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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, August 17, 2014

पुस्तकायन: मुक्तिबोध को परखते हुए

दिनेश कुमार

जनसत्ता 10 अगस्त, 2014 : जब कोई बड़ा आलोचक किसी बड़े कवि पर किताब लिखता है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह कोई नई बात कहेगा या कम से कम उसे और बेहतर ढंग से समझने में हमारी मदद करेगा। दूधनाथ सिंह की पुस्तक मुक्तिबोध साहित्य में नई प्रवृत्तियां में मुक्तिबोध को लेकर न तो कोई नई स्थापना है और न ही ऐसा कुछ, जो मुक्तिबोध साहित्य के बारे में हमारे ज्ञान को समृद्ध करे। इस पुस्तक में छोटे-छोटे कुल बारह अध्याय हैं। इन अध्यायों में मुक्तिबोध के समस्त साहित्य पर चलताऊ ढंग से विचार किया गया है। यह पुस्तक उच्च अध्ययन संस्थान शिमला की परियोजना के तहत लिखी गई है। 

दूधनाथ सिंह ने इससे पहले निराला और महादेवी पर उत्कृष्ट पुस्तकें लिखी हैं। उन दोनों पुस्तकों का हिंदी समाज कायल रहा है, पर मुक्तिबोध के साथ वे न्याय नहीं कर पाए हैं। इस पुस्तक में उन्होंने मुख्य रूप से मुक्तिबोध की कविताओं का विवेचन-विश्लेषण किया है। मुक्तिबोध की कविताएं जितनी जटिल हैं, उतनी ही जटिल दूधनाथ सिंह की आलोचना भी है। मुक्तिबोध की कविता को समझना अगर कठिन है तो दूधनाथ सिंह की आलोचना को समझना भी कम मुश्किल नहीं है। अपनी तमाम जटिलताओं के बावजूद मुक्तिबोध की कविताओं का एक कथ्य होता है, पर लेखक की आलोचना का कथ्य स्पष्ट नहीं हो पाता है। वे भारी-भरकम और गंभीर शब्दों द्वारा एक वातावरण तो बनाते हैं, पर नया क्या कहना चाहते हैं, स्पष्ट नहीं हो पाता। बावजूद इसके इस पुस्तक में कहीं-कहीं उन्होंने मुक्तिबोध के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं हैं, जिसकी तरफ धयान देना चाहिए। 

मुक्तिबोध की कविताओं के अनगढ़पन पर अज्ञेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, ''मुक्तिबोध में यह अनगढ़पन इतना बना न रह गया होता, अगर वास्तव में उनकी जो बेचैनी थी वह कविकर्म को लेकर हुई होती। या कि कविता को लेकर हुई होती। उनमें बड़ा एक ईमानदार सोच तो है, उनकी चिंताएं बड़ी खरी चिंताएं हैं, लेकिन शायद वे कविता के बारे में नहीं हैं। वह ज्यादा कवि और समाज के बारे में हो जाती हैं।... और मैं यह कहूं कि अंत तक वे एक बहुत ही खरे और तेजस्वी चिंतक तो रहे हैं और उनमें बराबर सही ढंग से सोचने की छटपटाहट भी दीखती है, लेकिन अंत तक वे समर्थ कवि नहीं बन पाए।'' अज्ञेय का कहना है कि एकाध को छोड़ कर उनकी कोई भी कविता पूरी नहीं हुई और जो लगभग पूरी कविताएं हैं वे 'तार सप्तक' में आ गर्इं। 

लेखक ने मुक्तिबोध की कविताई के बारे में अज्ञेय के इस वक्तव्य को विचित्र और गलत कहा है। ऐसा मानना तो ठीक है, पर अज्ञेय के इस वक्तव्य का तार्किक खंडन भी आवश्यक है। मुक्तिबोध के प्रतिपक्ष में यह सबसे मजबूत तर्क है। इसलिए सिर्फ इतना कहने से काम नहीं चलेगा कि ''खरा चिंतन और सामाजिक चिंता ही मुक्तिबोध को एक समर्थ कवि और हिंदी कविता के इतिहास में एक अलग तरह का कवि बनाती है।'' अज्ञेय के वक्तव्य का यह मुकम्मल जवाब नहीं है। खरा चिंतन और सामाजिक चिंता के कारण मुक्तिबोध विशिष्ट कवि नहीं हैं। यह तत्त्व तो सभी प्रगतिशील कवियों में मिल जाएगा। इस चिंतन और चिंता को जिस तरह वे कविता में ढालते हैं और उसके लिए जिस तरह मिथकों, बिंबों और कथाओं का सृजन करते हैं, उसके कारण वे समर्थ और विशिष्ट कवि हैं। 

दरअसल, मुक्तिबोध जीवनपर्यंत इसी समस्या से जूझते रहे कि अपने चिंतन और चिंता को रचना का विषय कैसे बनाया जाए, जिससे कि साहित्य के स्वधर्म पर कोई आंच न आए। मुक्तिबोध किसी भी कीमत पर साहित्य के स्वधर्म से समझौता नहीं कर सकते थे चाहे उन्हें अपनी कविताओं को कई बार लिखना ही क्यों न पड़े या उसे अधूरा ही क्यों न छोड़ना पड़े। एक रचनाकार के रूप में मुक्तिबोध की चिंताएं साहित्यिक ही थीं, इसीलिए वे अपनी रचनाओं से लगातार जूझ रहे थे। इसलिए अज्ञेय का यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि मुक्तिबोध की बेचैनी के केंद्र में कविकर्म न होकर समाज है। 

यहां एक और बात समझ लेने की है कि अज्ञेय समाज को छोड़ कर साहित्य की चिंता कर सकते थे, उसी तरह अन्य प्रगतिशील कवि साहित्य को छोड़ कर समाज की चिंता कर सकते थे, पर मुक्तिबोध न साहित्य को छोड़ सकते थे और न समाज को। उनके लिए साहित्यिक चिंता और सामाजिक चिंता अलग-अलग न होकर अभिन्न थे। अज्ञेय द्वारा मुक्तिबोध के कविकर्म को लेकर उठाए गए बुनियादी सवाल का व्यवस्थित और तर्कपूर्ण जवाब दूधनाथ सिंह को देना चाहिए था, क्योंकि वे अज्ञेय के मत से असहमत हैं। वे मुक्तिबोध की कविताओं में बिखराव को स्वीकार करते हुए यह कह कर उसका बचाव करते हैं कि यह संयोजनहीनता ही आधुनिक कला का मूल तत्त्व है। 

लेखक ने पुस्तक में मुक्तिबोध की प्रेम कविताओं का भी विश्लेषण किया है। मुक्तिबोध के आलोचकों ने प्राय: इन कविताओं पर ध्यान नहीं दिया है। छोटी-छोटी प्रेम कविताएं उनके आरंभिक दौर की हैं। लेखक का कहना है कि लोगोें द्वारा प्रखर चिंतन और विचारधारा के कवि माने जाने के कारण मुक्तिबोध की कविताओं में छिपी हुई दूसरी अंतरधाराओं की व्याख्या नहीं हो पाई है। हालांकि वे दूसरी तरफ यह भी स्वीकार करते हैं कि मुक्तिबोध की कविताओं के विशाल ढेर में प्रेमानुभव की कविताएं संख्या में कम हैं और वे उतनी महत्त्वपूर्ण भी नहीं हैं। 

मुक्तिबोध की प्रेम कविताओं का विश्लेषण पढ़ कर ऐसा लगता है कि दूधनाथ सिंह ने अपना पूरा बौद्धिक प्रेमचिंतन उनकी कविताओं पर आरोपित कर दिया है और उनके न चाहते हुए भी आखिरकार यही साबित होता है कि मुक्तिबोध सिर्फ प्रखर चिंतन और विचारधारा के ही कवि हैं, प्रेम के नहीं। 

मुक्तिबोध की एक लंबी कविता 'मालव निर्झर की झर-झर कंचन रेखा' को प्रेम कविता के रूप में व्याख्यायित कर लेखक ने प्रेम पर गंभीर बौद्धिक विमर्श प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध के प्रेम संबंधी दृष्टिकोण में मौलिकता की भी खोज की है, पर जहां गंभीर बौद्धिक विमर्श की वाकई जरूरत थी, वहां उन्होंने अपने को प्राय: कविता की पंक्तियों की व्याख्या करने तक ही सीमित रखा है। उदाहरण के लिए 'अंधेरे में' शीर्षक अध्याय को देखा जा सकता है। मुक्तिबोध की सर्वाधिक चर्चित इस कविता की पंक्तियां उद्धृत करने की जगह रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, नंदकिशोर नवल आदि की इस कविता संबंधी मान्यताओं से सहमति-असहमति व्यक्त करते हुए अपनी बात कहते या कोई बौद्धिक विमर्श प्रस्तुत करते तो अधिक बेहतर होता। ऐसा करने की प्रक्रिया में अपनी बातों के समर्थन में कविता की पंक्तियां उद्धृत करना अधिक सुसंगत होता। 

मुक्तिबोध की महत्त्वपूर्ण कविताओं के विश्लेषण के साथ ही लेखक ने उनके राजनीतिक लेखों और कहानियों पर भी विचार तो किया है, पर बहुत 'स्केची' ढंग से। ऐसा लगता है कि संबंधित अध्यायों को सिर्फ खानापूर्ति के लिए जोड़ दिया गया है। कहानियों पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह की इस बात से वे अपनी असहमति व्यक्त करते हैं कि मुक्तिबोध का कहानी लेखन उनके संपूर्ण लेखन का आनुषंगिक है। उनका मानना है कि मुक्तिबोध की कहानियां अपने समय से आगे की, बल्कि आज की कथा हैं। कहानी कविता से अलग स्थितियों को उपयुक्त संदर्भ में प्रस्तुत करती हैं। 

कविताओं, कहानियों के अलावा मुक्तिबोध के लेखन का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा उनके आलोचनात्मक निबंधों का है। आलोचक के रूप में भी मुक्तिबोध की कम ख्याति नहीं है। उनके आलोचक रूप को नजरअंदाज करके उन पर कोई भी अध्ययन या पुस्तक पूर्ण नहीं हो सकती। इस पुस्तक में उनके इस पक्ष को छुआ तक नहीं गया है। मुक्तिबोध की रचनाओं को समझने के लिए उनके आलोचनात्मक चिंतन को समझना भी अत्यंत आवश्यक है। 

मुक्तिबोध साहित्य में नई प्रवृत्तियां: दूधनाथ सिंह; राजकमल प्रकाशन, 1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 350 रुपए। 


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