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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, August 14, 2015

वर्तमान सांस्कृतिक चुनौतियां और हस्तक्षेप की जरूरत


वर्तमान सांस्कृतिक चुनौतियां और हस्तक्षेप की जरूरत

Posted by Reyaz-ul-haque on 8/02/2015 01:22:00 PM


जन संस्कृति मंच के सम्मेलन में डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता संजय काक का संबोधन
 

जन संस्कृति मंच के इस प्लेटफार्म से शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि हमारे मौजूदा दौर की सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करने की कितनी फौरी जरूरत है. आप सब जो भी लोग यहां आए हैं – आप यही करते हैं, इसी के बारे में सोचते हैं, यही आपकी कर्मभूमि है.

इसमें हमें कोई शक नहीं है कि करने के लिए बहुत कुछ हैं. बल्कि पिछले कुछ बरसों में सियासी बदलावों के साथ हमारी जिम्मेदारियों में सिर्फ बढ़ोतरी ही हुई है. 

हम एक ऐसे दौर में दाखिल हो गए हैं जहां हर उस चीज को बदलने की कोशिश की जा रही है, जो इस मुल्क को रहने के लिहाज से एक असाधारण और चुनौतीपूर्ण जगह बनाती है. और हमारी जो भी कमियां रही हों, यह बात तो तय है कि हम अपने ऊपर एक ऐसी राज सत्ता ले आए हैं, जिसमें संस्कृति पर - और जिंदगी के हर दूसरे पहलू पर –  संकीर्ण, ओछे विचार हम पर थोपे जा रहे हैं. 

आज एक बहुसंख्यकवादी विचार का इस्तेमाल कर के, अल्पसंख्यकों को जबरदस्ती अपनी अधीनता में लाने की कोशिश की जा रहा है – चाहे वो मुसलमान हों या ईसाई, आदिवासी हों या दलित. चाहे वो महिलाएं हों या वैकल्पिक यौन व्यवहार वाले लोग. फिर इस विराट राष्ट्र राज्य में उन लोगों के लिए क्या मौके हैं जो हाशिए पर रहते हैं? और जो वहां से इसमें अपनी जगह के बारे में सवाल उ ाते हैं, चाहे वो कश्मीर हो या नागालैंड या मणिपुर.

इन अनेक दबावों के साथ, हमें एक और भार पर भी गौर करना चाहिए. क्योंकि हर आने वाला दिन यह स्पष्ट कर रहा है कि हमारे सियासी जहाज की पतवार पर जिन लोगों की मजबूत पकड़ है, उनकी बढ़ती हुई फेहरिश्त में नए नए नाम जुड़ते चले जा रहे हैं – और यह जहाज हमें एक तबाह कर देने वाले भविष्य की ओर ले जा रहा है. श्रमिकों के शोषण के इतिहास में हमे जल्द ही होने वाली पर्यावरण की आत्मघाती तबाही को जोड़ना होगा – वह तबाही जो खनिजों के लिए, और उनको निकालने के लिए बिजली-पानी के लिए की जा रही है. 

एक वक्त था जब मजदूर वर्ग टाटा-बिरला की बात किया करता था, फिर टाटा-बिरला-अंबानी हुए. अब यह टाटा-बिरला-अंबानी-अडानी हैं – और यह जपमाला लगातार लंबी होती जा रही है.

हम संस्कृति के क्षेत्र में काम करते हैं, इस लिहाज से हम जानते हैं कि हमारा काम हमारे लिए पहले से तय है. 

मैंने अभी कहा कि करने के लिए बहुत कुछ हैं. मुद्दा यह है कि हम इसे कैसे करें. शायद सबसे पहली बात यह है कि इस संकट को एक अवसर के रूप में देखा जाए, क्योंकि अब हम बस कुछ खोई हुई रूहें ही नहीं हैं जो इस संकट को महसूस कर रही हैं, बल्कि बढ़ती हुई तादाद में लोग इसे महसूस करने लगे हैं. मेरा यकीन कीजिए, कि देश जिस दिशा में बढ़ रहा है उस पर तो स्वदेशी जागरण मंच भी बहुत चिंतित है!

मैं डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाता हूं और मैं यह कहूंगा कि भारतीय डॉक्यूमेंटरी फिल्मों ने एक अहम और जरूरी माध्यम की हैसियत सिर्फ तभी हासिल की, जब भारतीय लोकतंत्र सबसे बदतरीन दौर से गुजर रहा था. मैं 1975-77 के आपातकाल की बात कर रहा हूं. जब तक आपातकाल उन पर लागू नहीं हुआ, तब तक लेखकों और फिल्म निर्माताओं समेत बुद्धिजीवी तबके के लगभग सभी हिस्से काफी हद तक 'राष्ट्र निर्माण' (नेशन बिल्डिंग) के काम को लेकर उत्साहित थे और बिना आलोचनात्मक हुए खुद को इसके ओर प्रतिबद्ध बनाए रखा था. इसमें वाम भी शामिल था, क्योंकि गहराई से सवाल उठाने के दौर के बाद वे भी राष्ट्र निर्माण की नेहरुवादी परियोजना में खिंचे चले गए थे.

संस्कृति और राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) की परियोजना के बीच का रिश्ता हिंदुस्तानी सिनेमा में हमेशा ऐसा ही नहीं था. आजादी के ठीक पहले हमने भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) को एक राजनीतिक कार्रवाई के रूप में के.ए. अब्बास की धरती के लाल (1946) जैसी फिल्म का निर्माण करते हुए देखा, जो फिल्म फंडिंग के परंपरागत लीक से हटकर चंदे से जुटाई गई रकम से बनी थी. चेतन आनंद की नीचा नगर (1946) और बिमल रॉय की दो बीघा जमीन (1953) जैसी दूसरी फिल्में भी वामपंथ की अहम हस्तियों द्वारा लिखी गई थीं और उनमें उन्होंने अभिनय किया था. ये यथार्थवादी लेकिन उम्मीद से भरी हुई फिल्में थीं, और उनमें एक मजबूत समाजवादी जज्बा दिखता था. लेकिन 1947 के बाद 'राष्ट्र निर्माण' की तरफ एक नया रेला आया जिसने इन दखलंदाजियों को गुजरे हुए जमाने की बात बना दिया.

मैंने इसके बारे में पहले भी लिखा है, लेकिन आपातकाल के नतीजों के फौरन बाद – और 1947 के कम से कम 30 बरस के बाद – आनंद पटवर्धन की जमीर के बंदी (1978) का आना 'राष्ट्र निर्माण' की सेवा में लगी सिनेमा संस्कृति की परंपरा से साफ साफ अलगाव था. इसी के साथ दूसरी अनेक फिल्मों ने भी जगह जमानी शुरू कर दी थीं – उत्पलेंदु चक्रव्रती की मुक्ति चाई(1978) सियासी बंदियों के मुद्दे पर बनी थी; गौतम घोष की हंगरी ऑटम (1978) देहाती भारत के सामने आए संकट के बारे में थी, और तपन बोस और सुहासिनी मुले की एन इंडियन स्टोरी(1981) भागलपुर अंखफोड़वा कांड पर थी. अगर आप इन स्वतंत्र और खुद जुटाई हुई रकम पर बनी फिल्मों की इस छोटी सी फेहरिश्त पर गौर करें, तो आप यह कह सकते हैं कि आपातकाल के झटके और उसके पहले के सामाजिक और राजनीतिक संकट ने एक नई, आत्मविश्वास रखने वाली डॉक्यमेंटरी की एक नई चलन पैदा की, जिसने बहुत थोड़े वक्त में ही अपने लिए एक अलग जगह का ऐलान कर दिया.

मैं यह भी कहूंगा कि आपातकाल के तुरतं बाद के दौर में इन फिल्मों को व्यापक रूप में देखे जाने और उन पर बहसों की वजह ये थी कि वे एक उत्तेजनाहीन, लेकिन बेहिचक आलोचनात्मक नजरिया पेश करती थीं. यह ऐसी बातें थीं, जिनहें डॉक्यूमेंटरी फिल्मों से, और उन दिनों जो कुछ भी मीडिया था उससे ज्यादातर एक सुरक्षित दूरी पर रखा जाता था.

इस आलोचनात्मक धार के साथ साथ इन फिल्मों ने अवाम को यह समझने में मदद की कि वे किस दौर से गुजरे थे, किस दौर से गुजर रहे थे, और शायद वे किस तरफ बढ़ रहे थे. बंबई हमारा शहर (1985) जैसी एक फिल्म अपने बनने के तीस बरस बाद भी प्रासंगिक बनी हुई है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह हमें बताती है कि 1980 के दशक के शुरुआती दौर में बंबई महानगरी मे क्या हो रहा था, बल्कि यह उस रास्ते की निशानदेही भी करती है, जिस पर हमारे अनेक शहर जाने वाले थे.

आज इस मंच पे फिल्म निर्माता साथी नकुल सिंह साहनी भी हैं, जिनकी फिल्म इज्जतनगरी की असभ्य बेटियां (2012) हरियाणा में खाप पंचायतों के साथ महिलाओं के अनुभवों के बारे में है. नकुल एक ऐसे मुद्दे की तरफ आकर्षित हुए, जिसके बारे में लोग असली तरीके से बात करना चाहते थे. इज्जतनगरी खूब दिखाई गई और इसने अच्छी-खासी बहस पैदा की, इसकी वजह यह थी कि इसने एक महसूस की जा रही जरूरत को पूरा किया. और यह तार को भरसक आपस में जोड़ने में कामयाब रही. इसने खाप, पितृसत्ता और हरियाणा में जमीन के साथ जुड़े बेहिसाब मूल्य के बीच रिश्तों को देखा.

यहां एक सांस्कृतिक सक्रियता (एक्टिविज्म) काम कर रही थी, जिसने एक खास मौके पर एक मुद्दे में दखल दी. लेकिन यह एक ऐसे रूप में थी, जो लोगों को अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की इजाजत देती थी. (फिल्मों का आम प्रदर्शन यही करता है, यह एक ऐसी जगह बनाता है, जिसमें बातचीत हो सके...) 2007 में जब मैंने कश्मीर पर फिल्म जश्ने-आजादी पूरी की, तो हम काफी उग्र आलोचना और रोड़ेबाजियों के लिए तैयार थे. हमें हैरान करती हुई, इसकी जगह फिल्म ने मेरी बनाई हुई सभी फिल्मों के दर्शकों के मुकाबले, सबसे ज्यादा सचेत दर्शक हासिल किए. दो घंटे 19 मिनट की जश्ने-आजादी ऐसी फिल्म है, जिसे मैंने अपने कैरियर में सबसे ज्यादा दिखाया है. लोग भले फिल्म को पसंद न करें, लेकिन यकीनन उन्होंने इस फिल्म पर गौर किया और इसे सांस्कृतिक जमीन का हिस्सा बना दिया। और फिल्म ने जो जगह तैयार की थी, एक स्पेस जो बना दी थी, उसका इस्तेमाल अनेक किस्म की चर्चा के लिए हो पाया - जिसमें हमारे समाज के सैन्यीकरण का मुद्दा भी शामिल है.

जो नुक्ता मैं यहां रखने की कोशिश कर रहा हूं वह ये है कि एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता के बतौर हमें इस बात के लिए सतर्क रहने की जरूरत है कि वे कौन से मुद्दे हैं जिनको लेकर लोग चिंतित हैं. और इसका मतलब यह नहीं है कि जो सतह पर है इसी के लिए उत्तेजित दिख रहे हों. क्योंकि सांस्कृतिक सक्रियता को एक ही साथ दो विरोधात्मक तरीकों से काम करने की जरूरत है, जो बजाहिर आपस में विरोधी दिखते हैं: इसे रोजाना की जिंदगी में गहराई तक धंसना होगा, लेकिन इसे आगे की तरफ और वर्तमान के उस पार की उड़ान भी भरनी होगी. सिर्फ यही हमारे संस्कृतिक यत्न को एक लंबी उम्र और मजबूती दे सकती है.

जिस दूसरे नुक्ते की ओर मैं आपका ध्यान ले जाना चाहता हूं, वह यह है कि एक 'आलोचनात्मक' राजनीतिक डॉक्युमेंटरी का स्वरूप (फॉर्म) भी वक्त पर पैदा हुआ. जमीर के बंदी या इज्जतनगरी की असभ्य बेटियां ने जिन विचारों को उठाया था, वे पूरी तरह नए नहीं थे: उन्हें जिस बात ने ताकतवर बनाया था वह वो मुनासिब स्वरूप था, जिनमें उन दलीलों को पेश किया गया था. 'नई पीढ़ी विजुअल मीडियम की ओर ज्यादा आकर्षित है' कहने जैसी कोई सीधी-सादी बात नहीं है. यह सच हो सकता है, लेकिन नई पीढ़ी एक ऐसे स्वरूप की ओर भी आकर्षित हो सकती है जो उन्हें खुद अपनी राय बनाने की इजाजत देती हो. तस्वीरों और दर्शकों का मामला ऐसा ही है जैसा घोड़े को पानी के गड्ढे की ओर ले जाने का है. आप उन्हें वहां ले जा सकते हैं, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वो उसे पी ही लेंगे. एक ऐसा स्वरूप जो अवाम को अपनी हकीकत की जटिलता और अस्पष्टता का सामना करने की इजाजत देती है, उसके लोगों के जेहन में जगह बना लेने के मौके ज्यादा होते हैं. 

आखिर में, तकनीक का मामला भी है. अगर हमें सांस्कृतिक जमीन में गंभीरता से दखल देना है तो इस बदलती हुई दुनिया में हमें अपनी आंख-कान खुले रखने पड़ेंगे. मैं जानता हूं कि टेक्नोलॉजी एक बिगड़ैल घोड़ा है, और आपको इससे गिरने से बचने के लिए दोनों हाथों से लगाम को थामना होगा, लेकिन लंबे दौर के लिए कुछ रुझान बहुत स्पष्ट हैं:

  • हम सबने देखा है कि डिजिटल तकनीक ने फिल्म निर्माण पर कितना असर डाला है. हम जो कर रहे हैं, उसे हममें से कोई भी करने के काबिल नहीं होता अगर डिजिटल दुनिया नहीं रही होती. सिर्फ फिल्में बनाने में ही नहीं, बल्कि उन्हें वितरित करने और फिर प्रोजेक्टर तक से उसके सफर में.
  • आज की दुनिया में इंटरनेट शायद सबसे ताकतवर सामाजिक प्रभाव के रूप में उभरा है. (देखिए ISIS किस तरह दुनिया को अपने प्रभाव में लेने में कामयाब हो रहा है!) हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते.
  • और अब मोबाइल फोन ज्यादातर नौजवानों के लिए पहले 'कंप्यूटर' के रूप में तेजी से उभर रहा है, खास कर हमारे छोटे शहरों और कस्बों में – यहीं पर लोग संगीत, वीडियो, खबरें, कहानियां और गपशप एक दूसरे के बीच बांटते हैं.

शायद हमें सबसे पहले यह करने की जरूरत है कि हम सांस्कृतिक व्यवहारों, सक्रियता (एक्टिविज्म) और तकनीक के बीच के आपसी रिश्तों पर बातें करें.
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