियता और कारोबारी जरूरतों के बावजूद अपनी प्रतिबद्धता को बाजार में खड़ा नहीं किया. पुरस्कारों और यात्राओं की जुगाड़ भिड़ाते लेखकों-कवियों की भीड़ में साहिर को उनकी बरसी पर याद करना महज एक रस्म नहीं है, बल्कि यह याद करना है कि एक शायर और लेखक की प्रतिबद्धता असल में क्या होती है. साहिर की कुछ नज्मों के साथ, उनका एक फिल्मी गीत भी, जो इस मामले में शायद हिंदी फिल्मों का अकेला गीत है, जो भारत में जातीय और नस्ली विभाजनों पर गौर करता है और कहता है कि अगर भारतीय समाज ने इन व्यवस्थाओं को नहीं तोड़ा तो वह फिर से गुलाम बन जाएगा. गीत सुनते हुए देखें कि यह बात कितनी सही निकली.


अपने अंदर जरा झांक मेरे वतन

फिल्म: नया रास्ता

 

खून फिर खून है

(एक मकतूल लुमुंबा एक लुमुंबा से कहीं ज्यादा ताकतवर होता है – जवाहरलाल नेहरू)

जुल्म फिर जुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है
खून फिर खून है टपकेगा तो जम जाएगा

खाके-सहरा पे जमे या कफे-कातिल पे जमे
फर्के-इंसाफ पे या पाए-सलासिल पे जमे
तेग बेदार पे बा-लाशा-ए-बिस्मिल पे जमे
खून फिर खून है टपकेगा तो जम जाएगा

लाख बैठे कोई छुप-छुप के कमींगाहों में
खून खुद देता है जल्लादों के मसकन का सुराग
साजिशें लाख उढ़ाती रहें जुल्मत के नकाब
लेके हर बूंद निकलती है हथेली पे चराग

जुल्म की किस्मते-नाकारा-ओ-रुसवा से कहो
जब्र की हिकमते-परकार के ईमा से कहो
महमिले-मजलिसे-अकवाम की लैला से कहो
खून दीवाना है दामन पर लपक सकता है
शोला-ए-तुंद है खिरमन पे लपक सकता है

तुमने जिस खून को मकतल में दबाना चाहा
आज वो कूचा-ओ-बाजार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से

जुल्म की बात ही क्या जुल्म की औकात ही क्या
जुल्म बस जुल्म है आगाज से अंजाम तलक
खून फिर खून है सौ शक्ल बदल सकता है
ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाए ना बने
ऐसे शोले कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे कि दबाओ तो दबाए न बने

आवाज-ए-आदम

दबेगी कब तलक आवाजे-आदम हम भी देखेंगे
रुकेंगे कब तलक जज्बाते-बरहम हम भी देखेंगे
चलो यूं भी सही ये जौरे-पैहम हम भी देखेंगे

दरे जिंदां से देखें या उरूजे-दार से देखें
तुम्हें रुस्वा सरे-बाजारे-आलम हम भी देखेंगे
जरा दम लो मआले-शौकते-जम हम भी देखेंगे

ये जोमे-कूवते-फौलादो-आहन देख लो तुम भी
ब-फैजे-जज्बा-ए-ईमान-मोहकम हम भी देखेंगे
जबीने-कज कुलाही खाक पर खम हम भी देखेंगे

मुकाफाते-अमल तारीखे-इंसां की रवायत है
करोगे कब तलक नावक फराहम हम भी देखेंगे
कहां तक है तुम्हारे जुल्म में दम हम भी देखेंगे

ये हंगामे-विदा-ए-शब है ऐ जुल्मत के फरजंदों
सहर के दोश पर गुलनार परचम हम भी देखेंगे
तुम्हें भी देखना होगा ये आलम हम भी देखेंगे

मेरे गीत तुम्हारे हैं

अब तक मेरे गीतों में उम्मीद भी थी पसपाई भी
मौत के कदमों की आहट भी जीवन की अंगड़ाई भी
मुस्तकबिल की किरनें भी थीं, हाल की बोझिल जुल्मत भी
तूफानों का शोर भी था और ख्बावों की शहनाई भी

आज से मैं अपने गीतों में आतिश-पारे भर दूंगा
मद्धम लचकीली तानों में जीवन धारे भर दूंगा
जीवन के अंधियारे पथ पर मशअल लेकर निकलूंगा
धरती के फैले आंचल में सुर्ख सितारे भर दूंगा

आज से ऐ मजदूर किसानो! मेरे गीत तुम्हारे हैं
फाकाकश इंसानो! मेरे जोग बिहाग तुम्हारे हैं
जब तक तुम भूके नंगे हो, ये नग्मे खामोश न होंगे
जब तक बेआराम हो तुम ये नग्मे राहतकोश न होंगे

मुझको इसका रंज नहीं है लोग मुझे फनकार न मानें
फिक्रो-फन के ताजिर मेरे शेरों को अश्आर न मानें
मेरा फन मेरी उम्मीदें आज से तुमको अरपन हैं
आज से मेरे गीत तुम्हारे सुख और दुख का दरपन हैं

तुमसे कूवत लेकर अब मैं तुमको राह दिखाऊंगा
तुम परचम लहराना साथी! मैं बरबत पर गाऊंगा
आज से मेरे फन का मकसद जंजीरें पिघलाना है
आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊंगा

एहसासे-कामरां

उफके-रूस से फूटी है नई सुब्ह की जौ
शब का तारीक जिगर चाक हुआ जाता है
तीरगी जितना संभलने के लिए रुकती है
सुर्ख सैल और भी बेबाक हुआ जाता है

सामराज अपने वसीलों पे भरोसा न करे
कुहना जंजीरों की झनकार नहीं रह सकती
जज्बए-नफरते-जम्हूर की बढ़ती रौ में
मुल्क और कौम की दीवार नहीं रह सकती

संगो-आहन की चटानें हैं अवामी जज्बे
मौत के रेंगते सायों से कहो कट जाएं
करवटें ले के मचलने को है सैले-अनवार
तीरा-ओ-तार घटाओं से कहो छंट जाएं

सालहा-साल के बेचैन शरारों का खरोश
एक नई जीस्त का दर बाज किया चाहता है
अज्मे-आजादि-ए-इंसां-ब-हजारां जबरूत
एक नए दौर का आगाज किया चाहता है

बरतर-अकवाम के माजूर खुदाओं से कहो
आखिरी बार जरा अपना तराना दुहराएं
और फिर अपनी सियासत पे पशेमां होकर
अपने नापाक इरादों का कफन ले आएं

सुर्ख तूफान की मौजों को जकड़ने के लिए
कोई जंजीरे-गिरां काम नहीं आ सकती
रक्स करती हुई किरनों के तलातुम की कसम
अर्सए-दहर पे अब शाम नहीं छा सकती

तुलू-ए-इश्तराकियत

जश्न बपा है कुटियाओं में, ऊंचे ऐवां कांप रहे हैं
मजदूरों के बिगड़े तेवर देख के सुल्तां कांप रहे हैं
जागे हैं अफलास के मारे उठ्ठे हैं बेबस दुखियारे
सीनों में तूफां का तलातुम आंखों में बिजली के शरारे
चौक-चौक पर गली गली में सुर्ख फरेरे लहराते हैं
मजलूमों के बागी लश्कर सैल-सिफत उमड़े आते हैं
शाही दरबारों के दर से फौजी पहरे खत्म हुए हैं
ज़ाती जागीरों के हक और मुहमिल दावे खत्म हुए हैं
शोर मचा है बाजारों में, टूट गए दर जिंदानों के
वापस मांग रही है दुनिया गस्बशुदा हक इंसानों के
रुस्वा बाजारू खातूनें हक-ए-निसाई मांग रही हैं
सदियों की खामोश जबानें सहर-नवाई मांग रही हैं
रौंदी कुचली आवाजों के शोर से धरती गूंज उठी है 
दुनिया के अन्याय नगर में हक की पहली गूंज उठी है
जमा हुए हैं चौराहों पर आकर भूखे और गदागर
एक लपकती आंधी बन कर एक भभकता शोला होकर
कांधों पर संगीन कुदालें होंठों पर बेबाक तराने
दहकानों के दल निकले हैं अपनी बिगड़ी आप बनाने
आज पुरानी तदबीरों से आग के शोले थम न सकेंगे
उभरे जज्बे दब न सकेंगे, उखड़े परचम जम न सकेंगे
राजमहल के दरबानों से ये सरकश तूफां न रुकेगा
चंद किराए के तिनकों से सैले-बे-पायां न रुकेगा
कांप रहे हैं जालिम सुल्तां टूट गए दिल हब्बारों के
भाग रहे हैं जिल्ले-इलाही मुंह उतरे हैं गद्दारों के
एक नया सूरज चमका है, एक अनोखी जू बारी है
खत्म हुई अफराद की शाही, अब जम्हूर की सालारी है.

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV