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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, April 29, 2017

दस दिगंत भूस्खलन जारी पलाश विश्वास

दस दिगंत भूस्खलन जारी

पलाश विश्वास

कामयाबी इंसान को सिरे से बदल देता है।इसलिए मैं हमेशा कामयाबी से डरता रहा हूं कि मैं सिरे से बदल न जाऊं। मुझ पर मेरे पिता का जरुरत से ज्यादा असर रहा है,जिन्हें बटोरने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही है। वे अपना काम करते करते मर गये,जोड़ा कुछ भी नहीं है।

मुझे इसलिए अपनी नाकामयाबियों पर कोई अफसोस नहीं है।

तकलीफों से जन्मजात वास्ता रहा है।इसलिए उससे भी ज्यादा परेशानी नहीं है।

अब भी डर वही है कि सिरे स न बदल जाऊं।क्योंकि जमाने में लोगों के सिरे से बदल जाने का दस्तूर है जो कामयाबी की और शायद अमन चैन की सबसे बड़ी शर्त है।

जिंदगी बड़ी होनी चाहिए।लंबी चौड़ी नहीं।हम नहीं जानते कितनी लंबी दौड़ अभी बाकी है।इस दौड़ में कहां कहां पांव फिसलने के खतरे हैं।

जिंदगी जी लेने के बाद नई जिंदगी की शुरुआत मौत के बाद होती है और मौत के बाद कितनी लंबी जिंदगी किसी को मिलती है,मेरे ख्याल से कामयाबी की असल कसौटी यही है।हमारे लिए इस कसौटी की भी कोई गुंजाइश नहीं है।

बहरहाल,1979 में पहली बार जब मैंने पहाड़ छोड़कर मैदानों के लिए नैनीताल से कूच किया था,उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। मुझे बरेली से सहारनपुर पैसेंजर पकड़कर इलाहाबाद जाना था।मेरा इरादा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डा. मानस मुकुल दास के गाइडडेंस में अंग्रेजी साहित्य में शोध करना था।

चील चक्कर पीछे छोड़ वाल्दिया खान से नीचे उतरते ही सड़क के दोनों तरफ भारी भूस्खलन होने की वजह से घंटों मूसलाधार बारिश में फंसा रहा था।

उस वक्त नैनीताल से मैं अपनी किताबें और होल्डआल में बिस्तर और झोले में पहनने के कपड़े लेकर निकला था।घर में खबर भी नहीं की थी कि मैं नैनीताल छोड़कर इलाहाबाद निकल रहा हूं।

तब मालूम न था कि नैनीताल की झील से और हिमालय की वादियों से हमेशा के लिए नाता तोड़कर निकलना हुआ है और हिमालय की गोद से नकली नदियों की तरह उल्टे पांव लौटना फिर कभी संभव नहीं होगा।यह भी सोचा नहीं था कि अपना गांव हमेशा के लिए पीछे छूट गया है और हमेशा के लिए अपने खेत खलिहान से बेदखली का विकल्प मैंने चुना है।

विश्वविद्यालय परिसर में बने रहने का ख्वाब धनबाद के कोयलांचल में ही जलकर राख हो गये।भूमिगत आग की तरह कुछ करने का जुनून जो मुझे इन चार दशकों तक देश भर में दौड़ाता रहा है,वह भी अब शायद मर गया है।

सर पर छत न होने का जो अंजाम होता है,उसमें सबसे खतरनाक बात यह है कि हम अब अपनी प्यारी किताबें सहेजकर रख नहीं सकते।

जिन किताबों को लेकर नैनीताल से चला था,वे भी मेरे साथ दौड़ती रहीं है।अब उनकी भी दौड़ खत्म है।अपने लिखे से मोहभंग दो दशक पहले ही हो गया था।उनसे काफी हद तक पीछा छुड़ा लिया है।अब बाकी बची हुई किताबों की बारी है।

डीएसबी की उन किताबों का साथ भी छूट रहा है।

किताबों से बिछुड़ना प्रिय मित्रों साथियों की मौत से भी भयानक सदमा होता है।

दरअसल नैनीताल छोड़ते वक्त मेरे दस दिगंत में जो भूस्खलन हो रहे थे,उसका सिलसिला कभी खत्म हुआ ही नहीं है।


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