Tuesday, 31 January 2012 09:37 |
मृणालिनी यह कथन न नियमों से मेल खाता है, न संघ लोकसेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग की प्रणालियों से। अब तो सूचनाधिकार के तहत संघ लोकसेवा आयोग जैसी संस्थाओं से जानकारी मांगी जा सकती है या इंटरनेट पर जाकर उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में देख सकते हैं कि पिछले वर्षों में कितने एससी-एसटी कर्मचारी चुने गए और किसने किसका हक मारा। नियम यह है कि अगर सामान्य श्रेणी के अंतिम उम्मीदवार के नंबर सौ में से पचास आए हैं तो पचास से ऊपर जो एससी-एसटी और ओबीसी हैं, उन्हें अपनी मैरिट पर चुना माना जाएगा। आरक्षित पदों के लिए पचास नंबर से नीचे मैरिट में जाते हैं। इस प्रक्रिया में सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार उसी अनुपात में कम होते जाते हैं। संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा-2007 में कुल छह सौ अड़तीस उम्मीदवार चुने गए। इसमें जहां सामान्य श्रेणी के दो सौ छियासी थे, वहीं आरक्षित तीन सौ बावन (एससी-109, एसटी-53, ओबीसी-190)। 2008 में चुने गए कुल सात सौ इक्यानवे में सामान्य उम्मीदवारों की संख्या तीन सौ चौंसठ थी और आरक्षित की चार सौ सत्ताईस। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई पचास प्रतिशत की सीमा के बावजूद दोनों बरसों में लगभग पचपन प्रतिशत आरक्षण दिया गया। यानी 2007 में छियासठ और 2008 में तिरसठ अफसर अपने आरक्षित कोटे से ज्यादा लिए गए। यह इसलिए कि जो दलित-ओबीसी उम्मीदवार सामान्य श्रेणी में पास कर लेते हैं, उन्हें आरक्षण में नहीं गिना जाता। आरक्षण उसके बाद शुरू होता है। कर्मचारी चयन आयोग से लेकर संघ लोकसेवा आयोग और राज्यों की सभी सेवाओं की परीक्षाओं में भारत सरकार के कार्मिक विभाग के आदेशों के अनुसार ऐसा हो रहा है। यह अच्छी बात है कि पिछले बीस-तीस वर्षों में ऐसे आरक्षित उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है और उसी अनुपात में सामान्य कम होते जा रहे हैं। लेकिन मस्तराम जी क्यों इसे नजरअंदाज करके भिन्न तस्वीर पेश कर रहे हैं? पदोन्नति के संदर्भ में उन्होंने सवर्णों द्वारा जान-बूझ कर दलित-पिछड़ों की गोपनीय रिपोर्ट को खराब करने का मुद्दा भी उठाया है। पहले यह गोपनीय रही होगी, पिछले कई वर्षों से इसे गोपनीय रिपोर्ट के बजाय वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट कहा जाता है। हर कर्मचारी अपनी इस रिपोर्ट को वेबसाइट पर देख सकता है। हर तीसरे वाक्य में उच्च जातियों की तिकड़म व्यवस्था, छोटी जातियों के प्रति अत्याचार का रोना रोने के बजाय किसी भी विभाग से पूछ कर पता किया जा सकता है कि जिनकी रिपोर्ट खराब हुई, वह सवर्ण जाति ने की या दूसरे वर्गों ने उसी अनुपात में? सवर्ण तो अब भूल कर भी ऐसी जुर्रत नहीं कर सकते हैं, क्योंकि मामला कई आयोगों में उन्हें झगड़ों की तरफ ले जाता है। सरकारी कर्मचारी के लिए सरकार डूब जाए कोई हर्ज नहीं, लेकिन उसका व्यक्तिगत नुकसान नहीं होना चाहिए और यही हो रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे माहौल में धीरे-धीरे सरकारी स्कूल डूब गए या डूबते जा रहे हैं। सरकारी अस्पताल गए, एअरलाइंस अस्पताल में भर्ती है और सुना है एक और बडेÞ विभाग, भारतीय रेल की भी स्थिति कुछ अच्छी नहीं है। इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि पिछले बीस वर्षों में ये सरकारी विभाग वैश्वीकरण या उदारीकरण की नीतियों से डूबे या आरक्षण की ऐसी बहसों, मुकदमेबाजियों की तनातनी और परस्पर वैमनस्य से। आग भड़काऊ दलीलों से आखिर फायदा उन्हीं पूंजीपतियों को पहुंचेगा जो सरकारी जगह लेना चाहते हैं। अगर सरकारें खत्म हुर्इं तो सबसे ज्यादा अहित होगा दलितों और पिछडेÞ वर्ग के गरीबों का। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि अगर लोहिया आज जीवित होते तो मौजूदा आरक्षण नीति की समीक्षा की मांग जरूर करते। हर तीसरी पंक्ति में जाति का वर्चस्व, उनकी तिकड़म! भ्रष्टाचार का मैल कितने सालों में धुलेगा? लोहिया के शब्दों को याद करें तो भूखी कौम पांच साल इंतजार नहीं करती। इस मैल को तो सन 1960 तक ही दूर हो जाना चाहिए था। फिर पचास साल में क्यों नहीं दूर कर पाए और पिछले बीस वर्षों से तो उत्तर प्रदेश, बिहार में सत्ता सवर्णों के पास नहीं है। निष्कर्ष यह है कि आरक्षण के हिमायतियों को भी अपने चश्मे के नंबर बदलने की जरूरत है, जिससे कि आरक्षण और योग्यता-वरीयता की बहसों से परे जाकर पूरे समाज की खातिर ये सरकारी विभाग अपनी दक्षता के बूते दम ठोंक कर निजीकरण के खिलाफ खडेÞ हो सकें। आखिर क्या कारण है कि आरक्षण जैसे शब्द के पीछे सारे देश की विधायिका, राजनीति और उसके साथ-साथ मस्तराम जैसे विचारक भी पूरी ताकत से लगे हुए हैं, लेकिन समान शिक्षा या अपनी भाषा या इन सरकारी विभागों की दक्षता को लेकर एक आवाज सुनने को नहीं मिलती है। शायद इन सभी मुद््दों पर ठहर कर सोचने की जरूरत है। |
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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
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सामाजिक न्याय का पैमाना
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