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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, December 3, 2014

होश में आओ दोस्तों कि फिजां अब कयामत है। लाल किला भी बेदखल और विधर्मी धर्मस्थल के विध्वंस का महोत्सव दिल्ली में भी। क्योंकि हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान का समय है कारपोरेट मुक्तबाजार पलाश विश्वास

होश में आओ दोस्तों कि फिजां अब कयामत है।

लाल किला भी बेदखल और विधर्मी धर्मस्थल के विध्वंस का महोत्सव दिल्ली में भी।

क्योंकि हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान का समय है कारपोरेट मुक्तबाजार

पलाश विश्वास

कोलकाता में मौसम बेहद बदल गया है और नवंबर से ही सर्दी होने लगी है।


हम लोग सालाना अतिवृष्टि अनावृष्टि बाढ़,सूखा,भूकंप,भूस्खलन की मानवरची आपदाओं के मध्य अपने अपने सीमेट के जंगल में रायल बेगंल टाइगर की तरह विलुप्तप्राय होते रहने की नियति के बावजूद मुक्तबाजारी कार्निवाल में मदहोश हैं।


जो अमेरिका हम बन रहे हैं,वहां सर्वव्यापी बर्फ की  आंधी जाहिर है कि हमें आकुल व्याकुल नहीं कर सकतीं।जाहिर है।


हम सुनामी, समुद्री तूफान और केदार जलप्रलयमें गायब मनुष्यों और जनपदों के बारे में उतने ही तटस्थ है जितने कि जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका नागरिक मानवाधिकारों  प्रकृति पर्यावरण से बेदखली के निरंतर अश्वमेध अभियान से।


जैसे कि अविराम जारी स्त्री उत्पीड़न से।अविराम भ्रूण हत्याऔर आनर किलिंग से।


जैसे कि सभ्यता के चरमोत्कर्ष का दावा करते हुए निरंतर जारी नस्लभेदी अस्पृश्यता के आचरण से और अपने चारों तरफ हो रहे अन्याय,अत्याचार और बलात्कार और नरसंहार से।शूतूरमुर्ग की तरङ बालू में सर गढ़ाये जिंदगी जीने के नाम मौत जी रहे हैं हम लोग।


मौसम के मिजाज से हमें कोई नहीं लेना देना और हमें सुंदरवन की परवाह नहीं है कि उसे किसे किसे बेचा जा रहा है जैसे हमें गायब होती घाटियों,झीलों,नदियों और जलस्रोतों के गायब होते रहने,जनपदो के डूब में शामिल होते जाने,गांवों के सीमेंट के जंगल में तब्दील होते जाने और निरंतर तेज होती जलयुद्ध के साथ अभूतपूर्व भुखमरी और बेरोजगारी की तेज होती दस्तक की कोई परवाह नहीं है।


अत्याधुनिक भोग आयोजन में निष्णात हमें निजीकरण,विनिवेश,विनिंत्रण,विनियमन या बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के बहाने अपने ही संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकारों और अपनी निजी गोपनीयता और नागरिक संप्रभुता की भी परवाह नहीं है।


लेकिन बदलते मौसम के बहाने हमें अपने नैनीताल में बिताय़ी जाडो़ं की छुट्टियां खूब याद आ रही हैं।


हमें याद आ रही हैं युगमंच और नैनीताल समाचार के तमाम साथियों के साथ,गिरदा के साथ और मोहन के साथ तो कभी कभार पंकज बिष्ट.आनंद स्वरूप वर्मा, शमशेर सिंह बिष्ट, सुंदरलाल बहुगुणा,चंडी प्रसाद भट्ट,विपिन चाचा के साथ हिमपात मध्ये देखे बदलाव के ख्वाबों से लबालब वे सर्दियों की मुलामय सी धूप और वे अंतहीन बहसें।


हमे याद आ रहे हैं फादर व्हाइटनस और फादर मस्कारेनस और नैनीताल भुवाली के गिरजाघरों के तमाम पादरियों की,जो हमारे सहपाठी थे डीएसबी में और नहीं भी थे।

हम जाड़ों की छुट्टियों में क्रिसमस के दिन अमूमन चर्च में होते थे।


सुबह नाश्ते में पावरोटी के साथ पोच या आमलेट तो रात में खाने के बाद फलाहार और काफी सेवन।


भुवाली चर्च में क्रिसमस की उस रात की याद भी आती है जब रात के बारह बजे गुल कर दी गयी बत्ती के बाद जो पहली रोसनी आयी और मेरे चेहरे पर पड़ी तो मुझे जिंदगी में पहलीबार और अंतिमबार सार्वजनिक तौर पर गाने का प्रयास करना पड़ा और बेसुरे उस चीख से ही शुरु हुआ था बड़ा दिन।



और आज सुबह ही खबर पढ़ने को मिली कि अबकी दफा बड़ादिन का त्योहार यानी क्रिसमस अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन होगा और पटेल के जन्मदिन के एकता परिषद बतौरमनायेजाने की तर्ज पर यह देशभऱ में राजकीय सुशासन दिवस होगा।


जवाहर लाल  नेहरु और इंदिरा गांधी के सारे देश वासी भक्त नहीं हैंलेकिन भारतीय इतिहास उनकी भूमिका के बगैर अधूरा है।


उनके जनम मरण को मिटाने पर तुला संघ परिवार अब अल्पसंख्यकों के पर्व त्योहारों का केशरियाकरण करने लगा है।


पैसे के अभाव में लालबहादुर स्मारक बंद होने को है।


मुझसे पूछिये तो हम इन स्मारकों के समर्थक नहीं है।


तमाम बंगले जहां सिर्फ मृतात्माओं का वास है और तमाम जमीनें जहां महान लोगों की समाधियां हैं,वे खाली कराकर गरीब गुरबों को बांट दी जाये,हमारा लक्ष्य बल्कि यही है औऱ भूमि सुधार का असली एजंडा राजधानी से ही लागू होना चाहिए।


हम पर्व त्योहारों की आस्था के आशिक भी नहीं हैं और न उन्हें मनाने की कोई रस्म निभाते हैं।हम तो जनसंहारी कालीपूजा और दुर्गोत्सव के बहाने नरमेध उत्सव के खिलाफ हैं।लेकिन संविधान में दिये मौलिक अधिकारों के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी है और धर्म और आस्था के मामले में जनता के हक हकूक का हम पुरजोर समर्थन करते हैं अपनी कोई आस्था न होने के बावजूद,बशर्ते की वह धर्म घृणा अभियान सत्ता विमर्श और सौंदर्यबोध में तब्दील होकर जनसंहारी मुक्ताबाजारी संस्कृति का हिस्सा न हो।


जाहिर है कि हमें संघ परिवार के धर्म कर्म और संघियों की आस्था के अधिकार का भी पुरजोर समर्थन करते हैं लेकिन उतना ही समर्थन हमारा बाकी धर्मालंबियों, समुदाओं, नस्लों के हकहकूक के पक्ष में है।


मेरे गांव बसंतीपुर भी आस्था के मामले में कट्टर हिंदू हैं,जैसे कि इस देश के हर जनपद के हर गांव के वाशिदे किसी न किसी धर्म के आस्थावान बाहैसियत होंगे।


मैं अपना मतामत स्पष्ट तौर पर व्यक्त करता हूं और इन सामंती परंपराओं के अवशेष का विरोद भी करता हूं,लेकिन हम अपने देश वासियों के धार्मिक अधिकार के खिलाफ और अपने अपने गांव के पर्व त्योहारों के विरुद्ध तब तक खड़े नहीं हो सकते,तब तक ऐसे पर्व त्योहार अस्पृष्यता,नस्ली बेदभाव और मुक्ताबाजरी उत्सव में तब्दील न हो जाये।


जिस भारत को विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर महामानव मिलन तीर्थ भारततीर्थ कहते रहे और मानते रहे कि यहां तमाम मतों, मतांतरों, धर्मों, नस्लों और उनकी बहुआयामी संस्कृतियों का विलय ही भारत राष्ट्र हैजो भारततीर्थ भी है,वहां चूंकि जन्मजात हम हिंदू है तो हम सिर्फ हिदुत्व के पर्व त्योहार मनायेंगे और अहिंदू त्योहारों को मटिया देंगे,इस अन्याय का प्रतिवाद किये बिना हमें राहत नहीं मिलेगी।


और जनम पर तो  हमारा कोई दखल नहीं है तो कर्मफल सिद्धांत मानें तो हम तो परजन्म में ईसाई मुसलामान बौद्ध सिख दलित ब्राह्मण से लेकर गिद्ध कूककूर तक हो सकते हैंं,जन्म आधारित पहचान और आस्था के बहाने हम इंसानियत के खिलाफ खड़े हो जाये,यह किस किस्म का हिंदुत्व है,नहीं जानते ।


दरअसल यही संघ परिवार के सनातन हिंदुत्व का एजंडा है जो दरअसल जायनी मुक्तबाजार का एजंडा भी है,जिसकी पूंजी धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता है।


दरअसल यह हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान है।


यह एजंडा कामयाब हो गया तो मुक्तबाजार भारत तो बचा रहेगा,फलेगा फूलेगा,लेकिन भारतवर्ष की मृत्यु अनिवार्य है।


इस हकीकत को भी बूझ लीजिये कि हिंदू साम्राज्यवाद के इस पुनरूत्थान का जिम्मेदार दरअसल संघ परिवार ही है.यह कहना गलत होगा।


पंडित जवाहर लाल नेहरु खुद हिंदू साम्राज्यवादी थे और विस्तारवाद के पक्षधर थे तो एकाधिकारवादी नस्ली राजकाज के भी वे पुरोधा रहे हैं।


उन्हीं के किये कराये की वजह से क्षेत्रीय अस्मिताओं के नस्ली रंगबेध के खिलाफ उठ खड़े होने की निरंतरता से भारतवर्ष अब खंड खंड एक राजनीतिक भूगोल है,कोई समन्वित राष्ट्रीयता नहीं है और उन्हीं की वजह से आज हिंदुत्व ही भारत की एकमात्र राष्ट्रीयता है।


और अब परमाणु शक्तिधर भारत का राजकाज संभाल रहे संघ परिवार अगर परमाणु शस्त्रास्त्र प्रथम प्रयोग की कारपोरेट लाबिइंग में लगा है तो समझना होगा कि यह प्रयोग किसके खिलाफ होने जा रहा है और उसकी भोपाल गैस त्रासदी का जखम पीढ़ी दर पीढ़ी कौन लोग अश्वत्थामा बनकर वहन करते रहेंगे।


दर असल लाल किला हिंदुत्व के नजरिये से विधर्मी विरासत है जैसे नई दिल्ली की तमाम मुगलिया इमारतें,जो परात्व और ऐतिहासिक धरोहरें भी हैं।


अयोध्या काशी मथुरा के धर्मस्थलों के खिलाफ जिहाद रचने वाले और बाबरी विध्वंस बाबा साहेब डा.भीमराव अंबेडकर के परानिर्वाण दिलवस के दिन करके हिंदुत्व के मसीहा संप्रदाय नें एक मुश्त विधर्मी विरासत और इस देश के बहिस्कृत बहुजनों के हिस्सेदारी के दावे को एक मुश्त खारिज करने की जो अनूठी कामयाबी हासिल की है कि कोई अचरज नहीं कि इतिहास को वैदिकी सभ्यता बना देने वाले लोग इन पुरातात्विक और ऐतिहासिक विरासतों के हिंदुत्वकरण का कोई बड़ा अभियान छेड़ दें।


हाल में कारपोरेट साहित्य उत्सव के मुख्य मेहमान बने नोबेलिया अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने जयपुर के मंच से ज्ञान विज्ञान विकास के लिए संस्कृत के अनिवार्य पाठ की वकालत की थी।


संविधान की आठवीं सूची में भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गयी है,लेकिन हिंदुत्व के राजकाज में उन भाषाओं,उनसे जुडी बोलियों और संस्कृतियों के सत्यानाश की कोी कसर बाकी नहीं रही कभी।


अब संस्कृत अनिवार्य भाषा बनने वाली है तो नरेंद्रभाई मोदी के व्यक्तित्व कृतित्व का अनिवार्य पाठ शुरु हो गया समझो।


इसी के साथ लालकिले के प्राचीर से हिंदुत्व के एजंडे का जयघोष का कार्यक्रम भी भागवत गीता उत्सव के तहत हो रहा है।


हम बार बार कहते रहे हैं कि संविधान से ही राष्ट्र की रचना हुई है।


हम बार बार कहते रहे हैं कि संविधान ही रक्षा कवच है।


हम बार बार कहते रहे हैं कि अच्छा हो या बुरा,बिना राज्यतंत्र में बदलाव उसे बदलने की कोई भी कोशिश कारपोरेट मनुस्मृति  स्थाई बंदोबस्त में खुदकशी का फैसला होगा।


हम बार बार कहते रहे हैं कि संविधान में दिये गये हक हकूक और संविधान के तहत मिले देश के लोकतंत्र के आधार पर ही,इसी जमीन पर हम इस कारपोरेट केसरिया कयामत का मुकाबला कर सकते हैं।

दरअसल अस्मिताओं को तोड़कर जाति धर्म नस्ल भाषा क्षेत्र अस्मिता निरिविशेष मेदनतकश तबके की गोलबंदी बिलियनरों मिलियनरों की सताता जमात केखिलाफ जब तक नहीं होगी.हम कयामत के शिकंजा में कैद रहेंगे और वहीं दम तोड़ते रहेंगे।


इसे यूं समझिये कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस समाते तमाम दलों उपदलों के समर्थन या तठस्थता के सहारे श्रम के सारे अधिकार छीन लिये गये और अब बीमा बिल भी कांग्रेस समेत समूचे धर्मनिरपेक्ष खेमे के समर्थन से पास होना है।


ऐसे ही जनसंहारी तमाम कानून बन बिगड़ रहे हैं।ऐसा ही है नरमेध महोत्सव।


विदेशी अबाध पूंजी और नवउदारवाद और पूना समझौते की अवैध संतानें अब अरबपति करोड़पति हैं और वे हमारे कुछ भी नहीं लगते।


हमें क्यों मनुष्यता के विरुद्ध युद्ध अपराधियों को अपना प्रतिनिधि मानकर खुद को युद्ध अपराध की हिस्सेदारी लेनी चाहिए,दिलोदिमाग को एकात्म विपाश्यना में डालकर सोचें जरुर।


जो मु्क्त बाजार में साँढ़ संस्कृति है और धर्म के बहाने जो पुरुषतंत्र है,उसमें समूची स्त्री देह एक अदद योनि के अलावा कुछ भी नहीं है और सारा अनुशासन उस योनि की पवित्रता के लिए है।वही दरअसल धर्म कर्म आस्था है।जो स्त्री देह का शिकार है।


स्त्री के बाकी शरीर,उसके मन मस्तिष्क को लेकर पुरुषतंत्र की कोई चिंता नहीं है।यह निर्लज्ज वर्चस्ववाद है। योनि के अधिकार का गृहयुद्ध है ,युद्ध है और कुछ नहीं।


धर्म और आस्था के बहाने इस उपमहादेश में धर्म जाति नस्ल निर्विशेष स्त्री शूद्र है और यौन क्रीतदासी भी।


अवसर उसके लिए जो हैं,जो उच्चपद हैं,पुरुषतंत्र उसके एवज में उसपर अपना ठप्पा लगाता रहता है।


ठप्पा लगाने से इंकार करने वाली स्त्रियां वेश्या बना दी जाती हैं,बलात्कार की शिकार होती है.,प्रताड़ना और उत्पीड़न के मध्य जीने को विविश कर दी जाती है और ज्यादा बागी हो गयीं तो मार दी जाती है।


उसी स्त्री के विरुद्ध युद्ध और मनुस्मृति शासन अनुशासन ही संघ परिवार का एजंडा है।


गौहर खान के गाल पर तमाचा हो या बापुओं का बलात्कार या धार्मिक फतवा या आनर किलिंग या आइटम कन्याओं को वेश्या कहना,या प्रेम प्रदर्शन के खिलाफ नैतिकता पुलिस बाजार के व्याकरण के मुताबिक है।


क्योंकि बाजार में स्त्री का स्टेटस चाहे कुछ भी हो वह एक उपभोक्ता सामग्री है और पुरुषतांत्रिक धर्मराज्य के मुक्तबाजार में उसकी योनि का नीलाम होना अनिवार्य है।


यही संघ परिवार का एजंडा है और हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान भी।


ध्यान दें कि संघ परिवार अब महज ब्राह्मणवाद का वर्चस्व नहीं है।


सिर्फ ब्राह्मणवाद के बहाने ब्राह्मणों के खिलाफ युद्धघोषणा की जुबानी जमाखर्च से पुरुषातात्रिक यह मुक्तबाजारी मनुस्मृति व्यवस्ता का राज्यतंत्र बदलेगा नहीं।


इंडियन एक्सप्रेस में हाल में छपे सर्वे के मुताबिक दलितों के विरुद्ध अस्पृश्यता का आचरण करने वालों में ब्राह्ममों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है तो उसके तुरंत बाद ओबीसी हैं। आदिवासी और विधर्मी लोग भी हिंदुत्व के शिकंजे में हैं और वे भी दलितों के खिलाफ छुआछूत मानते हैं।और तो और दलित जातियां भी एक दूसरे के खिलाफ छुआछूत का बर्ताव करती हैं।


कांशीराम और मायावती के आंदोलनों की आंशिक सफलता के बावजूद हकीकत यह है कि जिस बहुजन समाज की परिकल्पना के तहत वे भारत में समता और सामाजिक न्याय के आधार पर नया समाज और राष्ट्र बनाना चाहते हैं,सामाजिक यथार्थ उसके उलट हैं।जिसे हम देखते हुए देखने से इंकार कर रहे हैं।


मसलन संसद में जिस साध्वी के रामजादा बयान पर बवाल है ,वे खुदै दलित हैं और मनुस्मृति केअनुशासन मुताबिक जो शब्द वे दूसरों के लिए इस्तेमाल कर रही है,उसी शब्द से उनकी अस्मिता है।


घृणा अभियान चाहे संघ परिवार का हो या चाहे उनके विरोधियों का,इससे राजनीति भले सधती हो,धर्मोन्मादी धर्वीकरण मार्फत कारपोरेट और सत्ता हित जरुर सधते हों,देश लेकन पल छिन पल छिन टूटता है।जो अब पल छिन टूट रहा है।माफ करना दोस्तों कि अब हमारा कोई देश नहीं है और हम किसी मृत भूगोल के अंध वाशिंदे हैं।


दलितों के सारे राम अब हिंदुत्व के हनुमान हैं और सारे शूद्र संघपरिवार के क्षत्रप हैं जिनमें प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक केसरिया कारपोरेट क्षत्रप हैं और उन्हें सत्ता का जायका ऐसा भाया है कि वे बाकी बिरादरी और बाकी समुदायों और नस्लों को निर्मम तरीके से साफ करने में दिन रात एक किये हुए हैं।


शूद्र यानी ओबीसी कमसकम 42 प्रतिशत है।


दलितों का ब्राह्मणवाद विरोधी बंगाल के किसान आंदोलन की बहुजनसमाजी मतुआ आंदोलन अब केसरिया है।


और बाबासाहेब की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी की भीमशक्ति अब शिवशक्ति में समाहित है तो मायावती का सोशल इंजीनियरिंग फेल है।


जाहिर है कि अस्मिता आधारित सत्ता की भागेदारी हमारी वंचनाओं,हमारी बेदखली के प्रतिरोध की कोई जमीन तैयार नहीं कर ही है।


किसी पहचान के जरिये चाहे वह धार्मिक हो या जातिगत या नस्ली या भाषाई या क्षेत्रीय,सत्ता में भागेदारी तो संघ परिवार खुद दे देगा,लेकिन कयामत के इस मंजर के बदलने के आसार नहीं है।


हम बंगाल में पिछले तेइस साल से रह रहे हैंऔर इसके अभ्यस्त हैं कि नवंबर से ही सिर्फ ईसाई ही नहीं,सारा बंगाल क्रिसमस के बड़े दिन का कैसे इंतजार करता है।


अभी से केक की आवक होने लग गयी है और तमाम दुकानें सजने लगी है।बंगाल के केशरियाकरण के बाद यह नजारा सामने आयेगा या नहीं,हमें नहीं मालूम।


यही नहीं,एनआईए वर्धमान में बम धमारके के मद्देनजर अब मदरसा आईन की भी पड़ताल करेगा।हमें नहीं मालूम कि संसद और सुप्रीम कोर्ट के अलावा किसी और संस्थान को देश के संविधान और कायदा कानून और खासतौर पर अल्पसंख्यकों के निजी कानूनो में ताक झांक की कितनी इजाजत है।


ये खबरें तब आ रही है जबकि राजधानी नई दिल्ली में प्रधानमंत्री के पूर्व और पूर्वोत्तर के अनार्यभारत को जीतने के अश्वमेधी अभियान और नेपाल में राजतंत्र की वापसी के संघी अंतरराष्ट्रीय एजंडा के बीच नस्ली भेदभाव के तहत पूर्वोत्तर के वाशिंदों पर हमले जारी हैं।जो थमने केआसार भी नहीं हैं।


और वहां बाकी हिमालय यानी कश्मीर, हिमाचल, गोरखालैंड ,उत्तराखंड के लोग भी हिंदुत्व की सुगंधित पहचान के बाद अव्वल दर्जे के हिंदू के बजाय बंधुआ मजदूर माने जाते हैं।फांकसी का फंदा उन्ही के गले के माफिक है।


दोयम दर्जे के या तीसरे दर्जे के नागरिक भी नहीं है वे,सवर्ण होंगे  तो होंगे।


इन्हीं खबरों के मध्य अब ओड़ीशा के आदिवासी बहुल आरण्यक अंचल में नही,राजधानी के दिन दूना रातचौगुणा तेजी से विकसित सीमेंट के जंगल और उसके मध्य मेट्रो नेटवर्क और तमाम राष्ट्रनेताओं और इतिहासपुरुषों के समाधिस्थलों के मध्य विधर्मी धर्मस्थलों के विध्वंस का महोत्सव शुरु हो चुका है।


और फिलहाल एक चर्च ही जलाया गया है।


अब बाकी विध्रमी धर्मस्थलों की बारी।


होश में आओ दोस्तों कि फिजां अब कयामत है।


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