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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, April 25, 2016

भावनात्मक मुद्दों का ज्वार राष्ट्रद्रोह के बाद ‘भारत माता की जय‘ -राम पुनियानी


26 मार्च, 2016

भावनात्मक मुद्दों का ज्वार

राष्ट्रद्रोह के बाद 'भारत माता की जय'

-राम पुनियानी


इन दिनों, यदि आपको यह साबित करना हो कि आप राष्ट्रवादी हैं तो आपको 'भारत माता की जय' कहना होगा। इससे पहले, वर्तमान सरकार से असहमत सभी लोगों को 'राष्ट्रद्रोही' बताने का दौर चल रहा था। ये दोनों मुद्दे हाल में उछाले गए हैं और जो लोग इन्हें उछाल रहे हैं, उनका उद्देश्य, राज्य द्वारा विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर किए जा रहे हमले पर पर्दा डालना है। सरकार न केवल प्रजातांत्रिक मूल्यों को रौंद रही है वरन चुनावी वादों को पूरा करने में अपनी असफलता से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश भी कर रही है। ये दोनों मुद्दे उन भावनात्मक मुद्दों की लंबी सूची में जुड़ गए हैं, जिन्हें गढ़ने में सांप्रदायिक ताकतें सिद्धहस्त हैं।

इस मुद्दे को सबसे पहले उठाया आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने। उन्होंने मार्च 2016 की शुरूआत में कहा कि ''अब समय आ गया है कि हमें नई पीढ़ी को यह बताना होगा कि वह भारत माता की जय के नारे लगाए''। इसके बाद, हैदराबाद के सांसद और एमआईएम नेता असादुद्दीन ओवैसी ने बिना किसी के पूछे यह कहा कि वे यह नारा नहीं लगाएंगे। उन्होंने कहा कि उन्हें जय हिंद या जय हिंदुस्तान कहने में कोई आपत्ति नहीं है। जाहिर है, यह बयान भागवत और उनके समर्थकों को भड़काने का प्रयास था।

मुसलमानों के कुछ पंथ यह मानते हैं कि वंदे मातरम या भारत माता की जय कहने का अर्थ, किसी देवी के आगे सर झुकाना है जो कि, उनकी दृष्टि में, इस्लाम के विरूद्ध है। अतः, कुछ मुसलमान ये दोनों नारे लगाने से इंकार करते हैं। एक तरह से भारत माता की जय, ''वंदे मातरम कहना होगा'' के नारे का विस्तार और दक्षिणपंथी राजनीति के आक्रामक तबकों का हुंकार है। हम सबको याद है कि मुंबई में 1992-93 के कत्लेआम के बाद, जो लोग शांति मार्चों में भाग लेते थे, उन्हें शिवसेना के कार्यकर्ताओं द्वारा वंदे मातरम का नारा लगाने पर मजबूर किया जाता था। शिवसेना का कहना था कि ''इस देश में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा''।

वंदे मातरम गीत का इतिहास काफी जटिल है। इसे बंकिमचंद्र चटर्जी ने लिखा था और बाद में उन्होंने उसे उनके  उपन्यास ''आनंदमठ'' में शामिल कर लिया। इस उपन्यास का मूल स्वर मुस्लिम-विरोधी है। यह गीत समाज के एक तबके में बहुत लोकप्रिय था परंतु मुस्लिम लीग ने इस पर कड़ी आपत्ति उठाई क्योंकि इस गीत में भारत की तुलना देवी दुर्गा से की गई है। इस्लाम एकेश्वरवादी धर्म है और वह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और ईश्वर/देवी को मान्यता नहीं देता। अन्य एकेश्वरवादी धर्मों के अनुयायियों को भी इस गीत पर आपत्ति थी। सन 1937 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 'गीत समिति', जिसके सदस्यों में पंडित जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम शामिल थे, ने जनगणमन को राष्ट्रगान के रूप में चुना और वंदे मातरम के पहले दो पदों को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के अन्य पदों, जिनमें हिंदू देवी की छवि उकेरी गई है, को राष्ट्रगीत का भाग नहीं बनाया गया।

इसी तरह, भारत माता की जय उन कई नारों में से एक था, जिनका इस्तेमाल आज़ादी के आंदोलन में लोगों को जोश दिलाने के लिए किया जाता था। ऐसे ही कुछ अन्य नारे थे जय हिंद, इंकलाब जि़ंदाबाद, हिंदुस्तान जि़ंदाबाद और अल्लाहु अकबर। विभिन्न समुदायों की इन नारों के संबंध में अलग-अलग राय है। जहां कुछ मुसलमान वंदे मातरम कहना नहीं चाहते वहीं कुछ अन्य मुसलमान, खुलकर इस नारे को लगाते हैं और इस पर एआर रहमान ने ''मां तुझे सलाम'' नामक एक सुन्दर गीत की धुन तैयार की है। यही बात भारत माता की जय के बारे में भी सही है। जावेद अख्तर ने राज्यसभा में कई बार इस नारे को लगाया और यह नारा लगाने से इंकार करने के लिए ओवैसी की कड़ी आलोचना की। अख्तर ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया कि क्या किसी को इस तरह के नारे लगाने पर मजबूर किया जाना चाहिए या यह उस व्यक्ति पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह अपना देश प्रेम अभिव्यक्त करने के लिए किन शब्दों, नारों या गीतों का इस्तेमाल करना चाहता है। इस संदर्भ में आरएसएस-भाजपा और एमआईएम-ओवैसी की जुगलबंदी सबके सामने है। ओवैसी को भागवत की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि भागवत के बयान की कोई कानूनी मान्यता नहीं थी। ओवैसी और आरएसएस-भाजपा दोनों अलग-अलग समुदायों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना चाहते हैं। इस ध्रुवीकरण से दोनों को ही लाभ होगा। दोनों एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं।

इसके पहले, अफज़ल गुरू को मौत की सजा दिए जाने के खिलाफ एक बैठक का आयोजन करने के लिए जेएनयू के विद्यार्थियों पर राष्ट्रदोही होने का आरोप लगाया गया था। इस मुद्दे के भी कई आयाम हैं और विद्यार्थी समुदाय के कई सदस्य इस बात के पक्षधर हैं कि कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत वह स्वायत्तता  दी जानी चाहिए, जिसका प्रावधान भारत सरकार और कश्मीर के तत्कालीन शासक के  बीच हुई संधि में था। जेएनयू की बैठक में कई नारे लगाए गए थे जिनमें से सबसे आपत्तिजनक नारे कुछ नकाबपोश विद्यार्थियों ने लगाए थे। जिस सीडी में कन्हैया कुमार और अन्य विद्यार्थियों को कश्मीर की आज़ादी का नारा बुलंद करते दिखाया गया है, वह बाद में नकली पाई गई। यहां दो सवाल महत्वपूर्ण हैं। पहला, कि यह पता लगाने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है कि वीडियो के साथ किसने छेड़छाड़ की और दूसरा, अब तक उन नकाबपोश विद्यार्थियों को क्यों गिरफ्तार नहीं किया गया है, जिन्होंने कश्मीर की आज़ादी का समर्थन करते हुए नारे लगाए थे। यह भी आश्चर्यजनक है कि सरकार और भाजपा व उसके साथियों ने बिना जांचपड़ताल के जेएनयू के सभी विद्यार्थियों पर राष्ट्रद्रोही का लेबल चस्पा कर दिया और जेएनयू को राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा बताया।

यह दिलचस्प  है कि जहां एक ओर सरकार से असहमत लोगों को राष्ट्रद्रोही बताया जा रहा है वहीं दूसरी ओर, भाजपा, कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाने की तैयारी में है। पीडीपी, अफज़ल गुरू को नायक और शहीद मानती है। इससे दोनों पक्षों का पाखंड उजागर होता है। यदि, जैसा कि भाजपा का कहना है, जो लोग कश्मीर की स्वायत्तता के हामी हैं और अफजल गुरू को दी गई मौत की सजा को गलत मानते हैं, वे राष्ट्रद्रोही हैं, तो फिर भाजपा राष्ट्रद्रोहियों से हाथ क्यों मिला रही है? जहां जेएनयू के विद्यार्थियों के खिलाफ संघ परिवार के सदस्य आग उगल रहे हैं वहीं यह भी सच है कि इस तरह के नारे, कश्मीर में दशकों से लगाए जा रहे हैं। मजे की बात यह है कि भाजपा की अकाली दल के साथ भी गठबंधन सरकार है, जो उस आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का समर्थक है, जिसमें सिक्खों के लिए स्वायत्त खालिस्तान राज्य के गठन की मांग की गई है। हमारे देश के उत्तर-पूर्वी इलाकों के 'भारतीय राष्ट्र'' में एकीकरण की प्रक्रिया कई उतार-चढ़ावों से गुजर रही है और वहां अब भी एक शक्तिशाली अलगाववादी आंदोलन जिंदा है। जरूरत राष्ट्रद्रोह संबंधी कानूनों के पुनरावलोकन की है ना कि अपने विरोधियों पर राष्ट्रद्रोही का लेबल चस्पा कर लोगों को भड़काने की। इस मामले में भाजपा की दोमुंही राजनीति स्पष्ट है। एक ओर वह दिल्ली में राष्ट्रद्रोह और भारत माता की जय का राग अलापती है तो दूसरी ओर देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे दलों व संगठनों से हाथ मिलाती है जो हमारे संविधान में निहित कई मूल्यों को चुनौती देते आ रहे हैं।

बात एकदम साफ है। आरएसएस-भाजपा की राजनीति भावनात्मक मुद्दों को उछालकर समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने की है। अपनी स्थापना के समय से ही आरएसएस 'राष्ट्रनिर्माण' की प्रक्रिया से दूर रहा है। जिस समय विभिन्न सामाजिक समूह राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़कर राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में हाथ बंटा रहे थे उस समय आरएसएस केवल हिन्दू समाज की बात कर रहा था और मंदिरों के ध्वंस, हिन्दू राजाओं के शौर्य और जाति व लैंगिक पदक्रम पर आधारित हिन्दू व्यवस्था की महानता के गीत गा रहा था। उसने कभी तिरंगे को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार नहीं किया और एक-एक कर गौवध, बीफ भक्षण, मुसलमानों के भारतीयकरण, राम मंदिर, घर वापिसी व लव जिहाद जैसे मुद्दे उठाए। अब, इस सूची में राष्ट्रद्रोह और भारत माता की जय भी जुड़ गए हैं।

समाज को ध्रुवीकृत करने के अतिरिक्त, इस तरह के भावनात्मक मुद्दे उछालने का एक लक्ष्य वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना भी है। रोहित वेम्यूला और कन्हैया कुमार जैसे लोगों ने देश के समक्ष उपस्थित वास्तविक चुनौतियों जैसे दलितों का दमन, किसानों की आत्महत्याएं व मोदी सरकार द्वारा जनता से विश्वासघात जैसे मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया है। भारत माता की जय, रोहित वेम्यूला की याद को मिटाने का प्रयास है।  (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

         


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