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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, October 1, 2015

अटाली की महिलाओं की आवाज़ -डॉ. संध्या म्हात्रे व नेहा दाबाड़े

29.09.2015

अटाली की महिलाओं की आवाज़

-डॉ. संध्या म्हात्रे व नेहा दाबाड़े

(..........पिछले अंक से जारी)

इरफान इंजीनियर व इन लेखकों का एक तथ्यान्वेषण दल, हरियाणा के बल्लभगढ़ के नजदीक अटाली गांव पहुंचा। यहां 25 मई और 1 जुलाई 2015 को साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। गांव के लगभग 150 मुस्लिम परिवारों में से अधिकांश अटाली छोड़कर भाग गए हैं। केवल कुछ ही परिवार वहां अब भी रह रहे हैं और वह भी इसलिए क्योंकि उनके पास जाने के लिए कोई दूसरी जगह नहीं है।

महिलाओं द्वारा हिंसा

लगभग सभी समाजों और समुदायों में महिलाएं हाशिए पर रहती हैं और परिवार, समुदाय व गांव की निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी बहुत कम होती है। विवाद की स्थिति में भी अक्सर देखा जाता है कि शांति की पुनर्स्थापना के प्रयासों और दोनों पक्षों के बीच बातचीत में उनकी भूमिका नगण्य होती है। यह स्पष्ट है कि ऐसी शांति, जिसकी स्थापना में 50 प्रतिशत आबादी की कोई भूमिका ही नहीं होगी, कभी स्थायी और पूर्ण नहीं हो सकती। अनुभव बताता है कि शांति निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं के योगदान को न तो नजरअंदाज किया जा सकता है और न कम करके आंका जा सकता है।

परंतु हिंसा और महिलाओं पर केन्द्रित साहित्य हमें बताता है कि महिलाओं का इस्तेमाल हिंसा करने के लिए भी किया जा सकता है और किया जाता है। महिलाएं हिंसा की शिकार और हमलावर दोनों हो सकती हैं। 25 मई की हिंसा के बाद हमारी पहली यात्रा के दौरान हमें यह जानकर आश्चर्य व दुःख दोनों हुआ कि जिस हिंसक भीड़ ने मुस्लिम महिलाओं पर हमला किया था और उनके घरों पर पत्थर फेंके थे, उसमें महिलाएं भी शामिल थीं। एक ओर हम देख रहे थे कि महिलाएं बैलगाड़ी में घूंघट डालकर बैठी हुईं थीं तो दूसरी ओर वे खुलेआम हिंसा में भाग भी ले रहीं थीं।

अपनी पहली यात्रा के दौरान हम उन मुस्लिम महिलाओं से मिले, जिनके घरों में तोड़फोड़ और आगजनी हुई थी। उनमें से कुछ हाल में आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हुए परिवारों की थीं। ऐसे परिवार, "शांति वार्ताओं" व विवाद से जुड़े कानूनी मसलों में बहुत रूचि ले रहे थे। अपने मकानों और घर के सामान को हुए नुकसान को हमें दिखाते हुए उनमें से कई रो पड़ीं।

पिछले कई वर्षों से, सभी समुदायों और धर्मों की महिलाएं एक दूसरे के घर आती-जाती थीं और विभिन्न त्योहारों पर एक दूसरे से मिलती थीं। हिंसा के बाद, मुस्लिम महिलाओं का जाट महिलाओं पर से विश्वास उठ गया है। मुस्लिम महिलाओं के अनुसार, जाट महिलाएं ट्रकों में भरकर आसपास के गांवों में गईं और वहां के उन मर्दों को चूडि़यां भेंट कीं, जो हिंसा में भाग नहीं ले रहे थे।   

शांति के पैरोकार        

हिंसा की शिकार महिलाओं से मिलने के बाद, हमने जाट महिलाओं से मिलने का निर्णय किया ताकि हम यह समझ सकें कि उन्हें हिंसा में भाग लेने के लिए कैसे उकसाया गया। जब हम उनके घरों में पुरूषों से बातचीत कर रहे थे तब वे दरवाजों या पर्दों के पीछे छुपकर हमारी बातें सुन रहीं थीं। परंपरा के अनुसार, वे बातचीत में हिस्सा नहीं ले सकती थीं। जिन महिलाओं से हमने बातचीत की, उनमें से कुछ शांति स्थापना के प्रति उत्सुक दिखीं। उनका कहना था कि मुसलमानों को गांव में लौट आना चाहिए और गांव में मस्जिद बनने पर भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। ये महिलाएं मुख्यतः उन जाट परिवारों की थीं, जिनके पुरूष भी समस्या का सुलझाव इसी ढंग से चाहते थे।

इसके बाद हमने यह तय किया कि हम महिलाओं के एक समूह से पुरूषों की गैर-मौजूदगी में मिलेंगे। हमारे अनुरोध पर गांव के समृद्ध जाट परिवारों की कुछ महिलाएं इकट्ठा हुईं। हमने एक मंदिर के प्रांगण में उनसे बातचीत की। महिलाएं तीस से साठ वर्ष आयु समूह की थीं। हमने पुरूषों को वहां से जाने के लिए बहुत मुश्किल से मनाया और महिलाओं को उनका घूंघट हटाने के लिए राजी करना भी उतना ही मुश्किल था। हमने उनसे 25 मई (जिस दिन पहली बार हिंसा हुई थी) के घटनाक्रम के बारे में बताने को कहा। उन्होंने ऐसा अभिनय किया मानो वे कुछ जानती ही न हों और हमारे प्रश्नों के गोलमोल जवाब दिए।

फिर  धीरे-धीरे हमने उनसे दूसरे मुद्दों पर बातचीत शुरू की, जिनमें गांव में महिलाओं की स्थिति शामिल थी। हमने उनसे जानना चाहा कि उनका शिक्षा का स्तर पुरूषों से कम क्यों है? वे उनकी तुलना में घर से बाहर कम क्यों निकलती हैं? सार्वजनिक स्थानों पर महिलाएं क्यों नहीं दिखतीं और निर्णय लेने की प्रक्रिया से उन्हें अलग क्यों रखा जाता है? इसके बाद वे कुछ खुलीं और उन्होंने हमसे बातचीत प्रारंभ की। उन्होंने हमें बताया कि मुस्लिम महिलाएं उनके खेतों में काम करती थीं और उनसे उनके करीबी रिश्ते थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि मुसलमानों को न तो गांव में लौटना चाहिए और ना ही उन्हें मस्जिद बनाने दी जानी चाहिए। यह तब, जबकि सबसे कट्टर मुस्लिम-विरोधी जाट पुरूष तक यह कह रहे थे कि अगर मुसलमान उनके द्वारा दायर किए गए मामले वापिस ले लें और मस्जिद न बनाने या इस संबंध में निर्णय को अदालतों पर छोड़ने के लिए राजी हो जाएं, तो वे गांव वापिस आ सकते हैं। परंतु महिलाएं तो किसी भी कीमत पर मुसलमानों को गांव में आने देने के लिए तैयार नहीं थीं।

उन्होंने अपनी बात बिना किसी लागलपेट के कही। उन्हे इस बात का कोई संकोच नहीं था कि वे हम जैसे अजनबियों के सामने इतनी असहिष्णुतापूर्ण बातें कह रहीं हैं। उन्होंने कहा कि गांव के मुसलमान, फकीर समुदाय के हैं और जाटों द्वारा दी गई जमीनों और अन्य सहायता के बल पर ही जीते आए हैं। महिलाओं का कहना था कि अटाली में मस्जिद नहीं बनने दी जाएगी। कुछ महिलाओं ने कहा कि गांव के बाहर मस्जिद बनाई जा सकती है। ऐसा ही प्रस्ताव कुछ जाट पुरूषों ने भी रखा था परंतु अन्य महिलाओं का कहना था कि न तो गांव के अंदर, न बाहर और ना ही कहीं और मस्जिद बननी चाहिए। एक महिला की शिकायत थी कि मस्जिदों में लाऊडस्पीकर लगे रहते हैं और उनसे अजान दी जाती है जिससे परीक्षाओं के दौरान बच्चों को परेशानी होती है (शब्बीर अली ने हमें वह लिखित समझौता दिखलाया जिसमें मुसलमानों ने यह वायदा किया था कि वे लाऊडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं करेंगे)।

मुसलमानों-जिनमें से अधिकांश को नीचे दर्जे के मजदूर माना जाता था-का एक छोटा सा हिस्सा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गया है और अपनी बात जोर देकर कहने लगा है। यह तबका जाट पंचायतों द्वारा निर्धारित गांव की परंपराओं का पालन करने से इंकार करने लगा है। यह जाटों को स्वीकार्य नहीं है। पक्की मस्जिद इस विद्रोह का प्रतीक बन सकती थी और गैर-हरियाणवी उलेमा गांव के मुसलमानों को इस्लामिक सिद्धांतों का ज्ञान देने लग सकते थे। इससे सामाजिक यथास्थिति परिवर्तित हो जाती और गांव का बरसों पुराना पदानुक्रम और परंपराएं टूटने लगतीं।

हमने यह समझने की कोशिश की कि ये महिलाएं, जिनका अपने समुदाय में निचला दर्जा है और जिन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है, वे मुसलमानों के प्रति इतना कड़ा रूख क्यों अपना रहीं हैं? एक अधेड़ महिला ने यह चिंता व्यक्त की कि अगर मस्जिद बन जाएगी तो अन्य गांवों के मुसलमान वहां नमाज पढ़ने आने लगेंगे। कुछ महिलाओं ने कहा कि मुसलमान, गांव की जाट लड़कियों के साथ भाग जाते हैं जिससे गांव की परंपराओं और संबंधित परिवार व समुदाय की इज्जत पर बट्टा लगता है। परंतु वे किसी मुस्लिम लड़के के जाट लड़की के साथ भागने का एक भी उदाहरण नहीं दे सकीं। यह स्पष्ट था कि वे बाहरी तत्वों को जाट परंपराओं के लिए खतरे के तौर पर देखती हैं। अंतर्धार्मिक तो छोडि़ए उन्हें अंतर्जातीय विवाह भी मंजूर नहीं थे। वे चाहती थीं कि गांव के युवक, पुरानी परंपराओं के अनुसार माता-पिता द्वारा पसंद की गई युवती से ही विवाह करें, चाहे उनका शिक्षा का स्तर कितना ही ऊंचा क्यों न हो और उन्होंने गांव के बाहर की दुनिया कितनी ही क्यों न देख रखी हो।

पितृसत्तात्मकता के प्रति महिलाओं का मोह

हमने यह समझने का प्रयास किया कि महिलाएं हिंसा की ओर प्रवृत्त क्यों हुईं और उनके मन में मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह क्यों पैठे हुए हैं। इसका उत्तर दिया 60 साल की कृष्णा ने, जो एक भजन गायिका हैं और अपने भाषणों में आग उगलती हैं। उन्होंने कहा कि गांव की महिलाएं भजन गाने के लिए इकट्ठा होती हैं और एक साथ मिलकर वाराणसी की तीर्थयात्रा पर जाती हैं। यही वे दो मौके हैं जब उनके साथ पुरूष नहीं होते। कृष्णा, महिलाओं के एक ऐसे ही समूह की नेता हैं और इस पर बहुत गर्व महसूस करती हैं। जब साध्वी प्राची अटाली आईं तब कृष्णा ने अपने समूह की सभी महिलाओं के साथ उनकी सभा में भाग लिया। साध्वी प्राची, भाजपा सांसद हैं और पितृसत्तात्मक हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा की कट्टर पैरोकार हैं। वे मुसलमानों के बारे में अनर्गल बातें कहने के लिए भी मशहूर हैं। साध्वी ने गांव की महिलाओं से कहा कि मुसलमान मूलतः धोखेबाज होते हैं और उन्हें किसी भी स्थिति में गांव में मस्जिद बनाने नहीं दी जानी चाहिए। साध्वी प्राची  दुबारा अटाली आकर वहां की महिलाओं को आगे की राह दिखाना चाहती थीं परंतु प्रशासन ने इसकी इजाजत नहीं दी। इस मुद्दे पर महिलाओं ने प्रशासन के प्रति रोष व्यक्त किया। साध्वी की यात्रा ने कृष्णा को अटाली की जाट महिलाओं का सर्वमान्य नेता बना दिया।

महिलाओं ने हमें यह भी बताया कि उन्हें यह पता था कि गांव के युवा, जिनमें उनके लड़के शामिल थे, 25 मई को हिंसा करने की योजना बना रहे थे और वे उनकी "रक्षा" करने के लिए उनके साथ गईं थीं। जब इन युवकों को गिरफ्तार किया गया तो मां बतौर उनका यह कर्तव्य था कि वे इसका बदला लें और अपने बच्चों की मदद करें। इसलिए अब वे इस बात पर दृढ़ हैं कि मुसलमान गांव के युवकों के खिलाफ दायर किए गए मामले वापिस लें और कभी गांव वापिस न आएं।

हिंसा में महिलाओं की भागीदारी

हिंसा में महिलाओं की भागीदारी असामान्य नहीं है। बल्कि गुजरात, मुंबई और कंधमाल में हुए दंगों कि रपटों से तो ऐसा लगता है कि महिलाओं द्वारा हिंसा अपवाद नहीं बल्कि नियम सा बन गया है।

तनिका सरकार व अन्य कई अध्येताओं का कहना है कि महिलाओें की आक्रामकता, उनकी कुंठा से उपजती है। घरों में उनके विरूद्ध हिंसा होती है और परिवार व समाज में उनका निचला दर्जा होता है। ये महिलाएं अपने निचले दर्जे को तो चुनौती नहीं देतीं परंतु दंगों में पुरूषों का मोहरा बनने के लिए आसानी से तैयार हो जाती हैं।

निष्कर्ष

हमारे समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे के प्रकाश में यह समझना अधिक मुश्किल नहीं है कि हिंसा व साम्प्रदायिक तनाव के माहौल में महिलाओं का दमन और उनकी वंचना और बढ़ जाती है। दंगों के दौरान महिलाओं को आगे कर दिया जाता है। वे भड़काऊ नारे लगाती हैं और ईट-पत्थर फेंकती हैं परंतु दंगों के बाद, उन्हीं महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर जाने की आज्ञा नहीं होती और ना ही शांति स्थापना के प्रयासों में उनकी कोई भागीदारी होती है।

वे पंचायतों की सदस्य नहीं बन सकतीं। वे अपने घरों को लौट जाती हैं और अपने चेहरे पर घूंघट डाल लेती हैं। इस तरह, 'सशक्तिकरण' का भ्रम उत्पन्न कर महिलाओं का इस्तेमाल घृणा व हिंसा फैलाने के लिए किया जाता है। उनके साथ जो भेदभाव और शोषण होता है उसका कोई विरोध नहीं होता। यह स्थिति महिला आंदोलन के लिए एक चिंता का विषय है। धर्मनिरपेक्ष संगठनों और नागरिक समाज की यह जिम्मेदारी है कि वे महिलाओं की साम्प्रदायिक हिंसा में भागीदारी की बढ़ती प्रवृत्ति को नियंत्रित करें और महिलाओं को सही अर्थों में सशक्त बनाने का प्रयास करें। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)



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