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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
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Sunday, July 13, 2008
नदी बचाने की जंग
http://www.raviwar.com/news/38_save-river-uttarakhand-prasunlatant.shtml
इस अंक में
ओ मैक्लुस्कीगंज !
क्रूर समाज में एक मानवीय चेहरा
इंदौर का यह दौर
नदी के लिए जंग
एक दर्द का नाम है हरसूद
इस्लाम से नहीं, आतंक से लड़ना होगा
फिर बसी दुनिया
जातीय पंचायत की बलि
स्वयंवर में चुने गए राम
इंदौर का यह दौर
ओ मैक्लुस्कीगंज !
क्रूर समाज में एक मानवीय चेहरा
किए कराए पर मुहर
अनूठा संपादक
प्रदूषण का घर पलक्कड
मेरे न रहने पर
आयी मुझ तक
उसका चेहरा
मेरे उस्ताद मेहदी हसन
कानू सान्याल
चारु मजुमदार में उतावलापन था
कनक तिवारी
गांधी और हिन्दू परम्परावादी
राजेंद्र सिंह
जरुरी है गंगा को बचाना
एजाज अहमद
किसकी सदी, किसकी सहस्त्राब्दि ?
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नदी बचाने की जंग
प्रसून लतांत
उत्तराखंड से
अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इकट्ठा हों
निजी कंपनी आई है, झूठे सपने लाई है
इन जेबों में सत्ता है, सारी सुविधा पाई है
अब रोटी पर संकट है, सारे गांव इकट्ठा हों.
इन दिनों जनकवि अतुल शर्मा के गीतों की ये पंक्तियां उत्तराखंड के गांव-गांव में गाई जा रही हैं. गांवों में इन गीतों के संदेशों से मिलते-जुलते विषयों पर नुक्कड़ नाटक भी खेले जा रहे हैं. यहां अब आपस में बैटकर नदियों पर बांधों के चलते उत्पन्न मसलों पर बातें की जा रही हैं. जल, जंगल और जमीन को कंपनियों के कब्जे में जाते देख कर उन्हें लगने लगा है कि अब अगर नदियां नहीं बचीं तो हम भी नहीं बचेंगे.
लंबी लड़ाई की तैयारी
उत्तराखंड में नदियों को लेकर पहली बार एक ऐसी लड़ाई शुरु हुई है, जो सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं रहने वाली है.
लोग उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान के आह्वान पर पदयात्रा, धरना और प्रदर्शन करने लगे हैं. इनमें महिलाएं और युवा बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं.
नदियों को लेकर उत्तराखंड में शुरु हुई यह लड़ाई अब भले पूरे राज्य में सतह पर उभर कर एकजुट दिखने लगी है, लेकिन इसकी अलग-अलग शुरुवात विभिन्न नदी घाटियों में कई साल पहले ही हो गई थी, क्योंकि टिहरी शहर के डूबने और चाई जैसे गांव के जमींदोज हो जाने की घटनाएं उन्हें कभी चैन से सोने नहीं दे रही है.
ऊर्जा के नाम पर
उत्तराखंड राज्य बनते ही प्रदेश के लोगों को यहां की सरकारों ने जिस तरह ऊर्जा प्रदेश बनाने के सपने दिखाए थे, उनने यहां के लोगों को न सिर्फ ठगा है, बल्कि उन्हें अपने पैतृक स्थलों से पलायन के लिए भी विवश कर दिया है. लोग नए आसरे की ओर निकलते जा रहे हैं. ऐसे में जो पलायन नहीं कर रहे हैं, वे अपनी धरती, जंगल, पहाड़ और नदियों को बचाने के लिए अपनी कमर कसने लगे हैं.
नदियों की मौजूदा असलियत उत्तराखंड निवासियों के लिए असहनीय हो गई है. उत्तराखंड के पूर्व में काली (शारदा) से लेकर पश्चिम में तमसा (टौंस) तक उत्तराखंड की सभी हिमपोषित नदियों पर बिजली उत्पादन के लिए दो सौ से अधिक परियोजनाएं निर्माणाधीन या प्रस्तावित हैं, जिन्हें बांधों और सुरंगों के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है. इसके कारण इन नदियों का सनातन प्रवाह और इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है. बड़े हादसे तो जैसे अभिशाप की तरह जुड़ गए हैं.
पिछले दिनों विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना के लिए बनाई गई सुरंग के धंस जाने से उसके ऊपर बसा हुआ चॉई गांव ध्वस्त हो गया और कड़ाके की सर्दी में इस गांव के लोगों को अपने टूटे-फूटे दरकते मकानों को छोड़ कर बेघर होना पड़ा.
जंगल साफ हो रहे हैं सो अलग.
लोग हैरान हैं कि नदियों पर बांध औऱ सुरंग बनाने के प्रस्तावों पर बगैर इसके नतीजे की परवाह किए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने भी अपनी ओर से हरी झंडी कैसे दिखा दी !
लेकिन मामला अकेला चॉई का नहीं है.
उत्तरकाशी के करीब चौदह गांव लोहारी नाग और पाला मनेरी जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित हैं. इन गांवों की महिलाओं का कहना है कि उनके यहां बांध निर्माण एजेंसियां गांव के पुरुषों को प्रलोभन देकर निर्माण कार्य में मनमानी कर रही हैं. भागीरथी घाटी में सुरंग निर्माण के लिए कंपनियां हर दस मीटर पर विस्फोट कर रही हैं, जिससे मकानों में दरारें आ रही हैं. भूजल का रंग बदल गया है.
इस इलाके में 18 कंपनियां एनटीपीसी के संरक्षण में काम कर रही हैं, जिसमें बड़ी संख्या में बाहरी लोग आ रहे हैं. जाहिर है, इससे इन गांवों में सामाजिक असुरक्षा के मामले बढ़े हैं. दूसरी ओर जिनकी जमीन अधिगृहित की जा रही हैं, उनकी सुरक्षा और आजीविका के लिए कोई बात नहीं की जा रही है.
सूख रही है गंगा
दुनिया में बढ़ते तापमान, पिघलते ग्लेशियर और मौसम के बदले मिजाज के कारण गंगा विश्व की लुप्त होने जा रही 10 नदियों में शामिल हो गई है. हिमालय पर्यावरण शिक्षण संस्थान, उत्तरकाशी के सुरेश भाई का कहना है कि अगर यही हाल रहा तो बीस सालों में गंगा सूख जाएगी. गंगोत्री ग्लेशियर पिछले साढ़े तीन हज़ार सालों में मात्र आठ किलोमीटर खिसका और आज हालत ये है कि पिछले 15 सालों में ही यह 210 मीटर तक सिकुड़ गया है.
भागीरथ पर बांध बनाने की परियोजना के चलते सबसे अधिक खतरे की जद में कुंजन व तिहार गांव हैं. इन गांवों की सुरक्षा व आजीविका के लिए परियोजना में कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है. लोहारी नाग-पाला बांध परियोजना की 12.05 किलोमीटर लंबी सुरंग बनने पर इसके डंपिंग यार्ड की कोई व्यवस्था नहीं है. ग्रामीणों का आरोप है कि विस्फोट के दौरान गांव वालों को उनकी कच्ची फसलें काट लेने के लिए बाध्य किया जाता है.
और गंगा भी
इन हिमपोषित नदियों के अलावा उत्तराखंड की अन्य नदियों- कोसी, नयार, पनार, पश्चिमी रामगंगा, गौला, गगास, गोमती गरुड़गंगा और सरयू आदि सघन वनों से निकली और वर्षा से पोषित नदियों की जलधाराएं निरंतर घटती चली जा रही हैं.
वैज्ञानिकों की मानें तो कौसानी के पास पिनाथ पर्वत से निकलने वाली कोसी नदी का जल प्रवाह अल्मोड़ा के निकट 1994 में 995 प्रति सेकंड था, जो 10 साल बाद 2003 में घट कर मात्र 85 प्रति सेकंड रह गया है. दूसरी नदियों का भी यही हाल है. वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसी हालत बनी रही तो 10 से 15 साल के भीतर ये नदियां पूरी सूख जाएंगी.
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गंगा का भूगोल छिन्न-भिन्न किया जा रहा है. टिहरी से धरासू तक टिहरी बांध का जलाशय ही नजर आता है. यहां रुका हुआ पानी हरा हो गया है, यहां गंगा मर चुकी है. इससे आगे धरासू से गंगोत्री की दूरी 125 किलोमीटर है. अब यहां भी गंगा को अपने प्राचीन रास्ते बदलकर सुरंगों और बांधों से गुजरना होगा. गंगा को इस तरह बाधित करने से उसके सूख जाने की आशंका जाहिर की जा रही है.
धरासू-उत्तरकाशी से गंगोत्री तक बनने वाली पांच नई परियोजनाओं में मनेरी भाली प्रथम और द्वितीय, भैरोघाटी प्रथम और द्वितीय सहित लोहारी नागपाला बांधें शामिल हैं. इनमें भैरोघाटी प्रथम और द्वितीय परियोजनाएं तो गंगोत्री में ही बनने वाली हैं.
राधा भट्ट का नेतृत्व
75 साल की गांधीवादी कार्यकर्ता राधा भट्ट नदी बचाओ के लिए संघर्ष का नेतृत्व कर रही हैं.
हिमालय के मध्य भाग में गंगा की दो धाराएं हैं जो विपरीत दिशाओं में अलकनंदा और भागीरथी के नाम से बहती हुई देवप्रयाग में एक-दूसरे से मिल जाती हैं और यहीं मिलने वाली दोनों नदियों की धाराएं गंगा के स्वरुप में पूरी तरह से ढल जाती है. प्रस्तावित बांधों के बनने से गंगा बहुत जल्द ही हमारी आंखों से ओझल हो जाएगी और वह सुरंगों से होकर बहेगी. ऐसे में सुरंगों में पहुंचाई जाने वाली गंगा अपने वजूद के लिए कब तक खैर मनाएगी !
गंगा नदी को सुरंग में डालने का विरोध धीरे-धीरे तेज़ हो रहा है. यह विरोध उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर निकल कर देशव्यापी हो रहा है. इसमें नदी बचाओ अभियान के अलावा हिमालय के पर्वत श्रृंखलाओं पर आश्रम बना कर रहने वाले साधु-संत भी कूद गए हैं. गंगा की मूल धारा के रुप में विख्यात भागीरथी के प्रवाह को गंगोत्री से उत्तरकाशी तक किसी भी तरह के मानवीय व्यवधानों से मुक्त रखने की अपील के साथ वैज्ञानिक और पर्यावरण मामलों के जानकार प्रोफेसर जी डी अग्रवाल तो आमरण अनशन पर ही बैठ गए हैं.
उत्तराखंड में नदियों को बचाने के लिए अहिंसक तरीके से शुरु हुई इस लड़ाई की पहली कामयाबी तो यह हुई है कि गढ़वाल और कुमाऊं के बीच भेद खत्म हो गए हैं. उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान द्वारा आयोजित जलयात्रा के तहत साल के शुरु में प्रदेश की पंद्रह नदी घाटियों से आई पदयात्रा टोलियों ने गढ़वाल और कुमाऊं के संगम स्थल रामनगर में सभा की और यहीं नदियों को बचाने का सामूहिक संकल्प लिया.
राधा भट्ट का नेतृत्व
अभियान को इसलिए भी गति मिलने लगी है क्योंकि इसका नेतृत्व चिपको आंदोलन सहित शराबबंदी के खनन उद्योगों के खिलाफ और उत्तराखंड राज्य बनाने के आंदोलनों के अनुभवों से तपी-तपाई और गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट ने स्वीकार कर लिया है. इस लड़ाई में प्रदेश के करीब तीस से अधिक संगठन एकजुट हो गए हैं.
देश भर में लड़ाई की तैयारी
उत्तराखंड में नदियों को लेकर पहली बार एक ऐसी लड़ाई शुरु हुई है, जो सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं रहने वाली है. यह लड़ाई नदी, गांव, जीवन, संस्कृति-सभ्यता और आजीविका के संसाधनों की भी लड़ाई है, जो इन दिनों देश के कई हिस्सों में लड़ी जा रही है. इस लड़ाई को राष्ट्रीय स्तर की लड़ाई में बदलने का हौसला उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान ने जुटाया है. इस अभियान के तहत रवि चोपड़ा के संयोजन में देश भर में जल यात्रा निकालने की तैयारी चल रही है.
देश के सर्वोच्च गांधीवादी महिला संस्थानों की सचिव रहते हुए अनेक उल्लेखनीय कार्य करने वाली 75 साल की राधा भट्ट नदी बचाओ के लिए संघर्ष का आह्वान करती हुई कोसी नदी की मुख्य घाटी के कोटली से चनौदा, सोमेश्वर तक और मनसारी नाला व साईगाड़ घाटी के महिला मंडलों की मिसाल पेश करती हैं, जिन्होंने वसंती बहन के नेतृत्व में पिछले पांच वर्षों से आरक्षित वनों को संरक्षित करके नदी जल को बढ़ाने के भागीरथ प्रयास किए हैं.
भट्ट उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान के लिए साल भर का कार्यक्रम तय कर कार्यकर्ताओं की फौज के साथ संघर्ष के मैदान में कूद गई हैं. वे नदियों पर बांध के विरुद्ध हैं, साथ ही जहां बांध बन गए हैं, वहां से स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की भी वकालत करती हैं.
उत्तराखंड के लोग अपनी नदियों को बचाने के लिए एकजुट हो रहे हैं. लगातार धरना, प्रदर्शन और जलयात्राएं निकल रही हैं. देखना यह होगा कि नदियों को बचाने के लिए दृढ़संकल्प होने का दावा करने वाली उत्तराखंड की सरकार की आंखों में भी पानी बचा या है नहीं.
29.06.2008, 11.49 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
Pages: 1 2
इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ
jai prakashk kanojia(wapgrapix@gmail.com)
nadiya chahe uttranchal ki ho, bihar ki ho, ya anya jagh ki. nadiyo ki halt aaj ki bigri hue byawstha ne bigar di hai. na sarkari tantra in pur dhyan deti hai naa janta. jb kisi byakti dyara us andolan ko uthaya jata hai tb netatrant us pr apna thapa laganey ke liye khary ho jatey hain. prasun ji ne is visay ko aam janta tak laney me acha sahyog diya. jb sey is visay pur ineno likha tb say is visay pur charcaye chal rahi hai. prasun ji iskey tarif ke patra hain
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