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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, January 30, 2012

स्थानान्तरण नीति भ्रष्टाचार की मूल है लेखक : गजेन्द्र पाठक :: अंक: 13 || 15 फरवरी से 28 फरवरी 2011:: वर्ष :: 34 :March 1, 2011 पर प्रकाशित

http://www.nainitalsamachar.in/need-for-stringent-transfer-policy-in-uttarakhand/

स्थानान्तरण नीति भ्रष्टाचार की मूल है

छठे केन्द्रीय वेतन आयोग की सिफारिशें आने के पश्चात सरकारी कर्मचारियों के वेतनमानों में कल्पनातीत वृद्धि हुई है। इस वक्त सरकारी कर्मचारी का न्यूनतम वेतनमान लगभग बारह हजार रुपया प्रतिमाह है, जो निजी क्षेत्र के कार्मिकों से बहुत ही अधिक है। वेतन के आधार पर यह कतई नहीं कहा जा सकता कि सरकारी सेवायें निजी क्षेत्र की सेवाओं से अच्छी हैं। सरकारी सेवाओं के स्तर में आ रही गिरावट तथा भ्रष्टाचार के अनगिनत उदाहरणों के कारण अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला ने सरकारी सेवाओं को 'कल्याणकारी माफिया' की संज्ञा देते हैं। अधिकांश लोग इस परिभाषा से पूरा इत्तेफाक रखते हैं। मगर गहराई से देखा जाये तो इसके लिये नीतियों की खामियाँ तथा ऊँचे स्तर का भ्रष्टाचार जिम्मेदार है।

सरकारी कर्मचारियों में कार्य के प्रति लापरवाही और उदासीनता, जनता की उपेक्षा जैसी कमियों का एक बड़ा कारण स्पष्ट पारदर्शी स्थानान्तरण नीति का न होना है। एक ही पद पर, एक ही स्थान पर वर्षों जमे कर्मचारी भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। केन्द्रीय कर्मचारियों की एक स्पष्ट स्थानान्तरण नीति है। कई राज्यों में कर्मचारियों को एक निश्चित समय के पश्चात स्थानान्तरित किया जाता है। मगर उत्तराखंड में अब तक स्थानान्तरण नीति नहीं बनी। हर साल स्थानान्तरण के आवेदन माँगे जाते हैं, परंतु अन्ततः स्थानान्तरण धन, बाहुबल और सम्पर्क के आधार पर ही होते हैं। दुर्गम, पिछड़े, सुविधाहीन क्षेत्रों में सालों से जमे पड़े लोग वहीं से सेवानिवृत्त हो जाते हैं।

इस अनीति के कारण कर्मचारियों में दो वर्ग बन गये हैं। पहले वर्ग में कर्मचारी संगठनों के नेता और वे कर्मचारी आते हैं, जिनमें राजनीतिक दलों के नेताओं और उच्चाधिकारियों से सीधे सम्पर्क अथवा धनबल या बाहुबल के कारण एक ही स्थान पर जमे रहने अथवा मनचाहे स्थान पर स्थानान्तरण करवाने की क्षमता है। एक ही स्थान पर जमे रहने के कारण इनका जबर्दस्त सामाजिक प्रभाव होता है, जिसका इस्तेमाल कर ये चेन मार्केटिंग, बीमा, प्रॉपर्टी डीलिंग, एजेंसी, दुकानदारी, ठेकेदारी आदि से मोटी कमाई कर लेते हैं। मूल सरकारी कार्य इनके लिये दूसरे नम्बर पर आता है। परिणामस्वरूप इन कर्मचारियों के कार्य का स्तर गिरने लगता है। दूसरी ओर प्रथम तैनाती से लेकर सेवानिवृत्ति तक दुर्गम, सुविधाविहीन स्थानों पर सड़ने को मजबूर अभागे कर्मचारी हैं। परिस्थितियों के कारण इनमें हताशा और कुण्ठायें घर करने लगती हैं। घर-परिवार से दूर रहने के कारण इनमें गलत आदतें भी पड़ने लगती हैं और कामचोरी, भ्रष्टाचार बढ़ने लगता है। इस तरह उचित स्थानान्तरण नीति के अभाव में सुगम तथा दुर्गम, दोनों स्थानों में तैनात सरकारी कर्मचारियों की सेवाओं का स्तर प्रभावित होता है।

जनता का विश्वास सरकारी सेवाओं में नहीं है। सबसे ज्वलंत उदाहरण मोटी तनख्वाह लेने वाले सरकारी कर्मचारी स्वयं हैं, जिनके अपने बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते। वर्ष 2010-11 में अल्मोड़ा जिले के प्राथमिक विद्यालयों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या पिछले वर्ष की अपेक्षा 5000 कम है और इसमें हर साल गिरावट आ रही है। ऐसा ही हाल स्वास्थ्य व अन्य सरकारी सेवाओं का है। मगर विभिन्न दलों की सरकारें ट्रांसफर/पोस्टिंग को एक उद्योग का स्वरूप देने में ही जुटी रहीं। इस वर्ष शिक्षा विभाग में शिक्षकों के स्थानान्तरण की दो सूचियाँ जारी की गयीं। प्रथम सूची में सुगम से दुर्गम स्थान पर स्थानान्तरित होने वाले शिक्षक थे। इनमें से अधिकतर पूर्व में बताये गये धन, बल, सम्पर्क आदि से सम्पन्न थे। इस सूची में एकतरफा कार्यमुक्ति की सुविधा दी गयी थी, लिहाजा मनचाही जगहों पर स्थानान्तरित होने वाले शिक्षकों ने तत्काल नयी जगह पर तैनाती ने ली। कुछ समय बाद लगभग 500 शिक्षकों की दूसरी लिस्ट आयी, जिसमें पहाड़ से पहाड़ के स्थानान्तरण थे। इसके साथ एक आदेश भी था कि बगैर प्रतिस्थापन के स्थानान्तरण आदेश लागू नहीं होगा। नतीजा यह हुआ कि इस दूसरी सूची के आदेश प्रभावी ही नहीं हो पाये क्योंकि दुर्गम स्थानों पर शिक्षकों को रिलीव करने को कोई तैयार ही नहीं होता। बाद में इस सूची को रद्द कर दिया गया। खुद सुविधाजनक स्थानों पर जमे रह कर मौज कर रहे कर्मचारी संगठनों के नेताओं से यह उम्मीद करना फिजूल है कि वे एक स्पष्ट, पारदर्शी स्थानान्तरण नीति के लिये आवाज उठायेंगे।

राज्य सरकार के बजट का लगभग 56 प्रतिशत वेतन/पेंशन आदि में व्यय होता है। सरकारों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि इस धनराशि का अधिकतम सदुपयोग हो। सामाजिक सौहार्द के लिये भी यह उचित है कि सरकारी सेवकों के एक स्थान पर ठहराव की उचित समय सीमा तय हो। अतः स्थानान्तरण की एक ठोस नीति बने और कड़ाई से उसका पालन हो। इससे दुर्गम क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों का मनोबल विशेष रूप से बढ़ेगा। वह दुर्गम और सुविधाहीन क्षेत्र में भी मन लगाकर कार्य कर सकेगा। सुविधाजनक स्थान पर लम्बे समय से तैनात कर्मचारियों को अवश्य कुछ दिक्कतें आयेंगी, परन्तु यदि उनमें ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा बची होगी तो वे इन दिक्कतों से उबरने में ज्यादा वक्त नहीं लेंगे। एक बार रोटेशन के आधार पर स्थानान्तरण की आदत पड़ने पर सभी कर्मचारी मानसिक रूप से अपनेआप को तैयार कर लेंगे। स्थानान्तरण करवाने या रुकवाने के लिये धन एवं समय व्यर्थ खर्च नहीं करना पड़ेगा। इससे सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार भी आयेगा।

हमारे पिछड़े पहाड़ी राज्य की गरीब जनता के लिये निजी सेवाओं का शुल्क चुका पाना संभव नहीं है। ऐसे में सरकारी सेवाओं को चुस्त-दुरुस्त करने के उपाय खोजने जरूरी हैं। इन उपायों में सबसे जरूरी उपाय है स्पष्ट और पारदर्शी स्थानान्तरण नीति।

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