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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, August 17, 2014

कश्मीर समस्या और अतीत की भूलें

प्रभु जोशी

 जनसत्ता 16 अगस्त, 2014 : जब भी इतिहास से मुठभेड़ होती है, हम हमेशा उसको दुरुस्त करने की कोशिश में भिड़ जाते हैं। अब जबकि देश में फिर से कश्मीर विवाद को बहस में लाया जा रहा है, हमें उसके अतीत कोे एक बार खंगाल लेना जरूरी है। खासकर तब तो यह और जरूरी हो जाता है, जब वहां के मुख्यमंत्री इतिहास और निकट अतीत को भुला कर भारतीय संविधान को एक फटी-पुरानी पोथी की तरह खारिज करने वाले अंदाज में अपना भाषण दे रहे हों। 

अमूमन मान लिया जाता है कि जम्मू-कश्मीर की समस्या 1947 के बाद शुरू हुई, जबकि हकीकत यह नहीं है। उसकी शुरुआत तो उसी समय हो गई थी, जब 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने जम्मू के महाराजा गुलाबसिंह के दरबार में एक 'अंगरेज रेजीमेंट' को दाखिल कराने की कूटनीतिक कोशिश की। लेकिन कंपनी अपने तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें विफल रही। पर जब कश्मीर के दूसरे राजा रणवीर सिंह की मृत्यु हुई तो अंगरेज फिर सक्रिय हुए और आखिरकार उन्होंने 1885 में अपना मंसूबा पूरा कर ही लिया। क्योंकि उन्हें किसी भी तरह गिलगित क्षेत्र को अपने अधीन करना था, ताकि वहां भविष्य में अमेरिका की सैन्य गतिविधियों के लिए एक मुकम्मल और सर्वाधिक सुविधाजनक क्षेत्र उपलब्ध हो सके। अमेरिका के लिए सोवियत संघ को घेरने में इस क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लेना बहुत कारगर युक्ति मानी जा रही थी। नतीजतन उन्होंने अपनी कूटनीतिक चालाकियों से गिलगित क्षेत्र को गिलगित एजेंसी के नाम पर सन 1889 में 'प्रशासनिक नियंत्रण' में ले लिया। क्योंकि इससे सिंधु नदी के पूर्व और रावी नदी के पश्चिम तट का संपूर्ण पर्वतीय प्रदेश उनके अधीन आ गया। 

इस सफलता पर वे प्रसन्न थे, लेकिन 1925 में प्रतापसिंह के उत्तराधिकारी के रूप में जब महाराजा हरिसिंह को षड्यंत्र की हकीकत समझ में आई तो उन्होंने अविलंब गिलगित क्षेत्र से अंगरेज सैनिकों को हटाया और अपने सैनिक तैनात कर दिए। यह उनकी समझ और सामर्थ्य भी थी कि उन्होंने यूनियन जैक उतार दिया। 

इसी के समांतर 1930 में, जबकि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन देशव्यापी हो चुका था, भारत की राजनीतिक समस्या के संदर्भ में लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। उसमें भारतीय नरेशों के प्रवक्ता और प्रतिनिधि के रूप में महाराजा हरिसिंह ने शिरकत की। उन्होंने जो वक्तव्य दिया, उसमें प्रस्तावित संघीय शासन में जम्मू-कश्मीर को शामिल किए जाने की पुरजोर वकालत की गई थी। जबकि अंगरेज यह चाहते ही नहीं थे, क्योंकि कश्मीर का गिलगित और उससे जुड़ा समूचा पर्वतीय क्षेत्र उन्हें अपने नियंत्रण में लेना था। परिणामस्वरूप वे क्रुद्ध हो गए। उन्होंने महाराजा हरिसिंह के खिलाफ व्यापक षड्यंत्र शुरू किया। औपनिवेशक कूटनीति के चलते शेख अब्दुल्ला की छवि उस समय कश्मीर में एक जन-आंदोलन के नेता की बना दी गई।

 अंगरेजों ने महाराजा हरिसिंह का मनोबल तोड़ने के लिए कुछेक विद्रोह भी करवाए, लेकिन वे हर बार विफल रहे। बाद में 1935 के मार्च में अंगरेजों ने गिलगित क्षेत्र के 'प्रशासनिक सुधार' की आड़ में उसे साठ वर्षों के पट्टे पर हथिया लिया। इसमें निश्चय ही शेख अब्दुल्ला का उपयोग एक शिखंडी की तरह किया गया था, क्योंकि उन्हें जन-आंदोलन का अग्रणी नेता बताया और बनाया जा रहा था। 

जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की खतरनाक चालाकियों को समझा ही नहीं, कि वे अंगरेजों का इस्तेमाल करते हुए अपनी आंखों में 'स्वतंत्र कश्मीर का सुल्तान' बनने का ख्वाब पाले हुए हैं। उन्होंने महाराजा हरिसिंह को कश्मीर से सत्ता छोड़ कर भागने को मजबूर करने के लिए 'कश्मीर छोड़ो आंदोलन' चलाया और जब महाराजा हरिसिंह के सामने इसके पीछे छिपी पूरी साजिश का नक्शा साफ हो गया, तो उन्होंने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया। 

तभी नेहरू, जो शेख अब्दुल्ला के अभिन्न मित्र थे, कश्मीर पहुंचे और उन्होंने राजा हरिसिंह के खिलाफ 'सत्याग्रह' की घोषणा कर दी। यह नेहरू की शेख अब्दुल्ला के समर्थन में राजनीतिक भविष्य की तरफ आंख मूंदकर चलने वाली ऐतिहासिक भूल थी। वे मैत्री के मुगालते में जी रहे थे। हालांकि महाराजा हरिसिंह ने नेहरू को बहुत स्पष्ट सलाह भी दी थी कि वे शेख अब्दुल्ला के पक्ष में सत्याग्रह करने के मंसूबे के साथ कश्मीर कतई न आएं, लेकिन नेहरू तब तक स्वतंत्रता सेनानी की एक राष्ट्रव्यापी छवि अर्जित कर चुके थे। और जिद पहले से ही उनके स्वभाव का हिस्सा रही आई थी। अत: उन्होंने महाराजा की सलाह को सामंतवादी तानाशाही धमकी मान कर एक सिरे से ठुकरा दिया और तत्काल कश्मीर में 'सत्याग्रह' करने पहुंच गए। 

महाराजा ने उन्हें गिरफ्तार करवाया और कश्मीर की सीमा से बाहर ले जाकर रिहा कर दिया। नेहरू ने अपने साथ किए गए इस व्यवहार के लिए, महाराजा के विरुद्ध मन में एक अमिट गांठ बांध ली और वे जीवन भर उस ग्रंथि से मुक्त नहीं हुए। और इसी ग्रंथि के चलते आजादी के बाद कश्मीर मसले को हल करने के लिए तैयार वल्लभ भाई को उन्होंने बरज दिया। वे इस उलझे हुए मसले को स्वयं निपटाने की जिद में थे। यह अपने उस अपमान की स्मृति ही थी, जो महाराजा ने उन्हें बंदी बना कर किया था। 

बाद इसके, 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, तो महाराजा हरिसिंह को यह स्पष्ट हो गया था कि गिलगित क्षेत्र को बचाए रखने के लिए हिंदुस्तान के साथ रहना जरूरी होगा। वैसे इसके पूर्व वे गोलमेज सम्मेलन में भारत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट कर चुके थे। लेकिन जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र काक हुआ करते थे, जिनकी पत्नी यूरोपियन थी और इसी वजह से काक के बहुत सूक्ष्म ताने-बाने अंगरेजों से मजबूत हो पाए थे। अंगरेजों ने काक को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया और महाराजा हरिसिंह को यह विकल्प गले उतारने के लिए तैयार कर लिया कि उन्हें न तो भारत में रहना चाहिए और न ही पाकिस्तान में। कश्मीर तो बस स्वतंत्र ही रहेगा। 

स्मरण रहे, ब्रिटिश सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के राजनीतिक हालात देख कर इस विकल्प के लिए महाराजा हरिसिंह को तैयार करने का एजेंडा रामचंद्र काक को सौंप रखा था। लेकिन नेहरू ने अपनी उसी पुरानी घटना की रोशनी में देखते हुए इसका अभिप्राय यह निकाला कि महाराजा हरिसिंह के अंदर उनके प्रति कोई स्थायी घृणा है और वही उनके ऐसे विकल्प की आधारभूमि बन रही है। उन्हें यह भी याद था कि उन्हें शेख अब्दुल्ला के समर्थन में 'सत्याग्रह' करने से न केवल रोका गया था, बल्कि बंदी बना लिया गया था। यह उन्हें स्वयं और शेख अब्दुल्ला के द्वारा किए जा रहे आंदोलन का अपमान लगा था। 

इसलिए जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया और मेहरचंद महाजन की मध्यस्थता से महाराजा हरिसिंह ने पाकिस्तान के आक्रमण के विरुद्ध भारत से मदद मांगी, जिसमें भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय की बात थी तो नेहरू को अपनी तरफ से शेख अब्दुल्ला की मैत्री याद आई और उन्होंने प्रस्ताव किया कि इस विलय पत्र पर शेख अब्दुल्ला की भी स्वीकृति होनी चाहिए। वे जनप्रतिनिधि हैं। जबकि वल्लभभाई पटेल ने आजादी के बाद जितनी भी रियासतों का भारत में विलीनीकरण करवाया था, वहां किसी में भी किसी स्थानीय जननेता के हस्ताक्षर का कोई प्रावधान नहीं था। केवल रियासत के शासक के हस्ताक्षर होते थे, मगर शेख अब्दुल्ला के प्रति नेहरू के मोह ने कश्मीर को भारत के भविष्य की एक निरंतर सालने वाली फांस बनाने के बीज बो दिए। 

दरअसल, माउंटबेटन चाहते थे कि कश्मीर मसले को नेहरू द्वारा राष्ट्रसंघ वाली उलझन में डालने की वजह से भारतीय 'सैनिक गतिविधि' ढीली पड़ेगी और तब तक पाकिस्तान पूरा गिलगित क्षेत्र हथिया चुकेगा। नेहरू ने तब वहां तैनात सेना के 'संचालन सूत्रों' को शेख अब्दुल्ला के हाथों सौंप दिया।  

नेहरू को इसका तनिक भी पूर्वानुमान नहीं था कि यही इतिहास की सबसे बड़ी भूल साबित होगी। शेख अब्दुल्ला की मैत्री पर उन्हें अटूट विश्वास था। लेकिन सैन्य सूत्र के अपने हाथ में आते ही शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर की घाटी हमलावरों से खाली हो चुकने के बाद भी मीरपुर, कोटली, पुंछ और गिलगित क्षेत्र में भारतीय सेना को आगे नहीं बढ़ने दिया। चूंकि माउंटबेटन के साथ शेख अब्दुल्ला की चुपचाप एक दूसरी ही खिचड़ी पक रही थी। 

दरअसल, ब्रिटिश उस क्षेत्र को एक दूरगामी कूटनीतिक संभावना की तरह देख रहे थे। नतीजतन पहले मीरपुर फिर कोटली, मिम्बर, देवा, बुराला आदि का पतन हो गया और जम्मू क्षेत्र की सुरक्षा के सामने खतरा खड़ा हो गया। नेहरू शेख अब्दुल्ला और माउंटबेटन के बीच की इस 'दुरभि-संधि' को तब समझ ही नहीं पाए और संयुक्त राष्ट्रसंघ के निर्देश पर भारत ने 2 जनवरी 1949 को इकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी। 

यहां याद दिलाना जरूरी होगा कि तत्कालीन राजनीतिक टिप्पणीकारों ने कश्मीर मसले को राष्ट्रसंघ में ले जाने की नेहरू की इस तत्परता को स्वयं को 'शांतिदूत की छवि' में देखने का व्यामोह कहा था। इसके कारण गिलगित जैसे सामरिक महत्त्व के क्षेत्र का एक तिहाई से कुछ अधिक भाग पाकिस्तान के कब्जे में रह गया; जो हमारे हलक का कांटा बन गया। 

शेख अब्दुल्ला ने नेहरू से अपनी तथाकथित मैत्री को भुनाते हुए भारतीय संविधान सभा से जम्मू-कश्मीर को 'विशेष दर्जा' देने वाला घातक अनुच्छेद पारित करवाया, जबकि एक गहरे राजनीतिक भविष्यद्रष्टा की तरह इस अनुच्छेद को देखते हुए आंबेडकर इसके विरुद्ध थे। शेख अब्दुल्ला इस अनुच्छेद के चलते भविष्य में कश्मीर के सर्वेसर्वा बन गए और बाद में 'स्वतंत्र कश्मीर' का स्वप्न साकार करने की कुटिल योजना अपने जेहन में पालते रहे। 

कहना न होगा कि इस अनुच्छेद ने कश्मीर में एक स्थायी अनिश्चितता को जन्म दिया, जो कि शेख अब्दुल्ला चाहते ही थे। याद कीजिए कि इसे एक 'अस्थायी और संक्रमणकालीन व्यवस्था' घोषित करके पारित करवाया गया था। दरअसल, नेहरू की आंखें तो तब खुलीं, जब डॉ कैलाशनाथ काटजू- जो भारत के तत्कालीन गृहमंत्री थे- और जीके हांडू ने शेख अब्दुल्ला के ब्रिटिश एजेंट होने संबंधी दस्तावेज और नेहरू का एक महत्त्वपूर्ण गोपनीय पत्र, जिसे दिल्ली पुलिस ने बरामद किया था, उनके समक्ष रखा, तो उन्होंने 9 अगस्त 1957 को शेख अब्दुल्ला को अपदस्थ करके राष्ट्रद्रोह के अपराध में बंदी बना लिया। इससे घाटी में शेख अब्दुल्ला की साख पर बट््टा लग गया। 

इसके बाद इतिहास को दुरुस्त किया जा सकता था, लेकिन नवस्वतंत्र राष्ट्र की एक किस्म की जनतांत्रिक भीरुता ने उस अनिश्चितता को खत्म करने में लगातार जो हिचकिचाहट प्रदर्शित थी, वह नासूर की तरह आज भी मौजूद है।


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