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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, May 1, 2017

जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं,जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म है तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब? हरियाणा में अब मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा! पलाश विश्वास


जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं,जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म है तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब?

हरियाणा में अब मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा!

पलाश विश्वास

पहली मई को शिकागो में मजदूरों ने अपनी शहादत देकर काम के आठ घंटे का हक हासिल किया था।उन्हीं के लहू के रंग से रंगा है मजदूरों का लाल झंडा।आज जब हम भारत और बाकी दुनिया में पहली मई मानने की रस्म अदायगी कर रहे हैं, तो संगठित और असंगठित मजूरों की दुनिया में मेहनतकशों के सारे हक हकूक सिरे से लापता है। मुक्तबाजार की कारपोरेट दुनिया डिजिटल हो गयी है। कल कारखानों और उत्पादन इकाइयों में आटोमेशन हो गया है।उत्पादन में मशीनों के बाद कंप्यूटर और कंप्यूटर के बाद रोबोट का इ्स्तेमाल होने लगा है।

कारपोरेट दुनिया में सारे कामगार,सारे कर्मचारी और सारे अफसरान भी अब ठेके पर हैं।जिनके काम के घंटे तय नहीं है।कहने को भारत में 16154 कामगार संगठन हैं, जिनके करीब 92 लाख सदस्य हैं। भारत में कुल 50 करोड़ कर्मचारी व मजदूर हैं जिनमें करीब 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र के कामगार हैं।

भारत में मेहनतकशों के तमाम कानूनी हक हकूक सिरे से खत्म हो गये हैं।श्रम कानून सारे सारे खत्म हैं। वैसे भी मुक्तबाजार की अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रणाली तहस नहस है और सारा जोर सर्विस और मार्केंटिंग पर है,जहां उत्पादन होता नहीं है। जहां श्रम का कोई मूल्य नहीं है और न उसकी कोई भूमिका है।

संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में नौकरी अब ठेके पर होते हैं और ठेके में काम के घंटे तय नहीं होते।

डिजिटल कैसलैस इंडिया का मतलब भी जमीनी स्तर तक आटोमेशन है। आटोमेशन माने व्यापक पैमाने पर छंटनी। क्योंकि सरकार अब मैनेजर की भूमिका में है और मेहनतकशों,कामगारों और कर्मचारियों के हकहकूक की कोई जिम्मेदारी उसकी नहीं है।उसे देशी विदेशी पूंजी के हित में सारी चीजें मैनेज करना होता है।

ऐसे हालात में क्या मई दिवस और क्या मेहनतकशों के हकहकूक?

बहरहाल,पहली मई को दुनिया के कई देशों में श्रमिक दिवस मनाया जाता है और इस दिन देश की लगभग सभी सरकारी गैरसरकारी उत्पादन इकाइयों और कंपनियों में छुट्टी रहती है। भारत ही नहीं, दुनिया के करीब 80 देशों में इस दिन राष्‍ट्रीय छुट्टी होती है।  हालांकि इस साल हरियाणा सरकार ने लेबर डे नहीं मनाने का फैसला किया है।जहां उसी विचारधारा की सरकरा है,जिसकी सत्ता केंद्र में है।जैसे श्रमिक कानून खत्म करने की शुरआत राजस्थान से हुई,वैसे ही क्श्रमिक दिवस कत्म करने की शुरुआत हरियाणा से हो गयी है।

हरियाणा सरकार ने इस साल मजदूर दिवस नहीं मनाने का फैसला किया है। प्रदेश के श्रम राज्य मंत्री नायब सिंह सैनी ने कहा कि हमने फैसला लिया है कि 1 मई को मजदूर दिवस नहीं मनाएंगे। मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा, जो दीपावली के अगले दिन होता है। हालांकि मजदूर संगठनों ने इसका विरोध किया और उनका कहना है कि सरकार की मंशा ठीक नहीं है।

बहुत जल्द मई दिवस मनाने की रस्म अदायगी भी खत्म होने जे रही है।1991 से उदारीकरण,निजीकरण ,ग्लोबीकरण के तहत हमने जिस डिजिटल अर्थव्यवस्था को अपनाया है, उसमें तेजी से मेहनतकशों का दमन और सफाया का अभियान बिना रोक टोक चल रहा है और मेहनतकशों के वोटों से चुनी हुई सरकार और आम जनता के चुने हुए नुमाइंदों की संसदीय सहमति से आर्थिक सुधार के नाम मेहनतकशों के हक हकूक खत्म करने के लिए तमाम कानून खत्म कर दिये गये हैं या बदल दिये गये हैं।इसके साथ ही ट्रेड यूनियन आंदोलन खत्म हो गया है।

नए श्रम कानून में प्रस्तावित बदलाव के तहत अब कर्मचारियों को नौकरी से निकालना आसान होगा वहीं कर्मचारियों के लिए यूनियन बनाना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा ट्रेड यूनियन बनाने के लिए न्यूनतम 10 फीसदी या 100 कर्मचारियों की जरूरत होगी। फिलहाल 7 कर्मचारी मिलकर ट्रेड यूनियन बना सकते हैं। नए कानून में तीन पुराने कानूनों को मिलाया जाएगा। नौकरी से निकाले जाने पर ज्यादा मुआवजे पर विचार किया जा रहा है। इसके साथ ही 1 साल से पुराने कर्मचारी को छंटनी के पहले 3 महीने का नोटिस देना जरूरी होगा। नया श्रम कानून इंडस्ट्रियल डिस्प्युट्स एक्ट 1947, ट्रेड यूनियंस एक्ट 1926 और इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर्स) एक्ट 1946 की जगह लेगा।

ट्रेड यूनियनें अब मैनेजमेंट का हिस्सा है,जिनका इस्तेमाल मजदूर आंदोलन को सिरे से खत्म करना है।

जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं,जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म है तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब?

1800 के दौर में (19वीं शताब्दी में) यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में मजदूरों से 14 घंटे तक काम कराया जाता था। न कोई मेडिकल लिव होती थी और न ही किसी त्योहार पर छुट्टी होती थी।इन सभी यातनाओं के खिलाफ 1 मई 1984 में अमेरिका में करीब तीन लाख मजदूर सड़कों पर उतर पड़े। इन मजदूरों की मांग थी कि अधिकतम 8 घंटे काम कराया जाए और सोने के लिए भी आठ घंटे दिए जाएं।

इसी दौरान यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी कई मजदूर आंदोलन हुए जिसके परिणाम स्वरूप काम के घंटे 8 तय किए।

गौरतलब है कि अंतराष्‍ट्रीय तौर पर मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1 मई 1886 को हुई थी। अमेरिका के मजदूर संघों ने मिलकर निश्‍चय किया कि वे 8 घंटे से ज्‍यादा काम नहीं करेंगे। जिसके लिए संगठनों ने हड़ताल किया। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेमार्केट में बम ब्लास्ट हुआ। जिससे निपटने के लिए पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी, जिसमें कई मजदूरों की मौत हो गई और 100 से ज्‍यादा लोग घायल हो गए। इसके बाद 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में ऐलान किया गया कि हेमार्केट नरसंहार में मारे गये निर्दोष लोगों की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन सभी कामगारों और श्रमिकों का अवकाश रहेगा।

तब से मजदूर आंदोलनकी निरंतरता और मजदूरों के हकहकूक की लड़ाई के बतौर मजदूर दिवास मनाया जाता रहा है।अब मजदूर जिवस तो हम मना रहे हैं लेकिन मेहनतकशों की लड़ाई सिरे से खत्म है और मजदूरों के सारे हकहकूक खत्म हैं और अब उनके रोजगार या नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं है।जो अभी काम पर हैं,उनके काम के घंटे भी तय नहीं हैं।

मई दिवस पर अपने फेसबुक वाल पर मशहूर गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के इस मंतव्य में अंधाधुंध सहरीकरण और उपभोक्ता संस्कृति के मुक्तबाजार में उत्पादन प्रणाली से बाहर इस कारपोरेट दुनिया में सर्वव्यापी असंगठित क्षेत्र में मेहनतकशों के मौजूदा हालात बयां हैः


कभी सड़क पर कपड़े की पोटली में बच्चा लटकाए सड़क बनाते मजदूर पति पत्नी से पूछियेगा कि वो पहले क्या करते थे ?

इनमें से बहुत सारे मजदूर पहले किसान थे जिन्हें हम शहरियों के विकास के लिए बाँध बनाने, हाई वे बनाने , हवाई अड्डा बनाने या अमीरों के कारखाने बनाने के लिए उजाड दिया गया .

हमने किसान को पहले मजदूर बना दिया

फिर जब ये मजदूर पूरी मजदूरी मांगता है तो हमारी ही पुलिस इन मजदूरों पर लाठी चलाती है इन्हें गोली से उड़ा देती है

आज तक कभी पुलिस को किसी अमीर को पीटते हुए देखा है कि तुम अपने मजदूरों को कानून के मुताबिक मजदूरी क्यों नहीं देते ?

आज तक श्रम विभाग के किसी अधिकारी को इस बात पर सज़ा नहीं हुई कि तुमने एक भी फैक्ट्री में मजदूरों को पूरी मजदूरी दिलाने के लिए कार्यवाही क्यों नहीं करी ?

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है कि अगर कोई भी मजदूर कम मजदूरी पर काम करता है उसे बंधुआ मजदूर माना जायेगा ၊

अब ज़रा राष्ट्र की राजधानी में ही सीक्योर्टी गार्ड की नौकरी करने वाले से पूछियेगा कि उसकी ड्यूटी आठ घंटे की है या बारह घंटे की ?

आठ घंटे के काम के लिए मजदूरों नें लंबा संघर्ष किया था ၊

दिल्ली की हर फैक्ट्री में मजदूरों से बारह बारह घंटे काम करवाया जा रहा है , खुद जाकर देख लीजिए ၊

लेकिन यह सब देखना सरकार की प्राथमिकता ही नहीं है ၊

सभी पार्टियां इस मामले में एक जैसी साबित हुई हैं ၊

आप मानते हैं कि देश में सब ठीक ठाक चल रहा है ၊

हमें इसी बात की चिंता है कि इतना अन्याय होते हुए भी सब कुछ ठीक ठाक क्यों चल रहा है ?

हमारी चिंता अशांती नहीं है ၊

हमारी चिंता शांती है ၊

अन्याय के रहते शांती बेमानी और नाकाबिले बर्दाश्त है ၊


संतोष खरे ने समयांतर में प्रस्तावित श्रम कानून सुधारों के बारे में जो लिखा है,गौरतलब हैः

केंद्र सरकार ने कुछ श्रम कानूनों में संशोधन के प्रस्ताव को वेबसाइट पर डालकर उसके संबंध में 30 दिनों के अंदर लोगों की राय आमंत्रित की है। सरकार ने यह संशोधन 'श्रम सुधार' के नाम से करने का दावा किया है, पर इसके अवलोकन से कोई भी सामान्य बुद्धि-विवेक वाला व्यक्ति समझ सकता है कि सरकार 'श्रम सुधार' के नाम पर वास्तव में कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाना चाहती है।

सरकार ने जिन श्रम कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव किया है वे ऐसे कानून हैं जिनके अंर्तगत् श्रमिक पिछले 6 दशकों से भी अधिक समय से अपने नियोजन से संबंधित सुविधाएं और लाभ प्राप्त करते चले आ रहे हैं। पर वर्तमान भाजपा सरकार (सॉरी- नरेंद्र मोदी सरकार) की केंद्र में सत्ता स्थापित होते ही उनका श्रम मंत्रालय श्रमिक विरोधी कानून लागू करने के लिए प्रयासरत है। कारखाना अधिनियम, 1948 के प्रस्तावित संशोधनों को देखें तो वर्तमान कानून के अनुसार सामान्यतया किसी भी व्यस्क श्रमिक से एक दिन में 9 घंटों से अधिक अवधि तक काम नहीं कराया जा सकता तथा इस अवधि में भी 5 घंटों के बाद आधे घंटे का विश्राम दिया जाना आवश्यक है। यदि वह 9 घंटों से अधिक की अवधि तक कार्य करता है तो वह ऐसी बढ़ी हुई अवधि हेतु सामान्य वेतन की दर का दोगुना वेतन पाने का अधिकारी होगा। किंतु उसके कार्य की अवधि जिसमें ओवर टाइम भी सम्मलित है एक सप्ताह में 60 घंटों से अधिक नहीं होगी तथापि आवश्यक कारणों से यह अवधि मुख्य कारखाना निरीक्षक की अनुमति से ओवर टाइम की अवधि एक तिमाही में 75 घंटों तक बढ़ाई जा सकेगी। पर सरकार इस अधिनियम की धारा 64 में संशोधन कर इस अवधि को बढ़ाना चाहती है। तर्क किया जा सकता है कि ओवर टाइम की अवधि बढ़ने से श्रमिकों को अधिक आर्थिक लाभ होगा और संभव है तब श्रमिक आर्थिक लाभ के लिए अधिक समय तक ओवर टाइम करना चाहे पर क्या इस तरह अधिक ओवर टाइम करने से उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा? 1948 के कानून में कानून निर्माताओं ने इन्हीं तथ्यों पर विचार कर सीमित ओवर टाइम के प्रावधान किए थे, पर अब 2014 में मजदूरों के स्वास्थ्य की कीमत पर इस तरह के कथित श्रम सुधार करना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। सोचने की बात है कि कहां वर्तमान में एक तिमाही में ओवर टाइम की अधिकतम अवधि 50 घंटे है जिसे सरकार 100 घंटे करना चाहती है। इसका एक परिणाम यह भी होगा कि कम से कम श्रमिकों से अधिक से अधिक कार्य कराया जा सके।

एक और संशोधन यह प्रस्तावित है कि सरकार एक दिन में कार्य के घंटों की अवधि राजपत्र में अधिसूचना जारी कर 12 घंटों तक बढ़ा सकती है। बड़े उद्योग घरानों के लिए यह कठिन नहीं होगा कि वे सरकार से दुरभि संधि कर ऐसी अधिसूचना जारी न करवा लेंगे।

अभी तक कारखानों में महिला श्रमिकों एवं किशोर को जोखिम भरे काम पर नहीं लगाया जा सकता पर अब संशोधन के द्वारा यह प्रावधान करने का प्रस्ताव किया गया है कि केवल किसी गर्भवती महिला अथवा विकलांग व्यक्ति को जोखिम भरे काम पर नहीं लगाया जाए। इसका सीधा अर्थ यह है कि सरकार का इरादा महिलाओं एवं किशोर श्रमिकों को भी जोखिम भरे कार्यों में लगाने का है। इसी तरह का प्रस्ताव ट्रांसमिशन मशीनरी या मुख्य मूवर को साफ करने, तेल डालने या उसे एडजस्ट करने जैसे कार्यों के लिए भी है।

केंद्र सरकार के द्वारा न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के प्रावधानों में भी संशोधन किए जाने का प्रस्ताव किया गया है। अभी तक इस अधिनियम के अनुसार सरकार अनुसूचित उद्योगों में शासकीय राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित कर श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण करती है और आवश्यकतानुसार समय-समय पर जो सामान्यतया प्रत्येक पांच वर्ष के अंदर का समय होता है उसका पुनरीक्षण किया जाता है। इसके अलावा प्राइस इंडेक्स में होने वाली वृद्धि के अनुसार भी हर छमाही पर महंगाई भत्ते की दरों का पुनरीक्षण किया जाता है। किंतु बड़े औद्योगिक घराने सरकार के द्वारा निर्धारित की जाने वाली न्यूनतम वेतन की दरों से संभवत: कठिनाई का अनुभव करते हैं और वे इस कानून में ऐसा संशोधन चाहते हैं जिसमें न्यूनतम वेतन दिए जाने की मजबूरी न हो बल्कि वे स्वयं यह निर्णय करें कि उनके संस्थान में वेतन की दरे क्या होगी? यदि इस तरह का कोई संशोधन किया जाता है तो अनुसूचित उद्योगों के बड़ी संख्या के श्रमिकों के वेतन की दरों में कमी हो जाएगी। इस प्रकार यह संशोधन श्रमिकों का सीधा शोषण होगा।

इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि वर्ष 2004 में गुजरात में औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों में लचीलापन किया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि वहां के नियोजकों को यह छूट प्राप्त हो गई कि वे सरकार से बिना अनुमति लिए किसी भी श्रमिक को एक माह का नोटिस देकर काम से निकाल सकते हैं। अभी हाल में राजस्थान मंत्रिमंडल ने भी औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, कारखाना अधिनियम, 1948 तथा संविदा श्रमिक (विनियमन एवं उन्मूलन)  अधिनियम, 1970 में ऐसे संशोधन किए हैं जो श्रमिकों के हितो के विपरीत हैं। इस राज्य सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम के अध्याय-5 में संशोधन किया है। अभी तक यह व्यवस्था थी कि जिन संस्थानों में 100 या 100 से अधिक श्रमिक कार्यरत हैं ऐसे संस्थान को बंद करने के लिए सरकार से अनुमति लेना आवश्यक होता था। अब राजस्थान सरकार ने श्रमिकों की संख्या सौ से बढ़ाकर तीन सौ कर दी है और इस प्रकार बड़ी संख्या के संस्थान जहां तीन सौ से कम कर्मचारी काम करते हैं वहां उन्हें काम से हटाना आसान हो गया है। इसके साथ ऐसे संस्थानों के नियोजकों को छंटनी, ले-ऑफ तथा क्लोजर घोषित करने में भी आसानी हो जाएगी क्योंकि अब उन्हें सरकार से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी। इसके अलावा राजस्थान सरकार ने औद्योगिक विवाद उठाने के लिए तीन वर्ष की अवधि की समय सीमा निश्चित कर दी है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में ऐसे औद्योगिक विवादों के लिए जो शासन के द्वारा संदर्भित न किए गए हों 3 वर्ष की अवधि निर्धारित की थी जबकि अभी तक ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी। राजस्थान सरकार ने ट्रेड यूनियन एक्ट के अंर्तगत प्रतिनिधि यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए श्रमिकों के प्रतिशत को 15 से बढ़ाकर 35 कर दिया है। इसी प्रकार ठेका श्रमिकों का अधिनियम जो ऐसे संस्थानों पर लागू होता था जहां कम से कम 20 मजदूर कार्य करते हैं जिसे राजस्थान सरकार ने उनकी संख्या बढ़ाकर 50 कर दी है। इसी तरह इस सरकार ने कारखाना अधिनियम में इसे लागू होने की श्रमिकों की संख्या की सीमा को बढ़ा दिया है जिसका परिणाम यह होगा कि बड़ी संख्या में श्रमिक इस अधिनियम के अंर्तगत प्राप्त होने वाली सुरक्षा की सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे। यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि राजस्थान सरकार ने उपरोक्त संशोधन केंद्र सरकार के इशारे पर ही किया होगा।

केंद्र सरकार का इरादा वेबसाइट पर डाले गए प्रस्तावित संशोधनों में साफ झलकता है कि वह इन संशोधनों के माध्यम से पूंजीपति वर्ग को लाभ देना चाहती है ताकि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने संस्थान स्थापित कर मनमाने ढ़ंग से चला सकें और इस देश के अब तक के श्रमिक कानूनों में जो सुविधाएं और लाभ श्रमिकों को प्राप्त होते थे उन्हें वंचित किया जा सके। संभवत: इसीलिए संस्थानों के नियमित कार्यों को ठेका श्रमिकों से कराने, ट्रेड यूनियनों को कमजोर करने, श्रमिकों को सेवा से पृथक करने और छंटनी, ले-ऑफ, क्लोजर जैसी प्रक्रियाओं को आसान बनाने जैसे संशोधन करने का प्रयास किया जा रहा है। बिडंबना यह है कि इन श्रमिक विरोधी संशोधनों को श्रम सुधारों के नाम पर किया जा रहा है। विभिन्न श्रम संगठनों और मीडिया में प्रस्तावित सुधारों का जमकर विरोध और आपत्तियां की गई हैं।(साभार समयांतर)


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