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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, December 18, 2013

खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने

खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने
Khurshid Anwar

खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने

HASTAKSHEP

जगदीश्वर चतुर्वेदी

खुर्शीद अनवर की असामयिक मौत ने कल (18दिसम्बर 2013)अंदर तक उद्वेलित किया। वह मेरा मित्र था और बेहतरीन इंसान था। नए आधुनिक विचारों और मूल्यों को अर्जित करने और उनको जीने की उसमें अद्भुत क्षमता थी। जब वह जेएनयू में एम.ए. (उर्दू) में आया और पहली बार दाखिले के समय उससे जो परिचय हुआ था वह अन्त तक बरकरार रहा। विचारों से लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष होने के साथ सर्जनात्मक मार्क्सवादी नजरिए को उसने सचेत रूप में अर्जित किया था। वह बेहतरीन गद्य लिखता था। साहित्य पर उसकी शानदार पकड़ थी और इस पकड़ का वह जीवन के हर मोर्चे पर  इस्तेमाल करता था। वह मानवीय गुणों और कमजोरियों का मिलाजुला शानदार इंसान था।

    खुर्शीद की मौत मुझे इसलिये भी तकलीफ दे रही है कि उसने मौत का अतार्किक रास्ता चुना, उसने आत्महत्या की। आत्महत्या के कारणों का सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। लेकिन कई चीजें हैं जो हमें सोचने के लिये मजबूर कर रही हैं।

खुर्शीद में अनेक गुण थे तो कई कमजोरियाँ भी थीं। उसके निजी जीवन में अनेक कष्ट भी थे, इसके बावजूद वह समस्याओं से लड़ रहा था। अचानक उसने जीवन से हताश होकर हार मान ली और आत्महत्या कर ली।

    खुर्शीद का मरना कई ज्वलन्त सवाल छोड़ गया है। पहला सवाल, हम व्यक्ति के निजी-जीवन में कितना, कहाँ तक और किस रूप में हस्तक्षेप करें ? दूसरा,  इंटरनेट या सोशल मीडिया का निजी समस्याओं, गलतियों, भूल, अपराध आदि के लिये किस रूप में और कितना इस्तेमाल करें ? तीसरा सवाल नए आधुनिक जमाने में किस तरह रहें और जियें ?

  नए आधुनिक जमाने में जीने के लिये आधुनिक चेतना का होना बेहद जरुरी है। हम जीते हैं आधुनिक जमाने में लेकिन हमारे सोच और नजरिए में अनाधुनिकता जड़ें जमाए है। मसलन्, कोई तकलीफ है, समस्या है, या दुविधा है तो सीधे पेशेवर जानकारों की मदद लेनी चाहिए और वे जो कहें वह करना चाहिए।

 यह सच है कि मनुष्य के पास मन है और मन बड़ा दुखदायी होता है। जिद्दी होता है। वह निज की बातें बड़ी मुश्किल से मानता है। लेकिन मन को यदि पेशेवर लोगों के हवाले कर दो तो चीजें आसानी से सुलझ जाती हैं अथवा मन को उधेड़बुन से मुक्ति मिल जाती है। खुर्शीद ने आत्महत्या क्यों की, यह तो वही जाने, लेकिन पेशेवरों की मदद लेता तो राहत में रहता।

       आधुनिक युग पेशवर जानकारों का युग है और इस युग के वे ही हमारे नाते-रिश्तेदार-मित्र हैं। पेशेवरों की राय पर विश्वास करना, अमल करना नए युग की माँग है। मेरा मित्र इस तथ्य को जानता था लेकिन अन्तिम समय में भूल गया और जान से हाथ धो बैठा।

    खुर्शीद की मौत कई पूर्वाग्रहों की ओर भी ध्यान खींचती है। मसलन्, यह पूर्वाग्रह है कि मीडिया में आपके खिलाफ यदि कुछ कहा जा रहा है और लिखा जा रहा है तो आप दोषी हैं। व्यक्ति दोषी है या निर्दोष है इसका फैसला जल्द नहीं किया जा सकता और इसके लिये हमें न्यायिक प्रक्रिया और संस्थानों पर विश्वास करके जीना होगा।

     जिस तरह डाक्टर के यहाँ जाना सामान्य बात है वैसे ही कोई दुर्घटना या अपराध होने पर पुलिस में प्रथम प्राथमिकी दर्ज होना सामान्य बात है। गिरफ्तारी होना, पुलिस द्वारा तहकीकात करना सामान्य बात है। इससे व्यक्ति को अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता।

   फेसबुक मित्र आए दिन अपराध-अपराध, एफआईआर-एफआईआर की रट लगाए रहते हैं,वे मानकर चल रहे हैं कि वेलोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में खड़े हैं और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा कर रहे हैं, या स्त्री के अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं, इस तरह की राय रखने वाले या हरकत करने वाले बुनियादी तौर पर दो लोगों के विवाद में हस्तक्षेप कर रहे होते हैं। वे नहीं जानते कि निजता की लक्ष्मण-रेखा उनसे कहाँ छूट गयी।

   यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो उसके खिलाफ पीड़िता को यथाशक्ति कानून की मदद लेनी चाहिए। जिन लोगों को उसके प्रति सहानुभूति है वे उससे निजी तौर पर सहानुभूति व्यक्त करें, उसकी हरसम्भव मदद करें, लेकिन सोशल मीडियाया मीडिया का इस प्रक्रिया में औजार की तरह इस्तेमाल एकदम गलत है। यह इस्तेमाल तब जरूरी है जब अपराधी ने मीडिया या सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया हो।

   भारत में यह ट्रेंड नजर आ रहा है कि सोशल मीडिया पर पीड़ित अपनी बात कह रहे हैं, वे जानते हैं कि सोशल मीडिया पर अपराध का समाधान नहीं हो सकता। अपराध का समाधान तो न्यायालय में होगा। सोशलमीडिया जाँच एजेंसी नहीं है,पुलिस ही एकमात्र जाँच एजेंसी है। पीड़ित को मालूम होना चाहिए कि पीड़ा की शिकायत कहाँ करें, वरना त्रासदी का होना तय है।

    अपराध की शिकायत का चैनल पुलिस थाना है, फेसबुक या टीवी चैनल नहीं। जिस महिला ने खुर्शीद पर आरोप लगाए हैं उसे पुलिस में जाने से किसी ने रोका नहीं था, देर से ही सही लेकिन उसने शिकायत की और पुलिस ने एफआईआर लिखी, जाँच आरम्भ होनी थी, इसके साथ ही खुर्शीद की आत्महत्या की खबर आ गयी। एक चैनल विशेष ने समूचे प्रसंग को सनसनीखेज बनाकर उछाल दिया। अनेक लोगों ने फेसबुक पर इस मसले पर मनमाने कमेंटस लिखे। फेसबुक पर लिखने वालों में अधिकतर वे लोग हैं जो इस घटना के साक्षी नहीं थेयदि वे साक्षी थे तो उनको पीड़िता की मदद करनी चाहिए थी और समय रहते उसे पुलिस थाने ले जाते, इलाज कराते, मेडिकल कराते, वकील जुगाड़ करते।

पीड़िता से सहानुभूति के नाम पर अन्य पर लिखना अतार्किक और हस्तक्षेपकारी है। यह कानूनन गलत है। कायदे से उन सभी महानुभावों को जिन्होंने फेसबुक पर कमेन्ट्स लिखकर इस प्रसंग पर अपने मन की बातें कही हैं इस केस में अदालत में जाकर गवाही देनी चाहिए। अदालत में जाने पर ही और उनको पता चलेगा कि उनकी बात में कितना दम है, वे सत्य बोल रहे हैं या असत्य बोल रहे हैं, उनका फेसबुक लेखन न्यायपूर्ण था या अन्यायपूर्ण था ?

   किसी व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर हुयी है या उसकी गिरफ्तारी हुयी है इससे अपराध सिद्ध नहीं हो जाता। पुलिस में एफआईआर दर्ज होना या मुकदमा चलना कोई गाली नहीं है। यह सामान्य आधुनिक सामाजिक और न्यायिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का पेशेवर लोगों की मदद लेकर सामना करना चाहिए। इस प्रक्रिया में पेशेवर लोग जो कहें वह करना चाहिए।

   जीवन एकबार मिलता है। अपराध किया है तो सामना करो, निर्दोष साबित करो, वरना सजा पाओ और अपने को नए इंसान की तरह फिर से निर्मित करो। आत्महत्या इस परेशानी का समाधान नहीं है। सोशल मीडिया इस समस्या का समाधान नहीं है।

    सोशल मीडिया निर्वैयक्तिक कम्युनिकेशन का माध्यम है। उसका हम निजी, आंतरिक, सहजजात अनुभूतियों के माध्यम के रूप में दुरूपयोग करना बंद कर दें। जो लोग आए दिन फेसबुक पर निजी मन की परतें खोलते रहते हैं वे किसी न किसी रूप में आनतरिक दुखों और गहरे अवसाद के शिकार हैं। आन्तरिक दुखों या अवसाद का समाधान समाज में खोजें, पेशेवरलोगों की मदद लें, अपने आस-पास के जीवन में खोजें। सोशल मीडिया में आन्तरिक दुखों के समाधान नहीं हैं, इसके विपरीत आन्तरिक दुखों को जब आप यहाँ पर व्यक्त करते हैं तो अपनी मुश्किलें बढ़ा लेते हैं।

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