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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, February 22, 2016

TaraChandra Tripathi 4 hrs · ईशावास्योपनिषद के ’हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्. तत्त्वं पुषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये’ ( सत्य का मुख सोने के पात्र ( निहित स्वार्थ) के ढक्कन से ढका हुआ है. हे सूर्य देवता तुम उसे हटा दो तकि हम यह जान सकें कि सत्य और और धर्म क्या हैं. दूसर शब्दों में निहित स्वार्थ यथार्थ बोध के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं. इस छन्द से विदित होता है कि वैदिक युग में भी धार्मिक परंपराओं में घुस आये अंधविश्वासों को दूर कर सच को सामने लाने वाले मनीषियों को निहित स्वार्थों का घोर विरोध का सामना करना पड़ता होगा.


ईशावास्योपनिषद के 'हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्. तत्त्वं पुषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये' ( सत्य का मुख सोने के पात्र ( निहित स्वार्थ) के ढक्कन से ढका हुआ है. हे सूर्य देवता तुम उसे हटा दो तकि हम यह जान सकें कि सत्य और और धर्म क्या हैं. दूसर शब्दों में निहित स्वार्थ यथार्थ बोध के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं. इस छन्द से विदित होता है कि वैदिक युग में भी धार्मिक परंपराओं में घुस आये अंधविश्वासों को दूर कर सच को सामने लाने वाले मनीषियों को निहित स्वार्थों का घोर विरोध का सामना करना पड़ता होगा. 
अतीत में अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. तुलसीदास के जीवनकाल में ही काशी के पंडितों द्वारा रामचरितमानस को केवल इसलिए नष्ट करने का प्रयास किया गया कि वह धर्म के लिए निर्धारित भाषा संस्कृत में न होकर जनभाषा में थी. यदि उदारमना आचार्य मधुसूदन मिश्र हस्तक्षेप न करते तो संभवतः तुलसीदास के जीवनकाल में ही काशी के पंडितों के द्वारा रामचरितमानस नष्ट कर दी गयी होती. 
यह स्थिति केवल भारतीय धर्म साधनाओं में ही नहीं अपितु विश्व की लगभग सभी धर्म साधनाओं रही है. अनहलक या मैं वही हूँ कहने पर सूफी सन्त मंसूर की हत्या कर दी गयी. ईसाई परंपराओं मे निहित भ्रान्तियों का निवारण कर प्रयोगों के माध्यम से सच को सामने लाने पर गैलीलियो को चर्च का कोप-भाजन बनना पड़ा. औषधियों की खोज करने वाले शैतान घोषित किये गये और उनको चर्च द्वारा जिन्दा जला देने का फतवा जारी हुआ. 
माना कि यह युग विश्व के इतिहास का अज्ञानांधकार से ग्रस्त मध्ययुग था पर विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के सहारे सौर मंडल के कोने पर बैठे प्लूटो से हाथ मिला कर अनन्त के रहस्यों को अनावृत करने की दिशा में अग्रसर और प्रयोगशाला में सृष्टि के आधार भूत ईश्वर (गौड पार्टिकिल) को लगभग प्रत्यक्ष करने की मानवी विजय यात्रा के इस युग में भी तथाकथित धार्मिक सहिष्णुता का ढोल पीटने वाली भारतीय संस्कृति और इस्लामी रूढि़यों के झंडा बरदार अपनी धारणाओं से सहमति न रखने वाले लोगों की बलि लेते जा रहे हैं.
सच कहें तो इसके लिए वे युवा हत्यारे दोषी नहीं हैं, दोषी है वह इतिहास जो निहित स्वार्थ हमारे अपरिपक्व मस्तिष्क में ठूँसते रहते हैं। जो किसी सम्प्रदाय विशेष में विश्व में महानतम जाति होने और महानतम संस्कृति होने का दम्भ पैदा करता है तो दूसरे सम्प्रदाय को, उसके आचार-विचारों को निकृष्ट सिद्ध करता है और लोगों को भविष्य के उजाले की ओर नहीं अतीत की उस अँधेरी गुफा की ओर मुड़ने के लिए प्रेरित करता है जिसे उन्होंने अपने अज्ञान और अधकचरी जानकारियों से निर्मित किया है. इस अदने से इतिहास का अधकचरा बोध अतीत की गहराई में पैठ कर सचाई का अनावरण करने वाले लोगों के लिए ही नही, मानवमात्र के लिए कितना भयानक हो सकता है यह बार-बार सिर उठाती हिटलरी और तालीबानी प्रवृत्तियों में दिखाई देता है.
जिसने भी तर्क किया गुरुजी ने अपने मन-माने अर्थ के साथ गीता सामने रख दी। संश्यात्मा विनश्यति। आशय था दुविधा में रहने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, पर गुरुजी ने समझाया, तर्क करने वाले व्यक्ति का नाश हो जाता है ( या मारा जाता है.) यह मध्य युगों में ही नहीं हुआ, आज भी हो रहा है। जिसने भी इस कुबड़े विराम का सहारा लिया, उसकी कमर ही तोड दी गयी।
यह सच है कि किसी सोई हुई जाति को जगाने के लिए अतीत का महिमामंडन बड़ा उपयोगी होता है। यही कारण है कि फ्रांस की राज्यक्रान्ति के अग्रगामियों से लेकर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन तक के अनेक पुरोधाओं ने अतीत के महिमामंडन का सहारा लिया । साहित्यकारों ने देश के तथाकतिथ स्वर्णिम अतीत का रोमानी रूपांकन किया। भारतीय जन मानस उद्वेलित हुआ। हम अपनी स्वतंत्र अस्मिता की ओर आगे बढ़े. पर अपनी मंजिल पा लेने के बाद भी हम वहीं पर ठहर गये। अतीत का विश्लेषण करने और उससे आगे बढ़ कर मानवता की नवीनतम उपलब्धियों के प्रकाश में अपने आने वाले कल को रूपायित करना भूल गये या अपने निहित स्वार्थ के कारण उससे बचते ही नहीं रहे, अपितु ऐसे विश्लेषक को भी अपना घोर शत्रु मान बैठे। 
हम आज भी अपनी अगली पीढि़यों को वह इतिहास पढ़ा रहे हैं जिसका मानव की वास्तविक विकास-यात्रा से कोई संबन्ध ही नहीं है। जो हम पढ़ा रहे हैं वह एक ऐसा कथानक है, जिसमें एक सी घटनाओं को अलग-अलग नामों से दुहराया गया है। सामन्त का नाम, उसने अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कितने युद्ध किये, कितने लोगों की हत्या की, कितना बडा रनिवास बनाया, कितने बड़े महल, मकबरे या मन्दिर बनाये और कितने चाटुकारों को मालामाल किया आदि-आदि। सम्राट अशोक को छोड़ दें तो दुनिया के हर देश के इतिहास में यही कहानी बार-बार दुहराई गयी है। सच कहें तो यह इतिहास, इतिहास न होकर बाहुबलियों, बुद्धिबलियों और धनबलियों के उन कारनामों की पुनरावृत्ति की ऐसी गाथा है जो भविष्य में भी बार-बार इनके रक्तरंजित कारनामों की पृष्ठभूमि तैयार करती है।
इस तथाकथित इतिहास में इस धरती को मानव के जीने योग्य बनाने वाले मानव का कोई उल्लेख नहीं है। इस बात का कोई उल्लेख नहीं है किस तरह उसने धरती को उर्वरा बनाया। जान को जोखिम में डाल कर खाद्य और अखाद्य वस्तुओं का परीक्षण किया। वनस्पतियों के गुणों की पहचान की, उन्हें निश्चित नाम दिये। ईश्वर की कल्पना की और अपनी आकांक्षाओं अनुरूप उसका रूपांकन किया। थकान से भरे एकान्त क्षणों में अपने निवास की गुफाओं में दृश्यमान जगत के अनुकृति की। पर मानव की इस विकास यात्रा में उसकी अन्तहीन उपेक्षा की छाती पर मिश्र के फराउनों से लेकर मायावती तक सब मकबरे ही बनाते रहे हैं।
जो छान्दस या वेदों की भाषा से पीढि़यों पहले अनभिज्ञ हो जाने के कारण प्राचीन ऋषियों द्वारा वैदिक ऋचाओं में अपने युग के अनुरूप अंकित स्थितियों और विचारों के मन्तव्य से स्वयं अनभिज्ञ थे, उन पुरोहितों ने अपना अज्ञान छिपाने के लिए फतवा जारी कर दिया कि मंत्रों के अर्थ जानना आवश्यक नहीं है, उनका सस्वर उच्चारण ही फलदायी होता है। वह इसलिए भी कि अर्थ आँखें खोलता है. भ्रान्तियों का निवारण करता है और भ्रान्तियों का निवारण उन तत्वों के हित में नहीं होता जिनके स्वार्थ जनसामान्य के अज्ञान पर टिके होते हैं। यह भारतीय परम्पराओं में ही नहीं, विश्व के उन सभी तथाकथित सभ्य समाजों की परम्पराओं में दिखाई देता है, जिनके हित आम आदमी को शास्त्र, या विधानों से अनभिज्ञ रखने पर टिके होते हैं। 
इतिहास से हमारा आरम्भिक साक्षात्कार, दादी-नानी की कहानियों, विभिन्न धार्मिक संस्कारों और सम्पर्कों से होता है। यह इतिहास वस्तुगत इतिहास न हो कर सामाजिक आस्थाओं और धारणाओं से अनुरंजित इतिहास होता है. उसमें अपनी जाति के खलनायक भी नायक के रंग में रंगे दिखाई देते हैं तो प्रतिपक्ष के नायक भी खलनायक के रंग में। इसी इतिहास को लेकर हम आगे बढ़ते हैं। 
जब विद्यालय में प्रवेश लेते हैं तो इतिहास के उस रूप से सामना होता है जो सत्ताधारी वर्ग के नायकों, रीतिरिवाजों, परम्पराओं के प्रति आस्था जगाने के उद्देश्य से लिखा होता है। उस पर इतिहास के शिक्षक की धारणाओं की भी छाया पड़ती है और इस प्रकार हमारे मस्तिष्क में निर्मित अतीत का प्रतिबिम्ब श्वेत-श्याम न हो कर किसी न किसी रंग में अनुरंजित होता है। एक जाति के लिए नेपोलियन महान होता है तो दूसरे के लिए आततायी। अपनी जाति की परम्पराएँ महान लगती हैं तो प्रतिपक्ष परंपराएँ गर्हित। शत्रु को अर्द्धपशु के रूप में अंकित किया जाता है, तो दूसरी ओर अपने पूर्वजों के किसी अनैतिक आचरण को परिमार्जित करने के लिए, कहीं किसी देवता या ऋषि के शाप का बहाना बनाया जाता है तो कहीं उस घटना का औचित्य सिद्ध करने के लिए 'अनुज वधू भगिनी, सुत नारी, सुनु शठ ये कन्या सम चारी..., का आधार लिया जाता है और कहीं 'गयी गिरा मति फेर' का। हमारे पौराणिक साहित्य में तो दुर्वाशा (दुर्वाचा या बात बात पर शाप या गाली देने वाला ) ऋषि को किसी भी विशिष्ट पात्र के अनौचित्य का कारण बनने का ही दायित्व सौंपा गया है. जहाँ कुछ और समझ में न आये, वहाँ ' मानव चरित करत भगवाना तो है ही.
विश्व का इतिहास इस का प्रमाण है कि विजेता पराजित जाति की विरासत को नष्ट.भ्रष्ट करने का प्रयास करता है। यह मुस्लिम आक्रान्ताओं ने ही नहीं आर्यों से लेकर अमरीका का उपनिवेशीकरण करने वाले यूरोपीयों तक सभी आक्रान्ताओं ने किया। यही नहीं जिन देशों में प्रजातंत्र अपनी शैशवावस्था में होता है, उनमें भी राजनीति सामन्ती सोच से मुक्त नहीं होती. वंशवाद बार-बार सिर उठाता है. दरबारी संस्कृति हावी होती रहती है. जीतने वाला दल पराजित दल की सांस्कृतिक सोच के स्थान पर अपनी सोच को आरोपित करने का प्रयास करता है. परिणामतः इतिहास का पाठ्यक्रम बार-बार प्रभावित होता है. कभी देश के निवासियों का अतीत में आगमन अंकित किया जाता है तो कभी उनका मूल निवासी होना। कभी शास्त्रों का महिमामंडन होता है तो कभी उनकी निन्दा। यही नहीं तथ्यों और साक्ष्यों को विजेता दल की मान्यताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास किया जाता है। इसका कारण यह है कि मानवी ज्ञान की कोई अन्य विधा आने वाली पीढियों की सोच को बदलने इतनी समर्थ नहीं होती जितना की इतिहास होता है। 
इतिहास का अधूरा और दलगत सोच के अनुसार रूपान्तरित ज्ञान उग्रवाद को जन्म देता है। जातीय और साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाता है। परिणामतः राष्ट्रीय जीवन के मुख्य दायित्व- जन-सामान्य के अभावों, कुपोषण, अशिक्षा, रोग और व्याधियों का निवारण, विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द की स्थापना, शान्ति-व्यवस्था, न्याय, जनसंख्या का नियंत्रण आदि मुद्दे गौण हो जाते हैं। इस सारी अव्यवस्था की चोट न किसी सम्प्रदाय पर पड़्ती है न किसी जाति पर, और न पूँजीपति पर, चोट पड़ती है उस आम आदमी पर जिसका अपना कोई ठिकाना नहीं होता। 
जब हमें यह पढ़ाया जाता है कि मुसलमान विजेताओं ने हिन्दुओं का भीषण उत्पीड़न करने के साथ-साथ उनके धार्मिक स्मारकों और परंपराओं को ध्वस्त किया, तो स्वाभाविक है कि हिन्दू मन प्रतिकार को उन्मुख होगा. बाबरी मस्जिद टूटेगी, साम्प्रदायिक दंगे होंगे, हजारों लोगों की जान जायेगी। लेकिन जब तार्किक सोच के साथ इस सचाई का बोध कराया जाय कि हर विजेता चाहे वह आर्य हों, यवन हों, शक हों, मुसलमान हों, उत्तराखंड आन्दोलन की विरोधी 1994 की उत्तरप्रदेश की मुलायमसिंह सरकार हो, या सत्ता पर हावी उद्योगपति, कोई भी प्रतिरोध का उत्पाटन करने में पीछे नहीं रहता, तो ऐसा इतिहास वर्तमान की शान्ति और व्यवस्था में कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता। 
इतिहास के बारे में यही मेरी अवधारणा है. एक शिक्षक के रूप में अपने 35 वर्ष के कार्यकाल में मैंने सदैव अपने छात्रों में तार्किक सोच को विकसित करने और उन्हें जनोन्मुख बनाने का प्रयास किया। यह मानता रहा कि यदि में अपने उद्बोधन एवं कार्य-व्यवहार से इस सड़ी-गली व्यवस्था के जर्जर ढाँचे की एक भी ईंट निकाल सका तो यही मेरी सार्थकता होगी। 
सेवा निवृत्त हुआ। लिखना आरम्भ किया। लेखन के माध्यम से अपनी अवधारणाओं के बीज बोता रहा. कविताओं में, निबन्धों में अपने अनुभवों और व्यवस्था की विसंगतियों को उलीचता रहा। जब फेसबुक अवतरित हुआ तो पिछले चार साल से मित्रों के बीच इसी सोच को जाग्रत करने का प्रयास कर रहा हूँ. ब्लाग भी लिखे. अवसर मिलने पर पठितों के सभा-
समूहों में दिल से भाषण भी दिये। 
अब, जब अंगंगलितं पलितंमुंडं की बेला आ गयी है, लगता है कि इन मध्यवर्गीय चोंचलों की अपेक्षा आम आदमी से उसकी बोली में ही सीधे संवाद किया होता तो क्या पता ? धैं कस ?
खैर, यह जो कुछ है, आपकी नजर है।
(मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक ' इतिहास और सच की भूमिका)


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