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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, November 6, 2015

तीन कत्ल और पीट-पीटकर एक शख्स की हत्या


गर्म हवा,कुछ भी नहीं बदला।नफरतें वहीं,सियासतें वहीं बंटवारे की,अलगाव और दंगा फसाद वहीं,चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।

हमें फिजां यही बदलनी है!

Garm Hawa,the scorching winds of insecurity inflicts Humanity and Nature yet again!



पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन,कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?

बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा।फिर वहीं दंगा फसाद।


हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है।सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।


पलाश विश्वास



आई.आई.टी. मुंबई में प्राध्यापक रहे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित राम पुनियानी का लेख. अनुवाद: अमरीश हरदेनिया.

प्रकृति के नियम, मानव समाज पर लागू नहीं किए जा सकते। परंतु कई बार इनका इस्तेमाल सामाजिक ज़लज़लों का कारण स्पष्ट करने या उनका औचित्य सिद्ध करने के लिए किया जाता है। ''जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती कांपती है'' (1984 के सिक्ख कत्लेआम के बाद) और ''हर क्रिया की समान व विपरीत प्रतिक्रिया होती है'' (2002 के गुजरात दंगों के दौरान), इसके दो प्रसिद्ध उदाहरण हैं। मैं पिछले करीब एक माह से इस बात से हैरान हूं कि जिन विद्वानों और लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटायें हैं उनसे यह पूछा जा रहा है कि उन्होंने यह तब क्यों नहीं किया था जब आपातकाल लगाया गया था या सिक्ख-विरोधी दंगे हुए थे या कश्मीर से पंडितों ने पलायन किया था या मुंबई ट्रेन धमाकों में सैंकड़ों मासूमों ने अपनी जानें गवाईं थीं। मुझे भौतिकी का ''क्वालिटेटिव ट्रांसफार्मेशन'' (गुणात्मक रूपांतर) का सिद्धांत याद आता है, जिसके अनुसार पानी को गर्म या ठण्डा करने पर तापमान में बिना कोई परिवर्तन के पानी या तो भाप बन जाता है या बर्फ।

जब डाक्टर दाभोलकर, कामरेड पंसारे और फिर प्रो. कलबुर्गी की हत्याएं हुईं तभी से खतरे के संकेत मिलने लगे थे। परंतु गौमांस के मुद्दे को लेकर मोहम्मद अखलाक की पीट-पीटकर हत्या ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि हमारा समाज एकदम बदल गया है। इसके बाद साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटाने का क्रम शुरू हुआ। राष्ट्रीय और राज्य स्तर के पुरस्कार लौटाए गए। यह समाज में बढ़ती असहिष्णुता के प्रति विरोध का प्रदर्शन था। इसी दौरान और इसके बाद, उतनी ही भयावह घटनाएं हुईं। एक ट्रक चालक को इस संदेह में मार डाला गया कि वह वध के लिए गायों को ढो रहा था। भाजपा विधायकों ने कश्मीर विधानसभा में एक विधायक की पिटाई लगाई और देश के कई हिस्सों में गौमांस खाने के मुद्दे को लेकर मुसलमानों पर हमले हुए। आज हमारे देश में हालात ऐसे हो गए हैं कि कोई भी व्यक्ति यदि मटन या कोई और मांस देखकर यह कह भर दे कि यह गौमांस है, तो हिंसा शुरू हो जाएगी। देश में ऐसा माहौल बन गया है कि अगर कोई गाय हमारे बगीचे में घुसकर पौधों को चरने भी लगे तो उसे भगाने में हमें डर लगेगा।

वातावरण में ज़हर घुलने से सामाजिक सोच में भी बदलाव आया है। अल्पसंख्यकों में असुरक्षा के भाव में तेज़ी से बढोत्तरी हुई है। हम सब जानते हैं कि एनडीए के शासन में आने के बाद से, ज़हर उगलने वाले अति-सक्रिय हो गए हैं। हर एक अकबरूद्दीन ओवैसी के पीछे दर्जनों साक्षी महाराज, साध्वियां और योगी हैं। इन भगवा वस्त्रधारी, हिंदू राष्ट्रवादियों की सेना को संघ परिवार में उच्च स्थान प्राप्त है। प्रधानमंत्री ने स्वयं हिंदू युवकों का आह्वान किया है कि वे महाराणा प्रताप के रास्ते पर चलते हुए गौमाता के सम्मान की रक्षा करें। पिछले लगभग एक वर्ष में हरामज़ादे जैसे शब्दों का सार्वजनिक मंचों से इस्तेमाल आम हो गया है। केवल संदेह के आधार पर पुणे के एक आईटी कर्मचारी को मौत के घाट उतार दिया गया, चर्चों पर हुए श्रृंखलाबद्ध हमलों को चोरियां बताया गया, लवजिहाद के भूत को जिंदा रखा गया और उत्तरप्रदेश के शीर्ष भाजपा नेता योगी आदित्यनाथ ने कहा कि अगर एक हिंदू लड़की, किसी मुसलमान से शादी करती है तो उसके बदले हिंदुओं को सौ मुसलमान लड़कियों को पकड़ कर ले आना चाहिए। मुस्लिम युवकों के नवरात्रि पर होने वाले गरबा उत्सवों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। भाजपा के मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी ने फरमाया कि जो लोग गौमांस खाना चाहते हैं वे पाकिस्तान चले जाएं। महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन और जोरशोर से शुरू हो गया और उसके मंदिर बनाए जाने के प्रस्ताव सामने आने लगे। केरल के एक भाजपा सांसद ने कहा कि गोडसे ने काम तो ठीक किया था परंतु उसने गलत व्यक्ति को अपना निशाना बनाया। पिछले एक वर्ष में साम्प्रदायिक हिंसा में भी तेजी से वृद्धि हुई।

पुरस्कार लौटाने का सिलसिला शुरू होने के बाद, भाजपा के नेतृत्व ने उन कारणों पर ध्यान देने की बजाए, जिनके चलते पुरस्कार लौटाए जा रहे थे, संबंधित लेखकों व विद्वानों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश शुरू कर दी। इन लेखकों का मज़ाक बनाने के लिए ''बुद्धि शुद्धि पूजा'' के आयोजन हुए और भाजपा के प्रवक्ता टीवी कार्यक्रमों में उन्हें अपमानित करने और उनका मज़ाक उड़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री, जो कि एक पुराने आरएसएस प्रचारक हैं, ने कहा कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं परंतु उन्हें गौमांस खाना बंद करना होगा। ऐसा बताया जाता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इन नेताओं को बुलाकर डांट पिलाई। परंतु यह सब नाटक प्रतीत होता है क्योंकि इन नेताओं ने यह दावा किया कि वे अपने अध्यक्ष से किसी और काम के संबंध में मिलने आए थे और इनमें से किसी ने भी न तो अपने कथनों पर खेद व्यक्त किया और ना ही माफी मांगी।

इस घटनाक्रम से व्यथित राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तीन मौकों पर राष्ट्र का आह्वान किया कि बहुवाद, सहिष्णुता और हमारे देश की सभ्यता के मूल्यों की रक्षा की जानी चाहिए। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सरकार को याद दिलाया कि नागरिकों के ''जीवन के अधिकार'' की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। बदलते हुए सामाजिक वातावरण पर देश के दो प्रतिष्ठित नागरिकों की टिप्पणियां काबिले-गौर हैं। जूलियो रिबेरो ने अपने दर्द को बयां करते हुए कहा कि ''मैं ईसाई हूं और मैं अचानक मेरे अपने देश में अपने आपको अजनबी पा रहा हूं''। जानेमाने कलाकार नसीरूद्दीन शाह ने कहा कि ''मैं अब तक अपनी मुसलमान बतौर पहचान से वाकिफ ही नहीं था''।

ये सामान्य दौर नहीं है। बहुवाद और सहिष्णुता के मूल्यों को हाशिए पर धकेला जा रहा है। इस सरकार के राज में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों ने अपने पंख फैला दिए हैं और वे कुछ भी करने पर उतारू हैं। अब साम्प्रदायिकता का मतलब केवल दंगों में कुछ लोगों की हत्या नहीं रह गया है। उसका बहुत विस्तार हो गया है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में मिथक प्रचारित किए जा रहे हैं। ऐतिहासिक घटनाओं और वर्तमान समाज के चुनिंदा पहलुओं की मानव-विरोधी व्याख्याएं की जा रही हैं। इनका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा फैलाने के लिए किया जा रहा है और दंगे भड़काए जा रहे हैं। हिंसा बड़े पैमाने पर हो सकती है, जैसी कि गुजरात, मुंबई, भागलपुर या मुजफ्फरनगर में हुई या फिर जैसा कि दादरी में हुआ-किसी एक व्यक्ति को चुनकर उसकी जान ली सकती है। इससे समाज बंटता है और धीरे-धीरे ध्रुवीकृत होता जाता है। यही ध्रुवीकरण उस पार्टी की सत्ता पाने में मदद करता है जो धर्म के नाम पर राष्ट्र का निर्माण करना चाहती है। येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में कहा गया है कि साम्प्रदायिक हिंसा से भाजपा को चुनावों में फायदा होता है।

भारत में सांप्रदायिकता के बीज करीब डेढ़ शताब्दी पूर्व बोए गए थे। अंग्रेज़ों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने के लिए इतिहास के साम्प्रदायिक लेखन का इस्तेमाल किया। इतिहास की इसी व्याख्या को साम्प्रदायिक संगठनों ने अपना लिया और उसे हिंदू-विरोधी या मुस्लिम-विरोधी जामा पहना दिया। हिंसा की हर घटना के बाद इन संगठनों की ताकत में इजाफा होता है। साम्प्रदायिकता अपने चरम पर है। मंदिर तोड़ने से लेकर लवजिहाद और उससे लेकर गौमांस का इस्तेमाल घृणा को और गहरा करने के लिए किया जा रहा है। जो लोग यह सब कर रहे हैं, वे जानते हैं कि वे सुरक्षित हैं क्योंकि वे ठीक वही कर रहे हैं जो वर्तमान सरकार चाहती है-फिर चाहे सरकार के नुमांइदे सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहें।

एक ओर हिंदू राष्ट्रवाद सरकार का पथप्रदर्शक बना हुआ है तो दूसरी ओर इसी विचारधारा में विश्वास रखने वाले ''कट्टरपंथी'' तत्व हैं। इन दोनों का विस्तृत जाल है और उनकी पहुंच हर जगह तक है। सत्ताधारी पार्टी को लाभ यह है कि उसे अपने हाथ गंदे नहीं करने पड़ रहे हैं और विभिन्न संगठन व व्यक्ति उसके एजेण्डे को स्थानीय स्तर पर लागू कर रहे हैं। इन ''कट्टरपंथी'' तत्वों के देश की राजनीति के रंगमंच के केंद्र में आ जाने से स्थिति में ''गुणात्मक'' परिवर्तन आया है। पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला, समाज के अति-साम्प्रदायिकीकरण का नतीजा है। असहिष्णुता तेजी से बढ़ रही है, बहुवाद पर हमला हो रहा है और अल्पसंख्यक भयभीत हैं। सवाल यह है कि हम इस दौर में भारतीय संविधान के मूल्यों की रक्षा कैसे करेंगे?



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