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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, February 12, 2014

गोरखालैंड आंदोलन : संघर्ष जारी है गोरखालैंड आंदोलन : संघर्ष जारी है

गोरखालैंड आंदोलन : संघर्ष जारी है

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बिर्ख खडका डुवर्सेली

Gorkhaland_mapसन् 2014 के लोकसभा चुनाव में सत्ता हासिल करने का लक्ष्य रखते हुए राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने तेलंगाना राज्य गठन करने की स्वीकृति देते ही देश के विभिन्न भागों में पृथक राज्य के लिए हो रहे आंदोलनों को ऊर्जा और प्रेरणा एक साथ मिली। एक शताब्दी से भी पुराना हो चुके गोर्खालैंड आंदोलन ने तो उग्र रूप ले लिया है। चार दिशाओं में लगभग चार अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरा गोर्खालैंड का इलाका कई दृष्टियों से गुरुत्वपूर्ण होने के कारण और इसके 

भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषिक तथा ऐतिहासिक तथ्यों को विचार कर समस्या को जटिल और विकराल होने की स्थिति में पहुंचाना राष्ट्रीय भूल ही माना जाएगा। लेकिन जाति विशेष और राजनीतिक आंकड़ों के पहियों पर चलने वाली देश की राजनीति सत्तारूढ़ दल के हित और जाति के आधार पर बने राज्य के प्रभुत्व और वर्चस्व को स्वीकार करती है, जिसके कारण गोर्खालैंड का आंदोलन हर दो दशक की अवधि में उग्र होता रहा है और समझौतों की मार से शांत हो जाता है। बीसवीं सदी के पहले दशक, 1907 में सर्व प्रथम नेपाली, भूटिया और लेप्चाओं ने मिलकर ब्रिटिश सरकार के समक्ष अलग राज्य और शासन व्यवस्था के लिए अर्जी पेश की थी। आंदोलन का लंबा इतिहास है जो यह साबित करने के लिए काफी है कि इस इलाके के लोग कलकत्ते में बने कानून और व्यवस्था की जंजीर से मुक्त होना चाहते हैं।

1917 में गठित हिलमैन्स एसोशिएशन की ओर से तत्कालीन सचिव, एडविन मोनटेग को भेजे गए आवेदनपत्र में दार्जिलिंग और बंगाल के बीच उस समय की भाषिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा धार्मिक विभिन्नता का जिक्र किया गया था। आवेदन में कहा गया था:

"दार्जिलिंग का बंगाल में मिलाया जाना तुलनात्मक रूप से हाल का ही है। और चूंकि ब्रिटिश दोनों स्थान के शासक हैं। …ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, जातीय, सामाजिक, धार्मिक, भाषाई किसी भी रूप में बंगाल और दार्जिलिंग में कोई समानता नहीं है।"

उस आवेदनपत्र में यह भी उल्लेख किया गया है:

"भविष्य भी योजना बनाते हुए सरकार को एक अलग इकाई बनाने का लक्ष्य रखना चाहिए जिसमें दार्जिलिंग जिले के साथ जलपाईगुड़ी जिले का हिस्सा भी शामिल रहे जिसे भूटान से 1865 में लिया गया था।"

ब्रिटिश सरकार और आजादी के बाद भारत सरकार को निरंतर स्मरणपत्र देकर अलग राज्य की मांग की जाती रही। यहां तक कि 6 अप्रैल 1947 को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (भाकपा) की दार्जिलिंग जिला इकाई ने भारत के अंतरिम सरकार के उपराष्ट्रपति जवाहरलाल नेहरू और वित्तमंत्री लियाकत अली खान के समक्ष 'गोर्खास्थान' बनाने की मांग की थी। 'गोर्खास्थान' में दार्जिलिंग जिला, सिक्किम का दक्षिण भाग और नेपाल के कुछ भाग शामिल किए जाने का सुझाव दिया गया था।

अस्सी के दशक में प्रांत परिषद ने वरिष्ठ साहित्यकार इंद्र बहादुर राई की अध्यक्षता में पृथक राज्य की मांग करके आंदोलन भटका और 4 जनवरी 1982 को गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को पत्र लिखकर दार्जिलिंग और जलपाइगुड़ी को संयुक्त करके गोर्खालैंड गठन करने की मांग की गई थी। इसी दशक में सुभाष घिसिंग के नेतृत्व में गोर्खा नेशनल लिब्रेशन फ्रंट (गोर्खा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा) अर्थात् गोरामुमो ने जोरदार आंदोलन शुरू किया तो लगभग 1, 200 लोगों को शहीद होना पड़ा। तब वाम मोर्चा की सरकार ने मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नेतृत्व में आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस बल का भरपूर इस्तेमाल किया। उन दिनों पहाड़ी इलाकों में लगातार 40 दिनों तक अनशन और हड़ताल का माहौल बना रहा। सन् 1987 में पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव का बहिष्कार किया गया और अनेकों मतपेटियां खाली लौट गईं।

गोरामुमो के गोर्खालैंड आंदोलन को एक त्रिपक्षीय समझौते के आधार पर शांत करने की प्रचेष्टा केंद्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से चलाई गई और 22 अगस्त 1988 को भारत सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और गोरामुमो के बीच समझौता हुआ जिसके तहत दार्जिलिंग गोर्खा हिल्स काउंसिल (दार्जिलिंग गोर्खा पार्वत्य परिषद) का गठन किया गया। पश्चिम बंगाल विधान सभा द्वारा डीजीएचसी एक्ट, 1988 पारित होने के बाद चुनाव संपन्न हुआ और सुभाष घिसिंग ने मनमाने तरीके से शासन चलाना शुरू किया। परिषद को सीमित अधिकार दिए गए थे और दार्जिलिंग जिले से सिलीगुड़ी को अलग करके सिलीगुड़ी महकुमा परिषद को जिला परिषद की क्षमता दी गई। डुवर्स का वह भूभाग परिषद में नहीं मिलाया गया जहां गोर्खा मूल के लोग ज्यादा संख्या में हैं। फिर दुबारा गोर्खालैंड के लिए आंदोलन होने लगा तो सभी काउंसिलरों ने त्यागपत्र दे दिए। तब 2007 में भारत सरकार ने पश्चिम बंगाल सरकार और अस्थायी रूप में नियुक्त परिषद के प्रशासक सुभाष घिसिंग से सहमति लेकर छठवीं अनुसूची की सुविधाएं प्रदान करने का फैसला लिया और घिसिंग प्रशासक के पद में बने रहे।

5 सितंबर, 1988 में डीजीएचसी (दागोपाय) के विषय में स्पष्टीकरण देते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने विधानसभा में कहा कि दार्जिलिंग जिले में जिला परिषद नहीं होगी। हिल काउंसिल पहाड़ी इलाकों के लिए जिला परिषद के बदले में है। तब पहाड़ के लोगों को लगा, दागोपाय गठन करके लोगों से विश्वासघात किया गया है।

भारत सरकार, पश्चिम बंगाल और दार्जिलिंग गोर्खा हिल काउंसिल के बीच भारत के संविधान छठवीं अनुसूची अंतर्गत नई परिषद बनाने का जो समझौता 5 दिसंबर 2005 हुआ था, उसमें गोर्खालैंड की मांग खारिज करने की बात स्पष्ट लिखी गई थी। पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी के समक्ष पहुंचे इस प्रस्ताव का घोर विरोध किया गया। कमेटी ने गृह मंत्रालय को इसे दो सदनों में भेजने के पहले जमीनी हकीकत समझने का सुझाव दिया।

काउंसिल के प्रशासक के पद पर विराजमान सुभाष घिसिंग और छठवीं अनुसूची के विरोध में पहाड़ की जनता सड़कों पर आई तो गोर्खा जनमुक्ति मोर्चा नामक संगठन का गठन हुआ। गोरामुमो के अध्यक्ष तथा काउंसिल के प्रशासक सुभाष घिसिंग को दार्जिलिंग छोड़कर भागना पड़ा।

विमल गुरुंग और रोशन गिरी के नेतृत्व में बने संगठन ने गोर्खालैंड के आंदोलन को नई दिशा दी और आंदोलन का स्वरूप तीव्र होता गया। लगभग तीन साल तक आंदोलन चलते रहने पर गोजमुमो राज्य सरकार से समझौता करने के लिए तैयार हो गया। तब तक पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार नहीं रही थी और तृणमूल कांगे्रस और कांगे्रस के गठबंधन में ममता बनर्जी की सरकार बन चुकी थी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सद्प्रयास में 18 जुलाई 2011 में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की उपस्थिति में केंद्र सरकार, राज्य सरकार तथा गोजमुमो के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिसके आधार पर गोर्खालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) गठित हुआ जिसमें गोर्खालैंड की मांग यथावत रखने की बात है। पश्चिम बंगाल की विधानसभा में जीटीए के बिल को 2 सितंबर 2011 में पारित किया गया। जीटीए के पास प्रशासनिक, कार्यकारी और वित्तीय क्षमता है, लेकिन वैधानिक क्षमता नहीं है। गोर्खा बहुल डुवर्स के भूभाग को शामिल न किए जाने के कारण जनगण में असंतुष्टि थी। गोजमुमो ने 396 मौजाओं को जीटीए में अंतर्मुक्त करने की मांग की तो न्यायमूर्ति श्यामल सेन कमेटी गठित की गई, लेकिन उस कमेटी ने भी केवल पांच मौजा जीटीए में शामिल करने का फैसला दिया तो गोर्खा सब तरफ भड़क उठे। तब ममता बनर्जी ने फैक्ट फाइडिंग कमेटी का गठन किया, लेकिन उसका कुछ सकारात्मक परिणाम नहीं निकला।

इसी बीच कांगे्रस वर्किंग कमेटी ने तेलंगाना राज्य की मांग को स्वीकृति देकर न्यूज चैनलों में चल रहे मोदी पुराण को गौण करके नई राजनीतिक चाल चली तो सारे देश में अलग राज्य की मांग के आंदोलन को बल मिला और व्यापक रूप में आंदोलन भड़क उठा।

गोर्खालैंड राज्य के आंदोलन को तीव्र करने के लिए 30 और 31 जुलाई पहाड़ बंद का ऐलान किया गया तो बदले में सिलीगुड़ी तथा जलपाइगुड़ी जिले के डुवर्स क्षेत्र में 'आमरा बंगाली' (हम बंगाली) 'बंगला ओ बंगला भाषा बचाओ समिति', 'जन जागरण मंच' और 'शिव सेना' ने हड़ताल की घोषणा की ताकि खाद्य-सामग्री पहाड़ की ओर ले जाने में बाधा हो।

4 अगस्त से होने वाले अनिश्चित बंद को रमजान और ईद को ध्यान में रखकर उठाने का निश्चय गोजमुमो नेतृत्व ने किया तो ईद की दुहाई देकर बंद वापस लेने की बात जब विरोधी दलों के नेताओं ने की और राज्य सरकार ने केंद्रीय अद्र्धसैनिक बल तैनात किए तो फिर अनिश्चित पहाड़ बंद की घोषणा की गई। पहाड़ के मुस्लिम संप्रदाय ने ईद गोर्खालैंड होने के बाद धूमधाम से मनाने की घोषणा करके बंद का समर्थन किया। इसके बाद से पहाड़ों में बंद समर्थकों की धड़-पकड़ चल रही है।

जब अनिश्चित हड़ताल चल रही थी तो राज्य सरकार ने सबसे पहले पूर्व सूचना दिए बिना ही स्थानीय टीवी चैनलों को बंद कर दिया। हड़ताल 10 दिन तक लगातार चली तो मुख्यमंत्री ने 72 घंटे का समय देकर यदि हड़ताल वापस नहीं ली गई तो कठोर कार्रवाही करने की चेतावनी दी। तब पहाड़ में 13 और 14 अगस्त के दिन 'जनता कफ्र्यू' की घोषणा करके मुख्यमंत्री की धमकी को अर्थहीन बनाने का काम हुआ। तृणमूल कांगे्रस, कांगे्रस, भाजपा (राज्य) और अन्य पार्टियों के नेता एक सुर में कह रहे हैं—'बंग भंग हबेना।' (बंगाल का विभाजन नहीं होगा)।

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि 2 दिसंबर 1815 में भारत-नेपाल युद्ध के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के महाराजा विक्रम शाह के बीच हुई सुगौली संधि की धारा तीन के तहत काली और राप्ति नदी के बीच की भूमि, राप्ति और गंडक नदी के बीच की भूमि, मेची तथा तिस्ता नदी के बीच की निचली जमीन तथा मेची के पूर्व के नागरी फोर्ट, नगरकोट पास, जहां गोर्खा रहते थे, ईस्ट इंडिया कंपनी को बक्स दी गई। इसके अलावा दार्जिलिंग के भूभाग को सिक्किम के राजा ने 1835 में ईस्ट इंडिया कंपनी को दिया था और 1865 में भूटान का भूभाग जो अब डुवर्स के नाम से जाना जाता है, सिन्बुला संधि के आधार पर अंग्रेजों को दिया गया था। तत्कालीन ज्योति बसु की सरकार ने सन् 1986 में 'गोर्खालैंड एजीटेशन : द इश्यू' नामक जारी श्वेतपत्र में दार्जिलिंग की जमीन सिक्किम की होने की बात स्वीकार की है।

इस बीच जीटीए के चीफ एक्जक्यूटिव पद से विमल गुरुंग ने त्यागपत्र दे दिया है। गोर्खालैंड के आंदोलन को जोरदार करने के लिए सर्वदलीय बैठक हुई जिसमें माकपा, तृणमूल कांगे्रस और गोरामुमो के प्रतिनिधि उपस्थित नहीं हुए। सर्वदलीय बैठक में गोर्खालैंड जोइंट एक्सन कमेटी गठित की गई। इस कमेटी के अध्यक्ष एनोस दास प्रधान ने आंदोलन की नई रणनीति की घोषणा करते हुए 19 अगस्त से 23 अगस्त तक 'जनता घर भित्रै' (जनता घर के भीतर ही) का ऐलान किया है।

ताज्जुब की बात इस संदर्भ में यह है कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम.के. नारायण ने 'समुद्र से पहाड़ तक बंगाल एक है, इसका विभाजन नहीं होगा' कहकर स्वयं को विवाद के घेरे में डाल दिया है। बाद में उन्होंने कहा, 'इस संबंध में मैं मध्यस्थता नहीं करूंगा।'

इसका मतलब है, आंध्रप्रदेश का विभाजन हो सकता है, वह संवैधानिक है। झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ बने तो कोई आपत्ति नहीं हुई, केवल गोर्खालैंड के लिए आपत्ति है। पहाड़ के जनगण की यही शिकायत है।

18 जुलाई, 2011 में जीटीए गठन करने के लिए हुए समझौते में लिखित विवरण के अनुसार आंदोलनकारियों के विरोध में लगाए गए मामले वापस लेने की बात थी, लेकिन आए दिन उन्हीं मामलों के आधार पर गोजमुमो के नेताओं और जीटीए के सभासदों को पकड़ा जा रहा है।

सवाल है क्या ताकत और दमन के बल पर इस तरह से जनता की सौ वर्ष पुरानी मांग को खत्म किया जा सकेगा?

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