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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, May 31, 2015

विश्वविद्यालयों की ‘धंधेबाज़ी’ की नई तैयारी ! अनु.- आशुतोष उपाध्याय रोमिला थापर


विश्वविद्यालयों की 'धंधेबाज़ी' की नई तैयारी !

अगर प्रस्तावित बदलाव लागू हुए तो किस किस्म की समस्याएं खड़ी होंगी उनकी यह बानगी भर है. इस भविष्यवाणी  के लिए ज्यादा दूरदृष्टि की ज़रूरत नहीं कि बदलावों की गाज हमारी विश्वविद्यालयी व्यवस्था में किस-किस पर गिरेगी.

घटिया शिक्षा पाए और नौकरी के इच्छुक मगर अयोग्य ठहराए गए नौजवानों की बड़ी तादाद एक स्वस्थ समाज की तस्वीर नहीं पेश करती. न विज्ञान और न ही समाज विज्ञान 40 विश्वविद्यालयों में महज एक जैसी सूचना के बतौर नहीं पढ़ाए जा सकते.

हर विषय के लिए सोच-विचार, सवाल और बहस-मुबाहिसे की दरकार होती है, क्योंकि प्रत्येक विषय की अपनी बौद्धिक विषयवस्तु होती है, जो उसकी समझ के निर्माण के लिए आवश्यक है.

इस बहस को ऊपर से निर्धारित नहीं किया जा सकता. एक सिलेबस जिसे 'ऊपर से' थोपा गया हो और जिस पर शिक्षकों ने विचार न किया हो, रटंत सूचना बनकर रह जाता है.

 

 

 

विश्वविद्यालयों के सिलेबस का प्रस्तावित मानकीकरण शिक्षा की गुणवत्ता को रसातल तक गिरा डालेगा.

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कुछ दिन पहले घोषणा की कि वह केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की संरचना और तौर-तरीकों में बदलाव लाने जा रहा है.

देश में फिलवक्त 40 के करीब केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं. प्रस्तावित यूनिवर्सिटी एक्ट के जरिए इन बदलावों को सार्वजानिक किया गया. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के विभिन्न कालेजों और विश्वविद्यालयों के अकादमिकों ने बड़ी तादाद में सुझावों की जांच-पड़ताल की.

उन्होंने प्रस्तावित बदलावों का गहराई से अध्ययन किया, क्योंकि प्रस्तावित बदलाव अगर लागू हुए तो ये कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर की उच्च शिक्षा को व्यापक रूप से प्रभावित करेंगे.

छः महीने के गहन विचार-मंथन के बाद उन्होंने संयुक्त रूप से एक दस्तावेज जारी किया- 'भारतीय विश्वविद्यालयों का क्या करें? चिंतित शिक्षकों के विचार.'

दस्तावेज बताता है कि क्यों उन्होंने अकादमिक वजहों से ज्यादातर प्रस्तावित सुझावों को स्वीकार किए जाने योग्य नहीं पाया. यह दस्तावेज फेसबुक पर उपलब्ध है और कई उपयोगी पोस्टों में प्रकाशित हो चुका है.

बड़ी संख्या में शिक्षकों की ओर से जारी किया गया यह महत्वपूर्ण वक्तव्य है, जिसमें प्रस्तावों पर मांगी गईं उनकी प्रतिक्रियाएं शामिल हैं.

उम्मीद की जानी चाहिए कि इन प्रतिक्रियाओं पर मानव संसाधन मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और स्नातक व स्नातकोत्तर शिक्षा से जुड़े अन्य तमाम संगठन व्यापक रूप से विचार करेंगे.

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि मौजूदा या पिछली सरकारों ने शिक्षा को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया. पहले ही शर्मनाक ढंग से कम शिक्षा-बजट को अब 3 फ़ीसदी की अतिसूक्ष्म मात्रा तक घटा दिया गया है.

इसके बावजूद एक धुंधली सी उम्मीद बंधी हुई है कि विकास की सीढ़ियां चढ़ी जा सकती हैं. विकास के लिए ठीक से पढ़े-लिखे लोग चाहिए अन्यथा यह कहीं नहीं ले जाता. क्या राजनेताओं को शिक्षित नागरिकों से डर लगता है?

कायाकल्प की जगह सुधार

शिक्षा को सुधारने के लिए सरकार गलत सिरे से शुरुआत करती दिखाई पड़ती है. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों औरआईआईटी, आईआईएम जैसी संस्थाओं की ज्यादा संख्या की वकालत करते हुए वह इस तरह उच्च स्तर पर नाटकीय परिवर्तन लाने की योजना बना रही है.

जैसा कि अकसर कहा जाता है कि मौजूदा संस्थाओं को बेहतर बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए. तथापि शिक्षा का दारोमदार स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में निहित है. यूपीए-2 सरकार की ओर से पेश किया गया विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव मौजूदा सरकार को भी जंच गया लगता है.

मगर भारत में शिक्षा व्यवस्था में गंभीर सुधार के लिए प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर बुनियाद को मजबूत करने की ज़रूरत है. ऐसा इनकी गुणवत्ता को व्यवस्थित और तार्किक ढंग से सुधारकर ही संभव है.

यह बात पाठ्यक्रम पर भी उतनी ही गहराई से लागू होती है जितनी कि सुविधाओं पर.

बड़े बजट से स्कूलों की संख्या बढ़ा पाना संभव है और बेशक इनकी बेहद ज़रूरत भी है. लेकिन संख्या बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं होता. स्कूल की स्थापना ऐसी जगह होनी चाहिए कि इस पर ऊंची जातियों और पैसे वालों का दबदबा कायम न हो. नहीं तो सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोग शिक्षा से वंचित रह जायेंगे.

स्कूल पर्याप्त रूप से साधनसंपन्न भी होने चाहिए. शिक्षक ठीक से प्रशिक्षित हों और शिक्षा के लाभ स्पष्ट दिखाई पड़ने चाहिए.

इस काम को उच्च शिक्षा की तरह बेहद संजीदगी से किए जाने की ज़रूरत है. स्कूली शिक्षा अच्छी न हो तो उच्च शिक्षा संस्थान विकलांग हो जाते हैं. घटिया स्कूली शिक्षा प्राप्त  छात्र उच्च शिक्षा हासिल करने में लड़खड़ाते हैं और इसके लिए खर्च की गयी भारी-भरकम राशि बेकार चली जाती है.

शिक्षा के कई लक्ष्य हैं. इन्टरनेट की तरह यह सूचनाएं मुहैया कराती है. लेकिन फर्क यह है कि शिक्षा से विश्वसनीय सूचनाएं मिलती हैं. साथ ही यह तार्किक और विश्लेषणात्मक ढंग से विचार करना सिखाती है.

अगर ज्ञान को आगे बढ़ाना है तो मौजूदा ज्ञान पर सवाल खड़े होने चाहिए. चाहे वह विज्ञान हो या फिर समाज विज्ञान या मानविकी, ऐसा आलोचनात्मक निरीक्षण शिक्षा के किसी भी क्षेत्र का महत्वपूर्ण बिंदु है.

संयोगवश एक छात्र को नौकरी के लिए सबसे अच्छा प्रशिक्षण भी शिक्षा ही देती है. बच्चे की कल्पनाशक्ति के विकास के लिए मिथकों को  गढ़ना ज़रूरी है किन्तु शिक्षा और विद्वता के साथ इसका घालमेल ठीक नहीं.

स्कूली शिक्षा को उच्च शिक्षा के साथ जोड़ने का संबंध प्रस्तावित यूनिवर्सिटी एक्ट के कुछ सुझावों पर दी गई प्रतिक्रियाओं से भी है. सुझावों में सिलेबस के मानकीकरण और केंद्रीकरण को शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने का एक जरिया बताया गया है.

यह भी कहा गया है कि शिक्षकों और छात्रों की केंद्रीकृत भर्ती से उन्हें गतिशील बनाया जा सकेगा. क्या सभी 40 विश्वविद्यालयों के सभी विषयों के लिए समूचे सिलेबस का केंद्रीकरण और मानकीकरण संभव है? यह एक भीमकाय और गैर-ज़रूरी कवायद और हो सकता है कहीं विपदा ही साबित न हो जाय.

इसके बाद पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं के लिए लगभग दोगुने बजट की ज़रूरत पड़ेगी. अन्यथा शिक्षा कुछ वक्तव्यों को रटने तक सीमित नहीं रह जाएगी?

सिलेबस के मानकीकरण के सिलसिले में कमतर संस्थाओं को ऊपर उठाने की खातिर अच्छी संस्थाओं को अपना स्तर गिराना पड़ेगा. शिक्षा की गुणवत्ता का मानक न्यूनतम समापवर्तक हो जाएगा.

ऊंचा स्तर विविधता और ज्ञान के सतत व विश्वसनीय उन्नयन की मांग करता है. बौद्धिक जिज्ञासा के विकास के लिए यह ज़रूरी है. मानकीकरण और केंद्रीकरण के बाद विश्वविद्यालय शिक्षा की दुकानों और कोचिंग स्कूलों में बदल जाएंगे.

संयुक्त प्रवेश परीक्षा के परिणामस्वरूप महानगर के विश्वविद्यालयों की ओर भीड़ बढ़ने लगेगी, क्योंकि अच्छी नौकरियों के लिए ये बेहतर प्रवेश द्वार हैं. ऐसे में आरक्षण की व्यवस्था और कोटे को कैसे लागू किया जाएगा? क्या संख्याओं को लगातार बदलते रहना होगा?

दूसरे बड़ी समस्या भाषा की होगी. आज, ज्यादातर विश्वविद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाएं शिक्षा का प्रभावी माध्यम हैं, खास तौर पर स्नातक स्तर पर. तो क्या शिक्षकों व छात्रों को एक जगह (जैसे पंजाब) से दूसरी जगह (जैसे केरल) यह मांग करते हुए भेजा जाएगा कि उन्हें नई जगह में जो भी भाषा चलाई जा रही हो उसका इस्तेमाल करना ही होगा?

या विरोध को दबाने के हथियार के तौर पर शिक्षकों व छात्रों को दंडस्वरूप स्थानांतरित किया जाएगा? द्विभाषा- एक क्षेत्रीय और एक सार्विक भाषा- एक हल हो सकता है, बशर्ते सर्विक भाषा पर सबकी सहमति हो.

गरीबों और अमीरों के लिए स्कूल

अगर प्रस्तावित बदलाव लागू हुए तो किस किस्म की समस्याएं खड़ी होंगी उनकी यह बानगी भर है. इस भविष्यवाणी  के लिए ज्यादा दूरदृष्टि की ज़रूरत नहीं कि बदलावों की गाज हमारी विश्वविद्यालयी व्यवस्था में किस-किस पर गिरेगी.

घटिया शिक्षा पाए और नौकरी के इच्छुक मगर अयोग्य ठहराए गए नौजवानों की बड़ी तादाद एक स्वस्थ समाज की तस्वीर नहीं पेश करती. न विज्ञान और न ही समाज विज्ञान 40 विश्वविद्यालयों में महज एक जैसी सूचना के बतौर नहीं पढ़ाए जा सकते.

हर विषय के लिए सोच-विचार, सवाल और बहस-मुबाहिसे की दरकार होती है, क्योंकि प्रत्येक विषय की अपनी बौद्धिक विषयवस्तु होती है, जो उसकी समझ के निर्माण के लिए आवश्यक है.

इस बहस को ऊपर से निर्धारित नहीं किया जा सकता. एक सिलेबस जिसे 'ऊपर से' थोपा गया हो और जिस पर शिक्षकों ने विचार न किया हो, रटंत सूचना बनकर रह जाता है.

अगर सरकारी विश्विद्यालय घटिया शिक्षा देंगे तो अच्छी शिक्षा के लिए लोग प्राइवेट विश्वविद्यालयों की ओर जाएंगे, क्योंकि ये इस तरह के प्रतिबन्ध नहीं लगाते. लेकिन प्राइवेट विश्वविद्यालय अमूमन ज्यादातर छात्रों की हैसियत से बाहर हैं. नतीजतन सरकारी विश्वविद्यालय गरीबों के शिक्षा संस्थान बनकर रह जाएंगे, जैसा कि सरकारी स्कूलों में दिखाई देता है.

एक बड़ी समस्या विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के खत्म हो जाने की होगी, जैसा कि दिल्ली के अकादमिकों ने अपने प्रत्युत्तर में इंगित किया है. किसी विश्वविद्यालय की संभावनाएं एक ऐसी स्वायत्त संस्था के रूप में बने रहने में निहित है जो उच्च स्तर को बनाए रखने व नई से नई पहल की जिम्मेदारी ले.

सार्वजानिक विश्वविद्यालय व्यवस्था की गुणवत्ता और इसकी निरंतरता किसी भी आधुनिक समाज के लिए निर्णायक होती है. प्राइवेट विश्वविद्यालय, चाहे कितने भी अच्छे क्यों न हों, हर किसी को उच्च शिक्षा उपलब्ध नहीं करा सकते. प्रस्तावित बदलाव शैक्षिक संस्था के रूप में विश्वविद्यालय के कार्यभार और भूमिका के कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू को नष्ट कर डालेंगे.

 

(रोमिला थापर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास की मानद प्रोफ़ेसर हैं.)

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