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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, November 30, 2015

हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों साल पहले खोज लिया था सारी समस्‍याओं का समाधान : कैलाश सत्‍यार्थी


हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों साल पहले खोज लिया था सारी समस्‍याओं का समाधान : कैलाश सत्‍यार्थी

शांति के लिए नोबल पुरस्‍कार मिलने के बाद कैलाश सत्‍यार्थी की सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया बेहद कम देखने में आई है। इधर बीच उन्‍होंने हालांकि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्‍य को एक लंबा साक्षात्‍कार दिया है जो 9 नवंबर को वहां प्रकाशित हुआ है। उससे दो दिन पहले बंगलुरु प्रेस क्‍लब में उन्‍होंने समाचार एजेंसी पीटीआइ से बातचीत में कहा था कि देश में फैली असहिष्‍णुता से निपटने का एक तरीका यह है कि यहां की शिक्षा प्रणाली का ''भारतीयकरण'' कर दिया जाए। उन्‍होंने भगवत गीता को स्‍कूलों में पढ़ाए जाने की भी हिमायत की, जिसकी मांग पहले केंद्रीय मंत्री सुषमा स्‍वराज भी उठा चुकी हैं। शिक्षा के आसन्‍न भगवाकरण और देश में फैले साम्‍प्रदायिक माहौल के बीच नोबल पुरस्‍कार विजेता सत्‍यार्थी के पांचजन्‍य में छपे इस अहम साक्षात्‍कार के कुछ अंश हम यहां साभार पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। -मॉडरेटर 



कैलाश सत्‍यार्थी 



नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय आपने अपने भाषण की शुरुआत वेद मंत्रों से की थी। इसके पीछे क्या प्रेरणा थी?
शांति के नोबल पुरस्कार की घोषणा के बाद जब मुझे पता चला कि भारत की मिट्टी में जन्मे किसी भी पहले व्यक्ति को अब तक यह पुरस्कार नहीं मिल पाया है तो मैं बहुत गौरवान्वित हुआ। अपने देश और महापुरुषों के प्रति नतमस्तक भी। मैंने सोचा कि दुनिया के लोगों को शांति और सहिष्णुता का संदेश देने वाली भारतीय संस्कृति और उसके दर्शन से परिचित करवाने का यह उपयुक्त मंच हो सकता है। मैंने अपना भाषण वेद मंत्र और हिंदी से शुरू किया। बाद में मैंने उसे अंग्रेजी में लोगों को समझाया। मैंने
संगच्छध्वम् संवदध्वम् संवो मनांसि जानताम्
देवा भागम् यथापूर्वे संजानानाम् उपासते!!
का पाठ करते हुए लोगों को बताया कि इस एक मंत्र में ऐसी प्रार्थना, कामना और संकल्प निहित है जो पूरे विश्व को मनुष्य निर्मित त्रासदियों से मुक्ति दिलाने का सामर्थ्य रखती है। मैंने इस मंत्र के माध्यम से पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि संसार की आज की समस्याओं का समाधान हमारे ऋषि मुनियों ने हजारों साल पहले खोज लिया था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि मैंने विदेशों में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म पर अनेक व्याख्यान भी दिए हैं। मेरे घर में नित्य यज्ञ होता है। पत्नी सुमेधा जी ने भी गुरुकुल में ही पढ़ाई की हुई है।

विदिशा से नोबल पुरस्कार मंच तक की यात्रा में आप ने अलग-अलग सीढि़यां चढ़ीं, इस सीढ़ी में संस्कृत भाषा को आप कहां देखते हैं?
मुझे आध्यात्मिक गहराई तक ले जाने में संस्कृत का बहुत बड़ा योगदान है। बचपन से ही मुझे धार्मिक अनुष्ठानों में गहरी रुचि थी। बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र में ही मुझे रामचरितमानस कंठस्थ हो गई थी। मैं एक ही बैठकी में इसका पाठ कर लेता था। लोग मुझे इसके पाठ के लिए अपने घर बुलाते... उसके बाद मैंने उपनिषदों को पढ़ना शुरू किया। बाद में मैं आर्य समाज से जुड़ गया तो अध्यात्म में और दिलचस्पी बढ़ गई। इसके लिए मेरा संस्कृत सीखना जरूरी था। जिस भाषा में मूल रचनाएं होती हैं और जो गहरा भाव उनमें होता है, अनुवाद की भाषा में वह भाव उतनी गहराई से नहीं आ पाता। मैं तो किशोरावस्था में ही अध्यात्म में इतने गहरे उतर गया था कि 15-16 साल की उम्र में संन्यास लेना चाह रहा था।

तो फिर संन्यासी क्यों नहीं बने?
बचपन में मैं स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित था। उनको न केवल खूब पढ़ा बल्कि उनके जैसे बनने का सोचने भी लगा। मैंने पढ़ा कि उन्हें ईश्वर के दर्शन हुए थे। बस इसी से मेरे मन में संन्यास की भावना पैदा हुई। मैं संन्यास की तरफ अग्रसर हो रहा था कि इसी दौरान मेरा संपर्क आर्य समाज से हुआ। यह घटना तब की है जब मैं बीई के प्रथम वर्ष में था। आर्य समाज के द्वारा आयोजित एक भाषण प्रतियोगिता के दौरान मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे इतना प्रभावित हुआ कि इंजीनियरिंग की किताबों के साथ-साथ मैंने आर्य समाज के साहित्य को पढ़ना शुरू कर दिया। बाद में मैंने सत्यार्थ प्रकाश की हिंदी में संक्षिप्त टीका भी की। स्वामी दयानंद के जीवन ने मुझे बहुत प्रभावित किया। स्वामी दयानंद ने बताया कि समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्ति की सेवा में ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। मैंने संन्यास और मोक्ष का विचार छोड़ दिया और अपने को समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की सेवा में लगा दिया। 

आपके आदर्श कौन रहे हैं या कहें कि आप को किस से ऊर्जा मिलती है?
बचपन में तो स्वामी विवेकानंद ही थे। बाद में किशोरावस्था में मुझे लगा कि महर्षि दयानंद जी को हमारे वेदों और उपनिषदों की गहरी समझ थी। उन्होंने जिस तरह से वेदों की वैज्ञानिक व्याख्या की है, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। आजादी के नायकों और क्रांतिकारियों की जीवनियों ने ही मुझे सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरित किया। 

तो क्या आपने अपना उपनाम सत्यार्थी आर्य समाज यानी स्वामी दयानंद से प्रभावित होकर ही रखा है?
यह समाज में व्याप्त छुआछूत के खिलाफ मेरे विद्रोह की परिणति हैं। मैं बचपन से ही जाति व्यवस्था और छुआछूत का विरोधी था। किसी दोस्त ने कहा कि तुम हमेशा सामाजिक बुराइयों के खिलाफ विद्रोह करते रहते हो इसलिए उपनाम में विद्रोही जोड़ लो, तो किसी ने कहा कि हमेशा सच बोलते हो और सच के लिए लड़ते हो, इसलिए सत्यार्थी जोड़ लो। किसी ने कहा संस्कृत में कोविद हो, इसलिए कोविद लगा लो। मैं भी सत्यार्थ प्रकाश से बहुत प्रभावित था इसलिए उपनाम में सत्यार्थी ही जोड़ लिया। इस तरह से मैं कैलाश नारायण शर्मा से कैलाश सत्यार्थी बन गया।

आपने कहा कि आप आध्यात्मिक हैं और मानने में कम और जानने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। एनजीओ क्षेत्र को लेकर सवाल उठते रहते हैं। यह बताइए कि इस काम में दूध कितना है और पानी कितना? और आपने इसे कैसे जाना है?
देखिए, सत्तर और अस्सी के दशक में बाल श्रम और बच्चों के अधिकारों को लेकर कोई भी संस्था या सरकार कुछ सोचती तक नहीं थी। साल 1989 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बाल अधिकार घोषणापत्र जारी करने से पहले बच्चों के अधिकारों और सवालों को लेकर कोई आवाज तक नहीं थी। जब बाल अधिकार घोषणापत्र जारी हुआ और कई देशों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसमें भारत भी शामिल था, उसके बाद तो बच्चों के लिए काम करने वालों की बाढ़ ही आ गई। नब्बे के दशक में बाल श्रम और बाल मजदूरी के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए कई संस्थाएं खड़ी हो गईं। हालांकि इनमें से ज्यादातर संस्थाएं पहले ग्रामीण विकास, महिला सशक्तीकरण और स्वास्थ्य आदि पर काम करती थीं। इनमें कई गांधीवादी संस्थाए भी थीं। लेकिन, जब संस्थाओं को विदेशी धन और सरकारी पैसा मिलने लगा तो लोग संस्था बनाकर लाभ कमाने लगे। सरकारी अधिकारियों और नेताओं की पत्नियों व बच्चों ने भी संस्थाएं बना लीं। अब 'सोशलाइट' और 'फैशनेबल' सिविल सोसायटी भी तैयार हो गई हैं। मैंने अपने 40 साल के सार्वजनिक जीवन में सब तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। इसमें समाज में जनचेतना का ज्वार भी देखा है तो आंदोलनों में क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत युवा शक्ति का जोश भी। वैचारिक प्रदूषण फैला रहे और बुद्धि विलासिता कर रहे उन एनजीओ को भी देखा है जिन्होंने सामाजिक बदलाव और समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है। फाइव स्टार होटलों में मीटिंग और पार्टियां करने वाले और शराब, पैसे व ताकत के नशे में चूर इन लोगों को भूख और गरीबी का न तो संज्ञान है और न ही सरोकार। इनमें से अधिकांश लोग समाज के हाशिए पर खड़े जिस व्यक्ति के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा ले रहे हैं और बढि़या रपट बना रहे हैं, उस गांव के गरीब को तो उन्होंने देखा तक नहीं है। पिछले करीब दो दशकों में एनजीओ का एक वर्ग सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि करियर बनाने का जरिया बन गया है।

लोग एनजीओ को करियर, दुकानदारी और मुनाफे का माध्यम समझते हैं। मैं देखता हूं कि जो दानदात्री संस्थाए हैं उनका अपना भी एक एजेंडा है। मेरा इन संस्थाओं से हमेशा से झगड़ा रहा है। दुनिया में हर जगह भले लोग हैं और वह भले लोग चाहते हैं कि समाज का कुछ भला हो। उनके पास पैसा भी है और वे दान भी देते हैं। वह लोग जिन संस्थाओं को पैसा देते हैं उनसे कुछ उम्मीद भी नहीं करते, सिवाय इसके कि पैसा ईमानदारी से उस उद्देश्य के लिए खर्च हो जिसके लिए दिया जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ कई बड़ी संस्थाए हैं जिनके अपने एजेंडे हैं जिनकी पहचान कर पाना अब मुश्किल नहीं है, जो पहले इंटरनेट के न होने से मुश्किल था। हमारे संगठन का पूरे साल का उतना खर्च नहीं होता, जितना ऐसी किसी दानदात्री संस्था के सीईओ की सैलरी होती है। जबकि हम सैकडों बच्चों को छुड़वा रहे हैं। उन्हें पुनर्वासित करके शिक्षा दिलवा रहे हैं।

अभी आप ने जैसा बताया कि दानदात्री संस्थाओं का अपना एक एजेंडा होता है। भारत के संदर्भ में वह एजेंडा क्या हो सकता है?
देखिए, कई तरह के लोग हैं। कॉरपोरेट जगत और राजनीति के लोग भी अब अपने मकसद के लिए एनजीओ बना रहे हैं। धर्म परिवर्तन के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। एनजीओ गरीबी के नाम पर पैसा बनाने की मशीन बन रहे हैं। ऐसे में सबका अपना अलग-अलग एजेंडा है। कई संस्थाएं नक्सलवाद से प्रभावित हैं जो कहीं न कहीं हिंसा को बढ़ावा देती हैं। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। इनको पैसा उन संस्थाओं से मिलता है जो कहने को तो समाजिक विकास के लिए कार्य कर रही हैं, लेकिन असल में उनका चरित्र ऐसा है नहीं। मेरा यह निजी अनुभव है कि मोटे अनुदान, सुविधाओं और विदेशी यात्राओं का लालच देकर अंतर्राष्ट्रीय संगठन भारत के एनजीओ समुदाय को तोड़ते और एक दूसरे से लड़वाते भी है।

क्या मानवाधिकार भी ऐसा ही मुद्दा है?
नहीं। समाज कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, महिला सशक्तीकरण और पर्यावरण रक्षा के लिए उठाए गए कदम से वास्तव में मानवाधिकारों की रक्षा होती है, लेकिन मानवाधिकार की आड़ में छद्म एजेंडा बढ़ाना गलत है। 

कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाए हैं जो एजेंडे के साथ दानदात्री संस्थाओं को चला रही हैं। इसके पीछे आपको क्या ताकत नजर आती है? क्या ये अपने आप में संगठित तौर पर बहुत मजबूत हैं या पीछे से कोई और समर्थन भी मिलता है?
अब पर्दे के पीछे क्या चल रहा है, यह तो मुझे भी नहीं पता, लेकिन जहां तक हमारे संगठन का सवाल है, उसकी दिशा और काम को लेकर हम बिल्कुल स्पष्ट हैं। हमारा साफ मानना है कि किसी भी उद्योग को नुकसान पहुंचाने से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। हमारी दुश्मनी उद्योग से नहीं बल्कि उस बुराई से है, जो उस उद्योग में नहीं होनी चाहिए। इनको दूर करने के लिए संविधान, कानून और अंतरराष्ट्रीय मापदंड हैं।

 यह देश 'सेकुलर' है और जय राम जी करके आप इतने आगे आ गए?

(हंसते हुए) जी, हमने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।  मैं शुद्घ शाकाहारी हूं और शराब व मांसाहार का घोर विरोधी हूं। कभी किसी दानदात्री संस्था के व्यक्ति के लिए हमारी संस्था ने शराब और मांस की व्यवस्था नहीं की जबकि लोग कहते हैं यह तो छोटी सी बात है। आप छोटी-छोटी बातों पर क्यों अड़े रहते हैं। संस्थाएं मुद्दे उठाती रहती हैं। कई ऐसे मुद्दे भारत में भी हमारे साथी संगठनों ने उठाए लेकिन बाद में हमें पता लगा वह यह मुद्दे इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि जिनसे उन्हें पैसा मिल रहा है, वह लोग यह सब उनसे करवा रहे हैं। यानी पैसा देने वाला इस शर्त पर पैसा दे रहा है कि तुम यह सवाल उठाओगे।जब समाज की समस्याओं और उसका समाधान जनता से पूछे बगैर पैसा देने वाला निर्धारित करेगा तो फिर बदलाव कैसे आएगा? हमने कभी भी सत्य, करुणा, धर्म और कर्म का मार्ग नहीं छोड़ा मैंने  न तो कभी भारतीयता, राष्ट्रीय गौरव और अपनी महान संस्कृति के साथ समझौता किया है और न ही कभी करूंगा।

गुजरात दंगों में गैर-सरकारी संगठनों की बहुत किरकरी हुई थी। एक संगठन पर तो वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप भी लगे। जांच में पता चला कि उस संगठन को दान में जो पैसा मिला था उसमें से एक बड़ी रकम से सजने-संवरने का सामान खरीदा गया था। ऐसे कामों को आप किस तरह से देखते हैं?
देखिए, जिन मुद्दों के लिए और जिन कामों के लिए हमें लोगों से पैसा मिलता है, हमारी नैतिक जवाबदेही उन्हीं के लिए सबसे ज्यादा होनी चाहिए। जहां तक गुजरात दंगों के संबंध में कुछ गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका की बात है तो इस बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन अखबारों से पता चला है कि इस मामले की अभी न्यायिक जांच चल रही है। मैं देखता हूं कि आज गैर-सरकारी संगठनों में नैतिक जवाबदेही का बहुत अभाव है बल्कि नैतिकता की कमी दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। अगर आप किसी सामाजिक मुद्दे के साथ चल रहे हैं तो आपकी नैतिक जवाबदेही तो बनती ही है। अगर आपको बेहतर भारत और बेहतर समाज बनाना है तो यह जवाबदेही अनिवार्य है।

आपने जो बातें बताईं, वह नक्सलवाद और कन्वर्जन पर साफ दिखाई देती हैं। आपको कहीं लगता है कि सेकुलरवाद का लबादा ओढ़कर कोई एक लॉबी है जो काम कर रही है?
देखिए, हमारा जो दर्शन है वह सर्वधर्म समभाव का दर्शन है। यह दुनिया का महानतम दर्शन है। इस दर्शन में दुनिया की सभी समस्याओं का हल और सभी प्रश्नों का उत्तर है लेकिन यह दु:ख की बात है कि लोगों ने जाति, पाखंड और कर्मकांड के नाम पर उसका सत्यानाश कर दिया है। हमारा जो मूल दर्शन है वह सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर है।
अयं निज: परोवेति, गणनां लघु चेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्।

हमारा वेद तो वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करता है। हमारी संस्कृति हमारा देश इन्हीं मूल्यों पर तो खड़ा है। इन मूल्यों में किसी भी तरह की हिंसा और धोखाधड़ी का स्थान नहीं है। मैं अंहिसा में विश्वास रखता हूं। मैं चाहता हूं कि दुनिया में हर समस्या का समाधान अहिंसा से ही हो। हम जिन बातों में उलझे हुए हैं, वे बहुत ही सतही और उथली बातें हैं। हम शांति की बात करते हैं। पूरे ब्रह्मांड की शांति की बात करते हैं। हम दुनिया में शांति के लिए शांति पाठ करते हैं। ॐ द्यौ: शांति: अंतरिक्ष शांति: पृथ्वी: शांति़: आप: शांति़: - यह जो पूरा का पूरा शांति पाठ है यह दुनिया को शांति का संदेश देता है।

पूरी दुनिया में हिंसा फैली हुई है। ऐसे में विश्व शांति में आप भारत की क्या भूमिका देखते हैं।
हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने समाज में ही नहीं, जल-वायु, पेड़-पौधे, वनस्पति और औषधि तक में शांति स्थापना की बात की है। आज इतने सालों बाद समुद्र को शांत और सुरक्षित रखने की बात को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने स्वीकार किया है। भारत में एक तरफ जहां आर्थिक रूप से संपन्न राष्ट्र बनने की संभावना है, हमारे आध्यात्मिक दर्शन की जो गहराई है, उस गहराई में से वर्तमान समस्याओं का समाधान निकालकर हम दुनिया के सामने रखें। मैं दुनिया में जगह-जगह वेद मंत्रों को कई बार बोलता हूं। लोग सुनते हैं, समझते हैं और आत्मसात करने की बात करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि हमारी जो आध्यात्मिक बुनियाद है और वह जिन मूल्यों पर खड़ी है, उन मूल्यों की सही ढंग से व्याख्या, पालन और लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रचार का काम नगण्य हुआ है। कई देशों में नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा है। भारत भी उनमें से एक है। हमारे पास जो आध्यात्मिक ज्ञान है उस पर ज्यादा गर्व होना चाहिए, क्योंकि यह ज्ञान दुनिया में सिर्फ हमारे पास है। मैं संप्रदायों, मतों और पंथों को धर्म नहीं मानता। धर्म एक ही है संसार में। मनुस्मृति में कहा गया है धार्यते इति धर्म:। यानि मनुष्य के लिए धारण करने वाले जो गुण होते हैं वही धर्म हैं। मनुस्मृति में ही इसकी व्याख्या है-
धृति: क्षमा दमोस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रह।
धीर्विद्या सत्यमक्रोध:, दशैकं धर्म लक्षणं।
क्षमा, सत्य, अक्रोध, करुणा, आत्म नियंत्रण आदि दस मानवीय गुणों का जो पालन करता है वही धार्मिक है। इसके अलावा कोई धर्म नहीं है।

आपने कहा कि बच्चों के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के बाद बहुत सारी गांधीवादी संस्थाएं चोला बदलकर बच्चों के काम में लग गईं। आपको लगता है कि गांधी जी के मूल विचार और उनके नाम पर जो देश में चल रहा है, उसमें बहुत बडा फर्क है?
लोहियाजी कहते थे कि तीन तरह के गांधीवादी होते हैं। एक सरकारी गांधीवादी जो सत्ता में बैठ गए हैं। दूसरे मठी गांधीवादी जो इस तरह की संस्थाएं चला रहे हैं और तीसरे कुजात गांधीवादी। लोहियाजी खुद की तुलना करते हुए कहते थे कि वे गांधीवादी तो हैं लेकिन कुजात गांधीवादी। मुझे लोहिया जी की इन बातों ने बहुत प्रभावित किया। लोगों का मानना है कि कैलाशजी पर गांधीवाद का प्रभाव है। मैं यह मानता हूं कि गांधी जी ने एक महान काम किया जो कोई भी नहीं कर पाया। मेरा मानना है कि दुनिया में जितने भी क्रांतिकारी हैं वह सब राष्ट्र की सेवा के अपने जुनून की वजह से क्रांतिकारी बने, लेकिन गांधी जी मेरी नजर में एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों को जन-आंदोलन में परिवर्तित किया। सत्य और अहिंसा की बात हम लोग मंदिरों में ही समझते थे, लेकिन जो सत्य है वह ईश्वर का ही एक प्रतिबिंब है। जिन बातों को हम मंदिर, मस्जिद और चर्च में पढ़ा और सुना करते थे, गांधी जी ने उन्हीं बातों को आधार बनाकर शांति, अहिंसा और सत्य के माध्यम से कई जन-आंदोलन खड़े किए। वह सब हमारे आध्यात्मिक मूल्यों से जुड़ी हुई बातें थीं तो जनता भी उनसे जुड़ने लगी। हम भारतीयों के खून में ही शांति है। 

यह मौका भुनाने से ज्यादा भाव जगाने वाले हैं या मौका भुनाने के लिए लोग खड़े हो जाते हैं?
हमारे आंदोलन के शुरू में जो लोग जुड़े थे वे आज की पीढ़ी से बहुत अलग थे। अब तो इनमें से कई लोगों का स्वर्गवास भी हो चुका है। जो नई पीढ़ी के लोग आते हैं अगर उन्हें कहीं थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता है तो वह वहां दौड़े चले जाते हैं। मेरे शुरुआती साथियों और वरिष्ठ सहयोगियों ने सामाजिक कार्य में बेहतर नौकरी और पैसे का लालच कभी नहीं किया। हिंदुस्तान समाचार के संस्थापक और राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के प्रचारक बालेश्वर अग्रवाल जी हमारे पिता समान थे। मेरी पत्नी उनकी दत्तक पुत्री समान थीं। वह हमारी सगाई करवाने विदिशा भी आए थे। मेरे उनके संबंध बहुत अच्छे थे। वह मुझे दामाद मानते थे। एक बार शादी के बाद दिल्ली में हमारे घर आए। तब हम लोगों के पास बिस्तर नहीं थे, अखबार के बंडल के ऊपर दरी बिछाकर हम सोते थे। घर की हालत देखकर उन्होंने मुझे नौकरी का ऑफर दिया, लेकिन मैंने मनाकर दिया। एक बार मेरे कॉलेज के प्राचार्य, जो मुझसे बड़ा स्नेह करते थे, मेरे घर आए। उन्होंने भी मेरी हालत देखी तो दिल्ली के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरे लिए अध्यापन की व्यवस्था कर दी। मैंने उसे भी ठुकरा दिया। मैंने कहा जिसका संकल्प लिया है वही करूंगा। एक तरफ हमारे बेटे के लिए दूध और फल जरूरी था तो दूसरी तरफ गुलाम बच्चों को आजाद करना था। मैंने दूसरा विकल्प चुना। हम तब एनजीओ जानते भी नहीं थे। मित्रों की आर्थिक मदद से ही सामाजिक बदलाव में जुटे हुए थे।

(साभार: पांचजन्‍य) 
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