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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, August 26, 2012

`इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें भारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।​' ​​

 `इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें भारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।​'
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 `इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें भारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।​'
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​                                                                                                                                                                                                                                                                                           -  पंडित जवाहर लाल नेहरु

`कृपया स्वतंत्त्रता सेनानियों के वंशजों को घुसपैठिया का नाम न दें। महज इसलिए कि राजनीतिक और धार्मिक उत्पीड़न के शिकार पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश के ये अल्पसंख्यक लोग देश की पूर्वी सीमा पार करके​ ​ भारत में आये।'

                                                   संकलन​
​​
​                                             सुबोध विश्वास​
​​
​                                              राष्ट्रीय अध्यक्ष​
​​
​                                                 अनुवादक​
​​
​                                  एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​
​                          स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता

 सूचना भाषा समन्वय​                                                                                           प्रकाशक​
​​                                                                                                                               परमानंद घरामी
​​    ​​    प्रसेन रप्तन​​​​                                                                                                               महासचिव
​कार्यकारी सचिव          

                                                कापीराइट @ निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति                                     
​​                                  निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति                                     
​मुख्य कार्यालय: ३, बजरंग नगर, जादूमहल रोड, नागपुर- ६, महाराष्ट्र, भारत। मोबाइल नंबर: 9422128897
              ईमेल: subodhbiswas1@gmail.com  मोबाइल नंबर: +91 9422128897
संदर्भ संख्या: NIBBUSS/      /2012                                                                        दिनांक: २९ अगस्त २०१२

प्रति, ​
​​डा. मनमोहन सिंह,
​माननीय प्रधानमंत्री,​
भारत सरकार​​
​नई दिल्ली-110001

         आदरणीय महोदय,
विषय: कानून में समुचित संशोधन करके पूर्वी पाकिस्तन बांग्लादेश से भारत आये वहां से विस्थापित अल्पसंखयक समुदायों को भारत की नागरिकता देने के लिए प्रार्थना
संदर्भ: इस कार्यालय से पत्र संख्या:NiBBUSS/      /2011                                                   दिनांक: 23.11.2012
 महोदय, सविनय निवेदन इस प्रकार है कि हम पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से वहां के करोड़ों अल्पसंख्यक हिंदू बंगाली शरणार्थियों जो किंन्हीं विशिष्ट परिस्थितयों में भारत में शरण लेने को विवश हुए, की नागरिकता के बारे में आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।हमारी स्थिति उन लोगों से कतई भिन्न है जो आर्थिक कारणों से या फिर आजीविका के प्रयोजन से भारत में आ गये।

हम आपको यह स्मरण कराना चाहते हैं कि ३ दिसंबर, २००३ में पेश नागरिकता संशोधन विधेयक २००३ पेश करते समय इसके प्रभाव में आने वाले समाज के विभिन्न वर्गों, समुदायों के बीच कोई फर्क नहीं किया गया।लेकिन यह आप ही थे जिन्होंने कहा था कि `... हमारे देश के विभाजन के बाद शरणार्थियों के मामले में यह स्पष्ट है कि बांग्लादेश जैसे देशों में अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा,​​और हमारा यह नैतिक उत्तरदायित्व है कि अगर परिस्थितियां ऐसे अभागा लोगों को भारत में शरण लेने को विवश करती हों तो उन्हें नागरिकता देने के मामले में हमारा दृष्टिकोण अवश्य ही उदार होना चाहिए।..'और आपकी इस अपील के बाद ततकालीन उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि विपक्ष के नेता ने जो कहा है, मैं उस दृष्टिकोम से पूरी तरह सहमत हूं।'

इसका तार्किक नतीजा यह होना चाहिए था कि नागरिकता संशोधन विधेयक २००३ के Clause 2(i) (b) में पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से आये वहां के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के संदर्भ में समुचित संशोधन के जरिये नागरिकता हेतु प्रावधान किया जाता।विडंबना यह है कि सदन की सहमति के बावजूद ऐसा किया नहीं गया।लगभग एक दशक से यह प्रकरण लंबित है।इस बीच इन लाखों उत्पीड़ित विभाजन पीड़ितों में असुरक्षा की भावना प्रबल होती गयी क्योंकि उन्हें न केवल अवैध घुसपैठिया बताया जा रहा​ ​ है , बल्कि कई राज्यों से उनके देश निकाले की कार्रवाई भी हो गयी।हम लज्जित हैं कि ऐतिहासिक परिस्थितियों के शिकार के बजाय हमसे अपराधियों जैसा सलूक किया जा रहा है।हमारे लोग बांग्लादेश में उत्पीड़न का शिकार होकर अपने मूल मातृभूमि में शरण लेने के लिए पलायन करने को बाध्य हुए, लेकिन कैसी विडंबना है कि यहां भी उन्हें हजारों की तादाद में फिर नये सिरे से उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है।क्योंकि उन्हें अपनी मूल मातृभूमि में भी विदेशी घुसपैठिया बताया जा रहा है,फिर ढोर डंगरों की तरह हिरासत में लेकर देश से बाहर निकाला जा रहा है। यानी उत्पीड़न का वही दुश्चक्र यहां भी।हम लोग भारत में दशकों से रह रहे हैं और हमारी कई पीढ़ियों ने भारत भूमि पर ही जनम ग्रहण किया है, फिरभी हमें बारतीय नागरिक नहीं माना जाता।कब तक यह अन्याय होता रहेगा?

इस विमर्श के आधार पर हमारा आपसे सविनय निवेदन है कि नागरिकता संशोधन विधेयक २००३ के Clause 2(i) (b) में समुचित संसोधन हेतु आप हस्तक्षेप करें और पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से आये वहां के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के संदर्भ में संबंधित कानून और तमाम दूसरे कानूनों में जरूरी बदलाव करें।ताकि लाखों की तादाद में ये उत्पीड़ित करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी और उनके बच्चे भारत में गरिमा के साथ नागरिक जीवन निर्वाह कर सकें।

आपकी ओर से यथा शीघ्र सकारात्मक उत्तर की प्रतीक्षा के साथ..

आपके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए
                                                                                                                            
वास्तव में आपका ही​
                                                                                                         निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति 
                                                                                          NIBBUSS  
की ओर से
      परमानंद घरामी                                        प्रसेन रप्तन​​​​                                                सुबोध विश्वास​
​​           महासचिव                                               कार्यकारी सचिव                                         राष्ट्रीय अध्यक्ष​

प्रतिलिपि,​
​​
​मामनीय गृह मंत्री भारत सरकार, नई दिल्ली। इस निवेदन के साथ कि करोड़ों उत्पीड़ित हिंदू बंगाली शरणार्थियों के साथ न्याय किया जाये।

निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति                                     
​मुख्य कार्यालय: ३, बजरंग नगर, जादूमहल रोड, नागपुर- ६, महाराष्ट्र, भारत। मोबाइल नंबर: 9422128897
              ईमेल: subodhbiswas1@gmail.com  मोबाइल नंबर: +91 9422128897
संदर्भ संख्या: NIBBUSS/      /2012                                                                        दिनांक: २९ अगस्त २०१२

प्रति, ​
​​डा. मनमोहन सिंह,
​माननीय प्रधानमंत्री,​
भारत सरकार​​
​नई दिल्ली-110001

         आदरणीय महोदय,
विषय: भारत में विभिन्न पुनर्वास परियोजनाओं के तहत बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को एलाट कृषि भूमि और आवासीय प्लाट का मालिकाना हक उन्हे दियेजाने के बारे में प्रार्थना।
संदर्भ: इस कार्यालय से पत्र संख्या:NiBBUSS/        /2011                                              दिनांक: 23.11.2011
        भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साक्षी है कि आजादी की लड़ाई में हजारों बंगालियों ने अपने जीवन का बलिदान इस आशा के साथ कर दिया कि स्वतंत्र भारत में कम से कम उनकी अगली पीढ़ियां सुख से रह सकेंगी। किसे मालूम था कि लाखों जिंदगियों( हमारे माता पिता, भाई- बहनों और रिश्तेदारों की) की कुर्बानी की बदौलत हासिल स्वतंत्रता हमारी मातृभूमि का विभाजन करके हमसे हमारी ​पुश्तैनी संपत्ति से हमें बेदखल करके हमें अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर कर देगी! आपको विदित होगा कि पचास के दशक से नब्वे के दशक  तक  पूर्वी पाकिस्तान/ बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न के कारण वहां के अल्पसंख्यक ​​करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी सीमा के इस पार चले आये।                                                                
                                     
​स्वतंत्रता संग्राम में हमारे अमूल्य योगदान का ध्यान रखते हुए भारत सरकार ने देश विबाजन के वक्त पीड़ित हिंदू बंगालियों से भारत चले आने का खुला निमंत्रण दिया और उन्हें भारत में समुचित सामाजिक आर्थिक सुरक्षा देने का आश्वासन दिया।इसी के मद्देनजर,देश के विभिन्न कोनों में इन करोड़ों विभाजन पीड़ितों के पुनर्वास के लिए अनेक पुनर्वास परियोजनाएं शुरू की गयीं।हमने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो खोया और विभाजन के कारण सीमापार जो संपत्ति छोड़ आने को मजबूर हुए, उसके एवज में हर शरणार्थी परिवार को कृषि भूमि और आवासीय प्लाट दिये गये।यह हमारे सम्मानपूर्वक जीने के लिए पर्याप्त कतई नहीं ता। पर छह - सात धशकों से हम बिना देश या भारत सरकार से कुछ और मांगे उसी पर अपना गुजर बसर करते आ रहे हैं।यही नहीं, इस दौरान हमने पुनर्वास में दिये गये अनुर्वर जमीन को खेती योग्य बनाने का भरसक प्रयत्न किया।जिसके तहत हमने देश के आर्थिक विकास में अपनी भागेदारी सुनिश्चित की।

 यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें अत्यंत दुःख के साथ आपसे निवेदन करना पड़ रहा है कि ६५ साल बीत जाने के बाद भी पुनर्वास योजना के तहत हमें​ ​ प्राप्त कृषि भूमि और आवासीय प्लाट के हम मालिकाना हक हासिल नहीं है। नतीजतन, इस जमीन पर न हम कोई कारोबार शुरू कर सकते हैं ​​और न आजीविका चलाने के लिए बैंकों से कोई कर्ज ले सकते हैं।इसके विपरीत पश्चिम पाकिस्तान से भारत आये शरणार्थियों को ये अधिकार मिले हुए हैं, जिसका हम स्वागत करते हैं।इसीके तहत हम उम्मीद करते हैं कि महोदय लाखों पुनर्वासित बंगाली शरणार्थियों को कृषि और आवासीय भूमि का मालिकाना हक दिलाने के लिए समुचित कार्रवाई करेंगे।ताकि इनकी भावी पीढ़ियां भारत में गरिमा के साथ आजीविका निर्वाह कर सकें।

आपकी ओर से यथा शीघ्र सकारात्मक उत्तर की प्रतीक्षा के साथ..

आपके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए
                                                                                                                            
वास्तव में आपका ही​
                                                                                                         निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति 
                                                                                          NIBBUSS  
की ओर से
      परमानंद घरामी                                        प्रसेन रप्तन​​​​                                                सुबोध विश्वास​
​​           महासचिव                                               कार्यकारी सचिव                                         राष्ट्रीय अध्यक्ष​


निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति                                     
​मुख्य कार्यालय: ३, बजरंग नगर, जादूमहल रोड, नागपुर- ६, महाराष्ट्र, भारत। मोबाइल नंबर: 9422128897
              ईमेल: subodhbiswas1@gmail.com  मोबाइल नंबर: +91 9422128897
संदर्भ संख्या: NIBBUSS/      /2012                                                                        दिनांक: २९ अगस्त २०१२
प्रति, ​
​​डा. मनमोहन सिंह,
​माननीय प्रधानमंत्री,​
भारत सरकार​​
​नई दिल्ली-110001

         आदरणीय महोदय,
विषय: पूर्वी राज्यों में बसे अन्य समुदायों के समान पूर्वी पाकिस्तान/बांग्लादेश के विभाजनपीड़ित विस्थापितों को देशभर में सामाजिक सुऱक्षा देने के लिए प्रार्थना।
संदर्भ: इस कार्यालय से पत्र संख्या:NiBBUSS/        /2011                                              दिनांक: 23.11.2011
हम पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से वहां के अल्पसंख्यक हिंदू बंगाली शरणार्थियों जो किंन्हीं विशिष्ट परिस्थितयों में भारत में शरण लेने को विवश हुए, को जाति के आधार पर आरक्षण दिये जाने की मांग के प्रति आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।

 करोड़ों शरणार्थियों को धार्मिक उत्पीड़न और सांप्रदायिक दंगों की वजह से सीमा पार करके अपने मूल गहदेश में ही शरण लेनी पड़ी।पहले पहल इन शरणार्थियों को बंगाल, ओड़ीशा, असम  और ऐसे ही निकटवर्ती राज्यों में पुनर्वास दिया गया। बाद में इन्हें देश के दूसरे हिस्सों में भी पुनर्वासित होने के लिए बाध्य किया गया।मालूम हो कि ये विस्थापित भारत सरकार की योजना और पहल के तहत विभिन्न राज्यों में बसाये गये और उनके सामने विकल्प चुनने का कोई अवसर नहीं था। हालांकि  वे सभी पश्चम बंगाल में ही बसना चाहते थे, लेकिन उन्होंने अंततः भारत सरकार की पुनर्वास नीति का अनिच्छा के बावजूद निष्ठापूर्वक अनुपालन किया।पुनर्वासित इन शरणार्थियों में अधिकांश नमोशूद्र, पोद/पौण्ड्र, राजवंशी जातियों के हैं, जिन्हें बंगाल, असम, त्रिपुरा, मणिपुर,मिजोरम, ओड़ीशा( देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में) अनुसूचित जाति के रुप में आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में उन्हें और इन जातियों को अनुसूचित की मान्यता नहीं है।जाति के आधार पर आरक्षण का मामला है और किसी जाति को आरक्षण सामाजिक नस्ली परिस्थतियों के मद्देनजर दिये जाने की विवेचना होती है।लेकिन बंगाली हिंदू विस्थापितों के मामले में जातीय नस्ली पहचान उन्हें जिन राज्यों में बसाया गया, वहां अप्रासंगिक हो जाने से उनकी अनुसूचित पहचान ही खत्म हो गयी।पूर्वी भारत के लिहाज से जातीय और नस्ली तौर पर वे अनुसूचित तो हैं, लेकिन बाकी भारत में यह पहचान स्थापित ही नहीं हो सकी।नतीजतन एक ही माता पिता की संतानों को, जिन्हें पूर्वी राज्यों में पुनर्वास मिला , उन्हें तोसंवैधानिक सामाजिक न्याय के अधिकार मिल गये, लेकिन बाकी भारत में बसे दूसरों को नहीं।ये लोग सामाजिक न्याय और संवैधानिक अधिकार से वंचित हैं तो यह किसकी भूल है?जाहिर है कि अगर हमारे सारे लोग पूर्वी राज्यों में बसाये गये होते तो आज हम सभी को अपनै दूसरे भाई बहनों की तरह आरक्षण मिल गया होता।हम भी समान अवसरों के लाब से वंचित नहीं रहते।इसलिए हम आपका ध्यान इस ओर खींचने के लिए बाध्य हो रहे हैं कि या तो हमें भारत के सभी राज्यों में अपने पूर्वी राज्यों में बसे भाई बहनों की तरह आरक्षण हेतु अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाये  या फिर हमें भी उन्हीं की तरह दुबारा पूर्वी राज्यों में ही बसाया जाये। इसके लिए आपसे​ ​ निवेदन है कि आप संबंधित राज्यों को निरदेश आदेश दें  ताकि हमें अनुसूचित जाति बतौर सर्वत्र मान्यता पूर्वी राज्यों की तरह मिले।ताकि  भारतभर में पुनर्वासित ये करोड़ों विस्थापितगरिमा के साथ आजीविका निर्वाह कर सकें।

आपकी ओर से यथा शीघ्र सकारात्मक उत्तर की प्रतीक्षा के साथ..

आपके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए
                                                                                                                            
वास्तव में आपका ही​
                                                                                                         निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति 
                                                                                          NIBBUSS  
की ओर से
      परमानंद घरामी                                        प्रसेन रप्तन​​​​                                                सुबोध विश्वास​
​​           महासचिव                                               कार्यकारी सचिव                                         राष्ट्रीय अध्यक्ष​

प्रतिलिपि,​
​​
​मामनीय मामाजिक न्याय व सशक्तीकरण मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली। इस निवेदन के साथ कि करोड़ों उत्पीड़ित हिंदू बंगाली शरणार्थियों के साथ न्याय किया जाये।

क्या यही स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों की नियति है?

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साक्षी है कि आजादी की लड़ाई में हजारों बंगालियों ने अपने जीवन का बलिदान इस आशा के साथ कर दिया कि स्वतंत्र भारत में कम से कम उनकी अगली पीढ़ियां सुख से रह सकेंगी। किसे मालूम था कि लाखों जिंदगियों( हमारे माता पिता, भाई- बहनों और रिश्तेदारों की) की कुर्बानी की बदौलत हासिल स्वतंत्रता हमारी मातृभूमि का विभाजन करके हमसे हमारी ​पुश्तैनी संपत्ति से हमें बेदखल करके हमें अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर कर देगी! ममला बस इतना नहीं है। अब तो स्वतंत्रतासेनानियों के इन वंशजों को स्वतंत्र  भारत में विदेशी घुसपैठिया नाम की एक नयी पहचान दी जा रही है।आजादी के पैसठ साल बाद।विदेशी अंगेजों से अपने गूलाम देश को आजाद कराने के एवज में आज हम ही विदेशी करार दिये गये!अगर हमारे पूर्वजों की कुर्बानियों के एवज में आजादी ने हमें यह सिला दिया तो हमें  इस तोहफे को मंजूर करने , न करने के बारे में  दुबारा सोचना ही होगा।

खास बात यह है कि उन समुदायों, जो भारत में आर्थिक प्रयोजन या आजीविका कमाने की गरज से आये और जो धर्म, जीवन और संपत्ति पर हमला होने की परिस्थितियों में इनकी रक्षा के लिए, में बुनियादी फर्क हैं।हालांकि विभाजन के बाद सारे लोग पूर्वी बंगाल से आते रहे और ये तमाम लोग बांग्ला में ही बात करते हैं, लेकिन हम बंगाली हिंदू शरणार्थी विभाजनपीड़ित धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हैं, अन्य नहीं।विभिन्न राज्यों में बसाये गये शरणार्थी तो विभाजन के तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्तान से ही आये हैं।इसलिए सभी बंगाली शरणार्थियों और सभी बंगालियों को घुसपैठिया बतौर चिन्हित करना सरासर गलत है। हम मीडिया और आम जनता से अपील करते हैं कि पूर्वी बंगाल से आये वहां के अल्पसंख्यक विभाजन पीड़ित और धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हिंदू बंगाली शरणार्थियों को कतई घुसपैठिया न कहें।

 यह विडंबना ही है कि हम लोग धर्म आधारित दो राष्ट्र सिद्धांत के बलि हो गये।जिसके कारण विभाजन के वक्त व्यापक पैमाने पर दंगा, मारकाट और आगजनी की घटनाएं घटीं।भरत केस्वतंत्रतासेनानियों के दूसरे वंशजों के मुकाबले स्वतंत्रता हमारे लिए भारी दुःखों और मुश्किलों का सबब बन गयी।पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से भी धार्मिक उत्पीड़ने के चलते विताड़ित , अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर हमारे लोगों को सीमा पार करते हुए अपनी नागरिकता, पहचान, संपत्ति के साथ साथ अपने सगे संबंधियों को भी खोना पड़ा।विभाजन के वक्त राष्ट्रीय नेताओं महात्मा गांधी,डा. राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरु, सरदार बल्लभ भाई पटेल के दिये गये आश्वासन हवा में गायब हो गये।जिन्हें विस्तापन का अभिशाप झेलना पड़ा, वे घुसपैठिया और शरणार्थी नाम से बदनाम हो गये।क्या यह देश राष्ट्र नेताओं के तब कहे गये शब्द भूल गया है,`हिंदी, ईसाई, बौद्ध समुदायों के अल्पसंख्यक जो लोग भारत आने को इच्छुक हैं, उनका स्वागत है और उनके सामाजिक आर्थिक हक हकूक की हिफाजत करना हमारी जिम्मेवारी है'?इन्हीं नेताओं ने तब अविभाजित भारत की २६ फीसदी जमीन २४ प्रतिशत आवादी वाले एक समुदाय को दो दिया, जिसपर पूर्वी पाकिस्तान बना, जो बाद में बांग्लादेश हो गया।दुर्बाग्य से वह हमारी पुश्तैनी जमीन थी, जो हमारी सहमति के बिना हमारी कीमत पर एक नया देश बनाने के लिए दे दी गयी।

                क्या सरकार की यह नैतिक जिम्मेवारी नहीं थी कि हमें हुई क्षति का समुचित मुआवजा दिया जाता?जो कुछ हमें अपने विस्थापन इलाके में छोड़कर आना पड़ा उसके लिए?

              इसके बजाय सरकार नागरिकता संशोधन कानून, २००३ पास करके एक दफा फिर हमें शरणार्थी बनाने में लगी है।ऐसा भेदभाव केवल हिंदू बंगाली शरर्थियों के साथ हो रहा है। क्यों? 
           
          अगर भारतीय संस्कृति पिता के वचन निभाने की परंपरा निभाते आ रही है तो क्यों राष्ट्रपिता के आश्वासन का उल्लघंन हो रहा है?

विभाजन के बंदोबस्त के तौर पर २६ फीसद जमीन पाकिस्तान में मुसलमानों के लिए दे दी गयी और जनसंख्या स्थानांतरण का फैसला हुआ। चूंकि विभाजन की शर्त के मुताबिक पाकिस्तान को जमीन मुसलमानों के लिए दे दी गयी और बाकी बची जमीन दूसरे समुदायों के लिए चिन्हित​ ​ हो गयी, तदनुसार डा. भीम राव अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने जनसंख्या स्थानांतरण की मांग की।लेकिन तब यह देखा गया कि अगर सारे हिंदू एक मुश्त भारत चले आयें तो उन्हें पुनर्वास देना मुश्किल हो जायेगा।तब नेहरू ने अपने दो मंत्रियों को  पूर्वी पाकिस्तान भेजा कि वे पूर्वी बंगाल के बंगाली हिंदुओं को आश्वस्त करें कि वे जब चाहें भारत आते रह सकते हैं बशर्ते कि एक मुश्त कतई न आयें।इसीलिए पश्चिम पाकिस्तान के विपरीत पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू देरी से चरणबद्ध ढंग से आते रहे और भारत सरकार उन्हें विभिन्न पुनर्वास परियोजनाओं में बसाती रही। 

                      अब इसी अल्पसंख्यक समुदाय को नागरिकता संशोधन कानून के तहत कैसे विदेशी घुसपैठिया कहा जा सकता 
है?जबकि पाकिस्तान को दे दी गयी अविभाजित भारत की २४ प्रतिशत जमीन सिर्फ मुसलमान भाइयों के लिए तय कर दी गयी?
                    क्या बाकी बची भारत की जमीन पर हमारा हिस्सा नहीं है?
.
                  क्या हमारी जमीन पाकिस्तान को नहीं दे दी गयी?   यदि हमारे हिस्से की जमीन भारत सरकार के हवाले कर दी गयी, तो हमें घुसपैठिया कैसे कहा जा सकता है?

                 कैसे कोई आधार वर्ष तय करके आगे पीछे भारत आये तमाम हिंदू बंगाली शरणार्थियों को घुसपैठिया करार दिया जा सकता है?
      पंडित नेहरु ने तब कहा था,`इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें बारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।​'(Refugees and other Problems, Jawaharlal Nehru speeches. Vol. 2, P.8 (P 10) published in June 1967). वे विस्थापित यानी हम आज भी कानून बदलने का इंतजार कर रहे हैं।क्योंकि आज भी देश का कानून अपर्याप्त है और राष्ट्र नेताओं के वे वायद पूरे नहीं हो सकें।हम अपने देश में निर्भय जीवन निर्वाह करना चाहते हैं।मामला यहीं खतम नहीं होता। कानून बदलते जरूर रहे , पर एलमं इस सच को नजरअंदाज कर दिया गया कि किस भयावह दुःस्वप्न जैसे माहौल में रातोंरात अपने घर से बेदखल होकर सीमा पार करके हमें अपने ही गृहदेश में शरमार्थी बनना पड़ा।अविभाजित भारत के मूलनिवासी अब अपने ही देश में विदेशी हो गये।सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि विभाजन के वक्त कोई समयसीमा जनसंख्या स्थानांतरण के लिए तय नहीं की गयी।जिससे विभाजन पीड़ित अल्पसंख्यकों को बेहद सांप्रदायिक धार्मिक उन्माद के माहौल में निरंतर और ज्यादा उत्पीड़न, दमन का शिकार होना पड़ा।बाद में हुए कानून में सुधार के तहत तो हमें विदेशी घुसपैठिया करार देकर हमारे खिलाफ देश निकाले का फतवा जारी हो गया जैसे कि बांग्लादेश हमें अपने नागरि बतौर पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत करने को तैयार बैठा हो!

                         क्या पंडित नेहरु के कथन कि अपर्याप्त कानून विभाजनपीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए बदल दिया जाना चाहिए, का आशय यही था?

                            अगर भारत सरकार हमें देश से निकालती है तो हम करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी कहां जायेंगे?

                        क्या ६४ वर्ष बाद बांग्लादेश हमें अपने नागरिक बतौर स्वीकर कर लेगा अगर आधार वर्ष १९४८ मान लिया जाये?

                   जब कोई इस देश में किसी भिखारी की नागरिकता पर सवाल उठा नहीं सकता, तब ऐसा हमारे साथ ही क्यों हो रहा है?

                क्या  हमारी हैसियत इस देश में किसी भिखारी से भी कमतर है हमारे बलिदान के मद्देनजर?

अगस्त, १९४७ में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों के सम्मेलन में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि `हम अपनी स्वतंत्रता का अहसास नहीं कर सकते जबतक पूर्वी और उत्तर बंगाल के हिंदुओं को इसका हिस्सा न दें।विदेशी गूलामी से देश को आजाद करने के लिए उनकी कुर्बानियों और तकलीफों को जिन्हें उन्होंने हंसते हंसते जिया, को हम कैसे भुला सकते हैं?उनके भविष्य का  सचेत निर्माण अब सरकार और इस देश की जनता की जिम्मेवारी है।'

                     क्या अब देश में ऐसे महापुरुष नहीं हैं जो अपने राष्ट्रनेताओं की करोड़ों विभाजनपीड़ितों के प्रति व्यक्त की गयी भावनाओं से अपने को जोड़ सकें?

                 हमारे राष्ट्र नेता १९४७ में जिन्हें स्वतंत्रतासेनानी कह रहे थे, २०१२ में वही लोग विदेशी कैसे हो गये?

 जब १९५० में पूर्वी पाकिस्तान में हुए दंगों में अल्पसंख्यक हिंदुओं की हालत नाजुक हो गयी, स्थितियां बिगड़ती गयी और अत्याचार असहनीय हो गये तब भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपने दो मंत्रियों को बुलाया औप पूर्वी पाकिस्तान के हालात का जायजा लेने के बाद वहां के अल्पसंख्यकों को  फिर दोनों मंत्रियों एके चांद और चारु चंद्र विश्वास  के जरिये संदेश भेजा,ताकि हम पूर्वी बंगाल में बने रहे क्योंकि एक मुश्त इतनी भारी तादादा में शरणार्थियों के आने के बाद उनके पुनर्वास का इंतजाम करना मुश्किल हो जाता।उनहोंने यह भरोसा दिलाया कि अगर हम पूर्वी बंगाल में अपनी जान माल और इज्जत की सुरक्षा से मोहताज हो गये, हमारी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाये तो हम भारत में स्वागत हैं और हम कभी भी चरणबद्ध तरीके से भारत आ सकते हैं।नेहरु ने यह वायदा भी किया कि पूर्वी बंगाल से आने वाले विस्थापितों की चाहे वे जब आयें, की सुरक्षा और उनकी आजीविका का बंदोबस्त करना भारत सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होगी।उन्हें भारत के दूसरे नागरिकों की तरह समान अधिकार मिलेंगे।इस वायदे के बाद पूर्वी बंगाल में लगातार धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हो रहे अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के लोग जो तत्काल भारत आने को तत्पर थे, उन्हें वहीं वापस रुक जाने को मजबूर हो जाना पड़ा।इस उम्मीद के साथ कि भारत सरकार के वायदा मुताबिक वे कभी भी भारत आ सकते हैं।उस वक्त संकटट इतना गहरा था और सीमा पर इतनी अफरा तफरी मची थी कि जो लोग उस वक्त सीमा पार चले आये, वे भी न कोई वीसा या वैध दस्तावेज हासिल कर सकें। बस, जान और इज्जत बचाने की फिराक में अजीब सी जीजिविषा के मारे इस पार चले आये।

                     तो असहनीय परिस्थितियों में पूर्वी पाकिस्तान में देर तक रुके रहने और बाद में सीमा पार करने के लिए कौन जिम्मेवार हैं? और इससे जो परिस्थितियां और बिगड़ती चली गयीं, उसके लिए?

                अब छह सात दशक के बाद कैसे १९४८ को आधार वर्ष घोषित किया जा सकता है , जबकि भारत सरकार के कहे मुताबिक ही शरणार्थी देर तक आते रहे?

 इस पर खास तौर पर गौर करना चाहिए कि पूर्वी पाकिस्तान से ज्यादातर शरणार्थी तो विभाजन के तुरंत बाद १९४७ से लेकर १९५१ के बीच सीमा पार कर चुके थे, जबकि तब शरणार्थियों के लिए देश में कोई कानून नहीं बना था और न ही पूर्वी बंगाल के शरणार्थियो का बतौर भारतीय नागरिक पंजाब के विभाजन पीड़ितों की तरह पंजीकरण करने का कोई बंदोबस्त था। उस वक्त संकट और मानवीय तकाजे के मद्देनजर दुर्बाग्यवश इस महती कार्यभार की अनदेखी कर दी गयी, जिसका खामियाजा आज हम बुगत रहे हैं।तब न  नागरिकों की ओर से और न निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की ओर से इन्हें बतौर नागरिक पंजीकृत कराने की कोई मांग करने की आवश्यकता महसूस की गयी और बतौर उनका भारतीय़ नागरिक भूमिपुत्र स्वागत किया गया।लेकिन भारत सरकार को जब यह महसूस हुआ कि इस संकट की आड़ में तमाम तरह के लोग भारत में घुसे चले आयेंगे, तब जाकर कहीं​
​ नागरिकता कानून १९५५ पास हुआ। १९५० में पूर्वी पाकिस्तान में दंगों और उसके नतीजतन भारत में  पहुंच चुके शरणार्थी सैलाब के कम से कम चार साल बाद।इसतरह राष्ट्रीय नेतृत्व ने सामाजिक,धार्मिक उत्पीड़न के शिकार विभाजन पीड़ितों के पुनर्वास की जिम्मेवारी तो बखूबी निभायी, लेकिन इस​ ​ अफरा तफरी में उन्हें नागरिकता का मौलिक संवैधानिक अधिकार देना भूल गये जबकि पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले लोगों की तरह बतौर शरणार्थी पंजीकरण के वक्त ही इन लोगों की नागरिकता का भी पंजीकरण हो जाना चाहिए था।फिर जब नागरिकता कानून में संसोधन की नौबत आयी तो मूल मकसद से हटकर जनप्रतिनिधियों ने पूर्वी बंगाल से आये विभाजनपीड़ित हिंदुओं को उनके जन्मगत और संवैधानिक नागरिकता का अधिकार उनसे छीन लिया।लेकिन हाल ही में इसी कानून के तहत अब भी पश्चिमी सीमा से भारत में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों का बारत में स्वागत हो रहा है, जबकि इसके विपरीत विभाजन के तुरंत बाद आये धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों  की नागरिकता छीनी जा रही है। स्वतंत्रतासेनानियों के वंशजों के साथ यह भेदभाव क्यों?जबकि पश्चमी सीमा से आये लोगों को इसी कानून की तमाम धाराओं उपधाराओं में छूट दी जा रही है?

इसी बीच असम सरकार ने विदेशी अधिनियम, २००५ लागू कर दिया।यह  कानून ब्रिटिश सरकार ने १९४६ में  इस कानून के सेक्शन ९ के तहत ​​चीनी और जापानियों के भारत में प्रवेश निषिद्ध करने के लिए लागू किया था।अब इस कानून के तहत असम में बसे करीब पांच लाख​ ​ विभाजनपीड़ित हिंदू बंगाली शरणार्थियों का असम में उत्पीड़न हो रहा है।मोरीगांव जिले के राजामोयंग पोसट के  कासा शिला गांव के आठ साल के एक बालक को २२ अक्तूबर , २०१० से   Foreigners (Tribunal) Act case No. 137/06 WP(c)4190/10 के तहत कोकराझाड़ डिटेंशन कैंप में गैर कानूनी ढंग से बंद रखना इस कानून के दुरुपयोग का उदाहरण है।जबकि इस सिलसिले में न्यायिक या अन्य कोई जांच पड़ताल नहीं की गयी।यह एक नाबालिग के विरुद्ध मानवअधिकार का सरासर उल्लंघन है।दुर्बाग्य तो यह है कि ऐसा सिर्फ असम में नहीं हो रहा है, हिंदू बंगाली शरणार्थियों के साथ देश भर में ऐसा ही  सलूक किया जा रहा है।

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