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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, March 28, 2015

बिना मकसद जीवन यापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है पलाश विश्वास

बिना मकसद जीवन यापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है

पलाश विश्वास

अचानक जिंदगी बिना मकसद हो गयी है।


मेरे अपढ़,किसान,अस्पृश्य,शरणार्थी पिता ने जो समता और सामाजिक न्याय की मशाल मुझे सौंपी थी,वह मशाल हाथ से फिसलती चली जा रही है और मैं बेहद बेबस हूं।


यह मुक्तिबोध के सतह से उठता आदमी की कथा भी नहीं है।


मैं तो सतह पर भी नहीं रहा हूं।सतह से बहुत नीचे जहां पाताल की शुरुआत है,वहां से यात्रा शुरु की मैंने और अपने ऊपर के तमाम पाथरमाटी की परतों को काट काटकर जमीन से ऊपर उठने का मिशन में लगा रहा था मैं।अब वह मिशन फेल है।मैं कहीं भी नहीं पहुंच पाया और जिंदगी ने जो मोहलत दी थी,वह छीजती चली जा रही है।


बिना मकसद जीवनयापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है।प्रेमहीन दांपत्य का विषवृक्ष दस दिगंतव्यापी वटवृक्ष है अब और वह फूलने फलने लगा है खूब।हवाओं और पानियों में उस जहर का असर है और हम कोई शिव नहीं है कि सारा हलाहल पान करके नीलकंठ बन जाये।


हमारे हिस्से में कोई अमृत भी नहीं है।


यह मुक्त बाजार स्वजनों के करोड़ों करोड़ों की जनसंख्या में हमें अकेला निपट अकेला चक्रव्यूह में छोड़  कार्निवाल में मदमस्त है और हमारे चारों तरफ बह निकल रही खून की नदियों से लोग बेपरवाह हैं।


पिता ने हमें मिशन के लिए जनम से तैयार किया क्योंकि वे जानते थे कि बाबासाबहेब जो मिशन पूरा नहीं कर सकें,वह मिशन उनकी जिंदगी में पूरा तो होने से रहा और न जाने कितनी पीढ़ियां खप जानी हैं उस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए।


हमारे लिए संकट यह है कि पिता तो अपनी मशाल हमें थमाकर  घोड़े बेचकर सो गये हमेशा के लिए,लेकिन हमारे हाथ से वह मशाल फिसलती जा रही है और आसपास,इस धरती पर कोई हाथ आगे बढ़ ही नहीं रहा है,जिसे यह मशाल सौंपकर हम भी घोड़े बेचकर सोने की तैयारी करें।


पीढ़ियां इस कदर बेमकसद हो जायेंगी, सन 1991 से पहले कभी नहीं सोचा था।


पिता ने बहुत बड़ी गलती की कि वे सोचते थे कि हम पढ़ लिखकर स्वजनों की लड़ाई लड़ते रहेंगे।


उनकी क्या औकात,जो एकच मसीहा बाबासाहेब थे,वे भी सोचते थे कि बहुजन समाज पढ़ लिख जायेगा, अज्ञानता का अंधकार दूर हो जायेगा तो उनका जाति उन्मूलन का एजंंडा पूरा होगा और उनके सपनों का भारत बनेगा।


ऐसा ही सोचते रहे होंगे हरिचांद गुरुचांद ठाकुर,बीरसा मुंडा और महात्मा ज्योति बा फूले और माता सावित्री बाई फूले।हमारे तमाम पुरखे।


नतीजा फिर वही विषवृक्ष है जो जहर फैलाने के सिवाय कुछ भी नहीं करता है।


बाबासाहेब ने फिर भी  हारकर लिख दिया कि पढ़े लिखे लोगों ने हमें धोखा दिया।


जाहिर है कि हमारे पिता न बाबासाहेब थे और न हम बाबासाहेब की चरण धूलि के बराबर है।लेकिन हम लोग,पिता पुत्र दोनों बाबासाहेब के मिशन के ही लोग रहे हैं और वह मिशन खत्म है।


ऐसा हमारे पिता नहीं सोचते थे।लाइलाज रीढ़ के कैंसर को हराते हुए आखिरी सांस तक अपने मकसद के लिए वे लड़ते चले गये।


पिता की गलती रही कि नैनीताल में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए मालरोड किनारे होटल के कमरे में मुकम्मल कंफोर्ट जोन में जो वे मुझे डाल गये,संघर्ष के पूरे तेवर के बावजूद हम दरअसल उसी कंफोर्ट जोन में बने रहे।वही हमारी सीमा बनी रही।जिसे हम तोड़ न सके।


हम जनता के बीच कभी नहीं रहे।


जनता के बीच न पहुंच पाने की वजह से जनता से संवाद हमारा कोई नहीं है और न संवाद की कोई स्थिति हम गढ़ सके।


तो हालात बदल देने का जो जज्बा मेरे पिता में उनकी तमाम सीमाओं और बीहड़ परिस्थितियों के बावजूद था,उसका छंटाक भर मेरे पास नहीं है।


अब जब कंफोर्ट जोन से निकलने की बारी है और अपने सुरक्षित किले से गोलंदाजी करते रहने के विशेषाधिकार से बेदखल होने जा रहा हूं तो बदले हालात में अचानक देख रहा हूं कि मेरे लिए अब करने क कुछ बचा ही नहीं है।


युवा मित्र अभिषेक श्रीवास्तव ने सही कहा है कि बेहद बेहद बेचैन हूं।उसके कहे मुताबिक दो दिनो तक न लिखने काअभ्यास करके देख लिया।लेकिन सन 1973 से से जो रोजमर्रे की दिनचर्या है,उसे एक झटके से बदल देना असंभव है।


हां,इतना अहसास हो रहा है कि आज तक आत्ममुग्ध सेल्फी पोस्ट करके जो मित्र  हमें सरदर्द देते रहे हैं,उनसे कम आत्ममुग्ध मैं नहीं हूं।


साठ और सत्तर के दशक में हमने सोचा कि लघु पत्रिका आंदोलन से हम लोग हीरावल फौज खड़ी कर देंगे।हीरावल फौज तो बनी नहीं,नवउदारवाद का मुक्तबाजार बनने से पहले वह लघु पत्रिका आंदोलन बाजार के हवाले हो गया।विचारधारा हाशिये पर है।


नब्वे के दशक में इंटरनेट आ जाने के बाद वैकल्पिक मीडिया के लिए नया सिंहद्वार खुलते जाने का अहसास होने लगा।


मुख्यधारा में तो हम कभी नहीं थे।हमारी महात्वाकांक्षा उतनी प्रबल कभी न थी।

हमने जो रास्ता चुना,वह भी कंफोर्ट जोन से उलट रहा है।


जीआईसी में जब मैं आर्ट्स में दाखिले के लिए पहुंचा तो दाखिला प्रभारी  हमारे गुरुजी हरीशचंद्र सती ने कहा कि तुम्हारा जो रिजल्ट है तुम साइंस या बायोलाजी लेकर कैरीयर क्यों नहीं बनाते।तब हमने बेहिचक कहा था कि मुझे साहित्य में ही रहना है।


जिन ब्रह्मराक्षस ने हमारी जिंदगी को दिशा दी,वे हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी भी चाहते थे कि मैं आईएएस की तैयारी करूं तो पिता चाहते थे कि वकालत मै करुं।


हमने कोई वैसा विकल्प चुनने से मना कर दिया और जो विकल्प मैंने चुना ,वह मेरा विकल्प है और इस विकल्प के साथ मेरी जो कूकूरगति हो गयी,उसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूं।इसका मुझे अफसोस भी नहीं रहा।


एक मिथ्या जो जी रहा था कि हम लोग मिशन के लिए जी रहे हैं,उसका अब पर्दाफाश  हो गया है।


हमारे जो मित्र सेल्फी पोस्ट करके अपनी सर्जक प्रतिभा का परिचय दे रहे हैं,हम भी कुल मिलाकर उसी पांत में है।


दरअसल मुद्दों को संबोधित करने के बहाने हम सिर्फ अपने को ही संबोधित कर रहे थे,जो आत्मरति से बेहतर कुछ है ही नहीं।


तिलिस्म में हमउ खुद घिरे हुए हैं और इस तिलिसम के घहराते हुए अंधियारे में लेखन के जरिये रोशनी दरअसल हम अपने लिए ही पैदा कर रहे हैं,जिनके लिए यह रोशनी पैदा कर रहे हैं,सोचकर हम मदमस्त थे अबतक,वह रोशनी उनतक कहीं भी, किसी भी स्तर पर पहुंच नहीं रही है।


चार दशक से हम भाड़ झोंकते रहे हैं और सविता बाबू की शिकायत एकदम सही है कि हम अपने लिए,सिर्फ अपने लिए जीते रहे हैं और आम जनता की गोलबंदी के सिलसिले में कुछ भी कर पाना हमारी औकात में नहीं है।


बर्वे साहेब ने भी मना किया है बार बार कि इतना लोड उठाने की जरुरत नहीं है।


हम जनता के मध्य हुए बिना  अपने पिता का जुनून जीते रहे हैं।दरअसल हमने कहीं लड़ाई की शुरुआत भी नहीं की है।लड़ाई शुरु होने से पहले हारकर मैदान बाहर हैं हम और अचानक जिंदगी एकदम सिरे से बेमकसद हो गयी है।


अब जीने के लिए लिखते रहने के अलावा विकल्प कोई दूसरा हमारे पास नहीं है।वह भी तबतक जबतक हस्तक्षेप में अमलेंदु हमें जिंदगी की मोहलत दे पायेंगे। फुटेला तो कोमा में चला गया है और उसके स्टेटस के बारे में कोई जानकारी नहीं है।बाकी सोशल मीडिया में भी हम अभी अछूत ही हैं।


जो हम लगातार अपने लोगों तक आवाज दे रहे हैं,हम नहीं जानते कि कितनी आवाज उनतक पहुंचती है और कितनी आवाजें वे अनसुना कर रहे है।लोग टाइमलाइन तक देखते नहीं हैं।


फिरभी यह तय है कि 1991 से जो हम लगातार  सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठाये आत्ममुग्ध जिंदगी जी रहे थे,उन सूचनाओं से किसी का कुछ लेना देना नहीं है।


अभिषेक का कहना है कि आप कुछ दिनों तक सारी चीजों से अपने को अलग करके चैन की नींद सोकर देखे तो नींद से जागकर देखेंगे कि भारत अभी हिंदू राष्ट्र बना नहीं है।


अभिषेक हमसे जवान है।हमसे बेहतर लिखता है।हमसे बेहतर तरीके से परिस्थितियों को समझता है।उसका नजरिया अभी नाउम्मीद नहीं है।यह बेहद अच्छा है कि युवातर लोगों ने उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं।


हमारे युवा मित्र अभिनव सिन्हा का मुख्यआरोप हमारे खिलाफ यह है कि मैं वस्तुवादी हूं नहीं और मेरा नजरिया भाववादी है।सही है कि यह मेरा स्थाई भाव है।


उम्मीद है कि हमारे युवा लोग हमारी तरह नाउम्मीद न होंगे।शायद लड़ाई की गुंजाइश अभी बाकी भी है।


हम लेकिन इसका क्या करें कि हमें तो लगता है कि भारत अब मुक्म्मल हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व के तिलिस्म को तोड़ने का कोई हथियार फिलहाल हमारे पास नहीं है।


हमारी बेचैनी का सबब यही है।




Satah se Uthta Admi



सतह से उठता आदमी



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गजानन माधव मुक्तिबोध



आपका कार्ट



मूल्य

:

$ 8.95  





प्रकाशक

:

भारतीय ज्ञानपीठ





आईएसबीएन

:

81-263-0360-3





प्रकाशित

:

जनवरी ०१, २०००





पुस्तक क्रं

:

396





मुखपृष्ठ

:

सजिल्द







सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'चाँद का मुँह टेढ़ा है', 'एक साहित्यिक की डायरी', 'काठ का सपना' तथा 'विपात्र' के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध की यह एक और विशिष्ट कृति है 'सतह से उठता आदमी'।

इस संग्रह में मुक्तिबोध की नौ कहानियाँ संकलित हैं। श्री शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में : मुक्तिबोध के साहित्य में हमारे संस्कारों को संवारने और उन्हें ऊँचा उठाने की बड़ी शक्ति है। वह हम मध्य वर्गीय पाठकों की दृष्टि साफ करता है, समझ बढ़ाता है। इन कहानियों में भी हमें अपने जीवन के विविध पक्षों का अति निकट का परिचय एवं विश्लेषण मिलता है और मिलती है सामाजिक सम्बन्धों की पैनी परख। एक के बाद एक परदे हटते जाते हैं और यथार्थ उघड़ कर सामने आता जाता है...

प्रस्तुत है मुक्तिबोध की इस महत्त्वपूर्ण कृति का यह नया संस्करण।


दृष्टिकोण

मुक्तिबोध के साहित्य में हमारे संस्कारों को सँवारने और उन्हें ऊँचा उठाने की बड़ी शक्ति है। वह हम मध्यवर्गीय पाठकों की दृष्टि साफ करता है, समझ बढ़ाता है। इन कहानियों में भी हमें अपने जीवन के विविध पक्षों का अति निकट का परिचय एवं विश्लेषण मिलता है, और मिलती है सामाजिक सम्बन्धों की पैनी परख। एक के बाद एक परदे हटते जाते हैं और यथार्थ उघड़कर सामने आता जाता है।


इन कहानियों में एक और विशेषता यह है कि ये सहज ही हर स्थिति के अतिसामान्य में असामान्य और अद्भुत का भरम पैदा कर देती हैं। इसे हम तटस्थ-सी काव्यकर्मी कल्पना-शक्ति का कमाल कह सकते हैं। और इसी वातावरण में हर कहानी एक ऐसे घाव को, एक ऐसी पीड़ा को हमारे सामने उघाड़कर रखती है जिसे हम देखकर अनदेखा और सुनकर अनसुना कर जाते रहे हैं। एक बार इन कहानियों को पढ़ने के बाद पाठक के लिए ऐसा करना असम्भव हो जाता है। लगता है, जैसे इन कहानियों में आयामी अर्थ छिपे हों। इन्हें पढ़ने पर हर बार ऐसा कुछ शेष रह जाता है जो इन्हें फिर-फिर पढ़ने को आमन्त्रित करता है। बात यह है कि ये कहानियाँ जीवन के ठहरे नैतिक मूल्यों पर सोचने के लिए पाठक को विवश करती है।

मुक्तिबोध-साहित्य में इस कहानी-संग्रह का इज़ाफ़ा करने के लिए स्तरीय साहित्य का हिन्दी पाठक कृतज्ञता का अनुभव करेगा। इसका प्रकाशन किसी भी प्रकाशक के लिए गौरव की बात है।


-शमशेर बहादुर सिंह


मुक्तिबोध का सारा जीवन एक मुठभेड़ है। मुक्तिबोध का साहित्य भी उस यथार्थ से मुठभेड़ की एक अटूट प्रक्रिया है, जिससे जूझते हुए वह नष्ट हो गये। कविता, कहानी, उपन्यास, डायरी, आलोचना-साहित्य की लगभग हर विधा में जाकर उन्होंने अपने अनुभव को समझने, उसकी परिभाषा करने और उसे अर्थ देने का प्रयत्न किया।

कहानी मुक्तिबोध की सबसे प्रिय विधा नहीं। उनके जीवन-काल में बहुतों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि उन्हें कहानियाँ लिखी हैं। ज़ाहिर है कि मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आन्दोलन नहीं था। हर, रचना, उनके लिए, एक भयानक, शब्दहीन अन्धकार को-जो आज भी, भारतीय जीवन के चारों ओर, चीन की अर्थहीनता से भरे हुए समसामयिक हिन्दी कथा साहित्य का आधार है, वह मुक्तिबोध की रचना का केन्द-बिन्दु नहीं था। मुक्तिबोध का प्रयोजन रचना के ज़रिये रचना और जीवन के भीतर के तनावों और संकटों को समझना था। उनकी रचना-प्रक्रिया इस समूचे संकट को नाम देने की प्रक्रिया है।


उनकी तमाम कहानियों में केवल एक ही पात्र है, जो अलग-अलग नामों में, अलग-अलग रूपों में और कभी-कभी लिंग परिवर्नत कर उपस्थित होता है। यह पात्र मध्यवर्ग के आध्यात्मिक संकट का गवाह, व्याख्याता, पक्षधर, भोक्ता, विरोधी—सब कुछ है। कुछ हद तक यह पात्र स्वयं मुक्तिबोध है, और कुछ हद तक यह पात्र वह व्यक्ति है जो मुक्तिबोध के साथ-साथ चलता है। वह केवल मुक्तिबोध को सुनता ही नहीं बल्कि उन्हें सुनाता भी है, नसीहत भी देता है, उन्हें फुसलाने की कोशिश भी करता है। मुक्तिबोध की कहानियाँ दो पात्रों के बीच—एक स्वयं मुक्तिबोध और दूसरा मुक्तिबोध का सहयात्री-एक अनन्त वार्तालाप है। इस वार्तालाप का क्रम न तो उनकी डायरी में टूटा है, न ही उनकी कविताओं में।

संग्रह की पहली कहानी 'ज़िंदगी की कतरन' का केन्द्र-बिन्दु 'आत्महत्या' है —आत्महत्या के साथ जुड़ी हुई वह जीवन-श्रृंखला है, जिसे समझने की कोशिश में मुक्तिबोध समझ और ज्ञान के हर तहखाने में गये। मुक्तिबोध के उपन्यास 'विपात्र' की तरह इस संग्रह की अधिकतर कहानियों—'समझौता', 'चाबुक', 'विद्रूप', 'सतह से उठता आदमी' के पात्र वे अभिशप्त मध्यवर्गीय स्त्री-पुरुष हैं जो जीवन-दर्शन के अभाव में अन्धकार में प्रेतात्माओं की तरह एक-दूसरे से टकरा रहे हैं, एक-दूसरे से जूझ रहे हैं और एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं। इन कहानियों को पढ़ते हुए सार्त्र के नाटक 'नो एक्टिव' की याद आ जाना स्वाभाविक ही है।


जीवन-दृष्टि शिक्षा से नहीं, आत्मसंघर्ष से प्राप्त होती है। इन कहानियों के तमाम शिक्षित पात्रों के बिलकुल विपरीत 'आखेट' कहानी का नायक कान्सटेबिल मेहरबानसिंह एक अशिक्षित व्यक्ति है, जिसे केवल उत्पीड़न और जुल्म की ट्रेनिंग दी गयी है। मगर उसकी अन्तरात्मा उसे दी गयी शिक्षा से प्रबल है। एक अपाहिज स्त्री पर बलात्कार करता हुआ वह अपनी अन्तरात्मा पर भी बलात्कार करता है। अन्ततः वह पाता है, यह सम्भव नहीं। केवल प्रेम ही सम्भव है। सर्वहारा के साथ मुक्तिबोध की कोरी सहानुभूति नहीं थी। उसके पीछे केवल उनकी व्याख्यापरक बुद्धि और अनुभव से उत्पन्न विश्वास थे। उनका विश्वास था कि मध्यवर्ग पर थोपी गयी तथाकथित आधुनिकता मनुष्यता, करुणा, आदर्शवादिता और सत्य का संहार है। 'सतह से उठता आदमी' के पात्र इस संहार के खँडहर हैं—वे भारतीय इतिहास के सर्वनाश के जीवित प्रतीक हैं, जिन्हें परिभाषित करने की अनिवार्यता ने मुक्तिबोध को इन कहानियों की रचना के लिए विवश किया।


श्रीकान्त शर्मा


ज़िन्दगी की कतरन


नीचे जल के तालाब का नज़ारा कुछ और ही है। उसके आस-पास सीमेण्ट और कोलतार की सड़क और बँगले। किन्तु एक कोने में सूती मिल के गेरुए, सफ़ेद और नीले स्तम्भ के पोंगे उस दृश्य पर आधुनिक औद्योगिक नगर की छाप लगाते हैं। रात में तालाब के रुँधे, बुरे बासते पानी की गहराई सियाह हो उठती है, और ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी के बल्बों का रेखाबद्ध निष्कम्प, प्रतिबिम्बि वर्तमान मानवी सभ्यता के सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते-से प्रतीत होते हैं। सियाह गहराई के विस्तार पर ताराओं के धुँधले प्रतिबिम्बों की विकीरित बिन्दियाँ भी उस कृष्ण गहनता से आतंकित मन को सन्तोष नहीं दे पातीं वरन् उसे उघार देती हैं।


तालाब के इस श्याम दृश्य का विस्तार इतनी अजीब-सी भावना भर देता है कि उसके किनारे बैठकर मुझे उदास, मलिन भाव ही व्यक्त करने की इच्छा होती आयी है। उस रात्रि-श्याम जल की प्रतीक-विकरालता से स्फुट होकर मैंने अपने जीवन में सूनी उदास कथाएँ अपने साथियों के संवेदना-ग्रहणशील मित्रों को सुनायी हैं।

यह तालाब नगर के बीचोंबीच है। चारों ओर सड़कें और रौनक़ होते हुए भी उसकी रोशनी और खानगी उस सियाह पानी के भयानक विस्तार को छू नहीं पाती है। आधुनिक नगर की सभ्यता की दुखान्त कहानियों का वातारवण अपने पक्ष पर तैरती हुई वीरान हवा में उपस्थित करता हुआ यह तालाब बहुत ही अजीब भाव में डूबा रहता है।


फिर इस गन्दे, टूटे घाटवाले, वुरे-बासते तालाब के उखड़े पत्थरों-ढके किनारे पर निम्न मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे अहलकारों और मुंशियों का जमघट चुपचाप बैठा रहता है और आपस में फुसफुसाता रहता है। पैण्ट-पज़ामों और धोतियों में ढके असन्तुष्ट प्राणमन सई- साँझ यहाँ आ जाते हैं, और बासी घरेलू गप्पों या ताज़ी राजनीतिक वार्ताओं की चर्चाएँ घण्टा-आधा घण्टा छिड़कर फिर लुप्त हो जाती हैं और रात के साढ़े आठ बजे सड़कें सुनसान, तालाब का किनारा सुनसान हो जाता है।

एक दिन मैं रात के नौ बजे बर्माशेल में काम करनेवाले नये दोस्त के साथ जा पहुँचा था। हमारी बातचीत महँगाई और अर्थाभाव पर छिड़ते ही हम दोनों के हृदय में उदास भावों का एक ऐसा झोंका आया जिसने हमें उस विषय से हटाकर तालाब की सियाह गहराइयों के अपार जल-विस्तार की ओर खींचा। उस पर ध्यान केन्द्रित करते ही हम दोनों के दिमाग़ में एक ही भाव का उदय हुआ।


मैंने अटकते-अटकते, वाक्य के सम्पूर्ण विन्यास के लिए अपनी वाक्-शक्ति को ज़बरदस्ती उत्तेजित करते हुए उससे कहा, ''क्यों भाई, आत्महत्या...आत्महत्या के बारे में जानते हो...उसका मर्म क्या है।

जवाब मिला, जैसे किसी गुहा में से आवाज़ आ रही हो, ''क्यों, क्यों पूछ रहे हो ?''

''यो ही, स्वयं आत्हत्या के सम्बन्ध में कई बार सोचा था।''

आत्म-उद्घाटन के मूड में, और गहरे स्वर से साथी ने कहा, ''मेरे चचा ने खुद आत्हत्या की मैनचेस्टर गन से। लेकिन....''

उसके इतने कहने पर ही मेरे अवरुद्ध भाव खुल-से गये। आत्महत्या के विषय में अस्वस्थ जिज्ञासा प्रकट करते हुए मैंने बात बढ़ायी, ''हरेक आदमी जोश में आकर आत्महत्या करने की क़सम भी खा लेता है। अपनी उद्विग्न चिन्तातुर कल्पना की दुनिया में मर भी जाता है, पर आत्महत्या करने की हिम्मत करना आसान नहीं है। बायोलॉजिकल शक्ति बराबर जीवित रखे रहती है।''


दोस्त का मन जैसे किसी भार से मुक्त हो गया था। उसने सचाई भरे स्वर में कहा, ''मैं तो हिम्मत भी कर चुका था, साहब ! डूब मरने के लिए पूरी तौर से तैयार होकर मैं रात के दस बजे घर से निकला, पर इस सियाहपानी की भयानक विकरालता ने इतना डरा दिया था कि किनारे पर पहुँचने के साथ ही मेरा पहला ख़याल मर गया और दूसरे ख़याल ने ज़िन्दगी में आशा बाँधी। उस आशा की कल्पना को पलायन भी कहा जा सकता है। प्रथम भाव-धारा के विरुद्ध उज्ज्वल भाव-धारा चलने लगी। सियाहपानी के आतंक ने मुझे पीछे हटा दिया...बन्दूक़ से मर जाना और है, वीरान जगह पर रात को तालाब में मर जाने की हिम्मत करना दूसरी चीज़।''

मित्र ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा, ''आत्महत्या करनेवालों के निजी सवाल इतने उलझे हुए नहीं होते जितने उनके अन्दर के विरोधी तत्त्व, जिनके आधीन प्रवृत्तियों का आपसी झगड़ा इतना तेज़ हो जाता है कि नई ऊँचाई छू लेता है। जहाँ से एक रास्ता जाता है ज़िन्दगी की ओर, तो दूसरा जाता है मौत की तरफ़ जिसका एक रूप है आत्महत्या।''

मित्र के थोड़े उत्तेजित स्वर से ही मैं समझ गया कि उसके दिल में किसी कहानी की गोल-मोल घूमती भँवर है।

उसके भावों की गूँज मेरी तरफ़ ऐसे छा रही थी मानो एक वातावरण बना रही हो।


मैं उसके मूड से आक्रांत हो गया था। मेरे पैर अन्दर नसों में किसी ठण्डी संवेदना के करेण्ट का अनुभव कर रहे थे।

उसके दिल के अन्दर छिपी कहानी को धीरे से अनजाने निकाल लेने की बुद्धि से प्रेरित होकर मैंने कहा, ''यहाँ भी तो आत्महत्याएँ हुई हैं।

यह कहकर मैंने तालाब के पूरे सियाह फैलाव को देखा, उसकी अथाह काली गहराई पर एक पल नज़र गड़ायी। सूनी सड़कों और गुमसुम बँगलों की ओर दृष्टि फेरी और फिर अँधेरे में अर्ध-लुप्त किन्तु समीपस्थ मित्र की ओर निहारा और फिर किसी अज्ञेय संकेत को पाकर मैं किनारे से ज़रा हटकर एक ओर बैठ गया।

फिर सोचा कि दोस्त ने मेरी यह हलचल देख ली होगी। इसलिए उसकी ओर गहरी दृष्टि डालकर उसकी मुख-मुद्रा देखने की चेष्टा करने लगा।


दोस्त की भाव-मुद्र अविचल थी। घुटनों को पैरों से समेटे वह बैठा हुआ था उसका चेहरा पाषाण-मूर्ति के मुख के अविचल भाव-सा प्रकट करता था। कुछ लम्बे और गोल कपोलों की मांसपेशियाँ बिलकुल स्थिर थीं। या तो वह आधा सो रहा था अथवा निश्चित रूप से भावहीन मस्तिष्क के साँवले धुँधलेपन में खो गया था, किंवा किसी घनीभूत चेतना के कारण निस्तब्धता-सा लगता था। मैं इसका कुछ निश्चय न कर सका।

मेरी इस खोज-भरी दृष्टि से अस्थिर होकर उसने जवाब दिया, ''क्यों, क्या बात है ?''

उसके प्रश्न के शान्त स्वर से सन्तुष्ट होकर मैंने दोहराया, ''इस तालाब में भी कइयों ने जानें दी हैं !''


''हाँ, किन्तु उसमें भी एक विशेषता है'', उसके अर्थ भरे स्वर में हँसते हुए कहा। फिर वह कहता गया, ''इस तालाब में जान देने आये हैं जिन्हें एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़िन्दगी से उकताये और घबराये पर ग्लानि के लम्बे काल में उस व्यक्ति ने न मालूम क्या-क्या सोचा होगा ! अपनी ज़िन्दगी की ऊष्मा और आशय समाप्त होता जान, उसने अनजाने-अँधेरे पानी की गहराइयों में बाइज़्ज़त डूब मरने का हौसला किया और उसे पूरा कर डाला। तुम तो जानते हो, अधेड़ तो वह था ही, बाल-बच्चे भी न थे। कोई आगे न पीछे। उसकी लाश पानी में न मालूम कहाँ अटक गयी थी। तालाब से सड़ी बास आती थी। किन्तु जब लाश उठी तो उसकी तेलिया काली धोती दूर तक पानी में फैली हुई थी।....''

उसी तरह तुम्हारा तिवारी। वह-पुरे की तेलिन, पाराशर के घर की बहू। ''ये सब सामाजिक-पारिवारिक उत्पीड़न के ही तो शिकार थे ?''


उसके इन शब्दों ने मुझमें अस्वस्थ कुतूहल को जगा दिया। मेरी कल्पना उद्दीप्त हो उठी। आँखों के सामने जलते हुए फॉसफोरसी रंग के भयानक चित्र तैरने लगे, और मैं किसी गुहा के अन्दर सिकुड़ी ठण्डी नलीदार मार्ग के अँधेरे में उस आग के प्रज्वलित स्थान की ओर जाता-सा प्रतीत हुआ जो उस गुहा के किसी निभृत कोण में क्रुद्ध होकर जल रही है—जिस आग में (मानो किन्हीं क्रूर आदिम निवासियों ने, जो वहाँ दीखते नहीं, लापता है) मांस के वे टुकड़े भूने जाने के लिए रखे हैं जो मुझे ज्ञात होते से लगते हैं कि वे किस प्राणी के हैं,  किस व्यक्ति के हैं।


http://pustak.org/bs/home.php?bookid=396


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