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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, March 27, 2013

सर्वस्वहाराओं के मसीहा:डॉ.आंबेडकर

      मित्रों !चंडीगढ़ के भकना भवन में गत 12-15 मार्च,2013 तक 'जाति विमर्श और मार्क्सवाद' पर पांच दिवसीय संगोष्ठी हुई.मार्क्सवादियों द्वारा आयोजित उस संगोष्ठी में डॉ आंबेडकर के भारतीय इतिहास में योगदान को नकारने के साथ ही दलित मुक्ति में उनकी भूमिका को भी पूरी तरह खारिज किया गया.ज़ाहिर है आंबेडकर को खारिज करने के पीछे अभीष्ट मार्क्स की छवि को दलित-बहुजन मुक्तिदाता के रूप में स्थापित करना रहा.बहरहाल डॉ.आंबेडकर को खरिज कर एक बौद्धिक उदंडता का परिचय दिया गया है,यह प्रमाणित करने के लिए ही अपना यह लेख आपको मेल/पोस्ट कर रहा हूँ-दुसाध       

                    सर्वस्वहाराओं के मसीहा:डॉ.आंबेडकर  

                        एच एल दुसाध

   अमेरिका के न्यूयार्क का कोलंबिया विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठतम  विश्वविद्यालयों में एक है.इसे 1901 से शुरू नोबेल पुरस्कारों के इतिहास के अबतक के कुल 826 में से 95  नोबेल विजेता देने का गौरव प्राप्त है.इसी विश्वविद्यालय में अज्ञानता का पुजारी और अशिक्षा का पीठस्थान भारत के एक अछूत महार को बडौदा के महाराज  सयाजीराव गायकवाड  के सौजन्य से मिला था विश्व-विद्यार्जन का दुर्लभ अवसर.करोड़ो-करोड़ों शूद्र-अतिशूद्र बहुजन समाज के सहस्रों वर्षों के वंचित व अंधकारपूर्ण जीवन के प्रतिनिधि आंबेडकर आये थे कोलंबिया विश्व विद्यालय,यह प्रमाणित करने के लिए कि ईश्वर भ्रांत है.उनको प्रमाणित करना था ,भारत की भूमि पर 'प्रतिभा' एकमात्र कथित ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों की बपौती नहीं.यह सब प्रमाणित करने के लिए वहां अवसर और परिवेश की कमी नहीं थी.समानता के सिद्धांत का व्यवहार में कैसे उपयोग होता  है,इसका अहसास युवक आंबेडकर को न्यूयार्क की धरती पर कदम रखते ही होने लगा.वहां 'स्वतंत्रता की देवी की प्रतिमा' अपने त्रयी सिद्धांतों-स्वतंत्रता,समानता एवं बंधुता - को सत्य रूप देने के लिए खड़ी थी.दुनिया उस समय तक जार्ज वाशिंग्टन,अब्राहम लिंकन,थामस जेफरसन,बुकर टी वाशिंगटन जैसे मानवतावादी नेताओं के प्रभाव से ओत-प्रोत थी.जाति के देश भारत से मनुष्यों के देश में पहुंचकर अम्बेडकर टूट पड़े ज्ञान के अमोघ अस्त्र से खुद को लैस करने में ताकि इसके जोर से शोषण,उत्पीडन और विषमता से बहुजनों को निजात दिलाया जा सके.

    दिन नहीं रात नहीं,ज्ञान की भूख की तृप्ति के लिए ,निरंतर स्वयं को डूबोये रखे,बस किताबें और किताबें पढ़ने में.भागते रहे कोलंबिया विश्व विद्यालय के कारीडर में,अध्यापकों के पीछे-पीछे.राजा का दिया धन और उनका खुद का समय सिमित था.इसलिए प्रायः निद्रा और आहारहीन रहकर  प्रतिदिन अट्ठारह-अट्ठारह घंटे पढ़ाई करते रहे.

दो वर्ष के अक्लांत परिश्रम और अनुसन्धान के बाद आंबेडकर ने 1915 में 'प्राचीन भारत में वाणिज्य'विषयक थीसिस लिखकर कोलंबिया विश्व विद्यालय से एम.ए.की डिग्री अर्जित कर ली.उन्होंने मई 1916 में डॉ.गोल्डन वेझर अन्थ्रापोलिजी सेमिनार में'भारत में जातियां,उनकी संरचना,उत्पत्ति और विकास'नामक स्वरचित शोध-पत्र पढ़ा.उसी वर्ष जून में उन्होंने पीएचडी के लिए 'नेशनल डिविडेंड फार इंडिया:ए हिस्टोरिक एंड एनालिटीकल स्टडी' जमा किया .इसी थीसिस के आधार पर कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ फिलोसफी से भूषित किया और वे आंबेडकर से डॉ.आंबेडकर बन गए.डॉ आंबेडकर यहीं नहीं थमे.कालांतर में उन्होंने एमएससी,डीएससी (लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स),बारएटला(ग्रे इन लन्दन),एलएलडी(कोलंबिया विवि) और डीलीट(उस्मनिया) की भी डिग्री हासिल कर यह साबित कर ही दिया कि जो हिंदू धर्म-शास्त्र-ईश्वर यह कहते हैं कि शूद्र –अतिशूद्रों में सिर्फ दासत्व गुण होता है,वे पूरी तरह भ्रांत हैं.

   बहरहाल अमेरिका के जिस कोलंबिया विश्वविद्यालय में असाधारण ज्ञानी डॉ आंबेडकर का उदय हुआ ,उसमें डॉ.आंबेडकर की याद  में 24 अक्तूबर,1995 को उनकी मूर्ति का अनावरण किया गया.परवर्तीकाल में जब 2004 में कोलंबिया विश्व विद्यालय की स्थापना की 250 वीं वर्षगांठ मनाई गयी,तब 'स्कूल ऑफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स(सीपा) की और से कई कार्ड जरी किये गए,जिसमे विश्वविद्यालय के 250 सौ सालों के इतिहास के ऐसे 40 महत्त्वपूर्ण लोगों के नाम थे जिन्होंने यहाँ अध्ययन किया तथा 'दुनिया प्रभावशाली ढंग से बदलने'में महत्वपूर्ण  योगदान किया .ऐसे लोगों में डॉ.आंबेडकर का नाम पहले स्थान पर था.यहां एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है,वह यह कि क्या डॉ.आंबेडकर दुनिया को बदलने वाले सिर्फ कोलंबिया विवि से संबद्ध लोगों में ही श्रेष्ठ थे या उससे बाहर भी?                   

     जहां तक दुनिया में प्रभावी बदलाव का सवाल है उसकी शुरुवात जर्मन शूद्र संतान मार्टिन लूथर की धार्मिक क्रांति के बाद से होती है.यूरोप में मार्टिन लूथर के नेतृत्व में बुद्धिवादी प्रोटेस्टेंटो के विचारों की विजय के बाद सारे उत्तरी-पश्चिमी यूरोप में क्रांति का परचम लहरा उठा.सबसे पहले वहां वैज्ञानिक क्रांति हुई,जिसके अग्रदूत थे लेओनार्दो विंसी,कोपर्निकस,ब्रूनो,गैलेलियो,जिन्होंने अपनी खोजों से 'ब्रह्माण्ड' के विषय में सदियों पुरानी धार्मिक मान्यताओं को  खंड-खंड कर दिया.अपने पूर्ववर्ती मनीषियों के निष्कर्षों को आधार बनाकर आइजक न्यूटन ने 'सार्वजनिक गुरुत्वाकर्षण'(यूनिवर्सल ग्रेविटेशन) सिद्धांत का प्रतिपादन कर यह साबित कर दिया कि पृथ्वी कोई ईश्वरीय सृष्टि नहीं,अपितु एक ऐसी चीज है जो प्रकृति के सुव्यवस्थित नियम के अनुसार गतिमान है.उनके द्वारा सारी दुनिया ने जाना कि गतिमान ग्रह सर्वत्र कायम गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही इधर-उधर न भागकर अपनी कक्षा में स्थिर रहते हैं.इस सिद्धांत ने अंतरिक्ष विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया.कोपर्निकस के स्कूल सह्पाठी जीरो लामो फ्रांकास्टोरो तथा अंग्रेज वैज्ञानिक विलियम हार्वे ने शरीर क्रिया की दैविक अवधारणाओं को ध्वस्त कर चिकित्सा जगत में क्रांति घटित कर दी.  

   धर्मों के फैलाये अंधकार को चीरने के लिए पश्चिम के मनीषियों ने जिस वैज्ञानिक क्रांति को जन्म दिया ,उसी के गर्भ से जन्म हुआ औद्योगिक क्रांति का जिसके मूल में रहे जेम्सवाट और जार्ज स्टीफेंसन.जेम्सवाट ने जहां शक्तिशाली 'इंजन' को जन्म दिया वहीँ  स्टीफेंसन ने धरती की छाती पर दौड़ा दिया,'रेल इंजन'.वैज्ञानिक उपकरणों के कल-कारखानों और कृषि क्षेत्र में प्रयोग से हुई बेतहाश वृद्धि ने जन्म दिया उत्पादों के खपत की समस्या को.इससे निजात दिलाने के लिए नए-नए देशों की खोज में निकल पड़े जान व सेवेस्टाइन कैबेट,ड्रेक हाकिंस,फ्लेशियर,बार्थेल्मू डियाज,,वास्को दी गामा,कोलम्बस,मैगेलेन जैसे साहसी नाविक .इन्होने दिल दहला देनेवाली समुद्र की लहरों और क्षितिज को पार कर आविष्कार कर डाला नई-नई दुनिया-अमेरिका,आस्ट्रेलिया,अफ्रीका इत्यादि जैसे देश.व्यापर को नई-नई दुनिया का विशाल बाज़ार सुलभ होने के बाद ही दुनिया में वैपल्विक परिवर्तन आया.      

  किन्तु प्रकृति की प्रतिकूलता को जय कर मानव-जाति को भूरि-भूरि उपकृत करने के बावजूद भी उपरोक्त मनीषियों को दुनिया बदलने वालों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. इसमें तो उन महामानवों को शुमार किया जाता है जिन्होंने ऐसे समाज-जिसमें लेश मात्र भी लूट-खसूट,शोषण-उत्पीडन नहीं होगा;जिसमें मानव-मानव समान होंगे तथा उनमें आर्थिक विषमता नहीं होगी-का न सिर्फ सपना देखा,बल्कि उस सपने को मूर्त रूप देने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया. ऐसे लोगों में बुद्ध,मज्दक,अफलातून,सैनेका,हाब्स-लाक,रूसो-वाल्टेयर,पीटर चेम्बरलैंड,टामस स्पेन्स,विलियम गाडविन,फुरिये,प्रूधो,चार्ल्सहाल,राबर्ट ऑवेन,मार्क्स,लिंकन,लेनिन,माओ,आंबेडकर इत्यादि की गिनती होती है. ऐसे महापुरुषों में बहुसंख्य लोग कार्ल मार्क्स को ही सर्वोतम मानते है.ऐसे लोगों का दृढ़ विश्वास रहा है कि मार्क्स पहला व्यक्ति था जिसने विषमता की समस्या का हल निकालने का वैज्ञानिक ढंग निकाला;इस रोग का बारीकी के साथ निदान किया और उसकी औषधि को भी परख कर देखा.किन्तु मार्क्स को  सर्वश्रेष्ठ विचारक माननेवालों ने कभी उसकी सीमाबद्धता को परखने कि कोशिश नहीं की.मार्क्स ने जिस आर्थिक गैर-बराबरी के खात्मे का वैज्ञानिक सूत्र दिया उसकी उत्पत्ति साइंस और टेक्नालोजी के कारणों से होती रही रही है.उसने जन्मगत कारणों से उपजी शोषण और विषमता की समस्या को समझा ही नहीं.जबकि सचाई यह है कि मानव-सभ्यता के विकास की शुरुवात से ही मुख्यतः जन्मगत कारणों से ही सारी दुनिया में विषमता का साम्राज्य कायम रहा जो आज भी काफी हद तक अटूट है.इस कारण ही सारी दुनिया में महिला अशक्तिकरण हुआ.इस कारण ही नीग्रो जाति को पशुवत इस्तेमाल होना पड़ा.इस कारण ही भारत के दलित-पिछड़े हजारों साल से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक)से पूरी तरह शून्य रहे.

  दरअसल तत्कालीन यूरोप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पूंजीवाद के विस्तार ने वहां के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष इतना भयावह आर्थिक संकट खड़ा कर दिया कि मार्क्स पूंजीवाद का ध्वंस और समाजवाद की स्थापना को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाये बिना नहीं रह सके.इस कार्य में वे जूनून की हद तक इस कदर डूबे कि जन्मगत आधार पर शोषण,जिसका चरम प्रतिबिम्बन भारत की जाति-भेद और अमेरिका-दक्षिण अफ्रीका की नस्ल-भेद व्यवस्था में हुआ,शिद्दत के साथ महसूस न कर सके.पूंजीवादी व्यवस्था में जहाँ मुट्ठी भर धनपति शोषक की भूमिका में उभरता है वहीँ जाति और नस्लभेद व्यवस्था में एक पूरा का पूरा समाज शोषक तो दूसरा शोषित के रूप में नज़र आते हैं.भारत में ऐसे शोषकों की संख्या 15 प्रतिशत और शोषितों की 85 प्रतिशत रही.जबकि अमेरिका में लगभग पूरा का पूरा गोरा समाज ही ,जिसकी संख्या 70 प्रतिशत रही,अश्वेतों के खिलाफ शोषक की भूमिका में दंडायमान रहा.पूंजीपति तो सिर्फ सभ्यतर तरीके से आर्थिक शोषण करते रहे हैं,जबकि जाति और रंगभेद व्यवस्था के शोषक अकल्पनीय निर्ममता से आर्थिक शोषण करने के साथ ही शोषितों की मानवीय सत्ता को पशुतुल्य मानने की मानसिकता से पुष्ट रहे.खैर जन्मगत आधार पर शोषण से उपजी विषमता के खात्मे का जो सूत्र न मार्क्स न दे सका,इतिहास ने वह बोझ डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर डाल दिया,जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज़ में निर्वहन किया.

  जन्माधारित शोषण- का सबसे बड़ा दृष्टान्त भारत की जाति-भेद व्यवस्था में स्थापित हुआ.भारत में सहस्रों वर्षों से आर्थिक और सामाजिक विषमता के मूल में रही है सिर्फ और सिर्फ वर्ण-व्यवस्था.इसमे अध्ययन-अध्यापन,पौरोहित्य,राज्य संचालन में मंत्रणादान,राज्य-संचालन,सैन्य वृति,व्यवसाय-वाणिज्य इत्यादि के अधिकार सिर्फ ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के हिस्से में रहे .चूँकि इस व्यवस्था में ये सारे अधिकार जाति/वर्ण सूत्र से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होते रहे इसलिए वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण –व्यवस्था का रूप ले लिया,जिसे हिंदू आरक्षण-व्यवस्था का नाम दिया जा सकता है.इस हिंदू आरक्षण में दलित-पिछडों के साथ खुद सवर्णों की महिलाएं तक शक्ति के सभी स्रोतों से पूरी तरह दूर रखीं गयीं.

   हिंदू आरक्षण के वंचितों में अस्पृश्यों की स्थिति मार्क्स के सर्वहाराओं से भी बहुत बदतर थी.मार्क्स के सर्वहारा सिर्फ आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे,पर राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक क्रियाकलाप उनके लिए मुक्त थे.विपरीत उनके भारत के दलित सर्वस्वहारा थे जिनके लिए आर्थिक,राजनीतिक,धार्मिक और शैक्षणिक गतिविधियां धर्मादेशों से पूरी तरह निषिद्ध थीं.यही नहीं लोग उनकी छाया तक से दूर रहते थे.ऐसी स्थिति दुनिया किसी भी मानव समुदाय की कभी नहीं रही.यूरोप के कई देशो की मिलित आबादी और संयुक्त राज्य अमेरिका के समपरिमाण संख्यक सम्पूर्ण अधिकारविहीन इन्ही मानवेतरों की जिंदगी में सुखद बदलाव लाने का असंभव सा संकल्प लिया था डॉ.आंबेडकर ने.किस तरह तमाम प्रतिकूलताओं से जूझते हुए दलित मुक्ति का स्वर्णीय  अध्याय रचा,वह एक इतिहास है जिससे हमसब भली भांति वाकिफ हैं.

    डॉ.आंबेडकर ने दुनिया को बदलने के लिए किया क्या?उन्होंने हिंदू आरक्षण के तहत सदियों शक्ति के सभी स्रोतों से बहिष्कृत किये गए मानवेतरों के लिए संविधान में आरक्षण के सहारे शक्ति के कुछ स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक) में संख्यानुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराया.परिणाम चमत्कारिक रहा.जिन दलितों के लिए  कल्पना करना दुष्कर था,वे झुन्ड के झुण्ड एमएलए,एमपी,आईएएस,पीसीएस डाक्टर,इंजिनियर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा जुड़ने लगे.दलितों की तरह ही दुनिया के दूसरे जन्मजात सर्वस्वहाराओं-अश्वेतों,महिलाओं इत्यादि-को जबरन शक्ति के स्रोतों दूर रखा गया.भारत में अम्बेडकरी आरक्षण के ,आंशिक रूप से ही सही,सफल प्रयोग ने दूसरे देशों के सर्वहाराओं के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए.अम्बेडकरी प्रतिनिधित्व(आरक्षण)का प्रयोग अमेरिका,इंग्लैण्ड,आस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड,मलेशिया,आयरलैंड ने अपने –अपने देश के जन्मजात वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी देने के लिए किया.इस आरक्षण ने तो दक्षिण अफ्रीका में क्रांति ही घटित कर दिया.वहां जिन 9-10प्रतिशत गोरों का शक्ति के समस्त  केन्द्रों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था ,वे अब अपने संख्यानुपात पर सिमट रहे है,वहीँ सदियों के वंचित मंडेला के लोग अब हर क्षेत्र में अपने संख्यानुपात में भागीदारी पाने लगे हैं.इसी आरक्षण के सहारे सारी दुनिया में महिलाओं को राजनीति इत्यादि   में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने का अभियान जारी है.यह सही है कि  सम्पूर्ण विश्व में ही अम्बेडकरी आरक्षण ने जन्मजात सर्वस्वहाराओं के जीवन में भारी बदलाव लाया है.पर अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकि है.अभी भी शक्ति के सभी स्रोतों में मुक्कमल रूप से अम्बेडकरी प्रतिनिधित्व का सिद्धांत लागू नहीं हुआ है,यहाँ तक कि  अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में भी.इसके लिए लड़ाई जारी है और जब ऐसा हो जायेगा,फिर इस सवाल पर माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी कि दुनिया को सबसे प्रभावशाली तरीके से बदलने वाला कौन?

  दिनांक:27 मार्च,2013.                            

   (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के संस्थापक अध्यक्ष हैं)


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