Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Saturday, December 14, 2013

बहुजन भारत को जरूरत है किसी नेल्सन मंडेला की

एच एल दुसाध  

2014 में केन्द्र की सत्ता दखल का सेमी फ़ाइनल माने जा रहे पाँच राज्यों का चुनाव परिणाम सामने आने के बाद आज बहुजन समाज का जागरूक तबका उद्भ्रान्त है; निराशा के सागर में गोते लगा रहा  है। कारण, चुनाव परिणाम ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि सोलहवीं लोकसभा में देश के अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक और बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक के रूप में नज़र आने जा रहे हैं। निराशा की इस घड़ी में जरूरत है ऐसे किसी व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने की जिसने भारत जैसे हालात में अपने देश के बहुजनों में उम्मीद की रोशनी जलाया हो। इस लिहाज़ से भारत के बहुजनों के लिये नेल्सन मंडेला से बड़ा कोई प्रेरणा का स्रोत हो ही नहीं सकता।

सेमी फ़ाइनलकहे जाने वाले पाँच राज्यों के अन्तिम चरण का चुनाव ख़त्म होने के एक दिन बाद अर्थात् 5 दिसम्बर को दक्षिण अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खिलाफ महासंग्राम चलाने वाले महान मुक्ति-योद्धा नेल्सन मंडेला का परिनिर्वाण हो गया था। उनकी मृत्यु से पूरे विश्व के मानवतावादियों में शोक दौड़ गयी थी जिससे आप भी अछूते नहीं रहे। उस दिन दक्षिण अफ्रिका के राष्ट्रपति जैकब जुमा ने 15 दिसम्बर को रंगभेद विरोधी आन्दोलन के प्रणेता नेल्सन मंडेला के गृह नगर कूनू में उनके अंतिम संस्कार की घोषणा की थी। बाद में उनके कृतित्व से धन्य अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के नेता इस्माइलवादीने कहा था कि अगर राजकुमारी डायना, माइकल जैक्सन और पोप जॉन पॉल द्वतीय के अंतिम संस्कार कार्यक्रमों को एक साथ मिला दें तो भी मंडेला का अंतिम संस्कार कार्य उससे भी बड़ा होगा। उन्होंने उसका कारण बताते हुये कहा था कि ऐसा इसलिए होगा क्योंकि मंडेला दुनिया भर के देशों में लोकप्रिय थे और उनकी लोकप्रियता में राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय और सामाजिक विभाजनों की बाधा बिलकुल नहीं थी। चाहे आप पश्चिमी लोकतांत्रिक दुनिया, पूँजीवादी व्यवस्था से हों या फिर इससे उलट किसी दूसरी व्यवस्था से हों, मंडेला का प्रभाव दुनिया के हर देश में पहुँचा। इसमें कोई शक नहीं कि उपनिवेशवाद के शिकार बने लोगों की मुक्ति के लिये मंडेला ने जो अविराम संग्राम चलाया उससे वे दुनिया के हर कोने में मौजूद, हर उस व्यक्ति के आदर्श बन गये जिसमें समता की चाह है। किन्तु जिस देश के गुलामों को वे सर्वाधिक प्रिय हो सकते थे उनमें बहुजन भारत का स्थान शीर्ष पर है। कारण, बहुजन भारत की दक्षिण अफ्रीका जैसी साम्यता और किसी भी देश से नहीं है।

यह भारी आश्चर्य का विषय है कि विगत कुछ दशकों से मूलनिवासी समुदाय के लोगों में हिस्ट्री के पुनर्लेखन की चाह बढ़ी है और इस कार्य को अंजाम देने के क्रम में उन्होंने कई नए-नए सत्योद्घाटन भी किये हैं। किन्तु सब कुछ करने के बावजूद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से साम्यता स्थापित करने का अपेक्षित प्रयास नहीं किया। जबकि सचाई यही है कि भारत की सर्वाधिक साम्यता दक्षिण अफ्रीका से ही है। भारत भी अफ्रीका भी भाँति विविधतामय देश है। दक्षिण अफ्रीका में 9-10 प्रतिशत अल्पजन गोरों, प्रायः 79 प्रतिशत मूलनिवासी कालों और 10-11 प्रतिशत कलर्ड (एशियाई उपमहाद्वीप के लोगों) की आबादी रही है। ठीक वैसे ही विविधतामय भारत समाज अल्पजन सवर्णों, मूलनिवासी बहुजनों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से निर्मित है। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में अल्पजन विदेशागत गोरों का शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा है ठीक उसी तरह हजारों वर्ष पूर्व भारतभूमि पर कब्ज़ा जमाये आर्यों की वर्तमान पीढ़ी का शक्ति के स्रोतों पर 80-85प्रतिशत कब्ज़ा कायम है। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी विपुल संख्यक हो कर भी शक्ति के स्रोतों प्रायः पूरी तरह बहिष्कृत रहे, ठीक वैसे ही भारत के मूलनिवासी भी। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी स्कूल, कालेज, होटल, क्लब, रास्ते मूलनिवासी कालों के लिए मुक्त नहीं रहे, लगभग वही स्थिति भारत के मूलनिवासियों की रही। जिस तरह द.अफीका में सभी सुख-सुविधाएँ गोरों के लिये सुलभ रही उससे भिन्न स्थिति भारत में भी नहीं रही। जिस तरह द.अफ्रीका का सम्पूर्ण शासन तंत्र गोरों द्वारा गोरों के हित में क्रियाशील रहा ठीक, उसी तरह भारत में शासन तंत्र द.अफ्रीका के शासकों के प्रतिरूप सवर्णों के हित में सक्रिय रहा है। इन दोनों देशों में मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में बस एक ही प्रमुख कारण क्रियाशील रहा है और वह है शासक वर्गों का शासितों के प्रति अनात्मीय सम्बन्ध। इसके पीछे शासकों की उपनिवेशवादी सोच की क्रियाशीलता रही। दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने जहाँ वहाँ दो सौ साल पहले उपनिवेश कायम किया वहीँ भारत के आर्यों ने यहाँ साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में गोरों ने जहाँ बन्दूक की नाल पर पुष्ट कानून के जरिये अपने उपनिवेश में मूलनिवासी कालों को जानवर जैसी स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश किया था वहीँ भारत के मूलनिवासियों के शोषण में प्रयुक्त हुआ था धर्माधारित कानून, जिसमें मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य घोषित करते हुए ऐसे प्रावधान तय किये गये जिससे मूलनिवासी शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत होने के साथ ही निशुल्कदास में परिणत होने के लिये अभिशप्त हुये।

भारतऔर दक्षिण अफ्रीका, उभय देशों का ही शासक सम्प्रदाय विदेशागत रहा जिनमें मूलनिवासियों के प्रति आत्मीयता का नितान्त भाव रहा। अनात्मीयता के कारण ही वे पराधीन मूलनिवासियों को न तो मान-सम्मान दे सके और न ही शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी। नेल्सन मंडेला ने अपना सारा जीवन अपने सजाति मूलनिवासियों को शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी दिलाने के लिये विदेशागत गोरों के खिलाफ शांतिपूर्ण संघर्ष में झोंक दिया। अपार कष्ट झेलते हुये अन्ततः उन्होंने अपने देश के मूलनिवासियों को गोरों की गुलामी से मुक्त कराया। इस मुक्ति संग्राम में उन्होंने हिंसा का सहारा नहीं लिया इसलिए उनके मरणोपरान्त इस देश की मीडिया में छाये बुद्धिजीवियों ने उन्हें गांधी का अवतार बताने में अपने कलम की सारी स्याही खर्च कर दी। कुछ इससे आगे बढ़े तो उपनिवेशवाद के खिलाफ चलाये गए उनके संघर्ष को भी लगे हाथ याद कर लिये। किन्तु भारतीय बुद्धिजीवियों में से भूल से भी किसी ने दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति के रूप में किये गये उनके कार्यों को याद नहीं किया। ऐसा करने पर उन कामों का उल्लेख करना पड़ता जिससे वहाँ के मूलनिवासियों को शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

नेल्सन मंडेलाके नेतृत्व में पैशाचिक रंगभेद के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका ने गोरे शासकों द्वारा अकेले एशियाई और अन्य लोगों पर किये गये सभी भेदभावों का सामना किया। वर्ष 1996 में एक गणतंत्र के रूप में स्वयं को पुनर्गठित करने के बाद उसने दो ऐसे महान विधान बनाये जो कोई अन्य देश नहीं बना सका। वे हैं-1-समानता को बढ़ावा और अनुचित भेदभाव की रोकथाम अधिनियम 2000 और 2-रोजगार समानता अधिनियम1998. इनमें अनुचित भेदभाव की रोकथाम वाले कानून इतने सख्त और निर्भूल रहे कि विगत 200 सालों से गोरे शासकों के समक्ष नर-पशु की स्थिति में पड़े कालों के लिये रातों- रात भेदभाव पूरी तरह अतीत का विषय बनकर रह गया। लेकिन विदेशागत गोरों ने मूलनिवासी कालों के साथ कलर्ड लोगों को कुत्तों की भाँति ज़िन्दगी जीने के लिये ही मजबूर नहीं किया, उन्होंने शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा जमकर विश्व में सर्वाधिक आर्थिक और सामाजिक विषमता का साम्राज्य कायम कर दिया था। मंडेला की सरकार ने रोजगार अधिनियम 1998 के जरिये इस आर्थिक विषमता के खात्मे की दिशा में द्रुत गति से कठोर कदम उठाकर दुनिया को सन्देश दे दिया कि यदि इच्छा शक्ति हो तो लोकतंत्र को क्रांतिकारी बदलाव के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। रोजगार अधिनियम 1998 के फलस्वरूप वहाँ आर्थिक अवसरों के बटवारे में 'जिसकी जितनी भारी संख्या भारी–उसकी उतनी भागीदारी' का सिद्धान्त मूर्त रूप ले लिया। इसके फलस्वरूप जिन गोरों का आर्थिक क्षेत्र में 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था वे अपनी संख्यानुपात अर्थात् 9-10 प्रतिशत पर सिमटने के लिये बाध्य हुये। इससे उनके हिस्से के 70-80 प्रतिशत सरप्लस अवसर मूलनिवासी कालों और कलर्ड समूह में बाँटने के रास्ते खुल गये। नेल्सन मंडेला द्वारा अवसरों के वाजिब बँटवारे के लिये शुरू की गयी भागीदारी नीति का अनुपालन उनके परवर्तीकाल के राष्ट्रपतियों ने भी जारी रखा। विशेषकर वर्तमान राष्ट्रपति जैकब जुमा की कठोर भागीदारी नीति के कारण तो गोरों में ऐसा भय का संचार हुआ कि वे दक्षिण अफ्रीका छोड़ कर भागने लगे। उनको रोके रखना सरकार के लिए एक बड़ी समस्या बन गयी। बहरहाल मित्रों आज जबकि भारत के मूलनिवासी समुदायों के नेता सवर्णपरस्ती के कारण नेपथ्य में चले गये हैं तथा भारतीय राजनीति पर धूर्त एनजीओ वालों, मीडिया और प्रभुवर्ग के युवाओं के नापाक त्रिगुट का वर्चस्व कायम होता नज़र आ रहा है, बहुजन भारत को किसी ऐसे मूलनिवासी मंडेला की जरूरत महसूस हो रही है जो भारत के शासक वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्जे को तोड़कर उन्हें संख्यानुपात पर सिमटाने का काम अंजाम दे सके जैसा कि काले नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में दिया।

पाँच राज्यों के चुनाव के बाद बहुजन राजनीति का भविष्य अगर अंधकारमय दिख रहा है तो उसका अन्यतम कारण देश के बहुजनवादी नेताओं द्वारा गलत रोल मॉडल का चयन है। मंडलोत्तर काल में जब जाति चेतना से पुष्ट बहुजन राजनीति,यौवनलाभ कर रही थी,उन्ही दिनों अमेरिका के व्हाईट हाउस में काले ओबामा राष्ट्रपति बनकर पहुँचे। अमेरिका का राष्ट्रपति बनने पर ओबामा के प्रति जूनून पैदा करते हुये भारतीय मीडिया ने बड़ी चालाकी से 'भारतीय ओबामा' का मुद्दा उछाल दिया। उसके ऐसा करने पर अपने संघर्षों के बल पर ऊँचाई पर पहुँचे कई बहुजन नेताओं ने खुद को ओबामा के रूप में देखना शुरू किया। यह 'ओबामेनिया' बहुजन राजनीति के लिए काल साबित हुआ। चूँकि अमेरिका में ओबामा का उदय वहाँ बहुसंख्यक प्रभुवर्ग(गोरों) के सामाजिक विवेक अर्थात रहमो–करम से हुआ था इसलिए बहुजनवादी नेता भी ओबामा बनने के चक्कर में भारतीय प्रभु वर्ग की करुणा जय करने की नीति पर काम करने लगे। इससे देश में सवर्णपरस्ती का एक नया दौर शुरू हुआ। इससे उनके बहुजन हित का एजेण्डा पूरी तरह बदल गया। अब वे बहुजनों के हर क्षेत्र में भागीदारी की जगह गरीब सवर्णों को आरक्षण दिलाने की होड़ में उतर आये जो आज भी बदस्तूर जारी है। इससे उनकी स्थिति 'माया मिली न राम'वाली हो गयी। अर्थात् सवर्ण जहाँ सवर्णवादी दलों को वोट देते रहे वहीँ बहुजन मतदाताओं में इनके प्रति विराट मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हुयी जिसका परिणाम सेमी फाइनल माने जा रहे पाँच राज्यों के चुनाव में किस तरह सामने आया, उसका उल्लेख समय और कलम की स्याही की बर्बादी है। बहरहाल बराक ओबामा जैसे अनुपयुक्त हस्ती को रोल मॉडल बनाने से बहुजन राजनीति को हुयी क्षति की भरपाई का एक ही रास्ता बचता है, वह यह कि भारत में राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की उन नीतियों का जोर शोर से प्रचार-प्रसार हो जिसके कारण वहाँ शक्ति के स्रोतों पर सुदीर्घ काल 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा कायम रखने वाला प्रभुवर्ग अपनी संख्यानुपात पर सिमटा और जिसके कारण आज वह दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भागने की तैयारी कर रहा है। मंडेला की उस नीति का जोर-शोर से प्रसार इसलिए जरूरी है धरती की छाती पर यह एकमात्र भारत देश है जहाँ बाबा आदम के जमाने के अल्पजन शासक वर्ग का शक्ति स्रोतों 80-85 कब्ज़ा है, जैसा कि कभी दक्षिण अफ्रीका में रहा। शक्ति के स्रोतों पर बेनजीर कब्ज़ा कायम रखने के कारण ही अल्पजन शक्तिशाली वर्ग का जब तब बनने वाला नापाक गठजोड़ बहुजनों को बैक फुट पर आने के लिए मजबूर कर देता है। मंडेला की उपनिवेशवाद विरोधी नीतियों के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप बहुजनों में मिलिट्री, न्यायपालिका, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-मीडिया, शिक्षा और राजनीति की सभी संस्थाओं और पौरोहित्य इत्यादि हर क्षेत्र में ही भागीदारी की प्रबल चाह पैदा होगी। इस चाह मात्र से ही भारत का सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जायेगा। फिर एनजीओ वालों का नापाक गठबंधन सस्ता बिजली, पानी इत्यादि जैसी टुच्ची सुविधाओं के नाम पर बहुजनों को नहीं बरगला पायेगा।

About The Author

एच एल दुसाध, लेखक वरिष्ठ बहुजन चिंतक एवं बहुजन डायवर्सिटी मिशन के संयोजक हैं।

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV