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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, July 31, 2014

मज़दूर हितों पर एक बड़ा हमला

मज़दूर हितों पर एक बड़ा हमला

केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने पारित किया नया श्रमकानून
मुकुल

अभी विरोध के स्वर उठ भी नहीं सके थे कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने मज़दूर आबादी पर बड़ा हमला बोल दिया है। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आज "अच्छे दिन" के सौगात के तौर पर कार्पोरेट जगत के हित में श्रमकानूनों में बदलाव का प्रस्ताव पारित कर दिया। इसका मूल मंत्र है ''हायर एण्ड फायर'' यानी जब चाहो काम पर रखो, जब चाहो निकाल दो। फिलहाल फैक्ट्री अधिनियम-1948, श्रम विधि (विवरणी देने व रजिस्टर रखने से कतिपय स्थानों में छूट) अधिनियम-1988, अपरेण्टिस अधिनियम, 1961 में कुल 54 संशोधनों पारित हो गये। यह मोदी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण एजेण्डा था। राजस्थान की भाजपा सरकार पहले ही ऐसे कानून बना चुकी थी।

उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार द्वारा गुपचुप तरीके से 5 जून को फैक्ट्री अधिनियम-1948 में, 17 जून को न्यूनतम वेतन अधिनियम-1948, 23 जून को श्रम विधि (विवरणी देने व रजिस्टर रखने से कतिपय स्थानों में छूट) अधिनियम-1988 के साथ ही अपरेण्टिस अधिनियम-1961 व बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) अधिनियम-1986 में भारी संशोधन का नोटिस जारी किया था। यही नहीं, देश के महत्वपूर्ण आॅटो इण्डस्ट्री के क्षेत्र को आवश्यक सेवा में लाने का भी प्रस्ताव आ चुका है। ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 व औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में भी फेरबदल की तैयारी चल रही है।

इस मज़दूर विरोधी कदम का देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध भी हो रहा था। यही नहीं, देश की व्यापक मज़दूर आबादी को तो इसका इल्म तक नहीं था कि क्या होने जा रहा है। लेकिन सबको दरकिनार कर और मज़दूर वर्ग से बगैर सलाह-मशविरे के मोदी सरकार ने ये कारनामा कर दिया। अब तो महज संसद में इसे पारित होने की देर है और मज़दूरों को हलाल करने का कानून अस्तित्व में आ जाएगा।

"हायर एण्ड फायर" की तर्ज पर होगा नया श्रमकानून

प्रस्तावित संशोधनों में साफ तौर पर लिखा था कि "इससे काम करने वालों और उद्योग दोनो को मुक्त माहौल मिले। ...इससे तुरंत नौकरी देने व तुरंत निकालने की समस्या दूर होगी।" मतलब साफ है। प्रबन्धन को जब चाहे काम पर रखने और जब चाहे निकालने की खुली छूट होगी।
नये कानून के तहत जिस कारखाने में 300 से कम मज़दूर होंगे उसकी बन्दी, लेआॅफ या छंटनी के लिए मालिकों को सरकार से इजाजत नहीं लेनी होगी। पहले यह 100 श्रमिकों से कम संख्या वाले कारखानों पर लागू था। वैसे भी आज ज्यादातर कारखानों की स्थिति यह है कि कम्पनी इम्पलाई बेहद कम रखे जाते हैं। अधिकतर काम बेण्डरों से या ठेके पर करा लिया जाता है। मतलब यह कि मनमाने तौर पर छंटनी और कम्पनी बन्द करने का कानूनी रास्ता और खुल जाएगा। प्रस्तावों में उत्पादकता व कारोबार के कथित कमी पर मैन पाॅवर कम करने यानी मनमर्जी छंटनी की छूट भी होगी।

बदले कानून में ठेका प्रथा को मान्यता मिल जाएगी। यहाँ तक कि ठेका कानून 20 कर्मकारों की जगह 50 कर्मकारों वाले संस्थानों में लागू करने की व्यवस्था है। महिलाओं से कारखानों में प्रातः 6 बजे से सांय 7 बजे तक ही काम लेने में बदलाव के साथ उनसे नाइट शिफ्ट में भी काम लेने की छूट दी जा रही है। यही नहीं, कम्पनियों को तमाम निरीक्षणों से भी छूट देने, 10 से 40 कर्मकारों वाले कारखानों को इससे पूर्णतः मुक्त करने, कम्पनियों को श्रमविभाग या अन्य सरकारी विभागों में रिपार्ट देने में भी ढील होगी। यही नहीं, अपरेण्टिस ऐक्ट-1961 में नया प्रावधान यह बन गया है कि प्रबन्धन चाहें जो अपराध करे उसे हिरासत में नही लिया जा सकेगा।

ओवरटाइम के घण्टों में इजाफा करते हुए नये कानून के तहत विद्युत की कमी के बहाने मनमर्जी साप्ताहिक अवकाश बदलने, एक दिन में अधिकतम साढ़े दस घण्टे काम लेने को बारह घण्टा करने, किसी तिमाही में ओवरटाइम के घण्टों की संख्या 50 से बढ़ाकर 100 करने का फरमान है। वैसे भी अघोषित रूप से मनमाने ओवरटाइम की प्रथा चल रही है, जहाँ लगातार कई घण्टे खटाने के बावजूद कानूनन डबल ओवर टाइम देना लगभग खत्म हो चुका है। अब तो इसे कानूनी रूप भी मिल गया।

बदलाव की और भी कोशिशें हैं जारी

अभी तो ये बस शुरुआत है। यूनियन बनाने के नियम और कठोर करने का प्रावधान आ रहा है, जिसमें कम से कम 30 फीसदी कार्यरत श्रमिकों की भागेदारी अनिवार्य करने के साथ ही बाहरी लोगों को यूनियन सदस्य बनाने की सीमा कम करने की तैयारी है। आॅटो इण्डस्ट्रीज को आवश्यक सेवा के दायरे में लेने के प्रयास द्वारा आॅटोक्षेत्र के श्रमिकों को किसी भी विरोध या आन्दोलन के संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने की कोशिशें पिछली सरकार के समय से ही जारी हैं। मैनयूफैक्चरिंग सेक्टर (एनएमजेड) में नियमों में खुली छूट देते हुए उसे लगभग कानून मुक्त बनाने की तैयारी है। औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 को भी पंगु बनाने के प्रयास जारी हैं।

कार्पोरेट जगत से था मोदी का वायदा

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनाव पूर्व कार्पोरेट जगत से किये गये करारों में यह अहम था, इसीलिए सरकार बनते ही महत्वपूर्ण कामों में श्रमकानून में इतना भारी बदलाव हुआ। पिछले लम्बे समय से देश और दुनिया के मुनाफाखोर पुराने कानूनों को बाधा मानते रहे हैं और सरकारों पर खुली छूट देने वाले "लचीला" कानून बनाने का दबाव बनाते रहे हैं। इस मुद्देपर सारे पूँजीपति एकजुट हैं। सरकार से लेकर शाषन-प्रशासन व न्याय पलिका तक इनके हित में खड़ी हैं।
यह गौरतलब है कि 1991 में नर्सिंहा राव-मनमहोन सिंह की सरकार ने देश को वैश्विक बाजार की शक्तियों के हवाले करते हुए जनता के खून-पसीने से खड़े सार्वजनिक उपक्रम को बेचने के साथ मज़दूर अधिकारों को छीनने का दौर शुरू किया था। बाजपेई की भाजपा नीत सरकार के दौर में सबसे खतरनाक मज़दूर विरोधी द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट आई। नया श्रमकानून इसी प्रक्रिया का मूर्त रूप है।

जहाँ आज के बदलते और गतिमान दौर में मज़दूर वर्ग को और ज्यादा सहूलियतें व नौकरी की गारण्टी चाहिए, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई के दौर में सम्मानजनक वेतन चाहिए, वहाँ वहाँ मोदी सरकार ने पहले से ही मिल रहे कानूनी अधिकारों में ही डकैती डाल दी। इस बदलाव के साथ सरकार मज़दूर आबादी को एक ऐसा टूल बना देना चाहती है, जिसे इस्तेमाल करने के बाद कभी भी मालिक वर्ग फेंक सके। मज़दूरों की मेहनत के ही दम पर उत्पादन होता है और उसे ही यूज ऐण्ड थ्रो की वस्तु बनाया जा रहा है।

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