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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, May 25, 2017

सरहदों पर,सरहदों के भीतर युद्ध,वतन सेना के हवाले! यह युद्ध किसलिए,किसके लिए और इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग कौन हैं? यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है। यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है,उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले

सरहदों पर,सरहदों के भीतर युद्ध,वतन सेना के हवाले!

यह युद्ध किसलिए,किसके लिए और इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग कौन हैं?

यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है।

यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है,उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले हैं,कहना मुश्किल है।बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण से यूपी जैसा हाल है बहरहाल।

सेना को रक्षा मंत्री का खुला लाइसेंसःयुद्ध जैसे क्षैत्र में आप हों तो स्थिति से कैसे निपटें!

युद्ध क्षेत्र के बहाने क्या भारत सरकार अब पूरे वतन को सेना के हवाले करने और आम जनता के कत्लेआम करने की छूट देने जा रही है,राष्ट्रभक्त जनगण इस पर जरुर विचार करें,क्योंकि विमर्श और विचार के एकाधिकार उन्हींके हैं।

पलाश विश्वास

हमारे समय के सशक्त संवेदनशील प्रतिनिधि कवि मंगलेश डबराल ने अपनी दीवाल पर  लिखा हैैः

जैसे हालात बन रहे हैं, वे हमें कभी भी किसी युद्ध की ओर ले जा सकते हैं. यह बेहद गंभीर खतरा पैदा होने जा रहा है जो दोनों तरफ तबाही और त्रासदी लायेगा. इस बारे में हम जितनी जल्दी चेत जाएँ, उतना बेहतर होगा.किसी भी सरकार को अपने देश और उसके नागरिकों पर युद्ध थोपने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए..

मंगलेश दा का यह बयान बेहद गौरतलब है।

इसी के साथ यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है, उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले हैं, कहना मुश्किल है। बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण से यूपी जैसा हाल है बहरहाल।

गौर करें कि रक्षा मंत्री अरुण जेटली जो संयोग से देश के सर्वोच्च वित्तीय प्रबंधक हैं,ने क्या कहा है।गौरतलब है कि केंद्रीय रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सेना युद्ध जैसे क्षेत्रों में फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है। इसके लिए उन्हें सांसदों से विचार विमर्श की आवश्यकता नहीं है। जेटली ने यह बात कश्मीर में युवक को जीप से बांधने को लेकर जारी विवाद पर बोलते हुए कही।

किसी रक्षा मंत्री को सांसदोंं के खिलाफ ,संसद के खिलाफ यह वक्तव्य शायद लोकतंत्र के इतिहास में बेनजीर है कि रक्षामंत्री जेटली ने कहा कि सैन्य समाधान, सैन्य अधिकारी ही मुहैया करवाते हैं। युद्ध जैसे क्षैत्र में आप हों तो स्थिति से कैसे निपटे, हमें अधिकारियों को निर्णय लेने की अनुपति देनी चाहिए। जेटली आगे बोले कि उन्हें सांसदों से विचार विमर्श की आवश्यकता नहीं है ऐसी स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए।

माननीय वित्तमंत्री को अच्छी तरह मालूम है कि कमसकम यूपी और बंगाल में भी हालात तेजी से कश्मीर के युद्ध क्षेत्र से बनते जा रहे हैं।

असम,त्रिपुरा और पूर्वोत्रर में वहीं हाल है और आदिवासी भूगोल को तो भारत सरकार और भारतीय संसदीय व्यवस्था युद्धक्षेत्र मानती ही है।

युद्ध क्षेत्र के बहाने क्या भारत सरकार अब पूरे वतन को सेना के हवाले करने और आम जनता के कत्लेआम करने की छूट देने जा रही है,राष्ट्रभक्त जनगण इस पर जरुर विचार करें,क्योंकि विमर्श और विचार के एकाधिकार उन्हींके हैं।

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के भूगोल से बाहर होने के बावजूद भारत उस युद्ध से लहूलुहान होता रहा है क्योंकि तब भारत ब्रिटिश हुकूमत का एक गुलाम उपनिवेश था और चूंकि ब्रिटेन इस युद्ध में प्रबल पक्ष रहा है तो उसने भारतीय जनता और उसके खंडित नेतृत्व से पूछे बिना भारत को उस युद्ध में शामिल कर लिया। साम्राज्यवादी हित में भारतीय जवानों ने अजनबी जमीन और आसमान के दरम्यान अपने प्राणों की आहुति दे दी.जबकि इस युद्ध में भारतीय हित कहीं भी दांव पर नहीं थे।भारत तब न स्वतंत्र था और न संप्रभु था।पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटिश पक्ष के साथ भारत नत्थी था, लेकिन उसे न भारतीय राष्ट्रीयता, न राष्ट्रवाद, न धर्म, न राजनीति, न समाज और नही देशभक्ति का कोई लेना देना था।

इसके उलट अमेरिका स्वतंत्र संप्रभु महाशक्ति है और दुनियाभर के युद्ध गृहयुद्ध में अमेरिकी हित जुड़े हुए हैं।अमेरिकी सेनाएं,अमेरिकी युद्ध तंत्र जमीन के हर चप्पे पर तैनात है और अंतरिक्ष के अनंत में,समुदंरों की गहराई में भी उसके युद्धतंत्र का विस्तार है।अमेरिका में राष्ट्रपति प्रणाली है और अमेरिकी राष्ट्रपति के आदेश से ही अमेरिका दुनियाभर में कहीं भी युद्ध और गृहयुद्ध की शुरुआत कर सकता है।

लातिन अमेरिका से लेकर वियतनाम,वियतनाम से लेकर ईरान इराक अफगानिस्तान,अरब वसंत और सीरिया तक हम अमेरिका का यह युद्ध न सिर्फ देख रहे हैं,बल्कि हम उस युद्ध में सक्रिय पार्टनर हैं आतंक के विरुद्ध युद्ध के नाम,जिससे हमारी राजनीति,राजनय और अर्थव्यवस्था जुड़ा हुई है।

विश्वव्यापी अमेरिकी युद्ध अब भारतीय उपमहाद्वीप का युद्ध है।

युद्ध और गृहयुद्ध की आंच में हम पल पल झुलस रहे हैं।

हम जख्मी हो रहे हैं और हमारे लोग हर पल मारे जा रहे हैं।

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हम न आजाद थे और न संप्रभु।

जबकि हम 15 अगस्त सन् 1947 से स्वतंत्र और संप्रभु हैं।तब भी हम युद्ध के फैसले पर कुछ कहने को आजाद नहीं थे और आज भी हम इसके लिए आजाद नहीं है।इसके साथ ही युद्ध अब सत्ता की राजनीति है तो बहुसंख्यक का धर्मोन्माद भी है और युद्ध कारपोरेट हितों का मुक्तबाजार है।युद्ध का विनिवेश भी है और निजीकरण भी।युद्ध के इस राजधर्म के राजसूय यज्ञ के बेलगाम घोड़े ,सांढ़ और बालू जनपदों को रौंदने को आजाद हैं और निरंकुश जनसंहार ही राष्ट्रवाद की नई संस्कृति है,जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति स्त्रियों, मेहनतकशों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, शरणार्थियों के खिलाफ हो रही है।

यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है।

फिर भी हम अमेरिका के युद्ध में स्वेच्छा से शामिल हैं, जिस अमेरिकी युद्ध का सबसे प्रबल विरोध अमेरिका में साठ के दशक में कैनेडी समय से लेकर अब तक जारी है।भारत में युद्ध के खिलाफ न कोई आंदोलन है और न कोई विमर्श है।

अमन चैन, भाईचारा,समता ,न्याय,संविधान,नागरिक और मानवाधिकार की बातं करना जहां राष्ट्रद्रोह है, वहां राष्ट्रवादी मजहबी सियासती युद्ध और युद्धोन्माद पर किसी तरह के संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।

भारतीय सेना के महान सेना नायकों ने 1962 के भारत चीन युद्ध से लेकर 1971 के बांग्लादेश युद्ध पर काफी कुछ लिखा है।

फिरभी समाज में,राजनीति में,लोकतंत्र में,मीडिया और साहित्य में भी हमने आजादी के बाद के युद्धों का सच जानने की कोशिश नहीं की है।हमने इन युद्धों के कारणों की तो रही दूर,उसके खतरनाक नतीजों पर भी कभी गौर नहीं किया है जैसे कि हम गुलाम देश में पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के नतीजे से भुखमरी,मंदी और बेरोजगारी को सीधे जोड़ पा रहे थे।

साठ के दशक में भारत की जनसंख्या परिवार नियोजन के बिना घर घर बच्चों की फौज के बावजूद आज के मुकाबले आधी थी।तब भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी और देश में तमाम काम धंधे कृषि से जुड़े थे। तब ज्यादातर जनता निरक्षर थी। देहात और जनपदों में स्थानीय रोजगार थे। उसी दौर में हरित क्रांति की वजह से खेती की उपज बढ़ जाने की वजह से साठ के दशक की बेरोजगारी और भूख के जबाव में शुरु हुए जनांदोलनों और जनविद्रोहों का जैसे सत्ता वर्ग के हितों और राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर कोई खास असर नहीं हुआ,उसी तरह भारत चीन युद्ध का भी कोई खास असर नहीं हुआ।

1965 और 1971 की लड़ाइयों के दौरान रक्षा खर्च अंधाधुंध बढ़ जाने,हथियारों की अंधी दौड़ शुरु हो जाने और हरित क्रांति की वजह से आम किसानों की बदहाली से कृषि संकट गहरा जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था में जो भारी उलटफेर हुए,इन दोनों युद्धों को जीत लेने के जोश में उनके नतीजों पर गौर किया ही नहीं गया।सीमापार से शरणार्थी सैलाब का जो अटूट सिलसिला शुरु हुआ,उसका भी राष्ट्रवाद के नाम नाजायज फायदा उठाया जाने लगा।

साठ के दशक के मोहभंग,जनांदोलनों और जनविद्रोहों के बावजूद गहराते हुए कृषि संकट और हरित क्रांति के नतीजों पर गौर नहीं किया गया।जिसके नतीजतन अस्सी के दशक में पंजाब से लेकर असम,त्रिपुरा और समूचे पूर्वोत्तर में अशांत युद्ध क्षेत्र बन गये।

इसी दौरान औद्योगीिकरण और शहरीकरण के बहाने प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के तहत जल जंगल जमीन से बेदखली के कारपोरेट हितों के वजह से समूचा आदिवासी भूगोल शत्रुदेश में तब्दील हो गया और तबसे लेकर आदिवासी भूगोल के खिलाफ कारपोरेट सैन्य राष्ट्र का युद्ध सरहदों के भीतर जारी है और हम अपने राष्ट्रवाद की वजह से इस युद्ध की नरसंहार संस्कृति के समर्थक बन गये हैं तो युद्ध और गृहयुद्ध के मद्देनजर हर साल अरबों का वारा न्यारा सैनिक तैयारियों,रक्षा सौदों और आंतरिक सुरक्षा के लिए देस के चप्पे पर सैन्य तैनात करने की कवायद में होने लगा है।

इन युद्धों के कारपोरेट और राजनीतिक हितों पर हमने अब भी कोई सवाल ऩहीं उठाये हैं।हमने रक्षा और आंतरिक सुरक्षा क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाप विनिवेश जैसे राष्ट्रविरोधी करतब पर भी कोई सवाल नहीं किये।क्योंकि ऐसा कोई सवाल उठाते ही राष्ट्रभक्तों के युद्धोन्माद हमरा समूचे वजूद को किसी शत्रुदेश की तरह तहस नहस कर देगा।

जाहिर है कि हम लोग बेहद डरे हुए हैं और हमारी वीरता,निडरता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हमारी अंध राष्ट्रभक्ति है,जिसकी आड़ में अपनी स्वतंत्रता संप्रभुता का सौदा करके हम अपनी महीन खाल बचा लेते हैं।

हथियारों की होड़ और युद्ध गृहयुद्ध के कारोबारी और राजनीतिक हितों से लेकर रक्षा सौदों में निरंतर हुए घोटालों की हमने कोई पड़ताल नहीं की है क्योंकि हम उतने भी आजाद और संप्रभु कभी नहीं रहे हैं कि अमेरिका की तरह सत्ता और राष्ट्र की भूमिका को राष्ट्रहित और जनहित की कसौटी पर कसने की हिम्मत कर सकें या अमन चैन के लिए युद्ध और युद्धोन्माद का विरोध कर सकें।

1948 के कश्मीर युद्ध से लेकर कारगिल युद्ध तक सारे युद्दों का हम सिर्फ महिमामंडन करने को अभ्यस्त हैं क्योंकि  उनका सच जानने का हमें कोई नागरिक अधिकार नहीं है।

यह पवित्र देशभक्ति और अंध राष्ट्रवाद का मामला है।

फिर अब राष्ट्र ही सब एक मुकम्मल सैन्यतंत्र में तब्दील है और नागरिक और मानवाधिकार को हम तिलांजलि दे चुके हैं और हम बतौर वजूद किसी रोबोट की तरह सिर्फ एक नंबर हैं और सरकार कहती है कि हमारे अपने शरीर पर हमारा कोई हक नहीं है,हमारी निजता और गोपनीयता पर राष्ट्र का हक है तो जाहिर सी बात हैं कि हमारे दिलोदिमाग पर भी हमारा न कोई हक है और न उनपर हमारा कोई बस है।

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