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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, August 17, 2012

मानवाधिकार जन निगरानी समिति भी आदिवासियों,दलितों की बेदखली के खिलाफ लड़ाई में लामबंद!देशभर में बेदखली, सलवा जुड़ुम जारी!

मानवाधिकार जन निगरानी समिति भी आदिवासियों,दलितों की बेदखली के खिलाफ लड़ाई में लामबंद!देशभर में बेदखली, सलवा जुड़ुम जारी!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

मानवाधिकार जन निगरानी समिति भी आदिवासियों,दलितों की बेदखली के खिलाफ लड़ाई में लामबंद! वनाधिकार अधिनियम २००६ के तहत जल जंगल और जमीन के हक हकूक की हिपाजत का दावा किया जाता है, लेकिन हो इसका उलट रहा है। देश को आज़ादी मिलने के साठ साल बाद 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक क़ानून पारित किया गया, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत निवासी (वनाधिकारों को मान्यता) क़ानून। यह क़ानून केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने के लिए वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने का क़ानून है। जंगलात महकमा हमेशा की तरह जंगल से जुड़े जनसमूह के खिलाफ दमनकारी रवैया अपनाता है और कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बेदखली का ​​सिलसिला जारी है।सरकार वनक्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के अरण्य पर अधिकार को अस्वीकार नहीं करती और वनों से उनके आजीविका कमाने के धिकार को स्वीकार करने के सबूत बतौर वनाधिकार अधिनियम लागू करने का हवाला देती है। लेकिन आदिवासियों के लिए संविधान में प्रदत्त पांचवी​​ और छठीं अनुसूचियों के खुला उल्लंघन की पृष्ठभूमि में वानाधिकार का मसला मखौल बन गया है।देशभर में यही किस्सा चालू है। वनों के विनाश के विरुद्ध पर्यावरण आंदोलन और वनों व प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक के आंदोलन की वजह से उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ, पर वहां आजतक वनाधिकार अधिनियम लागू नहीं हुआ। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों की .ही कथा है। वनों से बेदखली के लिए छत्तीसगढ़ में बारकायदा सलवा जुड़ुम चल रहा है, तो बाकी राज्यों के ादिवासीबहुल इलाकों में भी घोषित तौर पर नामांतर से सलवा जुड़ुम जारी है। पूर्वोत्तर और ​​कश्मीर में तो विशेष सैन्य अधिकार कानून के तहत आम जनता के नागरिक और मानवाधिकार तक निलंबित है। पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी ​आदिवासियों के खिलाफ पुलिस प्रशासन का रवैया विशेष सैन्य अधिकार कानून जैसा ही है। चंदौली जिले के नौगढ़ के वनक्षेत्र में रहने वाले ​​आदिवासियों की बेदखली इसका जीता जागता सबूत है।सरकार की करनी और कथनी में जमीन आसमान का पर्क नजर आ रहा है।वन विभाग वनाधिकार कानून की धज्जियां उड़ाते हुए आदिवासियों की बेदखली कर रहा है। ६५ वीं स्वतंत्रता जयंती की पूर्व संध्या पर नौगढ़ में इसके खिलाफ मजदूर किसान मोोरचा ने दरना दिया, जिसमें दूसरे सामाजिक संगठनों की भागेदारी बी रही। खास बात यह है कि नवदलित आंदोलन चला रही मानवाधिकार जन निगरानी समिति, पीवीसीआर आदिवासियों के जल जंगल जमीन के हक हकूक की इस लड़ाई में लामबंद है।धरने के जरिये इन संगठनों ने चेतावनी दी है कि आदिवासियों की बेदखली की हर कोशिश का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।धरने में ासपास के गांवों के हजारों लोग शामिल हुए।

इस मौके पर पीयूसीएल के प्रदेश अध्यक्ष चित्तरंजन भाई ने कहा कि वनविबाग माफिया के साथ मिलकर नौगढ़ में महाबारत रचना चाहता है। कानून का राज दलितों, वंचितों और आदिवासियों को उनकेेअधिकार दिये बिना नहीं चल सकता। यह लड़ाई सड़क से संसद तक चलेगी। तो जन निगरानी​ ​ समिति के डा. लेनिन रघुवंशी में इस आंदोलन में पीवीसीआर की ठोस भागेदारी का वायदा करते हुए कहा कि वनविबाग और माफिया की मिलीभगत से आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है।डायनामिक एक्शन ग्रुप (डग) और उत्तर प्रदेश खेतिहर मजदूर य़ूनियन के महामंत्री राजकुमार भाई ने कहा कि गांववासी लामबंद होकर , इस बेदखली अभियान का प्रतिरोध करें।उन्होंने सरकार से वनाधिकार कानून के तहत अधिकार सुनिश्चित करने की मांग की।इंसाफ के प्रतिनिधि ारपी शाही, शिखर संश्थान की संध्या झा,रामप्रसाद भारती, रामकंवर भारती,पन्नालाल, कलावती. साधू और दूसरे वक्ताओं ने वनाधिकार कानून लागू करने की मांग दोहरायी।

उत्तर प्रदेश सरकार एक ओर वनाधिकार क़ानून के क्रियान्वयन को अपना राजनीतिक एजेंडा मानकर तरह-तरह के आदेश-निर्देश जारी कर रही है, वहीं दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन, पुलिस और वन विभाग सरकार की मंशा पर पलीता लगाने पर तुले हुए हैं. उत्तराखंड में भी इस क़ानून के क्रियान्वयन की प्रक्रिया बाधित की जा रही है।वनाधिकार कानून, 2005 को पारित करते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माना था कि आजादी के बाद के छह दशकों तक आदिवासियों के साथ अन्याय होता रहा है और इस कानून के बाद उन्हें न्याय मिल पाएगा।


जल, जंगल और जमीन यह हो जनता के अधीन, जैसे नारों के साथ क्षेत्र के दर्जनों गांवों के सैकड़ों किसान, मजदूर, गरीब मंगलवार को सड़क पर उतर गये। जुलूस निकाल जय मोहनी रेंज कार्यालय के समीप धरने पर बैठ गए। जहां सभा के माध्यम से वन विभाग के तुगलकी फरमान का कड़ा विरोध जताया। समाजिक संस्था मजदूर किसान मोर्चा, मनरेगा मजदूर यूनियन, मानवाधिकार जन निगरानी समिति, महिला स्वास्थ्य अधिकार मंच आदि आधा दर्जन संस्थाए एक मंच पर आ गई। विभिन्न संस्थाओं के आह्वान पर वन विभाग के खिलाफ जुलूस व धरना प्रदर्शन व सभा आयोजित किया गया। जहां वक्ताओं ने कहा कि वन विभाग के अमानवीयकृत से वनांचल के लोग भूखों मरने पर विवश हो गए हैं। जो आज अंग्रेजी हुकूमत को याद दिलाता है। वन विभाग के अधिकारी वन माफियाओं से मिलकर गरीबों को उजाड़ने में लगे हैं। कहा कि प्रदेश सरकार की कथनी व करनी में काफी फर्क है। भरदुआ में वन विभाग द्वारा गांव के 35 घरों को नेस्तनाबुत कर बुलडोजर चलाकर उत्पीड़न किया गया। बावजूद इसके शासन व प्रशासन चुप्पी साधें रही। कहा कि वनों को हरियाली लाने के उद्देश्य से जाइका भी कुछ न कर सकी। अलबत्ता लूट- खसोट, भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। फलदार पौधों को लगाने के बजाय कोरमपूर्ति की गई। सभा मंच से जमीनों के दावों का निस्कारण, वनाधिकार नियम 2006 आदि वासियों, मजदूरों तथा दलितों की बस्तियों को को उजाड़ने को रोका जाए। गरीबों का सताना बंद किया जाए आदि मांग जोरदार ढंग से उठाई गई।

गौरतलब है कि आजादी के 65 वर्ष बाद चन्दौली जिले का नौगढ़ ब्लाक आज भी गुलाम है संविधान में सभी नागरिकों को समान रुप से जीने का अधिकार दिया गया है लेकिन नौगढ़ में आज भी दोयम दर्जे की स्थिति बरकरार है। वनाधिकार कानून को लागू करते हुए सरकार ने कहा था कि जंगल पर निर्भर लोगों के साथ लम्बे समय से नाइंसाफी हो रही हैं जिसकों कम करने के लिए वनाधिकार अधिनियम 2006 को लागू किया गया परन्तु वनाधिकार अधिनियम 2006, लम्बे संघर्ष के बाद 2009 में चन्दौली जिले में लागू किया गया।2010 में चन्दौली जिला में कुल 14088 दावा फार्म भरा गये थे जिसमें से 81 लोगों को 3 एकड़ जमीन दी गई है तथा 14007 दवा फार्मों को निरस्त कर दिया गया है ।

सरकार की दोहरी नीति एक तरफ जमीन के लिए दावा फार्म भरने के लिए समिति का गठन करना तथा दूसरी तरफ जमीन से बेदखली का अभियान चलाया जाना। चन्दौली जिला में उन्हीं लोगों को जमीन से बेदखल किया जा रहा हैं, जिनके पास वन भूमि के अलावा जीने व रहने के लिए कोई घर नहीं है, कोई आधार नहीं हैं, जो पूरी तरह वन पर आश्रित है।
वनविभाग द्वारा लगातार उनके घरों को उजाड़ने की प्रक्रिया चल रही हैं। दूसरी तरफ बड़े कस्तकार या भू माफिया हैं, जिनके पास 400 से लेकर 500 एकड़ तक की जमीन हैं और वह भी वन भूमि में काबिज है। उनके घरों को या फसलों को उजाड़ने के लिए वन विभाग द्वारा कोई अभियान या पहल नहीं किया जा रहा है। वहीं वन विभाग लगातार दलितों व आदिवासियों को उजाड़ने हेतु पुलिस फोर्स का सहारा लेता हैं तथा घर की बहू बेटियों के उपर शारीरिक व मानसिक अत्याचार किया जाता हैं।

चन्दौंली जिले के नौगढ़ विकास खण्ड में 29 जून को जयमोहनी रेन्ज के अधिकारियों, पुलिस व वनकर्मीयों द्वारा ग्राम -भरदुआ, पोस्ट-समसेरपुर के दलितों की बस्तियों को दिन के 12 बजे उजाडा गया। वन विभाग के अधिकारीयों व कर्मचारियों ने (वनवासी) दलितों के घर जे.सी.बी. लगाकर गिरा दिये। जिस समय यह घर गिराने का कार्य चल रहा था, उस समय अधिकांश पुरुष मजदूरी करने के लिए बाहर गये हुए थे। गॉव में केवल कुछ महिलाएं ही थी। घर गिराने के साथ-साथ ही घरों में रखे हुए अनाज के बर्तनों को तोड दिया गया, जिसके कारण अनाज मिटी में मिल गया, विरोध करने वाले लोगों को गन्दी-गन्दी गालिया दी गयी, साथ ही उनको मारा पीटा गया। इनमें 35 लोग घायल हुये है।


इस घटना के प्रतिरोध में स्थानिय जन संगठन "मजदूर किसान मोर्चा" ने अन्य संगठनों के साथ मिलकर आंदोलन शुरू किया है इस घटना के विरोध में सरकार के विभिन्न अधिरारियों के पास मांग पत्र भेजा है। साथ ही नौगढ़ का आम जन इस घटना के विरोध में लामबन्द हो रहा है।

दूसरी तरफ, देश में वनाधिकार क़ानून लागू होने के बावजूद वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को उनके मूल स्थान से भगाने के प्रयास किए जाते रहते हैं, जिससेउन्हें का़फी परेशानी का सामना करना पड़ता है। पिछले दिनों ऐसा ही एक मामला सामने आया. राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच के वन गूजर नूर जमाल की गिरफ्तारी के विरोध में वन गूजरों और टांगिया गांव की महिलाओं ने बीते 29 जून को सहारनपुर की बेहट तहसील अंतर्गत आने वाले थाना बिहारीगढ़ का घेराव कर पुलिस को उसे बिना शर्त रिहा करने को मजबूर कर दिया। जानकारी के अनुसार, बीते 28 जून को उत्तराखंड स्थित राजाजी नेशनल पार्क अंतर्गत आने वाली मोहंड रेंज की झूठी तहरीर पर उत्तर प्रदेश के  थाना बिहारीगढ़ की पुलिस ने वन गूजर समुदाय के तीन लोगों नूर जमाल, जहूर हसन एवं इरशाद के खिला़फ धारा 332, 186 और 427 के तहत म़ुकदमा दर्ज कर नूर जमाल को गिरफ्तार कर लिया था।

इससे पूर्व 24 जून को जब ये तीनों लोग पार्क क्षेत्र में बसे अपने डेरे पर जा रहे थे, तब मोहंड रेंज के रेंजर महावीर सिंह नेगी ने रास्ते में इन्हें रोक लिया और मारपीट शुरू कर दी. इरशाद अपनी जिस मोटरसाइकिल पर जा रहा था, उसे छीन लिया गया और धमकी दी गई कि अगर जंगल क्षेत्र छोड़कर बाहर नहीं गए तो गोली से उड़ा दिए जाओगे। मामला उत्तराखंड के बुग्गावाला क्षेत्र का होने के कारण रेंजर के खिला़फ थाना बुग्गावाला में उन्होंने तहरीर दी, जिस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इधर रेंजर महावीर नेगी ने थाना बिहारीगढ़ के थानाध्यक्ष दिगंबर सिंह से साठगांठ करके महिला वनकर्मी बबलेश की ओर से रिपोर्ट दर्ज करा दी, जिसके आधार पर थाना बिहारीगढ़ पुलिस नूर जमाल को घर से उठाकर थाने ले आई। नूर जमाल की गिरफ्तारी को लेकर पार्क क्षेत्र में बसे वनगूजर और वनटांगिया समुदाय के लोगों में आक्रोश फैल गया।


इसके बाद राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच के बैनर तले राज्यस्तरीय वनाधिकार निगरानी समिति की विशेष आमंत्रित सदस्य रोमा, मंच के सदस्य रजनीश, हरी सिंह, विपिन गैरोला, प्रद्युम्न के साथ दोनों वन समुदायों की महिलाओं ज़ैनब एवं सीता आदि की अगुवाई में 500 से अधिक लोगों ने थाना बिहारीगढ़ का घेराव कर लिया। महिलाओं ने थाना कार्यालय के दोनों दरवाज़े बंद कर पुलिसकर्मियों को यह कहकर क़ैद कर लिया कि जब तक नूर जमाल को बाइज़्ज़त रिहा नहीं किया जाएगा, तब तक पुलिसकर्मियों को भी बाहर नहीं निकलने दिया जाएगा। थाने का बरामदा एक जनसभा स्थल में तब्दील हो गया और वहां रखी मेज़ को मंच बनाकर भाषण दिए जाने लगे. पुलिस मूकदर्शक बनी यह सब देखती रही। किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह दमन से उपजे इस जन विरोध का सामना कर सके।थानाध्यक्ष ने मामला अपने हाथ से निकलता देख पड़ोसी थाना फतेहपुर के थानाध्यक्ष और क्षेत्राधिकारी बेहट को बुला लिया।प्रदर्शनकारी महिलाओं ने क्षेत्राधिकारी को घटना और उसके वनाधिकार क़ानून के क्रियान्वयन की प्रक्रिया से जुड़े होने की जानकारी दी तो उन्होंने मामले की सत्यता को समझ कर स्वीकार किया कि थानाध्यक्ष ने एक निर्दोष व्यक्ति को गिरफ्तार किया है। उन्हें बताया गया कि वनाधिकार क़ानून के तहत अब किसी भी वन समुदाय को उसकी मर्ज़ी के बग़ैर वन क्षेत्र से हटाया नहीं जा सकता। इस बारे में नैनीताल उच्च न्यायालय द्वारा वनगूजरों के पक्ष में 2007 में वनाधिकार क़ानून को संज्ञान में लेते हुए आदेश भी जारी किए जा चुके हैं, लेकिन पार्क प्रशासन द्वारा 2008 में जहूर हसन और नूर जमाल के डेरों को लूटकर आग के हवाले कर दिया गया। पार्क प्रशासन लगातार तरह-तरह के हथकंडे अपना कर वन गूजरों को वन क्षेत्र से भगाने की कोशिशें करता रहता है।रेंजर द्वारा महिला से दिलवाई गई तहरीर भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। उन्होंने सारी बात समझते हुए न स़िर्फ नूर जमाल को बिना शर्त बाइज़्ज़त रिहा किया, बल्कि वन गूजरों की ओर से रेंजर महावीर नेगी के खिला़फ दी गई तहरीर लेते हुए उस पर कार्रवाई करने का आश्वासन भी दिया। इसके बाद सभी लोग नूर जमाल को लेकर मोहंड रेंज कार्यालय पहुंचे. यहां लोगों के आने की खबर पाकर कर्मचारी पहले से ही भाग खड़े हुए, लेकिन लोगों ने रेंज कार्यालय पर प्रदर्शन करते हुए ज़बरदस्त नारेबाज़ी की और दीवारों पर लिखकर चेतावनी दी कि अगर पार्क प्रशासन द्वारा यहां बसे वन गूजर और टांगिया समुदायों का उत्पीड़न नहीं रोका गया तो पार्क निदेशक रसैली सहित सभी कर्मचारियों के खिला़फ ग्राम समितियों की ओर से वनाधिकार क़ानून 2006 की धारा 7 के  तहत कार्रवाई की जाएगी।


पीपुल्स मूवमेंट एगेंस्ट न्यूक्लियर एनर्जी के बैनर तले कूडानकूलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का कल 16 अगस्त को एक वर्ष पूरा हो गया।, भारत की सरकार बिलकुल अलोकतांत्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा का एक घातक विस्तार हम पर थोप रही है। इसके लिए लोगों के स्वास्थय तथा आजीविका पर इन परियोजनाओं के प्रभाव, भारत की वास्तविक ऊर्जा-जरूरतों, परमाणु ऊर्जा की सामाजिक तथा पर्यावरणीय कीमतों और फुकुशिमा के बाद दुनिया भर में परमाणु-ऊर्जा पर निर्भरता कम करने के चलन को भी अनदेखा किया जा रहा है।. हरियाणा के गोरखपुर में स्थानीय किसान पिछले दो साल से रोज प्रस्तावित अणु-बिजलीघर के विरोध में धरने पर बैठ रहे हैं। वे खास तौर पर पिछले महीने हुई उस फर्जी पर्यावरणीय जन-सुनवाई से नाराज़ हैं, जिसमें उनको पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की रिपोर्ट तक नहीं दी गयी थी।महाराष्ट्र के जैतापुर में भी एक मजबूत संघर्ष चल रहा है, जहां दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु बिजलीघर लगाने की कोशिश हो रही है. ऐसे ही आंदोलन देश के अन्य कई हिस्सों में चल रहे हैं।सरकार ने 'भटका हुआ', 'बाहरी लोगों का भडकाया हुआ' और विदेशी हाथों से संचालित होने के झूठे आरोप लगाकर इन आन्दोलनों को बदनाम किया है और कार्यकर्ताओं के खिलाफ सैकड़ों मुकदमे थोप दी हैं। फुकुशिमा के बाद परमाणु सुरक्षा को लेकर लोगों की चिंताओं को जानबूझ कर नजरअंदाज़ किया जा रहा है और इन बिजलीघरों की सुरक्षा तथा पर्यावरणीय प्रभावों से जुड़े दस्तावेज और जानकारी तक छुपाई जा रही है।
इन आन्दोलनों पर हुए दमन में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है।जैसे कूडनकुलम में लगभग 7,000 ऐसे लोगों पर देशद्रोह तथा भारत-सरकार के खिलाफ युद्ध छेडने के आरोप लगाए गए हैं जो पूर्णतया शांतिप्रिय आंदोलन चला रहे हैं। लोकतांत्रिक कायदों का ऐसा ही सरेआम उल्लंघन दूसरी जगहों पर भी हो रहा है – जैतापुर, मध्य प्रदेश के चुटका, आन्ध्र प्रदेश के कोवाडा, राजस्थान के रावतभाटा इत्यादि में. रावतभाटा परमाणु संयत्र में हाल में हुए ट्रीशियम के रिसाव में 38 मजदूरों के शिकार होने की घटना से वर्त्तमान में चल रहे संयंत्रों की सुरक्षा पर भी गंभीर सवाल खड़े हुए हैं।


झारखण्ड की राजधानी रांची से सटे कांके थानान्तर्गत एक आदिवासी बहुल गांव है जिसका नाम नगड़ी। इस गांव की 227 एकड़ जमीन राज्य सरकार ने बंदूक के बल पर छीनकर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटि, आई.आई.आई.टी एवं आई.आई.एम. बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी ।  सरकार ने सैंकड़ों पुलिस फोर्स को खेत में उतार कर चारदिवारी का काम प्ररंम्भ किया । 9 जनवरी 2012 के बाद ग्रामीणों को अपने खेत में जाने पर रोक लगा दिया गया । कोई खेत में जा नहीं सकता है। पूरे 227 एकड़ जमीन में 144 धारा लगा दिया गया. खेत में गाय-बैल, मुर्गी-चेंगना को भी चरने के लिए जाने नहीं दिया गया था। 9 जनवरी 12 से सैंकड़ों पुलिस फोर्स खेत में उतार कर चहारदिवारी का काम प्ररंम्भ किया सरकार ने। 9 जनवरी 2012 के बाद ग्रामीणों को अपने खेत में उतरने पर रोक लगा दिया गया । कोई खेत में जा नहीं सकता है। पूरे 227 एकड़ जमीन में 144 धारा लगा दिया गया और पूरे खेत में सैंकड़ों पुलिस बल को तैनात कर दिया गया। खेत में गाय-बैल, मुर्गी-चेंगना को भी चरने के लिए जाने नहीं दिया जाता था। बाद में आंदोलन तेज होने के साथ ही बैल-बकरियों,  को खेत में चरने दिया जाने लगा। नदी के किनारे 100 एकड़ से अधिक जमीन में किसान गेहुं, चना, आलू, मटर, गोभी, आदि सब्जी लगा दिये थे-सबको पुलिस वाले बुलडोज कर दिये।

तथाकथित मुख्यधारा को मालूम ही नहीं है कि आदिवासियों,दलितों की बेदखली की कीमत पर प्रकृति के साथ कैसा कारपोरेट बलात्कार जारी है। मसलन मध्य प्रदेश में 11 प्रमुख नदियाँ बहती हैं. यह नदियाँ कभी लोगों की खुशहाली का कारण होती थीं, लेकिन आज कंपनियों, कार्पोरेट्स और सरकारों के मुनाफ़ा कमाने का साधन बन चुकी हैं, क्योंकि सरकारें इन नदियों पर बाँध बनाकर इनका पानी बेचने का काम करने लगी हैं। नर्मदा, चम्बल, ताप्ती, क्षिप्रा, तवा, बेतवा, सोन, बेन गंगा, केन, टोंस तथा काली सिंध इन सभी नदियों के मुहानों पर आज सरकार पावर प्लांट लगा रही है या लगाने जा रही है जिससे लाखों लोगों के सामने अपने अस्तित्वा का संकट पैदा हो गया है।

साल २००६ के १३ दिसंबर को लोकसभा ने ध्वनि मत से अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक(२००५) को पारित किया। इसका उद्देश्य वनसंपदा और वनभूमि पर अनुसूचित जाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को अधिकार देना है।

22 जून, 2012 को पॉस्को और सरकार के बीच समझौते पर हस्ताक्षर करने के 7 वर्ष पूरे होने के मौके पर पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति ने पटनाहाट एवं बालितिथा में पोस्को के विरोध में दो जनसभाओं का आयोजन किया। वक्ताओं ने कहा कि अगले दो महीनों में, भारत की आजादी के 65 वर्ष पूरे हो जाएंगे। हम उन लोगों को याद करने को मजबूर हो जाएंगे जिन्होंने हमारी आजादी के लिए अपने निजी-हितों का बलिदान किया। अफसोस की बात है, कि भूमंडलीकरण के बाद के पिछले डेढ़ दशक के दौरान, हमारे नेटा आजादी की लड़ाई के उन उद्देश्यों का ही त्याग कर रहे हैं। भारत की भूमि, नदियों, पहाड़ों, समुद्र, और जंगलों को वैश्विक कंपनियों को बेचा जा रहा है और लाखों किसानों, दलितों, आदिवासियों और मछुआरों को विथापित किया जा रहा है और इस देश के पर्यावरण का विनाश हो रहा है।ओडिसा के कालाहाण्डी जिले का लाँजीगढ़ ब्लाक भारतीय संविधान के तहत विशेष संरक्षण प्राप्त अनुसूचित क्षेत्रों में आता है। इसी स्थान पर वेदांता कंपनी ने अपना अलमुनाई प्लांट लगा रखा है और इसी क्षेत्र में स्थित नियामगिरि पहाड़ के बेशकीमती बाक्साइट पर उसकी ललचाई निगाहें लगी हुई हैं। स्थानीय ग्रामवासी, आदिवासी अपनी जमीन, जंगल, नदी, झरने, पहाड़ बचाने की लड़ाई लगातार लड़ते आ रहे हैं।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने टिहरी जिले की घनशाली तहसील में भिलंगना नदी पर 'स्वाति पावर इंजीनियरिंग लि.' द्वारा बनाई जा रही जल विद्युत परियोजना की केन्द्र सरकार से पुर्नसमीक्षा कर तीन माह के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा है। इस परियोजना से फलिण्डा, सरूणा,    थेलि, रौंसाल, जनेत, बहेड़ा व डाबसौड़ा गांवों के 500 परिवारों के ऊपर खतरा उत्पन्न हो गया था। भिलंगना नदी के दोनों ओर ग्रामीणों द्वारा बनाई गई 6 सिंचाई मूलें, 6 श्मसानघाट व दो घराट (पनचक्की) के अलावा आसपास का हरा-भरा जंगल व गौचर, पनघट भी परियोजना की जद में आ गये थे। ग्रामीणों ने परियोजना का लगातार विरोध किया था।

टिहरी गढ़वाल जनपद के मुनेठ गांव की हकीकत विस्थापन की त्रासदी और विकास के दावों की असलियत बयाँ करती है। यह गांव कोटली भेल 1 अ परियोजना के अन्तर्गत विस्थापित किये गये गांवों में से एक है। इस परियोजना के तहत 195 मेगावाट बिजली उत्पादित करने का लक्ष्य रखा गया है। इस परियोजना के तहत 11 गांवों की 19589 हेक्टेअर जमीन अधिग्रहीत की गयी है।16 जुलाई 2010 का दिन उत्तराखंड की जनता के लिए एक बड़ी जीत के रूप में सामने आया है। इससे उन जन संगठनों तथा आंदोलनों को मजबूती मिली है जो उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनता के हकों तथा उनके संरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं। गौरतलब है कि उत्तराखंड सरकार ने ''सेल्फ आइडेंटीफाइड स्कीम'' के तहत 56 विद्युत परियोजनाओं का आबंटन अनियमित व गोपनीय तरीकों से कर दिया था। अपनी इस गलती को स्वीकार करते हुए उत्तराखंड सरकार ने इन परियोजनाओं के अनुबंधों को तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया है।

राजस्थान में वनाधिकार कानून, 2005 को 2008 में लागू किया गया। एक तरफ 1 जुलाई 1992 का आदेश था कि 01/07/1980 के पहले से जो आदिवासी जहां रहते हैं उनका नियमन राज्य सरकार शीघ्रातिशीघ्र करे। 1995 तक राजस्थान भर में कुल 11 कब्जों की पहचान हुई। दूसरी तरफ वन-विभाग वाले आदिवासियों को जंगल से बेदखली, हफ्तावासूली के साथ-साथ उनकी झोपड़ियों और खड़ी फसलों में आग लगाने जैसी कार्यवाहियां होती रही। 1995 में जनसंगठनों ने कुल 23 पंचायत समितियों में 17000 काश्तकारों के जंगल में रहने का आकड़ा उजागर किया। 6 अक्टूबर, 1995 को 2000 आदिवासियों ने पहला प्रदर्शन जनजाति आयुक्त कार्यालय, उदयपुर में किया। प्रदर्शन से पहले लोग एक-दूसरे को भले ही नहीं जानते हो लेकिन सबका दर्द एक ही था। नारे क्या लगाने हैं, भाषण कौन देगा जैसी बातें भी उन्होंने टाउनहाल में तय की थीं। जब शहर के बीचोबीच जुलूस में भारी भीड़ उमड़ी तो दफ्तर के लोगों से मंत्रालय तक पता जाकर चला कि यह तो बड़ी समस्या है। आदिवासियों ने मांग रखी कि वन-विभाग की तरफ से बेदखली की कार्यवाही बंद हो। 15 दिसंबर, 1995 को जब राजस्थान के मुख्य सचिव मीठालाल मेहता उदयपुर दौरे पर आए तो जनता ने उन्हें 1992 के आदेश के नियमन की याद दिलाई। मुख्य सचिव ने तिथि आगे बढ़ाने और शीघ्रातिशीघ्र नियमन का आश्वासन दिया।

आश्वासन के अलावा कुछ होता नहीं देख 6 जुलाई, 1996 को उदयपुर तहसील की सभी तहसीलों के साथ बांसवाड़ा, डुंगरपुर और चित्तौड़गढ़ से 3000 आदिवासियों ने टाउनहाल के सामने अनिश्चितकालीन धरने की बात कही। प्रशासन ने सोचा कि यह दम दिखावटी है, रात होते-होते लोग वापस चले जाएंगे। लेकिन शाम होते-होते जब लोग अपने साथ लाए आटा-सामान खोलकर रोटियां बनाने लगे तो प्रशासन समझा। सुबह 10 बजते-बजते संभागीय आयुक्त एस अहमद ने लिखित आश्वासन पढ़कर सुनाया तो पुराने तजुर्बों के चलते लोगों ने भरोसा नहीं किया। काफी चर्चा-बहस के बाद लोग लिखित आश्वासन की सैकड़ों प्रतियां लेकर गांव गए। लिखित आश्वासन में कहा गया था कि लोकसभा के चुनाव के बाद कब्जों की पहचान करायी जाएगी। ऐसा कोई कार्यवाही होते न देख आंदोलन ने सर्वे प्रपत्र खुद बनाने का फैसला लिया। इसमें ग्राम स्तर पर समितियां बनाई गई। 31 जनवरी, 1997 तक सूचनाएं जमा हुई, जिसमें कुल 8788 लोगों का 71304 बीघा जमीन पर कब्जा पाया गया। यानी एक परिवार की औसतन 8 बीघा जमीन। 6 फरवरी, 1997 में जनजाति आयुक्त को 1980 से पहले काबिज लोगों की तहसीलवार सूचियां दी गई।

9 सितम्बर, 1997 को दो दिनों तक चले सम्मेलन में तय हुआ कि चार स्तरीय समितियां (ग्राम, पंचायत, तहसील, व केन्द्रीय बनायी जाए। 1998-99 में सरकार ने मौका सत्यापन के लिए शिविर लगाए। कोरम के अभाव में जो खानापूर्ति बनकर रह गए। 1998 के लोकसभा चुनाव में 'सवाल हमारे जबाव आपके' नाम से जो अभियान चलाया गया उसमें उम्मीदवारों से जंगल-जमीन को नियमन करने की बात पर लिखित आश्वासन मांगे गए। अलग-अलग क्षेत्रों से अलग-अलग पार्टी के उम्मीदवार जीते और पुराने आश्वासन भूले। लेकिन पांच सालों तक वनाधिकार की लड़ाई ने आंदोलन का रूप ले लिया था।

15  सितम्बर, 2004 तक वन मंत्री बीना काक ने जब कब्जों का भैतिक सत्यापन करवाने के वायदा नहीं निभाया तो आंदोलन ने विधानसभा का घेराव किया। उस समय दक्षिण राजस्थान के 16 विधायकों के साथ हुई चर्चा हुई। तब कई विधायकों और मंत्रियों का समर्थन मिला। 19 जुलाई को नई दिल्ली में दो दिनों तक चली राष्ट्रीय जनसुनवाई में 13 राज्यों से प्रतिनिधि आए। इसमें फैसला लिया गया कि जिन राज्यों की याचिकाएं 'केन्द्रीय सशक्त समिति' में दायर नहीं की गई हैं उन्हें दायर किया जाए। 18 अक्टूबर को तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ हुई बैठक में दो बातें तय हुईं। एक तो आदिवासियों की बेदखली को फौरन रोका जाए। दूसरा फसल को आग लगाने से लेकर पुलिस कार्यवाही की घटनाएं भी बंद हो।

2002 में राजस्थान में लगातार चौथे साल अकाल पड़ने और राहत नहीं मिलने से आदिवासी इलाकों से भारी तादाद में पलायन होने लगा। भुखमरी और पशुओं की मौतों की तादाद बढ़ते देख आंदोलन ने 12 अप्रैल, 2002 को जो धरना दिया उसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह और सीताराम येचुरी भी शामिल हुए। लोगों ने नारे लगाए – भूखे पेट नहीं चलेगा यह अन्याय। उस समय 60 लाख टन अनाज को सड़ाकर समुद्र में फेंका जा रहा था। लोग जैसे ही एफसीआई की गोदामों की तरफ बढ़े वैसे ही पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। इसके बाद राज्य के लोगों को 2.5 लाख टन अनाज का कोटा मिला और काम के बदले अनाज की योजना बनी।

7 से 21 मार्च, 2005 को जंतर-मंतर, दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे 'इज्जत से जीने के अधिकार' के साथ 'वनाधिकार विधेयक' को संसद में पास कराने के लिए 15 दिनों का धरना दिया गया। इसके समर्थन में 41 सांसद व्यक्तिगत तौर से उपस्थित हुए। इसके बाद 20 सांसदों की एक समिति भी बनी जिसने अपने स्तर पर संसद में काम करना शुरू किया। 16 सितम्बर, 2005 को राष्ट्रीय नेता और दक्षिण राजस्थान से 5000 से ज्यादा आदिवासियों ने 'संयुक्त संघर्ष मंच' की उदयपुर रैली में भाग लिया। 15 दिसम्बर को वनाधिकार कानून लोकसभा में और 18 दिसम्बर को राज्यसभा में पारित हुआ।

अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनसमुदाय (वनाधिकारों को मान्यता) कानून 2006 के प्रभावी क्रियान्वन के लिए वनाश्रित समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ राजनैतिक पहल करने के लिए राज्य सभा व लोकसभा के सांसदों के साथ एक वार्ता 23 जुलाई 2012, डिप्टी स्पीकर हाल, कांस्टीटयुशन कल्ब, नई दिल्ली, सांय 4 से 7 बजे में राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच द्वारा आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में राज्य सभा के सदस्य जनता दल युनाईड के अली अनवर, बसपा से एस0पी0एस बाघेल, लोकसभा के सदस्य राबर्टसगंज लोकसभा के समाजवादी पार्टी के सांसद पकौड़ी कोल, समाजवादी पार्टी के युवा विंग के राष्ट्रीय सचिव धनंजय व उत्तरप्रदेश के पूर्व राज्य मंत्री संजय गर्ग उपस्थित हुए। इस वार्ता का मुख्य मकसद सांसदों का देश के राज्यों से आए वनक्षेत्रों के प्रतिनिधियों को वनाधिकार कानून 2006 के क्रियान्वन के आ रही दिक्कतों व राजनैतिक स्तर पर पहल करने के लिए आयोजित किया गया था।

इस कार्यक्रम में देश के 16 राज्यों से लगभग 100 प्रतिनिधि शामिल हुए जिसमें उड़ीसा, झारखंड, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, अरूणांचल प्रदेश, त्रिपुरा, उत्तराखंड, असम, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छतीसगढ़ के प्रतिनिधि शामिल थे। साथ ही इस कार्यक्रम में कई संगठनों ने प्रतिनिधित्व किया व मीडिया के साथी भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। कार्यक्रम की अध्यक्षता राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच की राष्ट्रीय अध्यक्षा जारजुम एटे ने की। कार्यक्रम का संचालन संजय गर्ग ने किया जिन्होंने विषय प्रस्तुत किया व वनाधिकार के सवालों पर कार्य करने वाले जनसंगठनों व प्रतिनिधियों के साथ इस वार्ता के आयोजन का उद्देश्य बताया। उन्होंने काफी मजबूती से कहा कि देश में संसद के दोनों सदनों ने दिसम्बर 2006 में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनसमुदाय (वनाधिकारों को मान्यता) कानून 2006 को सर्वसम्मति से पारित किया था।

यह कानून एक ऐतिहासिक विधेयक है क्योंकि कानून की प्रस्तावना में वनाश्रित समुदाय के साथ हो रहे ऐतिहासिक अन्याय के खत्म करने की घोषणा की गई है। हमारी संसदीय गणतंत्र में वनाश्रित समुदायों के लिए यह एक अभूतपूर्व घटना थी जिसकी वजह से उन्हें आजादी के 60 वर्ष बाद पहली बार आजाद होने का एहसास हुआ और सदियों से वंचित समुदायों में मुख्य धारा में अपना हिस्सा पाने के लिए उत्साह पैदा हुआ। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि कानून के पारित होने के पांच साल बाद भी वनाश्रित समुदाय को वो आजादी नहीं मिली बल्कि उनके उपर वनविभाग, सांमतों और वनमाफियाओं के जुल्म लगातार बढ़ रहे हैं। वनाश्रित समुदायों में आंदोलनरत तमाम संगठनों ने और उनके शुभचिंतक प्रगतिशील व्यक्तियों ने बार-बार इस मुददे पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। यह भी सच्चाई सामने आ रही कि वनविभाग और निहित स्वार्थों खुलकर संसद के द्वारा पारित ऐतिहासिक निर्णय की अवमानना कर रहे हैं और ऐतिहासिक अन्याय की प्रक्रिया को जारी रख कर वनाश्रित समुदाय को उनके अधिकार पाने में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर सांसदों से यह उम्मीद की जा रही है कि वे कानून को लागू करने की प्रक्रिया में अपनी अहम भूमिका निभाए संसद के अंदर और बाहर भी। राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच के वरिष्ठ साथी व न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव के अध्यक्ष डी थंगप्पन ने वनाधिकार कानून के संदर्भ में अभी 12 जुलाई 2012 को जारी आदिवासी मंत्रालय के नए दिशा निर्देश के बारे में स्वागत करते हुए लघुवनोपज को वननिगम और बिचौलियों से मुक्त कराने के लिए ठोस पहल करने के सुझाव दिए। उन्होंने बोला कि अब वो समय आ गया है जब ग्राम सभा को मजबूत किया जाए व वनसंसाधनों को लोगों के हाथों में सौंपा जाए व मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में महिलाओं द्वारा दिए गए नारे वनविभाग को भगाओ पर अमल किया जाए।

इसके लिए आदिवासी मंत्रालय द्वारा जारी निर्देशों को जारी करना ही काफी नहीं होगा बल्कि इसके लिए वनसमुदाय के साथ काम कर के उनकी सहकारी समितियों को बना कर ही वननिगम व बिचौलियों को दूर किया जा सकता है। लेकिन हमारे देश में सहकारी समितियों में सरकारी दखल की वजह से यह आंदेालन कभी कामयाब नहीं हो पाया। इसलिए सहकारी समितियों के संदर्भ में कई नयी नीतियों को लाना होगा व मौजूदा सहकारी समितियों के कानून में बदलाव लाना होगा। इस काम के लिए सांसदों की अहम भूमिका होगी और उनको इस काम में वनाश्रित समुदाय के साथ काम कर रहे संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है। वनों के अंदर सामुदायिक वनाधिकारों के वनस्वशासन एवं लघुवनोपज पर नियंत्रण कायम करने के लिए समुदाय के साथ कई स्तर पर एवं नीति के स्तर पर भी कई राजनैतिक पहल करनी होगी जिसमें सांसदों की एक अहम भूमिका होगी चूंकि यह कानून केवल वनाश्रित समुदाय के लिए बल्कि पूरे नागरिक समाज के लिए है इसलिए पर्यावरण, जंगल व पूरे प्रकृति को बचाने की जंग है।

दक्षिण भारत से आए आदिवासी परिषद के के0कृष्णन ने बताया कि वनविभाग आज भी देश का सबसे बड़ा जमींदार है व आज भी वनों के अंदर अंग्रेजी शासन चलता है। यह विभाग नहीं चाहता कि देश में वनाधिकार कानून लागू हो, ऐसा नहीं कि इस बात को सरकार न जानती हो लेकिन संसद में तो यह कानून पास हो गया पर जमींनी स्तर पर इस कानून का क्या हश्र हो रहा है इसके बारे में संसद द्वारा किसी भी प्रकार की निगरानी नहीं की जा रही। इसलिए सांसदों से यह अपेक्षा की जा रही है कि इस तरह के कानूनों के लिए संसद के अंदर विस्तृत बहस चलाए व संसद के अन्य सांसदों को संवेदनशील बनाए।

असम से आए कृषक मुक्ति संग्राम समिति के अखिल गोगई में असम सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को लेकर जो कोताही बरती जा रही है उसके बारे में बताया। उन्होंने बताया कि असम सरकार एक उच्च न्यायालय के आंदेश का हवाला देती है व कहती है कि असम में रहने वाले आदिवासी वनाश्रित समुदाय है ही नहीं और वहीं दूसरी और अन्य परम्परागत वनसमुदाय के लिए 75 वर्ष के प्रमाण का प्रावधान लगा कर वनाश्रित समुदाय के साथ गैरसंवैधानिक कार्य किया है। 75 वर्ष का प्रावधान लोकतंत्र की मंशा के खिलाफ है व उपनिवेशिव मानसिकता का प्रतीक है ऐसे में यह कानून किस प्रकार से लागू होगा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अभी हाल ही में आदिवासी मंत्रालय द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देश में अन्य परम्परागत समुदाय के बारे में कुछ भी नहीं है देश में अनुसूचित जनजाति से कहीं ज्यादा तादात तो अन्य परम्परागत समुदाय की है। इस समुदाय में ऐसे कई आदिवासी समुदाय भी है जिन्हें आज तक अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसलिए एक बार फिर ऐतिहासिक अन्याय दोहराया जा रहा है। माननीय सांसदों से उन्होंने अपील की कि वे इस मसले को संसद में उठाए व इस कानून में दिए गए 75 वर्ष के प्रावधान को हटा कर वनों में रहने वाले लोगों के लिए एक ही समय सीमा दिसम्बर 2005 निर्धारित किया जाए व इस कानून को गंभीरता से लागू कराने की मुहिम चलाए।

वक्ताओं की बातों को सुनकर माननीय सांसदों ने अपनी वक्तवयों को रखा पहले अली अनवर ने कानून के बनने और लागू होने में सरकारों व सरकारी तंत्र की अक्षमता के बारे में चर्चा की और कहा कि आज की राजनीति में काफी बदलाव आ चुका आज जल, जंगल और जमींन का मुददा किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेंडे में नहीं है। उन्होंने संजय गर्ग से सहमति जताते हुए कहा कि यह दो मानसिकता की लड़ाई है एक लड़ाई जो बचा रहे हैं उनकी और दूसरी उनसे जो कि इन संसाधानों को उजाड़ रहे हैं। इसलिए यह दो सभ्यताओं की लड़ाई हैं। आज ऐसा दौर है कि कोई सुनने को तैयार नहीं है, जो जनता के कानून है वो जल्दी से लागू नहीं होते पर जो कानून कारपोरेट से सम्बन्धित हैं उनके ऊपर फौरन अमल होता है। उन्होंने यह भी कहा कि सांसद होने के नाते भी कुछ सीमाए हैं जहां पर एक स्तर तक ही जा कर काम हो सकता है इसलिए अपने कानून को लागू कराने के लिए जनता को ही पहल करनी होगी, और आंदोलन के तहत सरकारों का तख्ता पलट हो सकता है।

सांसद पकौड़ी कोल जो कि खुद भी आदिवासी समुदाय से हैं ने अपनी बेबाक शैली से सभी उपस्थित सदस्यों का मन मोह लिया। उन्होंने कहा कि अब ऐसे काम नहीं चलने वाला जो कानून जनता के पक्ष के लागू नहीं होते उसे लागू कराने के लिए संसद की कार्यवाही को ठप कराना होगा, हंगामा कर दोनों सदनों की कार्यवाही को जब तक बंद नहीं कराया जाएगा तब तक सरकार नहीं सुनेगी। इसलिए इस काम के लिए हमें संसद के अंदर और संसद के बाहर दोनों जगह आवाज उठानी होगी। उन्होंने कहा कि वे इस सवाल पर देश में काम कर रहे तमाम संगठनों और सांसदों की एक मिंटिंग अपने खर्चे पर बुलाएंगे और वनाधिकार कानून के मुद्दे पर जागृत करने का काम करेंगे। उन्होंने कहा कि जहां भी देश में इस कानून के विषय पर बुलाया जाएगा वे इस मुददे के लिए सभी प्रदेशों में जाने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि जंगल को वनविभाग बेच कर खा रहा है लोग तो जंगलों को बचाते हैं। उन्होंने कहा कि वे इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव से भी बात करेंगे।

एस0पी0एस बाघेल ने भी काफी गंभीरता से वनाधिकार मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए। बाघेल तीन बार लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं व मौजूदा समय में राज्यसभा के अध्यक्ष हैं। उन्होंने आयोजकों को धन्यवाद देते हुए कहा कि मंच के कुछ कार्यक्रमों में शामिल होने से उन्हें वनाधिकार जैसे गंभीर मुद्दे से रू-ब-रू होने का मौका मिला है। उन्होंने कहा कि वे पुलिस सेवा में थे जहां पर वे जब भी किसी हत्या की जांच करते थे तो सबसे पहले इस सवाल पर सोचते थे कि उक्त व्यक्ति की हत्या से सबसे ज्यादा किस का फायदा होगा। इसलिए वनाधिकार के सवाल पर भी यह जांचने की जरूरत है कि वनाधिकार कानून को लागू न होना किस के हित में है और वो जाहिर है कि हित तो वनविभाग का ही है। इसलिए वनविभाग के हितों पर हमला करना जरूरी है। यह तो ऐसा हुआ जैसे दूध की रखवाली बिल्ली को दे दी और यहीं वनों के साथ हो रहा है जिसकी रखवाली वनविभाग को दे दी है। उन्होंने कहा कि इस विषय पर वे कई सांसदों की बैठक बुलाएंगे व संसद के अंदर और बाहर इस मुहिम को चलाने में वनाश्रित समुदाय और जनसंगठनों का साथ देगें।

कार्यक्रम के अंत में अध्क्षीय भाषण देते हुए जारजुम एटे ने कहा कि वास्तव में वनों की लड़ाई अंतरराष्ट्रीय पूंजी से है इसलिए पूंजी की राजनीति को समझना काफी जरूरी है। भारत सरकार के साथ इस मुददे पर राजनैतिक बहस शुरू करने का वक्त आ गया है। वनाधिकार की लड़ाई आज केवल वनाश्रित समुदायों को कुछ जमीन देने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह वास्तव में पूंजी के विरूद्ध लड़ाई है। यह कानून यूपीए सरकार ने लागू किया है लेकिन उत्तर प्रदेश को छोड़कर राजनैतिक रूप से यूपीए शासित प्रदेशों में इस कानून के लागू करने की प्रक्रिया काफी ढीली है। इसलिए राजनैतिक पहल काफी जरूरी है इसके लिए कहीं प्यार से तो कहीं दबाव दोनों ही रणनीति अपना कर अपने मकसद तक हमें पहुंचना चाहिए। अंत में उन्होंने सब को धन्यवाद देते हुए कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की।

इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच के महासचिव अशोक चौधरी, संगठन मंत्री रोमा व मंच के विभिन्न राज्यों से 16 सदस्य व राष्ट्रीय समिति के सदस्य भी उपस्थित थे।

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