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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, January 21, 2017

छिटपुट आंदोलन से दमन का मौका जैसे भांगड़ का नंदीग्राम दफा रफा! बुनियादी बेदखली और बिल्डर प्रोमोटर माफिया सत्ता के बाहुबलि धनतंत्र खिलाफ मुद्दे के बिना आंदोलन से भी बेदखली! भारत में अब तक सत्ता को कारपोरेट मदद मिलती रही है और अब कारपेरोट सरकार है तो बहुत जल्द देश का नेतृत्व भी कारपोरेट होगा।ट्रंप उपनिवेश में विकास के सुनहले दिनों का जलवा है ,बहुत जल्द भारत का प्रधानमंत्री भी कोई अ


छिटपुट आंदोलन से दमन का मौका जैसे भांगड़ का नंदीग्राम दफा रफा!

बुनियादी बेदखली और बिल्डर प्रोमोटर माफिया सत्ता के बाहुबलि धनतंत्र खिलाफ मुद्दे के बिना आंदोलन से भी बेदखली!

भारत में अब तक सत्ता को कारपोरेट मदद मिलती रही है और अब कारपेरोट सरकार है तो बहुत जल्द देश का नेतृत्व भी कारपोरेट होगा।ट्रंप उपनिवेश में विकास के सुनहले दिनों का जलवा है ,बहुत जल्द भारत का प्रधानमंत्री भी कोई अरबपति खरबपति बनेगा।

यूपी उत्तराखंड वालों से भी रोजाना यही बात हो रही है कि कैसे यूपी,पंजाब और उत्तराखंड में फासिज्म को शिकस्त देना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।

पलाश विश्वास

आज सुबह हमने कर्नल भूपाल चंद्र लाहिड़ी के उपन्यास बक्सा दुआरेर बाघ का पहला हिस्सा अपने ब्लागों पर डाला है,जिसका अनुवाद मैंने किया है,ताकि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में आपको तनिक अंदाजा हो जाये।

बंगाल में और बाकी देश में भी वर्चस्ववादी सत्तावर्ग की कारीगरी से स्वतंत्र अभिव्यक्ति इसतरह कुचल दी जाती है कि  जनप्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मियों और सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं का कहीं अता पता नहीं चलता।बहुजनों का भी नहीं।

वैज्ञानिक दृष्टि से लैस ब्राह्मणों और सवर्णों की जनप्रतिबद्धता का अंजाम भी मनुस्मृति विधान के तहत अंततः संबूक हत्या है।यही रामराज्य की रघुकुलरीति है।देशभक्ति और राष्ट्रद्रोह के अचूक रामवाण वध मिसाइलें हैं।

तंत्रविरोधी मारे जायेंगे,सच है।जाति से ब्राह्मण न हों लेकिन सोच और कर्म से जो ब्राह्मणों से जियादा ब्राह्मण हैं,वे मलाईदार जियादा खतरनाक हैं और उन्हींके दगा देते रहने से मिशन गायब हो रहा है।वे ही अब ट्रंप उपनिवेश के सिपाहसालार झंडेवरदार हैं।

जाति से दोस्त  दुश्मन पहचानने का तरीका कारगर होता तो बाबासाहेब जाति उन्मूलन का एजंडा लेकर चल नहीं रहे होते और न तथागत गौतम बुद्ध को वर्णव्यवस्था के ब्राहब्मणधर्म के खिलाफ धम्म प्रवर्तन की जरुरत होती।बाबासाहेब ने तथागत का पंथ इसीालिए चुना है क्योंकि वही हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतिरोध का रास्ता है।

हम बार बार यह दोहरा रहे हैं कि हमारे हिसाब से गौतम बुद्ध सबसे बड़े जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उन्हींके रास्ते बदलाव अब भी संभव है।मुक्तबाजार में भी।

महाश्वेता देवी और नवारुण भट्टाचार्य को दबाने की कम कोशिशें नहीं हुई,लेकिन बाकी भारत में उनकी परिधि विस्तृत हो जाने की वजह से हम उनके बारे में जानते हैं।ताराशंकर के बारे में भी लोग जानते हैं।लेकिन माणिक बंद्योपाध्याय को,उनके बीच महाश्वेता देवी के बीच कई जनप्रतिबद्ध पीढ़ियों को हम नवारुण के सिवाय जानते नहीं है।

यह बड़ी राहत की बात है गायपट्टी के नाम से बदनाम भूगोल की आम जनता की भाषा हिंदी में अभी विविधता और बहुलता  का लोकतंत्र भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा है और देशभर के लोग हिंदी पढ़ समझ लेते हैं।जनपदों का लोक हिंदी में मुखर है अब भी।

हमें सामाजिक बदलाव का रास्ता इस बढ़त को बरकरार रखकर ही बनाना होगा। गौरतलब है कि सामाजिक बदलाव आंदोलन की जमीन भी हिंदुत्व चीख की वीभत्सता के बावजूद इसी गायपट्टी में बनी है।जबकि धर्मनिरपेक्ष,उदार और प्रगतिशील भूगोल का हर हिस्सा अब केसरिया है।

इसीलिए हम पंजाब,यूपी और उत्तराखंड में संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के मुकाबले पर इतना ज्यादा जोर दे रहे हैं क्योंकि आखिरकार वही गायपट्टी से होकर ही आजादी का रास्ता बनना है और फासिज्म के राजकाज को शिकस्त वहीं मिलनी है।

बाकी देश के जनप्रतिबद्ध लोग हिंदी की इस ताकत को समझें तो वे अपने अपने कैदगाह से रिहा होने के दरवाजे खुद खोल सकते हैं।

निजी तौर पर मैं चाहता हूं कि सभी भारतीय भाषाओं का प्रासंगिक सारा का सारा सांस्कृतिक उत्पादन और रचनाकर्म, दस्तावेज, आदि जितनी जल्दी हो हिंदी के मार्फत बहुसंख्य जनता तक पहुंचाने का कोई न कोई बंदोबस्त हम करें।जो अनिवार्य है।

जाहिर है कि हमारे पास साधन संसाधन नहीं है,मददगार नहीं हैं।फिरभी इस कार्यभार को हम पूरा करने में यकीन रखते हैं।चूंकि यह अनिवार्य कार्यभार है।

कर्नल भूपाल चंद्र लाहिड़ी से पहले आज सुबह ही खड़गपुर से मुंबई जाने के बाद आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े से लंबी बातचीत हुई।

कुछ दिनों पहले मशहूर फिल्मकार आनंद पटवर्धन से हमारी लंबी बातचीत हुई है।

परसो रात कामरेड शमशुल इस्लाम से भी इसी सिलसिले में  लंबी बातचीत हुई है।

इसी बीच विद्याभूषण रावत से हमारी रिकार्डेड बातचीत हुई है।जो जल्द ही सबको उपलब्ध होगी। बाकी देश के लोगों के साथ चर्चा में भी यही मुद्दा फोकस पर है।

यूपी उत्तराखंड वालों से भी रोजाना यही बात हो रही है कि कैसे यूपी,पंजाब और उत्तराखंड में फासिज्म को शिकस्त देना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।हमें अफसोस है कि पंजाब से संवाद के हालात अभी बने नहीं हैं और न गोवा और मणिपुर से।क्योंकि हम राजनीति और मीडिया दोनों से बाहर हैं।

कर्नल साहेब अभी जब मैं लिख रहा हूं तो डायलिसिस पर हैं क्योंकि कल सुबह वे असम के लामडिंग जायेंगे और तीन दिनों तक उनकी डायलिसिस नहीं होगी।उन्होंने सुबह बताया था कि मुझे उन्होंने एक मेल भेजा है।वे डायलिसिस के बाद रात को आराम करेंगे।फिर सुबह असम के लामडिंग जायेंगे,जहां नेताजी जयंती पर वे अतिथि हैं।नेताजी पर उनकी शोध पुस्तक है और फासिज्म के मुकाबले वे नेताजी को प्रासंगिक मानते हैं।

फोन पर उन्होेंने बताया कि उस मेल का मतलब यही है कि भांगड़ जनविद्रोह दूसरा नंदीग्राम आंदोलन नहीं है।वहां आंदोलन पावर ग्रिड के खिलाफ भी नहीं है जो प्रचारित है।बल्कि सिर्फ  पावर ग्रिड को मुद्दा बनाने से भांगड़ नंदीग्राम बना नहीं है।जहां जमीन और रोजगार,आजीविका से बेदखली का माफिया बाहुबलि तंत्र खास मुद्दा है।जो छूट गया है।

सुबह की बातचीत में उन्होंने कहा कि कोलकाता संलग्न इलाकों में जमीन और आजीविका से राजनीतिक माफिया की मेहरबानी के नतीजतन लगातार बेदखल हो रहे सिरे से बेरोजगार और गरीब लोगों का गुस्सा एक मुश्त फट पड़ा है।इस आंदोलन की दशा दिशा को वे भ्रामक बता रहे हैं और उनका कहना है कि विज्ञानविरोधी राजनैतिक आंदोलन आखिरकार जनता को आंदोलन विमुख कर दे रहा है।

लिखने बैठा तो अपने इन बाक्स में मेल न पाकर मैंने उन्हें फोन किया तो वे अस्पताल में थे।डायलिसिस पर।

कर्नल लाहिड़ी के मुताबिक विश्वविद्यालयों से शुरु होने वाले छात्रों युवाओं का आंदोलन सत्तर के दशक से जमीनी स्तर तक पहुंचते पहुंचते भटकाव,अलगाव और दमन का शिकार हो जाता रहा है,जिससे जनता फिर आंदोलन से अलग हो जाती है।

हम सबकी चिंता यही है कि छात्र युवा आंदोलन की एकता बनाये रखने की और विश्वविद्यालयों के दायरे से बाहर उसके बिखराव और दमन रोकने की चिंता।क्योंकि देश में बदलाव की दिशा में सकारात्मक यह छात्र युवा पहल है और आधी आबादी खामोश है।दोहरी लड़ाई पितृसत्ता और मनुस्मृति के खिलाफ है तो दोहरी लड़ाई कारपोरेट तंत्र और ब्राह्मणधर्म के पुनरुत्थान के खिलाफ भी है।जनता की गोलबंदी मिशन है।

कर्नल लाहिड़ी ने कहा कि बिजली के तारों को पर्यावरण विरोधी बताकर विज्ञान विरोधी बातों से आंदोलन की हवा हवाई जमीन तैयार की जा रही है ,जबकि वहां बेदखली निंरतर जारी रहने वाला सिलिसिला है और राजनीतिक माफिया का वर्चस्व सर्वत्र है। बाहुबलि धनतंत्र का लोकतंत्र है।कर्नल साहेब के मुताबिक सही मुद्दों के बिना दिशा भटक रही है और आंदोलनकारियों को सत्ता नक्सली माओवादी बाहरी तत्व बताकर अलगाव में डाल रही है और दमन की पूरी तैयारी है।

ऐसा बार बार होता रहा है।
सत्तर के दशक से बार बार।

शार्टकट आंदोलन और प्रोजेक्टेड आंदोलन से पब्लिसिटी मिल जाती है ,लेकिन आम जनता के हकहकूक की लड़ाई भटक जाती है।मीडिया इसे सत्ता के हक में मोड़ता है।

इसके नतीजतन फिर जनता को किसी सही आंदोलन के लिए तैयार करना मुश्किल होता है।कारपोरेट पूंजी प्रायोजित प्रोजक्ट आंदोलनो यह काम पिछले पच्चीस सालों में बखूब किया है।यह बेहद खतरनाक है।

फर्जी और दिशाहीन आंदोलनों की वजह से जनांदोलनों से आम जनता का मोहभंग हो गया है।सत्ता वर्ग के दमन का भोगा हुआ रोजमर्रे का यथार्थ उन्हें अपने पांवों पर खड़ा होने की कोई इजाजत नहीं देता।ईमानदार आंदोलनों की गुंजाइश बनती नहीं है।

पटवर्द्धन और तेलतुंबड़े से भी छात्र युवाओं के आंदोलन के बिखराव पर लंबी चौड़ी बातें हुईं।खासकर जेएनयू में जिस तरह बापसा  की बड़ी ताकत के रुप में उभऱने के बाद वाम छात्रों और बहुजन छात्रों के बीच दीवारें यकबयक बनी हैं,उससे हिंदुत्व का एजंडा कामयाब होता नजर आ रहा है।यह भारी विडंबना है।जिससे दोनों पक्ष बेपवाह है।

जेएनयू के अनुसूचित और ओबीसी बारह छात्रों के निलंबन के खिलाफ जेेनयू के मशहूर आंदोलनकारियों की खामोशी से मनुसमृति बंदोबस्त मजबूत हुआ है।बाकी विश्वविद्यालयों में इससे मनुस्मृति दहन का सिलसिला थम गया है।जाति उन्मूलन का एजंडा एकबार फिर पीछे छूट गया है।जातियों में बांटकर हिंदुत्व फिर हावी है।

इसी तरह हैदराबाद विश्वविद्यालय में भी रोहित वेमुला  के साथी वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद साल भर बीतते न बीतते अलग थलग पड़ गये हैं।

छात्र युवाओं के मनुस्मृति के विरुद्ध एकताबद्ध मोर्चे को संघ परिवार ने जाति और पहचान की राजनीति से तितर बितर कर दिया है।पूरे देश में यही हो रहा है।

इसी सिलसिले में विद्याभूषण रावत के सवाल बेहद प्रासंगिक हैं जो मुलाकात होने पर अमूमन दिलीप मंडल भी पूछते रहते हैं-वाम पक्ष जाति और जाति व्यवस्था के सामाजिक यथार्थ से सिरे से इंकार करते हुए जिस तरह लगातार बहुजन हितों से विश्वासघात किया है,उसके बाद बहुजन उनपर यकीन कैसे कर सकते हैं?

जब तक वाम संगठनों में बहुजन नेतृत्व को मंजूर नहीं किया जाता ,तब तक इस सवाल का हमारे पास कोई जबाव नहीं है।यही वजह है कि संघ परिवार को हैदराबाद विश्वविद्यालय में भी रोहित वेमुला के साथियों को अलग थलग करने का मौका  मिला है।

विद्याभूषण से हमारी बातचीत रिकार्ड हैं और हम उसका ब्यौरा यहां देना नहीं चाहते।लेकिन उनके पूछे सवाल हमें अब भी बेहद परेशान कर रहे हैंं।

हकीकत की जमीन पर भांगड़ सचमुच नंदीग्राम जनविद्रोह नहीं बन सका।

जबकि भांगड की जमीन की हकहकूक की लड़ाई में यादवपुर ,प्रेसीडेंसी ,कोलकाता से लेकर विश्वभारती विश्वविद्यालयों के छात्र भी सड़क पर उतर रहे हैं।

हाशिये पर चले गये वामपंथी दल और कांग्रेस भी मैदान में हैं।

सत्ता और राजनीति ने आंदोलन को पीछे कर दिया है और ईमानदारप्रतिबद्ध छात्र युवा सामाजिक कार्यकर्ता  माओवादी राष्ट्रद्रोही बान दिये जा रहे हैं।

पूरे देश में किस्सा यही।

बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जो गलती की थी,ममता बनर्जी ने आंदोलन को रफा दफा करने में वह गलती नहीं दोहराई।

गोलीकांड के साथ साथ उन्होंने पूरे इलाके से पुलिस हटा ली और तत्काल जनता को आश्वस्त किया कि अगरे वे नहीं चाहते तो पावर ग्रिड वहां नहीं बनेगा।

पावर ग्रिड का मुद्दा खत्म हो गया तो मुआवजा बांटते ही आंदोलन भी रफा दफा हो गया।सिर्फ पावर ग्रिड का अवैज्ञानिक विरोध से शुरु आंदोलन में दशकों से कोलकाता महानगर के विस्तार के लिए प्रोमोटर बिल्डर राज की बेदखली अभियान और आजीविका रोजगार संकट को इस आंदोलन में मुद्दा नहीं बनाया जा सका।

जबकि इलाके में बच्चा बच्चा कह रहा है कि पुलिस की वर्दी में टीएमसी के बाहुबलियों के गुंडों ने गोली चलायी है,पुलिस ने नहीं।वे बाहुबलि ही सत्ता के आधार हैं।

बाहुबलियों के कारपोरेट बंदोबस्त में अंधाधुंध सहरीकरण और औद्योगीकरण और कारपोरेट आंदोलन के दो मुंहा एकाधिकार आक्रमण से देशभर में महानगरों से लेकर जिला शहरों और कस्बों तक के आसपास देहत और जनपदों का,खेत खलिहानों का सफाया है,इसे हम कहीं बुनियादी मुद्दा बना नहीं पा रहे हैं।इसीलिए आंदोलन भी नहीं हैं।

हर बार सही आंदोलनकारी अलग थलग दमन का शिकार बन जाते हैं और कारपोरेट राजनीतिक आंदोलनों में सत्ता वर्चस्व और शक्ति परीक्षण का खेल शुरु हो जाता है।फिर दोबारा आंदोलन की नौबत नहीं आती।जनता दहशत में पीछे हट जाती है।

मसलन छत्तीसगढ़ में नया रायपुर बनाने के लिए जो सैकड़ों गांव बेदखल कराये गये,उसके खिलाफ आंदोलन हुआ नहीं है।हुआ है तो चला नहीं है।चला है तो फेल है।

पनवेल और नई मुंबई में आंदोलन का यही अंजाम कि आंदोलनकारी  नेता अपने अपने प्रोजेक्ट के साथ न जाने कहां चले गये,अता पता नहीं है।किसानों को मुआवजा भी नहीं मिला क्योंकि जिन कंपनियों के लिए जमीन का अधिग्रहण हुआ और जिन्हें मुआवजा देना था,उन कंपनियों ने दूसरी कंपनियों को जमीन हस्तांतरित कर दी।

कच्छ और गुजरात में यह खुल्ला खेल फर्रूखाबादी रहा है।

दिल्ली और नोएडा,फरीदाबाद,गुड़गांव में तो कहीं कोई प्रतिरोध नही हो सका।

सत्ता का नाभिनाल बिल्डर प्रोमोटर सिंडिकेट माफिया से जुड़ा है।

धन बल पशुबल का गटजोड़ सत्ता और लोकतंत्र का आधार है,जो भांगड़, कोलकाता और बंगाल में ही नहीं,उत्तराखंड, यूपी, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश. राजस्थान गुजरात,ओडीशा,महाराष्ट्र,गोवा,हरियाणा,पंजाब,दक्षिण भारत से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक हिमालय से लेकर समुंदर तक से बेदखली का सच है,जिसके प्रतिरोध के लिए छिटपुट आंदोलन या विद्रोह काफी नहीं हैं।  

लोकतंत्र धनतंत्र में तब्दील है।

धनतंत्र जो कारपोरेट है

।1928 में मशहूर ब्रिटिश नाटककार जार्ज बार्नार्ड शा ने अपने मशहूर व्यंग्य नाटक दि एप्पल कार्ट में बेहद कायदे से लोकंत्र के जिस प्रतिपक्ष को चिन्हित किया था,वह अब इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती है।

इस नाटक में और उसकी गंभीर प्रस्तावना में लोकतंत्र और संस्थागत राजतंत्र के मुकाबले में लोकतंत्र को धनतंत्र बताने में शा ने कोई कसर नहीं छोड़ी।जो आज सच है।

जिस तरह इलेक्ट्राल कालेज के चुने हुए नुमाइंदों के वोट से सिरे से अराजनैतिक असामाजिक एक कारपोरेट अरबपति के हवाले रातोंरात दुनिया हो गयी,उससे बतौर बहुमत चुनाव पद्धति  के इस लोकतंत्र पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है।

भारत में अब तक सत्ता को कारपोरेट मदद मिलती रही है और अब कारपेरोट सरकार है तो बहुत जल्द देश का नेतृत्व भी कारपोरेट होगा।

विकास के सुनहले दिनों का जलवा है ,बहुत जल्द भारत का प्रधानमंत्री भी कोई अरबपति खरबपति बनेगा।

नये अमरिकी राष्ट्रपति इतिहास के विरुद्ध नस्ली फासिज्म के ईश्वर बनकर विश्व्यवस्था की कमान थामे हैं,यह अमेरिकी लोकतंत्र के लिए ही नहीं,बल्कि बाकी दुनिया,इंसानियत और कायनात के लिे मुकम्मल कयामती फिजां है।

जटिल चुनाव पद्धति के तहत किसी राज्य में ज्यादा मत मिलने पर उसके सारे वोट मिल जाने के प्रावधान के तहत बड़े राज्यों का बहुमत वोट पाकर  पापुलर वोट से अरबपति ट्रंप  पराजित होने के बावजूद अमेरिका के राष्ट्रपति हैं। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद शपथग्रहण के वक्त उन्हें सिर्फ चालीस फीसद लोगों का समर्थन है,शपथ ग्रहण खत्म भी नहीं हुआ अमेरिका में उनके चुने जाने के क्षण से जारी विरोध प्रदर्शन का सिलसिला वाशिंगटन और न्यूयार्क जैसे बड़े शहरों के अलावा बाकी देश में ज्वालामुखी की तरह फटने लगा है और इतना भयंकर है यह जनविद्रोह कि वाशिंगटन मार्च करने वाली महिलाओं का संख्या दो लाख से ज्यादा है।

भारत में सबसे खतरनाक बात यही है कि लोकतंत्र अब सिरे कारपोरेट हैं और उसका एजंडा नस्ली नरसंहार का हिंदुत्व है तो प्रतिरोध असंभव है और आंदोलन भी नहीं है।



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