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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, September 26, 2013

बांग्लादेश के युद्ध अपराधी

बांग्लादेश के युद्ध अपराधी

Tuesday, 24 September 2013 10:45

खुर्शीद अनवर 
जनसत्ता 24 सितंबर, 2013 : बांग्लादेश में युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने जैसे ही दिलावर हुसैन सईदी को सजाए-मौत सुनाई, जमात-ए-इस्लामी की महासचिव मोती-उर्रहमान निजामी ने सजा-ए-मौत की सिरे से मुखालफत शुरू कर दी।

अट्ठाईस फरवरी को अपने बयान में निजामी ने कहा कि जमात-ए-इस्लामी सजा-ए-मौत की मुखालफत करती है और दुनिया के कई देशों की तरह बांग्लादेश में भी सजा-ए-मौत पर पाबंदी लगनी चाहिए। अजीब रुख अपनाया जमात-ए-इस्लामी ने। दिलावर हुसैन सईदी को सजा-ए-मौत न हो इसलिए जमात-ए-इस्लामी ने सजा-ए-मौत की ही मुखालफत शुरू कर दी। सत्रह सितंबर को कादिर मुल्ला को सजा-ए-मौत सुनाए जाने के बाद अठारह और उन्नीस सितंबर को जमात-ए-इस्लामी के सहयोगी हिफाजत-ए-इस्लाम और छात्र शिबिर ने सजा-ए-मौत के खिलाफ ढाका और बांग्लादेश के अन्य शहरों में प्रदर्शन शुरू कर दिए। कौन हैं ये लोग, जिन्हें मौत की सजा दी गई?
अविभाजित पाकिस्तान में 1970 में जब पहले लोकतांत्रिक चुनाव हुए तो अवामी लीग को 160 सीटें मिलीं, और दूसरे नंबर पर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी रही, जिसे कुल 81 सीटें मिलीं। लेकिन पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट््टो ने अवामी लीग की सरकार न बनने देने की ठान ली। यहिया खान ने शेख मुजीबुर्रहमान को वार्ता के लिए बुलाया। इसी दौरान मौलाना मौदूदी के नेतृत्व में अलग से चुनाव लड़ी जमात-ए-इस्लामी- जिसे मात्र चार सीटें मिली थीं- यहिया खान से जा मिली। यहिया खान से मौलाना मौदूदी की मुलाकात में दिलावर हुसैन सईदी भी शामिल था जो अवामी लीग का कट््टर विरोधी था और मौलाना मौदूदी का बांग्लादेशी एजेंट भी। 
अंतत: वार्ता के बजाय शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके तुरंत बाद दिलावर हुसैन सईदी फौरन ढाका वापस आया। मार्च का महीना आते-आते पूर्वी पाकिस्तान में रोष इतना फैल चुका था कि हर रोज ढाका और अन्य शहरों की सड़कें इंसानी हुजूम में दब जाती थीं। फिर आई पच्चीस मार्च की स्याह रात। ऐसी रात, जिसकी मिसालें दुनिया के इतिहास में बहुत कम दिखाई देती हैं। पाकिस्तानी फौजों ने इसी रात 'सर्च लाइट आॅपरेशन' शुरू किया और एक रात में दस हजार से ज्यादा लोग मौत के घाट उतार दिए गए। सर्च लाइट आॅपरेशन पाकिस्तानी सेना के अकेले के बस का रोग न था, लिहाजा फौरन जमात-ए-इस्लामी ने अपनी भूमिका निभानी शुरू कर दी। गैर-मुसलिमों, मुसलिम बुद्धिजीवियों, छात्रों और युवाओं की पहचान करने में जिस आदमी ने उस रात सबसे बड़ी भूमिका निभाई उसका नाम है दिलावर हुसैन सईदी। 
उस समय तीस वर्ष का यह युवक बांग्लादेश में मौलाना मौदूदी की आंख बन कर काम कर रहा था। खून का यह खेल जो आॅपरेशन सर्च लाइट से शुरू हुआ तो 14 दिसंबर, 1971 तक लगातार चलता ही रहा। तीस लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई और लगभग तीन लाख औरतें बलात्कार का शिकार हुर्इं। बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी की मुखालफत करने और मौत का तांडव रचने में किसी और का नहीं जमात-ए-इस्लामी का ही हाथ था। तीस लाख लोगों के कत्ल और तीन लाख औरतों के बलात्कार के लिए जिम्मेवार जब फांसी की सजा की मुखालफत करें तो इसे हास्यास्पद नहीं तो और क्या कहा जाए! 
यह वही जमात-ए-इस्लामी है जिसके शीर्ष नेता मौलाना मौदूदी ने लाहौर में 1953 में अहमदिया मुसलमानों का कत्लेआम करवाया था और उसे भी मौत की सजा हुई थी। लेकिन हमेशा से पाकिस्तान के आका रहे सऊदी अरब के हस्तक्षेप पर मौदूदी की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला गया और फिर वह सजा भी रद््द हुई और इसी जमात-ए-इस्लामी ने पूर्वी पाकिस्तान की सड़कों को खून का समंदर बना दिया था। आज ये मानवाधिकार की दुहाई देते हैं! यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जमात-ए-इस्लामी के शीर्षस्थ नेता मौदूदी ने पाकिस्तान समेत दुनिया भर में शरिया कानून नाफिज करने का सपना देखा था। 
अपनी किताब 'जिहाद-ए-इस्लाम' में मौदूदी लिखते हैं ''इस्लाम चाहता है कि तमाम गैर-इस्लामी विचारों को कुचल दिया जाए और कुरान की मुखालफत करने वाले लोगों का जमीन से सफाया कर दिया जाए।'' मतलब इस जमीन पर रहने का हक  मौदूदी और जमात-ए-इस्लामी की नजर में केवल मुसलमानों को है, वह भी एक खास किस्म के मुसलमानों को। कौन हैं ये मुसलमान, जिन्हें इस जमीन पर रहने का हक  जमात-ए-इस्लामी और उनकी विचारधारा देती है? अहमदिया का कत्लेआम तो खुद मौदूदी ने करवाया। शिया, बोहरा, कादियानी, ये सारे के सारे तो इस्लाम के दायरे से खारिज हो ही चुके हैं, बचे जमाती और वहाबी मुसलमान, जिनको जमात-ए-इस्लामी प्रमाणपत्र देती है कि जमीन उनकी है और इस पर रहने का अधिकर भी उन्हीं का है। मौजूदा जमात-ए-इस्लामी (बांग्लादेश) को उपरोक्त संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। 1971 के जमाती-रजाकार आज हिफाजत-ए-इस्लाम के रूप में उभर कर आए हैं। 
इनका छात्र मोर्चा, छात्र शिबिर इन्हीं रजाकारों का दायां हाथ है जिसने फरवरी से लेकर आज तक बांग्लादेश को अपनी चपेट में लिया हुआ है। जैसा कि हर धर्मांध आंदोलन करता आया है, बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी ने अपनी राजनीतिक मजबूती के लिए बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का दामन पकड़ रखा है। हालांकि अठारह और उन्नीस सितंबर को जमात के आम हड़ताल के आवाह्न में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी शामिल नहीं हुई लेकिन फरवरी से लेकर अब तक इस पार्टी के कार्यकर्ता जमात की हर हड़ताल में शामिल होते आए हैं। 
सत्तारूढ़ अवामी लीग को किसी प्रकार जनवादी पार्टी की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह जरूर है कि अवामी लीग ने कुछ ऐसे कदम उठाए जिनसे जमात-ए-इस्लामी और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी को बड़ा आघात पहुंचा। 25 मार्च, 1910 को गठित युद्ध अपराध न्यायाधिकरण के अलावा अवामी लीग ने कुछ ऐसे कदम उठाए जो जमात-ए-इस्लामी और सऊदी अरब की नजर में उनके ब्रांड के इस्लाम के खिलाफ थे। 8 मार्च, 2011 को शेख हसीना ने महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं की आजादी, उनके काम के अधिकार, सार्वजनिक क्षेत्रों में उन्हें नौकरियां देने और सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनकी बराबर की हकदारी का एलान किया। 

इसके अगले ही दिन जमात-ए-इस्लामी ने शेख हसीना की भर्त्सना करते हुए इसे इस्लाम-विरोधी कदम करार दिया और एलान किया कि वे ऐसे कार्यक्रम लागू नहीं होने देंगे। इनके सहयोगी संगठन हिफाजत-ए-इस्लाम ने इसके विरोध में ढाका में एक विशाल रैली की, जिसमें न केवल सरकारी संस्थाओं पर हमले हुए बल्कि सड़क पर मौजूद किसी भी महिला को पकड़ कर उसे बेइज्जत किया गया। लेकिन फिलहाल इनके तांडव का मुख्य केंद्र उत्तरी बांग्लादेश है। उत्तरी बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी, हिफाजत-ए-इस्लाम और छात्र शिबिर ने पिछले छह महीनों से बेहद आक्रामक रुख अपना रखा है। 
शाहबाग आंदोलन की शुरुआत के साथ ही जमात-ए-इस्लामी ने फरवरी से लेकर अब तक ढाका समेत पूरे बांग्लादेश को हड़ताल की गिरफ्त में ले रखा है। युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने जिन बारह आरोपियों पर कार्रवाई की है वे सभी जमात-ए-इस्लामी से ही संबद्ध हैं। शाहबाग आंदोलन के दौरान जब पूरे मार्च महीने में मुक्ति वाहिनी के योद्धाओं की विधवाएं, बूढ़ी मांएं, बेटियां, बूढ़े बाप या जवान बेटे इंसाफ की मांग लेकर दिन-रात शाहबाग चौक पर आंदोलन कर रहे थे तो उसी समय छात्र शिबिर और हिफाजत-ए-इस्लाम के 'नए रजाकार' इन लोगों के घरों पर हमले कर रहे थे। 
शाहबाग आंदोलन के लिए ब्लॉग चलाने वाला नौजवान अहमद राजीव हैदर छात्र शिबिर के हाथों मौत के घाट उतार दिया गया। आंदोलनकारियों ने हैदर की लाश शाहबाग चौक के बीचोंबीच लाकर रख दी। पंद्रह मार्च को तीन लाख से ज्यादा लोग ब्लॉगर हैदर को श्रद्धांजलि देने शाहबाग चौक पहुंचे। इसी दौरान शाहबाग आंदोलन शाहबाग चौक से भी आगे बढ़ कर ढाका की सड़कों और गलियों तक फैल गया। रजाकारों ने इन बहादुरों के खिलाफ जगह-जगह मार्चे तैयार किए। 
जमात-ए-इस्लामी के ये रजाकार गुंडे इंसाफ की मांग कर रहे लोगों पर देसी बम और पत्थरों की बारिश करते रहे। लाखों लोगों के कत्ल के लिए जिम्मेवार दिलावर हुसैन सईदी को मौत से बचाने के लिए ये इस्लामी ठेकेदार फिर मौत का खेल खेलने लगे, और दुहाई मानवाधिकार की! एलान इस बात का कि हम मौत की सजा के खिलाफ हैं! 
जमात-ए-इस्लामी के अत्याचारों की पराकाष्ठा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बांग्लादेश का नारी आंदोलन, जो शुरू से ही सजा-ए-मौत के खिलाफ रहा है, उसने बयान दिया कि हां हम सजा-ए-मौत के खिलाफ आज भी हैं लेकिन जमात के रजाकारों के गुनाह इतने बड़े हैं कि हम दिलावर हुसैन सईदी की सजा-ए-मौत का विरोध नहीं करेंगे। शाहबाग आंदोलन के जन-जागरण मंच ने चौक से एलान किया कि जीने का हक सबको है लेकिन हम इन बारह जघन्य अपराधियों के लिए फांसी की सजा का समर्थन करते हैं। इस संगठन का इतिहास खून में डूबा हुआ है। 1941 से लेकर आज तक भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी यही खूनी खेल खेलती आई है। इनके मदरसे मासूम बच्चों के दिमागों में जहर भरते हैं जो आगे चल कर कट््टरपंथ की राह पकड़ लेते हैं। 
इसे संयोग कहा जाए या कुछ और, कि इनके काम करने का तरीका ठीक वैसा ही है जैसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। हिफाजत-ए-इस्लाम का काम वही है जो हमारे यहां बजरंग दल करता है। छात्र शिबिर का काम वही है जो भूमिका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद निभाती है। हिफाजत-ए-इस्लाम के लोग बजरंग दल की तर्ज पर हथियारों से लैस चलते हैं और किसी भी हद तक जाने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। छात्र शिबिर के लोग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में आतंक मचाते हैं और वह भी खुलेआम हथियारबंद होकर। कादिर मुल्ला को सजा-ए-मौत सुनाए जाने के बाद एक बार फिर जमात-ए-इस्लामी ने हड़तालों का दौर शुरू किया है। दो दिन की हड़ताल में ढाका के अंदर दो मौतें हुर्इं, वह भी गरीब रिक्शाचालकों की। उनका कसूर यह था कि हड़ताल के दिन भी वे रोजी कमाने निकले थे। 
जमात-ए-इस्लामी वहाबियों की तर्ज पर भी इस्लाम की नए सिरे से व्याख्या कर रही है, जिसके सूत्र मौदूदी की किताब जिहाद-ए-इस्लामी में मौजूद हैं। हुकूमत-ए-इलाहिया के नाम पर ये इंसानियत के मुंह पर कालिख पोतने निकले हैं और नारा है मानवाधिकार का। एलान है कि हम सजा-ए-मौत के खिलाफ हैं! जिन लोगों के हाथ सिर्फ एक देश के अंदर तीस लाख लोगों के खून से रंगे हों, जो पाकिस्तानी सेना के साथ मिल कर कराए गए, जिनके माथे पर लिखा हो कि तीन लाख औरतों के बलात्कार के मुजरिम हैं, वे निकले हैं मानवाधिकार का लिबास पहन कर सजा-ए-मौत की मुखालफत हथगोलों, चाकुओं और अन्य असलहों के सहारे करने! अगर इनकी कोशिशें कामयाब हुर्इं तो बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन की सारी कुर्बानियां बेकार जाएंगी और उसका गौरवशाली इतिहास स्याह भविष्य में डूब जाएगा।

 

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